जात सुमिर, जात सुमिर, एही तेरो काज है...
लगभग ५०० साल पहले गुरु नानक देव ने हमसे राम सुमिर, राम सुमिर...कहा था। लेकिन यह राम भवसागर से पार कराने वाला है। भारतीय लोकतंत्र के राजनीतिक भवसागर से पार कराने वाला यह तत्व जाति है यह गुरुमंत्र संभवतः भारत के सर्वश्रेष्ठ समाजशास्त्री और नृतत्वशास्त्री एम एन श्रीनिवास ने १९५७ में दिया था।यह देश के दूसरे लोक सभा चुनाव से कुछ ही दिन पहले हुए भारतीय विज्ञान सम्मेलन में कहा गया था।
उसके बाद के राजनीतिक इतिहास ने इस गुरुमंत्र की सच्चाई और उपयोगिता को न सिर्फ बार-बार प्रमाणित किया है बल्कि उसकी निरंतर बढ़ती हुई प्रासंगिकता अब भारतीय समाज और राजनीति का एक स्थापित, सनातन और निर्विवाद सत्य स्वीकार कर लिया गया है।
श्रीनिवास ने कहा था, “मैं आपके सामने प्रमाण रख रहा हूँ कि पिछले १०० वर्षों में ब्रिटिश-पूर्व काल की तुलना में जाति कहीँ ज्यादा शक्तिशाली हुई है। हमारे संविधान में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार और पिछड़े समुदायों को दी गई सुरक्षाओं ने जाति को दृश्य रूप से मज़बूत किया है। जाति की यह नई सुदृढ़ता ‘एक जातिविहीन और वर्गविहीन समाज’ बनाने के कांग्रेस और अधिकांश राजनीतिक दलों के घोषित उद्देश्य के विपरीत है।” यही मंशा और उद्देश्य संविधान का भी था।
आपातकाल के बाद बनी पहले जनता पार्टी सरकार ने १९७८ में इस सत्य को पहचान कर बीपी मंडल की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग नियुक्त किया। आयोग ने १९८० में रिपोर्ट दी। तब तक कांग्रेस सत्ता में लौट चुकी थी। बीपी मंडल द्वारा दी गई रिपोर्ट को जारी और क्रियान्वित करने की उसकी हिम्मत न हुई। रिपोर्ट १० साल दबी रही। भारतीय राजनीति के उस समय के चमचमाते उद्धारक, सार्वजनिक ईमानदारी और भ्रष्टाचार के विरुद्ध महाभारत के स्वयंभू अर्जुन नवगठित राष्टीय मोर्चा सरकार के प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस मंत्र का स्मरण किया और अगस्त १९९० में आयोग को लागू करने का मंत्रपूरित बाण छोड़ दिया। भारतीय राजनीति का वह सबसे निर्णायक और बड़ा मोड़ था।
मंडल की काट के लिए कमंडल के ब्रह्मास्त्र का सफल प्रयोग करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने अंततः दोनों को जोड़ दिया। इस महामंत्र से उसे अपार और अप्रत्याशित लाभ हुआ है। जाति बनाम धर्म के पुराने अंतर्विरोधोँ को चुनावी राजनीति के वोट गणित ने पाट दिया है। १० अगस्त को पक्ष-विपक्ष की एकता और सर्वानुमति के एक ऐतिहासिक प्रदर्शन में भारत की लोक सभा ने १२७वाँ संविधान संशोधन विधेयक सर्वसम्मति से पारित करके न केवल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई ५०% आरक्षण की बाधा के भी भावी उल्लंघन का मार्ग साफ कर दिया है बल्कि भारतीय राजनीति में जाति ही परम सत्य है इस सिद्धाँत को लगभग अजर-अमर बना दिया है। राम और जाति राजनीति में एकाकार हो गए हैं।
