कमल हासन के बहाने गोडसे और आतंकवाद
कमल हासन के असमय
और अदूरदर्शितापूर्ण बयान ने एक बार फिर गांधी-वध, गोडसे, हिन्दू आतंकवाद
बनाम इस्लामिक आतंकवाद तथा आतंकवाद की परिभाषा को लेकर पुरानी बहसों को पुनर्जीवित
कर दिया है। उनके बयान को असमय और अदूरदर्शितापूर्ण कहने पर बहुत से लोगों को
आपत्ति होगी। वे मानते हैं कि यह सोचा समझा, एक रणनीति के अनुसार दिया गया बयान है, इसे कमल की राजनीतिक अपरिपक्वता मानना गलत है।
लेकिन जिस तरह एक वर्ग इस बयान का समर्थन कर रहा है,
पूछ रहा है कि गोडसे द्वारा गांधी जी की हत्या
को आतंकवाद न कहा जाए तो क्या कहा जाए, उसे आजादी के बाद का पहला हिन्दू आतंकवादी कहने में गलत क्या है, उससे ज़रूरी हो गया है कि आतंकवादी हिंसा और
सामान्य हिंसा में अन्तर स्पष्ट किया जाए।
हत्या, वध और आतंकवादी हत्या- इन तीनों में अन्तर है।
हत्या तो स्पष्ट है। निजी कारणों से जान लेना हत्या है। सामान्य मानवीय अपराध है।
वह एकल या सामूहिक भी हो सकती है।
अव्यक्तिगत,
विचारधारात्म्क, राजनीतिक कारणों से एक व्यक्ति की जान लेना वध है। वह एक
विशिष्ट व्यक्ति को,कुछ स्पष्ट
कारणों और उद्देश्यों से दृश्य से हटा कर किसी घटनाक्रम को प्रभावित करने, उसकी दिशा और चरित्र बदलने के लिए किया जाता
है। वध ज्यादातर राजनीतिक या धार्मिक षडयंत्रों से किए या कराए जाते हैं। उनमें
किराए के हत्यारों का भी इस्तेमाल किया जाता है या किसी समूह के एक या एकाधिक
सदस्य योजना बना कर करते हैं।
विचारधारात्मक
लेकिन अव्यक्तिगत कारणों से बड़ी संख्या में लोगों की हत्या को आतंकवादी हत्या
कहते हैं। वह एक समूह, वर्ग, स्थान में जन सामान्य में आतंक फैलाने के,
एक संदेश देने के स्पष्ट उद्देश्य से की जाती
है। उसमें उसके लक्ष्यों-निशानों का चुनाव उनसे किसी निजी परिचय या विरोध के आधार
पर नहीं उनकी सामाजिक, राजनीतिक या
धार्मिक पहचान, प्रभाव और संख्या
के आधार पर किया जाता है। अधिक से अधिक संख्या में लोग उस आतंकवादी हमले से
प्रभावित हों, आतंकित हों,
आतंकवादी या आतंकवादियों की सोच और शक्ति को
स्वीकार करने को बाध्य हों, वहां की सरकारों
और समाज में आतंकवादियों के विचार या शिकायतों को मान्यता मिले, वे सरकारें और समाज आतंकवादियों और उनके
विचारों को गंभीरता से लें, कमजोर हों,
समझौते करने पर मजबूर हों- इस तरह के लक्ष्यों
के लिए आतंकवादी हमले किए जाते हैं।
नाथूराम गोडसे का
अपने 7 साथियों के साथ योजना
बना कर गांधी जी को मारना वध था- एक राजनैतिक वध। वह आतंकवादी हत्या नहीं थी। अगर
गोडसे को आतंक फैलाना होता तो वह 30 जनवरी 1948 को प्रार्थना सभा में बम फेंक कर सैकड़ों की
हत्या कर सकता था। मुसलमानों की किसी सभा या भीड़ में बम विस्फोट कर सकता था। अगर
वह उस अर्थ में हिन्दू आतंकवादी होता जिसमें कमल हासन और बहुत से सेकुलरवादी,
वामपंथी उसे निरूपित कर रहे हैं तो उसे किसी
मस्जिद में, मुस्लिम इलाके और
भीड़ में विस्फोट या गोलीबारी करनी चाहिए थी।
