शनिवार, 26 जुलाई 2014

सीसैट और भाषा-माध्यम प्रतियोगी

सीसैट और भारतीय भाषा माध्यम प्रतियोगी


संघ लोकसेवा आयोग की प्रारम्भिक परीक्षा में सीसैट के सवाल पर उद्वेलित, आंदोलित छात्रों का आक्रोश जायज है। यह समूचे भारतीय उच्च शिक्षा जगत, और उससे निकलने वाले युवाओं के भविष्य के संदर्भ में केन्द्रीय महत्व का ऐसा मुद्दा है जिसे मौन और उपेक्षा  के एक लगभग अखिल भारतीय अनौपचारिक षडयंत्र के तहत अब तक किसी तरह दबा-छिपा कर रखा गया था।  आज यह इस आंदोलन के रूप में विस्फोट के साथ बाहर आ गया है। अब इसे राष्ट्रीय चिन्ताओं के हाशियों पर रखना कठिन होगा।

मूल प्रश्न है कि इस सहित हर परीक्षा के प्रतिभागियों को स्वस्थ प्रतियोगिता के लिए एक अनिवार्यतः समतल, समतापूर्ण मंच या मैदान मिलना चाहिए कि नहीं, वह जिसे अंग्रेजी में लेवल प्लेयिंग फील्ड कहते हैं।  अगर हम इस बुनियादी सत्य को मानते हैं कि प्रकृति मानव प्रतिभा का वितरण समान भाव से करती है और सबको अपने विकास के समान अवसर मिलने चाहिए तो नौकरियां हों या स्व-रोजगार, व्यवसाय हो, निजी क्षेत्र हो या सरकारी, उनमें प्रवेश की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो प्रतिभा/योग्यता को जांचे, पुरस्कृत करे लेकिन भाषा/वर्ग/पृष्ठभूमि-निरपेक्ष हो। यह सबको सच्ची समान शिक्षा देने वाले तंत्र से ही संभव है। लेकिन दुर्भाग्य और हमारे प्रभुवर्ग के आपराधिक षडयंत्र से यह भारत में लगभग असंभव बना दिया गया है। 

सन 2011 से संघ लोकसेवा आयोग ने जो बदलाव किए उनसे किसी को फायदा हुआ हो या नहीं, लेकिन हिन्दी सहित सारे भारतीय भाषा-माध्यम प्रतियोगियों के लिए इस परीक्षा में पार होना दुरूह बनाकर देश के उच्चतम प्रशासनिक वर्ग को और ज्यादा असमतापूर्ण, अन्यायपूर्ण, वर्गवादी, अभिजनवादी, अंग्रेजीपरस्त और भारतीय भाषा/मनीषा विरोधी बनाने का रास्ता साफ किया है। पिछले तीन सालों में इस परीक्षा में सफल होने वाले भारतीय भाषा-माध्यम प्रतियोगियों की तेजी से घटी संख्या इस बात का प्रमाण है कि इस सीसैट पर्चे ने अंग्रेजी-माध्यम शिक्षित, शहरी, संपन्न और इंजीनियरिंग/विज्ञान/प्रबन्धन/वाणिज्य धाराओं के छात्रों को अनुचित बढ़ावा दिया है, भारतीय भाषा-माध्यम के, ग्रामीण, निम्न मध्यवर्गीय और निर्धन तथा मानविकी छात्रों को नुकसान पहुंचाया है। 

यह समूची हिन्दी पट्टी के युवाओं के लिए एक दोहरा आघात है क्योंकि निजी उद्योगों, उद्यमिता, नए तकनीक-आधारित रोजगारों/नौकरियों से मिलने वाले विकास अवसरों से वंचित इस युवा शक्ति के सामने सरकारी नौकरी ही सबसे बड़ा और लगभग एकमात्र अवसर बचा है। संघ लोकसेवा आयोग के माध्यम से उच्चतम प्रशासनिक पदों को पाना इस आधे भारत के प्रतिभाशाली युवाओं के लिए अपनी महत्वाकांक्षांओं को साकार करने का सर्वोत्तम और सुलभ साधन बचा है। अंग्रेजी की छननी का इस्तेमाल करके उनकी शुरुआती दौर में ही ऐसी छंटनी कर देना एक क्रूर और अक्षम्य अपराध है। 

संघ लोकसेवा आयोग इस पूरे विवाद में सबसे ज्यादा जवाबदेह होना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनकी ओर से कोई स्पष्टीकरण और आश्वासन देश को अभी तक नहीं मिला है। आशा करें कि इतने प्रतियोगियों को लगी चोटें, उन्हें मिली जेल आयोग के नियन्ताओं की संवेदना को कुछ सक्रिय करेंगे। 

राहुल देव 


(कल्पवृक्ष टाइम्स, आगरा के लिए लिखी टिप्पणी) 

