मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011

राजभाषा विभाग का परिपत्र और हिन्दी का भविष्य

अमेरिका से भाषावैज्ञानिक डा. सुरेन्द्र गंभीर की टिप्पणी ------


मान्यवर प्रभु जोशी जी और राहुलदेव जी ने एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर हमारा ध्यान खींचा है।  

भारत में हिन्दी की और न्यूनाधिक दूसरी भारतीय भाषाओं की स्थिति गिरावट के रास्ते पर है। ऐसी आशा थी कि समाज के नायक भारतीय भाषाओं को विकसित करने के लिए स्वतंत्र भारत में  क्रान्तिकारी कदम उठाएंगे परंतु जो देखने में आ रहा है वह ठीक इसके विपरीत है। यह षढ़यंत्र है या अनभिज्ञता इसका फ़ैसला समय ही करेगा।

भाषा के सरलीकरण की प्रक्रिया स्वाभाविक है परंतु वह अपनी ही भाषा की सीमा में होनी चाहिए। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज अंग्रेज़ी और उर्दू के बहुत से शब्द ऐसे हैं जिसके बिना हिन्दी में हमारा काम सहज रूप से नहीं चल सकता। ऐसे शब्दों का हिन्दी में प्रयोग सहज और स्वाभाविक होने की सीमा तक पहच चुका है और ऐसे शब्दों के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के लिए किसी को कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। यह भी ठीक है कि हिन्दी में भी कई बातों को अपेक्षाकृत सरल तरीके से कहा जा सकता है। परंतु यह सब व्यक्तिगत या प्रयोग-शैली का हिस्सा है। विभिन्न शैलियों का समावेश ही भाषा के कलेवर को बढ़ाता है और उसमें सर्जनात्मकता को प्रोत्साहित करता है।

भाषाओं का क्रमशः विकास कैसे होता है और इसके विपरीत भाषाओं का ह्रास कैसे होता है यह अनेकानेक भाषाओं के अध्ययन से हमारे सामने स्पष्ट होकर आया है। भारत में हिन्दी और शायद अन्य भारतीय भाषाओं के साथ जिस प्रकार का व्यवहार होता आ रहा है वह हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की ह्रास-प्रक्रिया को ही सशक्त करके बड़ी स्पष्टता से हमारे सामने ला रहा है। इस ह्रास-प्रक्रिया के बारे में विस्तार से लिखे जाने की आवश्यकता है। 

हम सबको मालूम है कि अंग्रेज़ी का प्रयोग भारत में केवल भाषागत आवश्यकता के लिए ही नहीं होता अपितु समाज में अपने आपको समाज में अपना ऊंचा स्थान स्थापित करने के लिए भी होता है। इसलिेए प्रयोग की खुली छुट्टी  मिलने पर अंग्रेज़ी शब्दों का आवश्यकता से अधिक मात्रा में प्रयोग होगा। दुनिया में बहुत सी भाषाएं लुप्त हुई हैं और अब भी हो रही हैं। उनके विश्लेषण से पता लगता है कि उनके कुछ भाषा-प्रयोग-क्षेत्रों (domians) पर कोई दूसरी भाषा आ के स्थानापन्न हो जाती है और फिर अपने शब्दों के स्थान पर दूसरी भाषा के शब्दों का प्रयोग उस भाषा के कलेवर को क्षीण बनाने लगता है। इस प्रकार विभिन्न विषयों में विचारों की अभिव्यक्ति के लिए वह भाषा धीर धीर इतनी कमज़ोर हो जाती है कि वह प्रयोग के लायक नहीं रह जाती या नहीं समझी जाती । क्षीणता के कारण उसके अध्ययन के प्रति उसके अपने ही लोग उसको अनपढ़ों की भाषा के रूप में देखने लगते हैं और उसकी उपेक्ष करने लगते हैं। यह स्थिति न्यूनाधिक मात्रा में भारत में आ चुकी है।

फिर कठिन क्या और सरल क्या इसका फ़ैसला कौन करेगा। हिन्दी के स्थान पर जिन अंग्रेज़ी शब्दों को प्रयोग  होगा उसको लिखने वाला शायद समझता होगा परंतु इसकी  क्या गारंटी है कि भारत के अधिकांश लोग उस  अंग्रेज़ी प्रयोग को समझेंगे। भाषा-विकास की दृष्टि से यह सुझाव बुरा नहीं है कि हिन्दी शब्दों का प्रयोग अधिकाधिक हो और जहां हिन्दी के कम प्रचलित शब्द लाएं वहां ब्रैकट में उसका प्रचलित अंग्रेज़ी पर्याय दे दें। जब हिन्दी का प्रयोग चल पड़े तो धीरे धीर अंग्रेज़ी के पर्याय को बाहर खींच लें। 

