शनिवार, 10 अप्रैल 2021

मंगलेश-क्लेश और हिंदी

 

हिंदी पर मंगलेश जी की टिप्पणी के बाद लिखी अधूरी टिप्पणी।


रात देखा कि फेसबुक पर मंगलेश डबराल जी ने अपनी बहु विवादित टिप्पणी के आखरी दो वाक्यों को हटा लिया है। इन्हीं दो वाक्यों से वाम और दक्षिण दोनों पक्षों के लोगों को और उनके मित्रों को भी आपत्ति और तकलीफ हो रही थी। 


 मूल टिप्पणी को प्रकट पढ़कर पहले तो यही लगा था कि स्वभाव से अंतर्मुखी और उदास प्रकृति के मंगलेश जी गहरे निजी अवसाद और वैचारिक नैराश्य के किसी क्षण में यह छोटी सी दर्दीली टिप्पणी लिख गए। उनके जैसे संवेदनशील और विचारवान व्यक्ति के बारे में मेरे लिए यह मानना कठिन था कि उन्होंने होशो हवास में, विचार करके यह बात लिखी है।  मेरी सीमित समझ के अनुसार वह उन व्यक्तियों में नहीं है जो केवल चर्चा में बने रहने के लिए चौंकाने वाली बातें करते-कहते-लिखते हैं।


 लेकिन अब जब उन्होंने अपनी टिप्पणी को तो रहने दिया है लेकिन अंतिम दोनों हिंदी  ग्लानि और हिंदी में जन्मने पर अफसोस वाले वाक्यों को हटा लिया है तो यह अब उतना निपट निजी दर्द से उपजी आह जैसा मासूम मामला नहीं रह जाता। उन्हें अगर दोनों वाक्यों को हटाने की जरूरत महसूस हुई तो यह भी लिखकर स्पष्ट करना चाहिए था कि पहले लिखा तो क्यों और अब हटा रहे हैं तो क्यों। 


उनकी साहित्यिक रचनात्मकता, जीवन्तता पर कोई टिप्पणी नहीं। काफ़ी हो चुकी हैं। ज्यादा महत्वपूर्ण है हिन्दी के बारे में उनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति। इसलिए कि भाषा साहित्य से कहीं ज्यादा बड़ी वस्तु है। इसलिए कि अपूर्वानन्द जी ने मंगलेश जी के दुख, पराएपन की पीड़ा को ठीक ठहराने के साथ साथ हिन्दी को लेकर जो लिखा है वह ज्यादा गंभीर है। 


पहली बड़ी और आधारभूत समस्या दोनों विद्वानों का भाषा को विचार का वाहक न मान कर स्वयं एक आत्म चेतन, विचारवान, सक्रिय कर्ता या अभिकर्ता (एजेन्ट/एजेन्सी) मानना है। क्या भाषा और भाषा बरतने वाले एक ही होते हैं? अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में क्या भाषा खुद कोई ऐसी सजीव, बुद्धियुक्त चीज होती है जो खुद कुछ सोचती है या करती है? या वह केवल अपने प्रयोग करने वालों का वैचारिक वाहन होती है। वाहन की कोई अपनी सोच नहीं होती। 


हिन्दी समाज से दोनों की परेशानी, कुंठा, निराशा समझी जा सकती है। आज के माहौल पर, कुछ लोगों-वर्गों की वैचारिक-भाषिक क्रूरता पर क्षोभ समझा जा सकता है। हालाँकि वहां यह प्रश्न भी उठेगा ही कि क्या सारे हिन्दी समाज और साहित्य में जय श्रीराम, वन्दे मातरम, मुसलमान विरोधी लेखन और नारेबाजी ही की जा रही है? क्या इनका प्रतिपक्ष भी उसी समय उसी हिन्दी में उपस्थित और सक्रिय नहीं है जिस हिन्दी पर ग्लानि हो रही है? अपनी निजी या सामूहिक अप्रासंगिकता का दर्द क्या अपने जीने और रचने की भाषा में जन्मने पर शर्म तक जा सकता है? 


आज हिन्दी समाज का वह वर्ग राजनीतिक शक्ति से संपन्न हो कर अति उग्र, अति मुखर हो रहा है जिसे 'प्रगतिशील', वामपंथी बौद्धिक वर्चस्व ने दशकों तक क्षुद्र, संकीर्ण, दकियानूसी, सांप्रदायिक घोषित करके अप्रासंगिक बना रखा था। यह वैचारिक उग्रता कई बार शाब्दिक क्रूरता, प्रतिहिंसा में प्रकट होती है। यह निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण, चिंताजनक है। 


दृष्टि की इस एकांगिता को सही कैसे ठहराया जाए? 


३० जुलाई, २०१९