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

भारतीय भाषाओं का भविष्य






भारतीय भाषाओं का भविष्य

हम एक भाषिक-सांस्कृतिक अनर्थ की ओर बढ़ रहे हैं। मैं तो इसे एक प्रलयंकारी संभाव्यता मानता हूँ। यह भी मानता हूँ कि खतरों को देखना, समझना और डरना बचने के लिए ज़रूरी हैं। भय एक उपयोगी भाव है बशर्ते हम उसका उपयोग करके बचाव का उद्यम कर सकें। जिन्हें अदूरदर्शिता या अति विश्वास या अज्ञान में खतरा दिखता ही नहीं वे मारे जाते हैं।

भाषाओं को केवल साहित्य और बातचीत का माध्यम मान लिया गया है। लेकिन वे हमारी समूची सांस्कृतिक, सामाजिक चेतना और पारंपरिक, ऐतिहासिक ज्ञान संपदा की वाहक हैं। हमारी पूरी विरासत, हमारे राष्ट्रीय बोध का माध्यम हैं, निर्माता हैं।

यह दुर्भाग्य की बात है कि भाषाओं को बोली के रूप में ही देखा सोचा जा रहा है। बोलियों के रूप में उनका उपयोग बना हुआ है और मीडिया तथा मनोरंजन की दुनिया में उनके बोली-रूप के विस्तार को भाषा विस्तार माना जा रहा है। यह खतरनाक भ्रम है।
वही भाषा है जिसमें लोग पढ़ना, लिखना और बोलना तीनों करते हैं। इस दृष्टि से देखें तो कम या ज्यादा तेज़ी से लगभग सभी भाषाओं का प्रयोग जीवन के सभी गंभीर कामों में घट रहा है, खास तौर पर शिक्षित युवा पीढ़ी में।
इसके दूरगामी नतीजे बेहद चिंताजनक हैं। इसमें दो बातों का विचार ज़रूरी है। एक, भारतीय भाषाओं की यह गति अभी तक लगभग अपने आप ही, समाज द्वारा ही अंग्रेज़ी को ज्यादा महत्व देने के कारण हुई है। अब स्वयं सरकार ज्ञान आयोग की सिफारिशों के माध्यम से भारतीय भाषाओं को फाँसी देने का काम करने जा रही है।

दुःख यह है कि इतने बड़े, अपने असर में भयानक परिवर्तन पर देश में कोई व्यापक चर्चा नहीं है। छोटे समूहों, निजी स्तर पर काफी लोग इस परिवर्तन को महसूस कर रहे हैं लेकिन इसे बदला जा सकता है यह आत्म विश्वास अपने अकेले के भीतर नहीं पाते। इसे अटल मान लिया गया है।

मेरी हिन्दी के अलावा मराठी, मलयालम, कन्नड़, बाँगला, गुरुमुखी, गुजराती भाषा समुदायों के प्रमुख, प्रबुद्ध लोगों से बातचीत हुई है। सभी शुरुआती संदेह के बाद सहमत हो जाते हैं कि एक से दो पीढ़ी के बाद इन सभी भाषाओं का सिर्फ गरीबों, पिछड़ों, घोर वंचितों की भाषा भर रह जाना निश्चितप्राय है।

ऐसा नहीं कि लोगों में अपनी भाषाओं से प्रेम मर गया है। सिर्फ़ यह है कि भाषा की समझ, भाषा की भूमिका और भाषा की ज़रूरत की समझ घट गई है या सक्रिय विचार से बाहर हो गई है साहित्य की छोटी सी दुनिया को छोड़ कर।

सरकारों से, राज्य के समूचे विराट ढाँचे से इन सूक्ष्म परिवर्तनों को समझने, उनके बारे में कुछ सम्यक् करने की उम्मीद करना नादानी है।

मैं केन्द्रीय हिन्दी समिति का तीन-चार साल से सदस्य हू प्रधानमंत्री उसके अध्यक्ष हैं। छह मुख्यमंत्री, छह केन्द्रीय मंत्री, मंत्रालय सचिव, हिन्दी के कई मूर्धन्य सदस्य हैं। लेकिन दो-तीन बैठकों के बाद मेरा अनुभव है कि हिन्दी के प्रसार, प्रभाव, प्रतिष्ठा और प्रयोग को बढ़ाने में समिति का योगदान नगण्य है। पैंतालीस साल से राजभाषा के रूप में हिन्दी के लिए केन्द्रीय, प्रादेशिक, सरकारी-गैरसरकारी स्तरों पर अरबों रुपए खर्च हुए हैं। लगभग आधा दर्जन केन्द्रीय संस्थाएं केवल हिन्दी के लिए ही काम कर रही हैं। हर क्षेत्रीय भाषा के लिए राज्य स्तर पर कई सरकारी, अर्धसरकारी, गैरसरकारी संस्थाएं काम कर रही हैं। क्या हिन्दी उनके कारण बढ़ी है? क्या दूसरी भाषाएं मज़बूत हुई हैं? पहले से बेहतर स्थिति में हैं?

स्वयं दिल्ली में चार या पाँच भाषाओं के लिए अकादमियां हैं। उन्होंने बहुत से अच्छे काम किए हैं। पुस्तकें छापी हैं। कार्यक्रम किए हैं। लेखकों को सम्मानित, पुरस्कृत किया है। क्या दिल्ली में इन सभी भाषाओं और उनका तीनों रूपों में प्रयोग करने वालों की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, तकनीकी, बौद्धिक, अकादमिक शक्ति, प्रयोग, प्रतिष्ठा और नई पीढ़ी में उनके प्रति लगाव और आकर्षण बढ़े हैं?