भाषा के समाज में विकसित करने के लिए भाषा में औपचारिक प्रशिक्षण अनिवार्य है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जो बात हम अपनी भाषा में अलग अलग ढंग से और जिस बारीकी से कह सकते हैं वह अंग्रेज़ी में अधिकांश लोग नहीं कह सकते। इसलिए शिक्षा के माध्यम से अपनी भाषा को विकसित करना समाज में लोगों के व्यक्तित्व को सशक्त करने वाला एक शक्तिशाली  कदम है।

भाषा के प्रयोग और विकास के लिए एक  कटिबद्धता और एक सुनियोजित दीर्घकालीन योजना की आवश्यकता है परंतु ये दोनों बातें ही आज देखने को नहीं मिलतीं। दूसरी बात - जिस अंग्रेज़ी के बलबूते पर हम नाच रहे हैं उसमें भाषिक प्रवीणता की स्थिति का मूल्यांकन होना चाहिए। अंग्रेज़ी की स्थिति  जितनी चमकीली ऊपर  से दिखाई देती है वह पूरे भारत के संदर्भ में उतनी आकर्षक नहीं है। लोग जैसे तैसे एक खिचड़ी भाषा से अपना काम चला रहे हैं। हिन्दी की खिचड़ी शैली को एक आधिकारिक मान्यता प्रदान करके हम उसके विकास के लिए नहीं अपितु उसके ह्रास के लिए कदम उठा रहे हैं। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं का विकास तब होगा जब उसके अधिकाधिक शब्द औपचारिक व अनौपचारिक प्रयोग में आएंगे और विभिन्न भाषा-प्रयोग-क्षेत्रों में उसका प्रयोग, मान और वर्चस्व बढ़ेगा। 

