tag:blogger.com,1999:blog-8546801606266321558.post3833449808255080349..comments2023-09-07T14:15:12.897+05:30Comments on सम्यक् भारत Samyak Bharat: हिन्दी के पारिभाषिक कोश बेकार की चीज़ हैं?राहुल देव Rahul Devhttp://www.blogger.com/profile/11015122468654916646noreply@blogger.comBlogger9125tag:blogger.com,1999:blog-8546801606266321558.post-84871473436908891262011-01-25T18:47:19.311+05:302011-01-25T18:47:19.311+05:30हमारे एक क़रीबी व्यक्ति, श्री आदित्य नारायण सिंह, ज...हमारे एक क़रीबी व्यक्ति, श्री आदित्य नारायण सिंह, जो देश के सर्वश्रेष्ठ अनुवादकों में रहे हैं (अतिशयोक्ति नहीं होगी, यदि यह भी कह दिया जाये कि सर्वश्रेष्ठ अनुवादक रहे हैं) पिछले कई वर्षों से कैंसर के मरीज़ हैं। यदि साधुजन उनसे समय-समय पर मिलकर उनके द्वारा अख़्तियार की गयी तकनीकों की जानकारी एकत्रित करके उन्हें आम बना दें तो भावी पीढ़ियों पर उपकार होगा। मैं भी यथाशक्ति सहयोग के लिए तैयार हूँ।Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/13786169131030220505noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8546801606266321558.post-85442753002995107222010-03-16T18:56:04.169+05:302010-03-16T18:56:04.169+05:30वैसे इस बात की क्या गारंटी है कि चक्रधर जी ने यह ...वैसे इस बात की क्या गारंटी है कि चक्रधर जी ने यह बात पूरी गंभीरता में कही होगी। हो सकता है कि वे व्यंग्य की तरन्नुम में रहे हों।अविनाश वाचस्पतिhttps://www.blogger.com/profile/05081322291051590431noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8546801606266321558.post-70461369200109851052010-02-07T18:07:14.519+05:302010-02-07T18:07:14.519+05:30दोस्तो, बतौर फ्रीलांस अनुवादक नियमित रूप से भाषा ...दोस्तो, बतौर फ्रीलांस अनुवादक नियमित रूप से भाषा को रीडर फ्रेंडली बनाने के नाम पर सरलतम शब्दों का इस्तेमाल करने की मूर्खतापूर्ण बकवास सुनता आ रहा हूं, चूंकि खुले बाजार में अपने हुनर और हिकमत से रोजी-रोटी चला रहा हूं इसलिए वैसे रिएक्ट भी नहीं कर पाता जैसे कि उसूलन करना चाहिए। <br />इस बात से इन्कार नहीं कि भाषा के सौंदर्य और उसकी संप्रेषणीयता का ख्याल रखा जाना चाहिए लेकिन सरलता का आग्रह अगर हर तरह के पाठ को दैनिक जागरणी भाषा में प्रस्तुत करने की मांग है तो नपंसुक गुस्सा तो आएगा ही। मेरी अब तक जो समझ बनी है उसके अनुसार मुझे कहना चाहिए कि मानवता जैसे-जैसे उन्नत मंजिलों की ओर गयी है वैसे-वैसे उसके विचारों-चिंतनों में अमूर्तन के तत्व आते गये हैं उस उस तरह के पाठ को आत्मसात करने के लिए पारिभाषिक शब्दों की जरूरत अनिवार्य होती है। <br />एक बात चक्रधर के भी पक्ष में : देहात बिंबों में बात करता है और शहर तर्क एवं विवेक की भाषा में, दोनों का संश्लेषण किया जाना चाहिए लेकिन यह काम उत्पादन प्रक्रिया से जन्मने वाले एलिएनेशन और रिइफिकेशन के चलते संभव नहीं।