राज्य की प्रकृति, अपनी राजनीति की शैली और नौकरशाही का चरित्र समझ कर हमें राज्य की संस्थाओं से अकेले भाषाओं और संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन की अपेक्षा शायद नहीं करनी चाहिए।

यह संकट भाषाओं पर नहीं भारतीयता पर है। भाषाओं और भारत, भारतीयता का यह रिश्ता समझना ज़रूरी है।

भाषा-लोप सांस्कृतिक प्रलय है।

भाषा पानी, धरती, जंगल, वनस्पति, प्रकृति की तरह स्वयंभू, स्वनिर्भर नहीं। एक स्वतंत्र अस्तित्व वाली वस्तु नहीं। वह मनुष्यों पर निर्भर करती है। प्रयोग पर निर्भर करती है। प्रयोग से ज़िन्दा रहती है, निष्प्रयोग से मर जाती है। नए और ज्यादा क्षेत्रों, स्थितियों में प्रयोग से बढ़ती है। या घटती है।

राष्ट्रीय ज्ञान आयोग एक महत्वपूर्ण संस्था है। उसने प्राथमिक शिक्षा के बारे में, भाषाओं के बारे में जो प्रधानमंत्री को सिफारिशें की हैं वे हम यहां आपके सामने रख रहे हैं। हम उन्हें ख़तरनाक मानते हैं। इन कारणों से-
सारे समाज में अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं के बीच शक्ति और प्रतिष्ठा का जो संतुलन है उसे देखते हुए अगर पहली कक्षा से छात्रों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाया गया तो क्या वे अपनी भाषाओं को वैसी ही इज्ज़त दे पाएंगे.. आज ही शुरू से अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ने जीने वाले बच्चे भारतीय भाषाओं का कैसा प्रयोग करते हैं, कितना महत्व देते हैं, अपनी परंपराओं, विरासत, सांस्कृतिक जड़ों से कितना जुड़े हैं यह सबके सामने है।
अगर फिर भी सारा देश अगर अपनी भाषाओं को छोड़ कर वैश्वीकृत होने, महाशक्ति बनने, आर्थिक प्रगति के एकमात्र माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी को अपनाने के लिए तैयार है तो एक जनमतसंग्रह करा लिया जाय और अगर बहुमत अंग्रेज़ी के पक्ष में हो तो उसे ही राष्ट्रभाषा, राजभाषा, शिक्षा का प्रथम माध्यम बना दिया जाय।
ज्ञान आयोग स्वयं मानता है कि अंग्रेजी का प्रथम भाषा के रूप में प्रयोग करने वाले 1 प्रतिशत हैं। बाकी 99 प्रतिशत को अंग्रेज़ी दक्ष बनाने में कितना धन लगेगा... क्या यह संभव है जबकि 1 प्रतिशत की भाषा बनने में अंग्रेज़ी को 175 साल लग गए...

आयोग की सिफारिशें सिर्फ यही नहीं कि अंग्रेजी को पहली कक्षा से पढ़ाया जाय और तीसरी से दूसरे विषयों की पढ़ाई का माध्यम बनाया जाय। वह यह भी कहता है कि कक्षा और विद्यालय के बाहर भी अंग्रेज़ी सीखने के लिए प्रेरक, उपयुक्त माहौल बनाया जाय, हर कक्षा में इसके लिए पुस्तकें, मल्टीमीडिया उपकरण रखे जायें, अंग्रेजी क्लब बनाये जायें। देश के 40 लाख शिक्षकों को अंग्रेज़ी दक्ष बनाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएं। 6 लाख नए अंग्रेजी शिक्षक तैयार किए जाएं।

यह सब होने पर आयोग का आकलन है कि 12 से 17 साल के भीतर भारत दुनिया की महाशक्ति बनने के लिए तैयार हो जाएगा।

क्या हम इससे सहमत हैं...क्या देश ने इस पर विचार कर लिया है...क्या 17-20 साल बाद केवल अंग्रेज़ी पढ़ने-लिखने-बोलने वाला भारत हमें स्वीकार है...

इसके राजनीति पर, समतामूलक विकास, सामाजिक न्याय पर असर पर विचार कर लिया गया है क्या?

यह स्थिति बदली जा सकती है। पलटी जा सकती है। देश के व्यापक, वृहत्तर मानस को, हर क्षेत्र में ऊपर बैठे, प्रभावशाली लोगों को भाषाओं के प्रति जगा कर, भाषा-लोप की कीमत समझा कर एक नए भाषा संतुलन को स्थापित किया जा सकता है। राजनीतिक दलों को, जनप्रतिनिधियों को, उद्योगपतियों को, शिक्षाविदों को, प्रोफेशनलों को, तकनीकी नेताओं को इस विमर्श में शामिल करके यह बदलाव लाया जा सकता है।

इस महत् कार्य में शामिल होने के लिए हम आपका आह्वान करते हैं।

राहुल देव
17 मई 2008