सुरेन्द्र गंभीर



2011/10/17 Rahul Dev <rdev56@gmail.com>  

                                                            हिन्दी का ताबूत

हिन्दी के ताबूत में हिन्दी के ही लोगों ने हिन्दी के ही नाम पर अब तक की सबसे बड़ी सरकारी कील ठोंक दी है। हिन्दी पखवाड़े के अंत में, 26 सितंबर 2011 को तत्कालीन राजभाषा सचिव वीणा ने अपनी सेवानिवृत्ति से चार दिन पहले एक परिपत्र (सर्कुलर) जारी कर के हिन्दी की हत्या की मुहिम की आधिकारिक घोषणा कर दी है। यह हिन्दी को सहज और सुगम बनाने के नाम पर किया गया है। परिपत्र कहता है कि सरकारी कामकाज की हिन्दी बहुत कठिन और दुरूह हो गई है। इसलिए उसमें अंग्रेजी के प्रचलित और लोकप्रिय शब्दों को डाल कर सरल करना बहुत जरूरी है। इस महान फैसले के समर्थन में वीणा जी ने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली केन्द्रीय हिन्दी समिति से लेकर गृहराज्य मंत्री की मंत्रालयी बैठकों और राजभाषा विभाग द्वारा समय समय पर जारी निर्देशों का सहारा लिया है। यह परिपत्र केन्द्र सरकार के सारे कार्यालयों, निगमों को भेजा गया है इसे अमल में लाने के लिए। यानी कुछ दिनों में हम सरकारी दफ्तरों, कामकाज, पत्राचार की भाषा में इसका प्रभाव देखना शुरु कर देंगे। शायद केन्द्रीय मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों के उनके सहायकों और राजभाषा अधिकारियों द्वारा लिखे जाने वाले सरकारी भाषणों में भी हमें यह नई सहज, सरल हिन्दी सुनाई पड़ने लगेगी। फिर यह पाठ्यपुस्तकों में, दूसरी पुस्तकों में, अखबारों, पत्रिकाओं में और कुछ साहित्यिक रचनाओं में भी दिखने लगेगी।
सारे अंग्रेजी अखबारों ने इस हिन्दी को हिन्ग्लिश कहा है। वीणा उपाध्याय के पत्र में इस शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। उसमें इसे हिन्दी को सुबोध और सुगम बनाना कहा गया है। अंग्रेजी और कई हिन्दी अखबारों ने इस ऐतिहासिक पहल का बड़ा स्वागत किया है। इसे शुद्ध, संस्कृतनिष्ठ, कठिन शब्दों की कैद से हिन्दी की मुक्ति कहा है। तो कैसी है यह नई आजाद सरकारी हिन्दी ? यह ऐसी हिन्दी है जिसमें छात्र, विद्यार्थी, प्रधानाचार्य, विद्यालय, विश्वविद्यालय, यंत्र, अनुच्छेद, मध्यान्ह भोजन, व्यंजन, भंडार, प्रकल्प, चेतना, नियमित, परिसर, छात्रवृत्ति, उच्च शिक्षा जैसे शब्द सरकारी कामकाज की हिन्दी से बाहर कर दिए गए हैं क्योंकि ये राजभाषा विभाग को कठिन और अगम लगते हैं। यह केवल उदाहरण है। परिपत्र में हिन्दी और भारतीय भाषाओं में प्रचलित हो गए अंग्रेजी, अरबी, फारसी और तुर्की शब्दों की बाकायदा सूची दी गई है जैसे टिकट, सिग्नल, स्टेशन, रेल, अदालत, कानून, फौज वगैरह।
परिपत्र ने अपनी नई समझ के आधार के रूप में किन्ही अनाम हिन्दी पत्रिकाओं में आज कल प्रचलित हिन्दी व्यवहार के कई नमूने भी उद्धृत किए हैं। उन्हें कहा है - हिंदी भाषा की आधुनिक शैली के कुछ उदाहरण। इनमें शामिल हैं प्रोजेक्ट, अवेयरनेस, कैम्पस, एरिया, कालेज, रेगुलर, स्टूडेन्ट, प्रोफेशनल सिंगिंग, इंटरनेशनल बिजनेस, स्ट्रीम, कोर्स, एप्लाई, हायर एजूकेशन, प्रतिभाशाली भारतीय स्टूडेन्ट्स वगैरह। तो ये हैं नई सरकारी हिन्दी की आदर्श आधुनिक शैली। 
परिपत्र अपनी वैचारिक भूमिका भी साफ करता है। वह कहता है कि किसी भी भाषा के दो रूप होते हैं – साहित्यिक और कामकाज की भाषा। कामकाज की भाषा में साहित्यिक शब्दों के इस्तेमाल से उस भाषा की ओर आम आदमी का रुझान कम हो जाता है और उसके प्रति मानसिक विरोध बढ़ता है। इसलिए हिन्दी की शालीनता और मर्यादा को सुरक्षित रखते हुए उसे सुबोध और सुगम बनाना आज के समय की मांग है।
हमारे कई हिन्दी प्रेमी मित्रों को इसमें वैश्वीकरण और अंग्रेजी की पोषक शक्तियों का एक सुविचारित षडयंत्र दिखता है। कई पश्चिमी विद्वानों ने वैश्वीकरण के नाम पर अमेरिका के सांस्कृतिक नवउपनिवेशवाद को बढ़ाने वाली शक्तियों के उन षडयंत्रों के बारे में सविस्तार लिखा है जिसमें प्राचीन और समृद्ध समाजों से धीरे धीरे उनकी भाषाएं छीन कर उसकी जगह अंग्रेजी को स्थापित किया जाता है। और यों उन समाजों को एक स्मृतिहीन, संस्कारहीन, सांस्कृतिक अनाथ और पराई संस्कृति पर आश्रित समाज बना कर अपना उपनिवेश बना लिया जाता है। अफ्रीकी देशों में यह व्यापक स्तर पर हो चुका है।
मुझे इसमें यह वैश्विक षडयंत्र नहीं सरकार और प्रशासन में बैठे लोगों का मानसिक दिवालियापन, निर्बुद्धिपन और भाषा की समझ और अपनी हिन्दी से लगाव दोनों का भयानक अभाव दिखता है। यह भी साफ दिखता है कि राजभाषा विभाग के मंत्री और शीर्षस्थ अधिकारी भी न तो देश की राजभाषा की अहमियत और व्यवहार की बारीकियां समझते हैं न ही भाषा जैसे बेहद गंभीर, जटिल और महत्वपूर्ण विषय की कोई गहरी और सटीक समझ उनमें है। भाषा और राजभाषा, साहित्यिक और कामकाजी भाषा के बीच एक नकली और मूर्खतापूर्ण विभाजन भी उन्होंने कर दिया है।  अभी हम यह नहीं जानते कि किसके आदेश से, किन महान हिन्दी भाषाविदों और विद्वानों से चर्चा करके, किस वैचारिक प्रक्रिया के बाद यह परिपत्र जारी किया गया। अभी तो हम इतना ही जानते हैं कि इस सरकारी मूर्खता का तत्काल व्यापक विरोध करके इसे वापस कराया जाना जरूरी है। यह सारे हिन्दी जगत और देश की हर भाषा के समाज के लिए एक चुनौती है।
राहुल देव

पुनश्च - यह एक संक्षिप्त, फौरी प्रतिक्रिया है। इसका विस्तार करूंगा जल्द।