नागरिकता संशोधन क़ानून पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, गुरुग्राम, के संपर्क विभाग द्वारा आयोजित कार्यक्रम में मंगलवार, २१ जनवरी, २०२० को दिया गया मेरा संक्षिप्त वक्तव्य। यह स्मृति पर आधारित है। इसमें निश्चय ही कई बातें छूटी हैं। जो याद रहा है प्रस्तुत है। यह मुख्य वक्ता के वक्तव्य से पहले दिया गया था।
"अभी पूर्व वक्ता ने बहुत विस्तार से इस नागरिकता संशोधन एक्ट के बारे में बात की है और मेरे बाद मुख्य वक्ता बोलने वाले हैं इसलिए मैं यहां इस कानून के गुण दोष में नहीं जाऊंगा। इसलिए संक्षेप में कुछ बातें आपके सामने रखूंगा।
मेरा मानना है कि किसी भी चीज़ को चाहे वह क़ानून ही हो उसके व्यापक संदर्भ से काटकर केवल अपने आप में नहीं देखा जा सकता। क़ानून वेदवाक्य नहीं होता और सरकार ईश्वर नहीं होती। इस क़ानून को भी आज के भारत में जो चल रहा है उसके संदर्भ में रखकर ही देखा और परखा जाना चाहिए। हम जानते हैं कि जीवन में और संसार में कुछ भी एकपक्षीय या एकआयामी नहीं होता। हर चीज़ के कई पक्ष होते हैं कई आयाम होते हैं। मैं पत्रकार हूँ और यह मेरा धर्म है कि जिस पर भी बोलूँ या लिखूँ या सोचूँ तो यथासंभव उसके सभी पहलुओं पर ध्यान दूं।
सबसे पहले मैं आपको बताना चाहता हूँ इस ख़बर के बारे में जो मैंने आज ही पढ़ी यानी वह कल या परसों की घटना है जो बंगलोर में घटी है। वहाँ की एक झील के किनारे क़रीब 3०० परिवारों की एक झुग्गी झोपड़ी बस्ती थी। उसमें वही लोग रहते थे जो हमारे आपके घरों, दूकानों, सड़कों पर छोटे काम करते हैं। कल सुबह बंगलोर नगर पालिका के अधिकारियों और कर्मियों का एक दल वहाँ पहुँचा और उसने पूरी बस्ती पर बुलडोजर चलाकर तीन सौ घरों को ध्वस्त कर दिया। तीन सौ परिवार बेघर हो गए। कारण यह था कि यह अफ़वाह फैल गई थी कि यह बांग्लादेशियों की बस्ती है। नगरपालिका के लोगों ने अपनी ओर से कोई जांच नहीं की और आकर सब पर बुलडोज़र चला दिया। अब आप देखिए कि जहाँ संदेह और डर होता है तो वहाँ सरकारी अधिकारी भी किस तरह बिना जाँच किए, बिना सूचना की पुष्टि के कैसे काम कर देते हैं। उस बस्ती में एक भी बांग्लादेशी नहीं मिला। उसके आधे निवासी कर्नाटक के ही, बेंगलोर से बाहर के ज़िलों से आए हुए लोग थे और आधे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश आदि से वहाँ काम के लिए गए हुए लोग थे। यह है इस क़ानून का एक सीधा परिणाम।
इसलिए मैं कहना चाहता हूँ कि इसको एक ही दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। कहा गया कि पैसा देकर लोग बुलाए जा रहे हैं विरोध करने के लिए। मैं मानता हूं इसका विरोध करने वालों में तीन तरह के लोग हैं। विरोध राजनीतिक भी है, प्रायोजित भी है और स्वतःस्फूर्त भी है। सबको एक ही लाठी से हाँकना मैं ठीक नहीं समझता।
अपने देश में हिंदू मुस्लिम समस्या बहुत पुरानी है। स्वतंत्रता आंदोलन के पहले से चली आ रही है। स्वतंत्रता के बाद ये दूरियां, खाईयां, भय और संदेह कम नहीं हुए। धीरे धीरे बढ़ते गए हैं। विभाजन काफ़ी तीखे हो चुके हैं। कई बार लगता है कि विभाजन के समय जिस तरह का आपसी भय-संदेह और द्वेष था कुछ वैसा ही माहौल फिर बन रहा है। ऐसे माहौल में इस तरह के क़ानून के आने से कैसी अप्रत्याशित दुर्घटना घट सकती है यह बंगलोर की घटना बताती है। मैं मानता हूं कि इसे लाने से पहले सभी पक्षों से सरकार को संवाद करना चाहिए था। ख़ासतौर पर मुसलमानों से क्योंकि सबसे ज़्यादा आशंकाएं उन्हें है।
मैं मानता हूँ कि हर समय हर बात का हल केवल टकराव से, केवल विरोध से नहीं हो सकता। यह हम सब का अनुभव है कि मोहल्ले में भी दो पक्षों में अगर लड़ाई होती है तो अंततः उसका समाधान बातचीत से ही निकलता है। मुझे लगता है सरकार को थोड़ी मुलायमियत से, थोड़ी विनम्रता से उन सभी से बात करनी चाहिए जिनके मन में डर और शक हैं।
आज के माहौल को देखते हुए यह संवाद बेहद ज़रूरी है। मैं संघ की इस पहल का स्वागत करता हूं और आशा करता हूं कि इस संवाद को और विस्तृत बनाया जाएगा। और इनमें उन्हें भी शामिल किया जाएगा जिनके मन में डर और शक गहरे बैठे हुए हैं।"
आज के माहौल को देखते हुए यह संवाद बेहद ज़रूरी है। मैं संघ की इस पहल का स्वागत करता हूं और आशा करता हूं कि इस संवाद को और विस्तृत बनाया जाएगा। और इनमें उन्हें भी शामिल किया जाएगा जिनके मन में डर और शक गहरे बैठे हुए हैं।"