उन दिनों दिल्ली
में पाकिस्तान से आए हुए, लुटे-पिटे,
सब कुछ गंवा चुके हिन्दू शरणार्थियों के शिविर
भी थे जहां गांधी को गालियां, बद्दुआएं और
धमकियां रोज़ मिलती थीं। और दूसरी ओर हिन्दू प्रतिक्रिया और प्रतिहिंसा से डरे हुए
मुसलमानों के शिविर और मोहल्ले भी थे जहां गांधी से उन्हें क्रुद्ध हिन्दुओं से
बचाने की अपीलें भी की जाती थीं। ऐसे में गोडसे और उनके साथियों के लिए किसी भी
मुस्लिम इलाके में जाकर मुसलमानों को बड़ी संख्या में मारने का विकल्प मौजूद था।
उसने ऐसा नहीं
किया, केवल गांधी जी पर गोलियां
चलाईं। भागने की कोशिश भी नहीं की। हालाँकि उसकी गुंजाइश भी शायद नहीं थी। आम तौर
पर आतंकवादी अपना काम करके भाग जाते हैं। भागने की योजना बना कर हमले करते हैं।
पिछले कुछ वर्षों से इस्लामी आतंकवाद के नए आत्मघाती मुजाहिदों के प्रादुर्भाव से
पहले अधिकतर आतंकवादी हमलों में ऐसा ही होता था।
इसलिए कमल हासन का गोडसे को आजादी के बाद का पहला आतंकवादी
कहना गलत है। वह राजनीतिक हत्यारा था। वह और उसके साथी प्रखर हिन्दूवादी थे। उनके
मन मस्तिष्क गांधी जी के मुसलमानों की ओर अतिरिक्त झुकाव और उनके द्वारा हिन्दू हितों और भावनाओं की तुलना में मुस्लिम
हितों और भावनाओं की ज्यादा चिन्ता करने के अपने विकृत बोध से उद्वेलित थे।
यह गांधी जी के बारे में उनकी अपनी सोच थी, सत्य नहीं। उनका सत्य-बोध पूर्वाग्रहग्रस्त, पश्चिमी पंजाब जो अब पाकिस्तान बन गया था वहां के हिन्दुओं पर अत्याचारों से उद्वेलित और भारत विभाजन की त्रासदी के लिए गांधी को जिम्मेदार मानने की भावना से निर्मित था। वे एक स्तर पर गांधी की महानता, उनके असामान्य गुणों को आदर के साथ स्वीकार भी करते थे लेकिन उनके कदमों से इस हद तक उग्रतापूर्वक असहमत थे कि गांधी जी का भारत में सक्रिय बने रहना उन्हें हिन्दू हितों के लिए सबसे बड़ी बाधा लगता था। उनके लिए हिन्दू हित ही भारत हित थे।
यह गांधी जी के बारे में उनकी अपनी सोच थी, सत्य नहीं। उनका सत्य-बोध पूर्वाग्रहग्रस्त, पश्चिमी पंजाब जो अब पाकिस्तान बन गया था वहां के हिन्दुओं पर अत्याचारों से उद्वेलित और भारत विभाजन की त्रासदी के लिए गांधी को जिम्मेदार मानने की भावना से निर्मित था। वे एक स्तर पर गांधी की महानता, उनके असामान्य गुणों को आदर के साथ स्वीकार भी करते थे लेकिन उनके कदमों से इस हद तक उग्रतापूर्वक असहमत थे कि गांधी जी का भारत में सक्रिय बने रहना उन्हें हिन्दू हितों के लिए सबसे बड़ी बाधा लगता था। उनके लिए हिन्दू हित ही भारत हित थे।
उस काल की सबसे
पहली और बडी आतंकवादी घटना को चुनना हो तो मैं भारत की स्वतंत्रता के ठीक एक साल
पहले 16 अगस्त, 1946 को मुस्लिम लीग और उसके नेता मुहम्मद अली
जिन्ना की ‘सीधी कार्रवाई’ (डायरेक्ट एक्शन) की घोषणा को चुनूंगा। उस समय
तक यह तय हो चुका था कि अंग्रेज सरकार भारत से हटने और उसे स्वतंत्रता देने के लिए
तैयार है। इसकी घोषणा 1945 में हो चुकी थी।