<br />गौर करें, महानगरीय बुद्धिजीवियों का अलगाव आत्म-निर्वासन की हद तक जा पहुंचा हैं। <br />उपाय : साक्षर मध्यवर्ग औद्योगिक मजदूरों से एका बनाये उनसे घनिष्ठ परिचय प्राप्त करे और उनके साथ लड़े।<br />!कामता प्रसादhttps://www.blogger.com/profile/10017796675691176190noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8546801606266321558.post-83011056381372612002010-02-03T16:27:23.909+05:302010-02-03T16:27:23.909+05:30जैसा खायेंगे अन्न वैसा ही होगा मन !जैसा चित्र वै...जैसा खायेंगे अन्न वैसा ही होगा मन !जैसा चित्र वैसा मित्र ! जिस सरकारी विभागों का अन्न खा रहे हैं उनके वातावरण का दुष्प्रभाव तो पड़ना ही है !वेद प्रकाशhttps://www.blogger.com/profile/05880814605249394608noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8546801606266321558.post-88449415154661007852010-02-02T19:31:40.457+05:302010-02-02T19:31:40.457+05:30ये तो वही बात हुई कि अशोक चक्रधर जो कि एक 'आदम...ये तो वही बात हुई कि अशोक चक्रधर जो कि एक 'आदमी' हैं, को पुरुष नहीं कहा जा सकता....तो फिर उनसे कोई ये पूछे कि वो 'महापुरुष' या हिंदी हास्य के 'शलाकापुरुष' कैसे बनेंगे.....जोकि वो कई सालों से बनने की कोशिश कर रहे हैं. पारभाषिक शब्दावली के विनाश की हुंकार भरने वाले चक्रधरजी को वैसे ये अधिकार दिया किसने? <br /><br />राहुलजी, मुझे लगता है कि चक्रधरजी सरकारी सेवा के लिए बने हैं....वो दो सरकारी संस्थाओ का मुकुट धारण किये घूम रहे हैं....इन संस्थाओं को चलानेवाली सरकार बोलती-समझती भी हिंदी में ही है...चक्रधरजी का नियुक्तिपत्र भी शायद अंगरेजी में ही लिखा गया होगा, अब राजाओं के भाटों से आप क्या अपेक्षा करते हैं कि वो हमारी भाषा की रक्षा करेंगे या अपने अन्नदाताओं की वृन्दवाली गायेंगे!<br /><br />उन्हें जो कहना है, कहने दिया जाए क्योंकि अगर वो बोलेंगे नहीं तो हम हिंदी और उसके शब्द-परिवार को पल्लवित-विकसित कैसे करेंगे! वैसे तो मैं भी अंगरेजी बोल-पढ़-रट के बड़ा हुआ हूँ....पहल पहल पत्रकारिता भी सत्ता की भाषा में शुरू की थी .... लेकिन खून में गुलामी नहीं है....शायद मेरी माँ का प्रताप है जो कभी स्कूल नहीं गई....और उसने मुझे देसी भाषा का स्वाद दिया....साथ में अंगरेजी भी सीखने का पूरा मौका दिया.<br /><br />अब दिक्कत यही है बच्चों की पहली गुरु-'माँ' ही उन्हें देसी भाषा से अलग कर रही हैं.....ऐसे में हिंदी को बचाए रखने का काम तो मुश्किल है....लेकिन कुछ चक्रधर आपको उकसाते रहेंगे और आप हिंदी परिवार को विस्तार देने के मिशन में लगे रहेंगे.....<br />राहुलजी, हमारी आत्मा को यूँ ही झकझोरते रहिये....कहीं हम सत्ता की भाषा के नशे में चूर न हो जाएँ.ram kumar kaushikhttp://aao-baat-karen.blogspot.com/noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8546801606266321558.post-12446842397141580732010-02-02T14:16:56.146+05:302010-02-02T14:16:56.146+05:30मैं कल जल्दी में था इसलिये बहुत सारी बातें नहीं लि...