भारतीय भाषाओं का भविष्य - इस शीर्षक के तहत संगोष्ठियों की एक श्रंखला सम्यक् न्यास ने आरंभ की है। पहली संगोष्ठी दिल्ली में 17 मई, 2008 को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हुई। दूसरी 24 मई, 2008 को मुंबई में इंडियन मर्चेन्ट्स चैंबर में हुई। इनकी विस्तृत रिपोर्ट हम जल्दी ही यहां प्रस्तुत करेंगे।
मुंबई की संगोष्ठी पर हिन्दी मीडिया पोर्टल हिन्दी मीडिया में प्रकाशित दो रिपोर्टें हम साभार दे रहे हैं।
राहुल देव
फिल्मी सितारों का हिन्दी नहीं बोलना अपनी माँ को गिरवी रखने जैसा
अपनी बात
रमता जोगी
Tuesday, 27 May 2008
फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट के व्यक्तित्व में कई विरोधाभास हैं और अलग-अलग मंचों पर उनके व्यक्तित्व के अलग-अलग रूप भी सामने आते हैं, और कई बार तो वे एक मंच से कही गई अपनी एक बात का दूसरे मंच पर खंडन करते नजर आते हैं। लेकिन इसके बावजूद इस बात को मानना पडे़गा कि जो भी कहते हैं उसकी पूरी जिम्मेदारी भी अपने ऊपर लेते हैं। महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादेमी द्वारा मुंबई में भारतीय भाषाओं के भविष्य पर आयोजित परिसंवाद में महेश भट्ट भी आए थे और कार्यक्रम के सूत्रधार जाने माने पत्रकार और चिंतक और हिन्दी के प्रति समर्पित श्री राहुल देव ने महेश भट्ट से जब कहा कि वे हिन्दी फिल्म उद्योग के लोगों द्वारा हिन्दी फिल्मों की रोटी खाने के बावजूद हर जगह अपनी बात अंग्रेजी में कहने को लेकर कुछ कहें, तो इस पर महेश भट्ट ने जो कुछ कहा वह चौंकाने वाला था। और यह भी मानना पड़ेगा कि फिल्म उद्योग में ऐसी बात कहने की गुस्ताखी महेश भट्ट जैसी व्यक्ति ही कर सकता है। महेश भट्ट ने कहा कि ग्लोबलाईज़ेशन के इस दौर में इस बात को समझना जरुरी है कि हम गुलाम बनने की एक ऐसी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं जो हमारे अंदर अपनी माँ को भी गिरवी रखने का सोच पैदा करती है। उन्होंने कहा कि हमारा सिनेमा जड़हीन होता जा रहा है, इसकी कोई जड़ें नहीं है, और न कोई गहराई है। उन्होंने कहा कि फिल्मी और टीवी दुनिया से जुड़ा हर सितारा न्यूयॉर्क टाईम्स में अपनी खबर और फोटो देखना चाहता है जबकि उसको नाम और पैसा हिन्दी के दर्शकों से मिलता है। आज हर सितारा अपनी शख्सियत और अपनी पहचान अंग्रेजी में बनाना चाहता है, आज फिल्म उद्योग में हिन्दी न जानना और गलत हिन्दी बोलना सम्मान की बात हो गई है। महेश भट्ट ने कहा कि इस अंग्रेजी मानसिकता से पूरा देश आज एक बार फिर गुलाम होता जा रहा है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि एक छोटे से देश आईसलैंड ने माईक्रोसॉप्ट जैसी कंपनी के कंप्यूटर ऑप्रेटिंग सिस्टम को इसलिए स्वीकार नहीं किया कि वह उनकी भाषा में नहीं था और माईक्रोसॉफ्ट को कुछ ही महीनों में उस देश के लिए उनकी भाषा में ऑप्रेटिंग सिस्टम बनाना पड़ा। हमारे देश भारत में आज तक किसी ने इस बात पर गौर नहीं किया कि कंप्यूटर पर हिन्दी में कामकाज की सुविधा क्यों नहीं मिल पाई। महेश भट्ट ने कहा कि हिंदी फिल्मों के जिन सितारों की निगाहें लास एंजिलिस लगी रहती हैं वे हिंदी कैसे बोल सकते हैं? प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट ने कहा कि आज की स्थिति बहुत ही खतरनाक है। हर काम अंग्रेज़ी में हो रहा है। हम अंग्रेज़ी बोलने में गर्व महसूस करते हैं। लेकिन भाषा की सांस्कृतिक गहराई को नहीं समझ पा रहे हैं। भाषा हमारी माँ है और प्रगति के लिए आज हमें अपनी माँ को ही गिरवी रखना पड़ रहा है। चीन ने अगर अपनी भाषा में तरक्की की है और आइसलैंड जैसे देश ने अपनी भाषा के लिए माइक्रोसाफ्ट के अंगरेज़ी साफ्टवेयर को खरीदने से मना कर दिया तो क्या हम ऐसा नहीं कर सकते। हमें अपनी भाषा की रक्षा हर कीमत पर करनी चाहिये, क्योंकि यह हमारी अस्मिता, हमारे वजूद से जुड़ा सवाल है।श्री राहुल देव के आग्रह पर श्री भट्ट ने कहा कि वे इस सम्मेलन में मौजूद सभी विद्वानों और विचारकों की बात फिल्मी दुनिया के सितारों, निर्माताओं और निर्देशकों तक पहुँचाएंगे।