उसके बाद सत्ता हस्तांतरण, जिन्ना की
मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग, कांग्रेस का
बंटवारे से इन्कार, संविधान सभा का
गठन, स्वतंत्र भारत की सरकार
का गठन, अल्पसंख्यकों, दलितों के प्रतिनिधित्व, अधिकारों आदि को लेकर चले जटिल घटनाक्रम का समय था। गांधी
और कांग्रेस भारत विभाजन के विचार का कड़ा विरोध कर रहे थे। जिन्ना को मनाने की
कोशिशें चल रही थीं। जिन्ना भारत के मुसलमानों के लिए अलग देश हासिल करने पर तुले
थे। किसी भी तरह के समझौते के लिए तैयार नहीं थे। मौलाना आज़ाद जैसे कुछ प्रमुख
लेकिन संख्या में बहुत कम मुस्लिम नेताओं को छोड़ कर देश के अधिकतर मुसलमान
कांग्रेस के खिलाफ मुस्लिम लीग और
पाकिस्तान के सपने के पीछे आ चुके थे। जिन्ना कांग्रेस को हिन्दू-पार्टी कहते थे।
गांधी जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के सख्त खिलाफ थे। उनका विचार था कि
यह विचार अति भयावह है। एक बहुत ही छोटे हिस्से को छोड़ कर अधिकांश मुसलमान
जन-मानस धर्मान्तरित निवासियों का है और वे भारत में जन्मे पुरखों के वंशज हैं।
इस माहौल में
जिन्ना ने अलग पाकिस्तान की अपनी मांग पर ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस को बाध्य करने
के लिए 16 अगस्त 1946 को मुसलमानों द्वारा सीधी कार्रवाई दिन मनाने
का आह्वान कर दिया। इस आशय के प्रस्ताव के पारित होने के बाद जिन्ना ने अपने भाषण
में पिस्तौल उठाने की बात कर दी थी। तब तक
प्रांतों में अन्तरिम सरकारें बन चुकी थीं। बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार थी।
सुहरावर्दी मुख्यमंत्री थे। उस 16 अगस्त को
कलकत्ता में भारत की पहली बड़ी सामूहिक साम्प्रदायिक हिंसा हुई थी। उसमें लगभग 5000 जानें गईं। अधिकांश सेकुलर इतिहासकार भी उसकी
शुरुआत का जिम्मेदार मुस्लिम लोग और सुहरावर्दी को मानते हैं। हिन्दू-मुसलमान
दोनों ही मारे गए थे। उसके बाद बंगाल के नोआखाली, फिर बिहार में जो हिन्दू-मुस्लिम हिंसा का क्रम शुरु हुआ
उसने कितनी जानें लीं इसका आज तक सही हिसाब नहीं लगा है। वह हमारे निकट इतिहास का
अत्यन्त दुखद, अत्यन्त विवादित,
रक्तरंजित इतिहास है। मैं ‘सीधी कार्रवाई’ की घोषणा और उसके बाद के घटनाक्रम को आधुनिक भारत की पहली
आतंकवादी घटना मानता हूं।
इतिहास बिरले ही
निरपेक्ष, वस्तुपरक, आग्रह और विशिष्ट दृष्टि-मुक्त, सर्वस्वीकार्य होता है। वह अक्सर ही राजनीति का
शिकार हो जाता है। चुनावों के दौरान इतिहास का मनमाना इस्तेमाल तो स्वाभाविक है।
सब अपनी अपनी सुविधा और राजनैतिक हितों के हिसाब से करते हैं। फिर भी इतनी अपेक्षा
तो हम अपने राजनीतिक नेताओं से कर ही सकते हैं, विशेषतः गंभीर माने जाने वाले कमल हासन जैसों से, कि हिन्दू-मुस्लिम परिप्रेक्ष्य में कुछ भी
कहने से पहले वे अतिरिक्त संवेदनशीलता और सावधानी से काम लें। यह अपेक्षा
दक्षिण-वाम-मध्य हर तरह के नेताओं से है।
राहुल देव
5/14/2019