मैं कल जल्दी में था इसलिये बहुत सारी बातें नहीं लिख पाया। डॉ रघु वीर केवल भाषाविद ही नहीं थे, वे सम्पूर्ण तंत्र को समझने वाले व्यक्ति थे। उनके सामने चक्रधर जी को 'कुंए का मेढ़क' कहने में चक्रधर जी की कोई मानहानि नहीं होगी। मुझे अच्छी तरह पता है कि तकनीकी शब्दावली पर बोलकर उन्होने अनाधिकार चेष्टा की है। उनको न तो अंग्रेजी की तकनीकी शब्दावली की विशेषताओं (कठिनाई, स्रोत भाषाएं, निर्माण पद्धति, अपर्याप्त होना, एक ही शब्द का अनेक प्रसंगों और विषयों में अनेक अर्थ होना, स्पेलिंग की समस्या, एक ही शब्द के लिये अनेक तकनीकी शब्द होना, आदि) का ज्ञान है, न अन्य विदेशी भाषाओं में इस विषय में क्या निति अपनायी गयी है उसका ज्ञान है; और न ही हिन्दी की तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली का उन्होने कभी उपयोग किया है (शायद देखा भी न हो)। क्या वे कह सकते हैं कि हिन्दी की पारिभाषिक शब्दावली, चीनी, जापानी और जर्मन की शब्दावलियों से कठिन है? क्या उन्हें पता है कि इन देशों के इंजिनीयर/डॉक्टर किसी अंग्रेज से किसी मामले में कम नहीं हैं?<br /><br /><br />क्या अंग्रेजी-शब्दावली सरल है? बिल्कुल नहीं।<br /><br />* इसने लैटिन, ग्रीक, जर्मन, फ्रेंच शब्द लिये हैं। ऐसा करना उनकी विवशता थी। आज के चिकत्सकों से पूछिये। 'शब्द' रट-रट के बेचारे परेशान हो जाते हैं। हर शब्द का पहला वाक्य यही होता है कि ' यह शब्द ग्रीक भाषा के अमुक शब्द से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ... प्राचीन काल में ऐसा होता था, वैसा होता था... किन्तु आज यह शब्द बिल्कुल अलग अर्थ में प्रयुक्त होता है। बेचारे धीरे-धीरे 'प्राचीन ग्रीक' के मास्टर बन जाते हैं।<br /><br />*वर्तमान में अंग्रेजी की पारिभाषिक शब्दावली कोई पन्द्रह लाख शब्दों तक पहुँच गयी है। और अशोक चक्रधर चाहते हैं कि कुछ ऐसा किया जाय कि लोग हिन्दी के दो सौ शब्दों के ज्ञान से ही सारा ज्ञान-विज्ञान कर लें।<br /><br />*अंग्रेजी की शब्दावली बहुत उटपटांग तरीके से बनी है (यह स्वाभाविक भी है क्योंकि जब कोई नया सिद्धान्त या उपकरण विकसित होता है तो जो व्यक्ति इसका सबसे पहले नाम देता है वह न तो भाषाविद होता है न आगे क्या-क्या होगा उसे पता होता है। इसलिये अंग्रेजी की शब्दावली में एकरूपता या होमोजिनिटी का अभाव है।)<br /><br />* भारत का कोई भी 'शिक्षित' घर नहीं होगा जिसमें एक से लेकर पचास तक डिक्शनरियाँ न हों।<br /><br />* भारत में सबसे ज्यादा समय अंग्रेजी की डिक्षनरियाँ और ग्रामर की किताबें पढ़ने तथा 'स्पोकेन इंग्लिश' की तैयारी करने में बर्बाद किया जा रहा है।<br /><br />*तमान विद्यालयों में देसी भाषा बोलने पर प्रतिबन्ध है। डर है कि देसी भाषा बोलने से बच्चे अंग्रेजी नहीं सीख पायेंगे। यदि अंग्रेजी सचमुच सरल है तो इसकी जरूरत क्यों है?<br /><br />*भारत में किसी सेमिनार में नजारा देखिये। कोई आदमी अपनी पूरी बात अंग्रेजी में न कह पाता है न ठीक से प्रश्न कर पाता है न ठीक से दलील (अर्गू) कर पाता है। लोग दो-चार अंग्रेजी के शब्द बोलने के बाद हिन्दी पर उतर आते हैं।