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इसलिए इज़राईल ने 18 नोबुल पुरस्कार हासिल किए
रवि शर्मा
Tuesday, 27 May 2008
मुंबई के इंडियन मर्चेट्स चैंबर में आयोजित परिसंवाद में देश की कई भाषाओं के विद्वानों ने अक्टूबर में होनेवाले सम्मेलन के लिए अपने सुझाव दिए। परिसंवाद में इस बात पर चिंता जाहिर की गई कि अनेक राज्यों में प्रारंभिक कक्षाओं से ही अंग्रेजी की शिक्षा दिए जाने से कुछ वर्षो बाद उन राज्यों की मूल भाषाओं का अस्तित्व भी संकट में पड़ सकता है। महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के कार्याध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल के अनुसार अक्टूबर के पहले सप्ताह में तीन दिन चलनेवाले इस सम्मेलन में स्वतंत्र भारत में अब तक हुए भारतीय भाषाओं के विकास की समीक्षा की जाएगी। इस परिसंवाद का आयोजन महाराष्ट्र हिन्दी अकादेमी के कार्याध्यक्ष और मुंबई में हिन्दी भाषा के लिए संघर्षरत वरिष्ठ पत्रकार श्री नदकिशोर नौटियाल की पहल पर किया गया था। परिसंवाद में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के मूर्धन्य विद्वानों ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए। दीप प्रज्वलन के तुरंत बाद विषय प्रवर्तन किया सम्यक न्यास, दिल्ली के राहुल देव ने। उन्होंने कहा कि आज हिंदुस्तान का हर गाँव अंग्रेज़ी मांग रहा है। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने प्राथमिक स्तर की शिक्षा अंग्रेज़ी माध्यम से देने की सिफारिश की है। अगर ऐसा होता है तो ५ साल बाद सभी सरकारी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंगरेज़ी होगा। सोचिये २५ साल बाद स्थिति क्या होगी? क्या हम अपनी मूल संस्कृति से कट नहीं जायेंगे? उन्होंने कहा कि हमें भाषा को केवल साहित्य और संस्कृति का ही वाहक नहीं मान लेना चाहिये। भाषा की भूमिका व्यापार और लोकतांत्रिक प्रणाली की उन्नति में भी है।चर्चा को आगे बढ़ाते हुए पेनिसिल्वेनिया, अमरीका से आए हिंदी विद्वान प्रो. सुरेंद्र गंभीर ने कहा कि हमें अपनी भाषा की रक्षा करनी चाहिये। जिस तरह जापान, चीन और फ्राँस जैसे कई देश अंग्रेज़ी के साथ-साथ अपनी भाषा की रक्षा हर कीमत पर करते हैं ठीक उसी तरह हमें अपनी भाषाओं की रक्षा करनी चाहिये।वरिष्ठ लेखक डॉ. सोहन शर्मा ने भारतीय भाषाओं की वर्तमान स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि पिछले ३० वर्षों में भारत को विज्ञान के क्षेत्र में कोई नोबेल पुरस्कार नहीं मिला है, जबकि इस्राइल विज्ञान में अबतक १८ नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर चुका है, क्योंकि उसकी शिक्षा का माध्यम उसकी मूल भाषा है। सांस्कृतिक उत्पादन के क्षेत्र में हमारी भाषाओं का स्थान नगण्य होता जा रहा है। यह एक गंभीर समस्या है। सभी जानते हैं कि औपनिवेशिक व्यवस्था हमेशा जनभाषा की विरोधी होती है। हमारा शैक्षिक नीति निर्धारक मंच नहीं चाहता कि हमारी शिक्षा हमारी भाषा में हो। हमें शिक्षा के राष्ट्रीयकरण पर बल देना चाहिये।भारतीय भाषाओं के अस्तित्व पर मंडराते खतरे की गंभीरता को महसूस करते हुए महाराष्ट्र राज्य उर्दू साहित्य अकादमी के कार्याध्यक्ष डॉ. अब्दुस सत्तार दलवी ने कहा कि - भाषा का सवाल हमारे वजूद का, हमारी पहचान का सवाल है। हमारी संस्कृति और सांस्कृतिक पहचान शेक्सपियर से कालिदास, संत ज्ञानेश्वर कबीर, तुलसी और ग़ालिब से है। भारतीय ज़ुबानें एक दूसरे की ताक़त हैं। हमें इस ताक़त को बरकरार रखना है।गुजराती भाषा की प्रगति के लिए उठाए जा रहे क़दमों का उल्लेख करते हुए राज्य गुजराती साहित्य अकादमी के कार्याध्यक्ष हेमराज शाह ने कहा कि मुंबई में करीब ३५ लाख गुजराती रहते हैं। हमने सभी गुजराती परिवारों को संदेश दिया है कि प्रत्येक परिवार प्रतिदिन एक गुजराती दैनिक मंगवाये। हमने अपने घरों में बच्चों के लिए गुजराती में बात करना अनिवार्य कर दिया है। उन्होंने कहा कि हमारे बच्चों को कम से कम चार भाषाएं सीखनी चाहिये - मातृभाषा, प्रादेशिक भाषा, राष्ट्र भाषा हिंदी और अंग्रेज़ी। इससे हम अपनी भाषा, अपनी संस्कृति का अस्तित्व भी बचाये रख पायेंगे और प्रगति की राह पर भी आगे बढ़ते जायेंगे। उन्होंने कहा कि गुजराती परिवारों के लोग कई लायब्रेरियों को गुजराती पुस्तकें मंगवाने के लिए अनुदान देते हैं।जर्मनी से पधारे बर्नार्ड हेंसली ने भारतीय भाषाओं की तारीफ करते हुए कहा कि हिंदुस्तान की भाषाएं बहुत समृद्ध हैं और उनमें इतनी क्षमता है कि वे खुद को बचाये रख सकती हैं। उनकी जड़ें बहुत गहरी है क्योंकि दुनिया की सभ्यता और सास्कृतिक अतीत को अगर जानना हो तो वह भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही जाना जा सकता है।हिंदी के विद्वान डॉ नंदलाल पाठक ने कहा कि हमें अंग्रेज़ी का विरोध नहीं करना चाहिये। हमें सभी दूसरी भाषाओं का सम्मान करना चाहिये। अपनी भाषा की प्रगति के लिए दूसरी भाषा का विरोध करना उचित नहीं है।कार्यक्रम के अंत में हिंदी के विद्वान डॉ. रामजी तिवारी ने परिसंवाद का निचोड़ रखते हुए कहा कि अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रभुत्व से भारतीय भाषाओं पर खतरा मंडरा रहा है। अपनी भाषाओं को बचाने का हमें कोई कारगर तरीका खोजना होगा। भारतीय संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीति की सही समझ पाने के लिए हमें अपनी भाषा में चिंतन करने की ज़रूरत है। हमें तटस्थ भाव से काम करना होगा। असल में यह जातीय अस्मिता को बचाने का प्रश्न है। संगोष्ठी में इस बारे में तरह तरह के मत व्यक्त किये गये हैं। इससे यही संकेत मिलता है कि इस विषय में शोध की भारी आवश्यकता है।परिसंवाद की अध्यक्षता कर रहे महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के कार्याध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल ने कहा कि भाषाओं के भविष्य का सवाल महत्वपूर्ण है और इस पर देशभर में समय-समय पर चर्चा होती रहनी चाहिये। उन्होंने बताया कि आगामी ३,४, तथा ५ अक्टूबर को मुंबई में महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी भारत की सभी भाषाओं का सम्मेलन आयोजित करने जा रही है।संगोष्ठी में आए विद्वानों का आभार प्रकट करते हुए एसएनडीटी विश्वविद्यालय की निदेशक डॉ माधुरी छेड़ा ने कहा कि भारतीय भाषाओंं के भविष्य पर बुलाये गये इस परिसंवाद में विभिन्न भारतीय भाषाओं के विद्वानों का एक ही जगह पर इकट्ठा होकर इस तरह सोच-विचार करना एक महत्वपूर्ण घटना है। परिसंवाद का संचालन अकादमी के सदस्य सचिव अनुराग त्रिपाठी ने किया। संगोष्ठी में जयंत सालगांवकर, डॉ. राजम नटराजन, मारिया हेंसली, डॉ. शोभनाथ यादव, अजित रानडे, सिराज मिर्ज़ा, आलोक भट्टाचार्य, गोपाल शर्मा, अशोक निगम, दीपक कुमार पाचपोर, संजीव दुबे, अभय नारायण मिश्र, रमेश यादव, इंद्र कुमार जैन आदि ने भाग लिया।
मंगलवार, 3 जून 2008
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