<br /><br />*पता चला है कि भारतीय विदेश सेवा (IFS) में चालीस प्रतिशत ऐसे होनकहार आने में सफल हो जा रहे हैं जिन्हें 'ठीक से' अंग्रेजी बोलने नहीं आता। ये आंकड़ा तब है जब उन्हें तमान तरह के 'अंग्रेजी फिल्टरों' से होकर गुजरना पड़ता है और तमान तरह के पूर्वाग्रहों एवं अंधविश्वासों का सामना करते हुए अपने को योग्य साबित करना होता है।<br /><br />लिखना तो बहुत है, किन्तु यहीं विराम देता हूँ। सोच रहा हूँ कि इस विषय पर एक विस्तृत और सुरचित लेख लिखा जाय।अनुनाद सिंहhttps://www.blogger.com/profile/05634421007709892634noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8546801606266321558.post-67407470472765512502010-02-02T13:19:24.336+05:302010-02-02T13:19:24.336+05:30अनुनाद जी, मनोज जी, धन्यवाद। बहुत अच्छे, सुविचारित...अनुनाद जी, मनोज जी, धन्यवाद। बहुत अच्छे, सुविचारित जवाबों के लिए। <br /><br />हिन्दी पर हिन्दी के ही बहुत लोग कठिन, संस्कृतनिष्ठ और क्लिष्ट होने का आरोप लगाते हैं। हिन्दी वाले ही िहन्दी को सरल बनाने का उपदेश देते रहते हैं। पारिभाषिक कोशों पर तो सबसे ज्यादा हमला रहता है। अपने हिन्दी-अज्ञान और बौद्धिक आलस्य को ये लोग हिन्दी पर आरोपित करते हैं बिना यह समझे कि हर भाषा में अलग अलग ज्ञान-क्षेत्रों के लिए पारिभाषिक शब्दावलियां होती हैं। <br /><br />कृपया इस बहस को आगे बढ़ाइए और अपनी राय श्री चक्रधर को भेजिए।राहुल देव Rahul Devhttps://www.blogger.com/profile/11015122468654916646noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8546801606266321558.post-9214947937990837622010-02-01T21:37:31.322+05:302010-02-01T21:37:31.322+05:30हिंदी को ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनानी है, तो पारिभा...हिंदी को ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनानी है, तो पारिभाषिक ज्ञान-कोषों की उतनी ही जरूरत है, जितनी की विज्ञान को गति के नियमों की और पृथ्वी पर चलने के लिए गुरुत्वाकर्षण की ।मनोज भारतीhttps://www.blogger.com/profile/17135494655229277134noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8546801606266321558.post-49776010871444301542010-02-01T19:59:29.519+05:302010-02-01T19:59:29.519+05:30बहुत बचकानी और 'संस्कारहीन' बात कही है। शा...बहुत बचकानी और 'संस्कारहीन' बात कही है। शायद वे समझते हों कि भाषा बस 'टुच्ची कविता' करने के लिये है। <br /><br />बिना शब्दों के आप कोई गंभीर बात कैसे कर सकते हैं? वे कहेंगे कि अंग्रेजी शब्दावली पूरी-की-पूरी ज्यों-की-त्यों क्यों नहीं ले लेते? मैं कहूंगा कि शाश्वत गुलाम रहने में क्या बुराई है? कोई मानसिक परिश्रम नहीं करना पड़ता, बस शारीरिक परिश्रम करने से ही काम चल जात है!अनुनाद सिंहhttps://www.blogger.com/profile/05634421007709892634noreply@blogger.com