इसका असर क्या होगा? किस पार्टी को कितना फायदा होगा? इसका केंद्र-राज्य संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
उत्तर जटिल और अभी काफी अस्पष्ट हैं। पहले एक सत्य को स्वीकार कर लें। स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद की राष्ट्रीय आकाँक्षाएँ, पूर्वानुमान और संवैधानिक मन्तव्य ये थे कि लोकतंत्र और आधुनिकता मिल कर भारत को जाति और वर्ग के प्राचीन भेदों-भेदभावों-असमानताओं-अन्यायों से मुक्त करेंगे। पिछले ७४ वर्ष का अनुभव इन्हें निरस्त करता है। तकनीकी-सामाजिक परिवर्तनों और सतही शहरी आधुनिकताओं ने एक तरह का सामाजिक सपाटीकरण तो किया है लेकिन वर्ग-जाति चेतना की जकड़ लगभग यथावत है। लोकतंत्र के सबसे शक्तिशाली तत्व राजनीति में तो वह अब ब्रह्म की तरह सर्वव्याप्त, सर्वशक्तिवान है।
पहली स्पष्ट संभावना तो यह है कि प्रत्येक राज्य में सत्तारूढ़ दलों को अगले चुनाव में सीधा लाभ होगा। सब अपने प्रांत में पिछड़ी जातियों-उपजातियों की सूचियाँ बनाएँगे। फिर उन्हें आरक्षण का लाभ देने के कानूनी तरीके खोजेंगे या न्यायपालिका की चिन्ता किए बिना लागू करने की घोषणाएँ कर देंगे। बाद में न्यायालय अगर इन निर्णयों को रद्द भी कर देंगे तो सरकारें अपनी ओर से इन निर्णयों-घोषणाओँ का राजनीतिक कर्मफल अवश्य प्राप्त करेंगी।
सबसे पहले होगा उत्तर प्रदेश। यह सब जानते हैं कि इस विधेयक के पीछे भाजपा की सबसे प्रमुख प्रेरणा तो अगले साल का विधान सभा चुनाव जीतना ही है। वह अब उसने लगभग सुनिश्चित कर लिया है। नरेंद्र मोदी-अमित शाह जोड़ी ने अपने उदय के बाद जिस तरह सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक वर्गों और पार्टियों का एक सर्वथा नया गणित साधा है, जिस तरह अलग-अलग प्रदेशों में स्थानीय जातीय समीकरणों की नई ‘सामाजिक इंजीनियरिंग’ की है उसने पार्टी को अभूतपूर्व और अप्रत्याशित चुनावी सफलताएँ दी हैं। यह उसने किया है जहाँ-जहाँ इसकी गुंजाइश थी वहाँ उन छोटी जातियों-उपजातियों-वर्गों के इंद्रधनुष बना करा है जिन्हें अब तक अपनी छोटी संख्या और सीमित राजनीतिक-आर्थिक प्रभाव के कारण बड़ी और दबंग जातियाँ-वर्ग उपेक्षित और हाशिए पर रखते आए थे। नीतीश कुमार ने अति पिछड़ों-अति दलितों के ऐसे समीकरण बिहार में बनाए और भुनाए।
उत्तर प्रदेश सरकार ने पहले ही ३९ छोटी पिछड़ी उपजातियों की सूची तैयार कर रखी है जिन्हें वह आरक्षण देने का फैसला कर चुकी है। दो दर्जन दूसरी उपजातियों को शामिल करने की उसकी तैयारी है। ऐसा लगभग हर प्रदेश सरकार कर रही है। अब जब महाराष्ट्र सरकार द्वारा मराठा आरक्षण की घोषणा के खिलाफ अपील में सर्वोच्च न्यायालय ने मई २०२१ में इस आरक्षण पर ५०% वाली सीमा की रोक लगा देने के बाद संसद ने इस विधेयक द्वारा क पिछड़ी जातियों की सूची बनाने का अधिकार केंद्र से लेकर राज्यों को सौंप दिया है तो राज्यों का अगला कदम ५० % की सीमा को कानूनी चुनौती देने का ही होगा। जो सर्वोच्च न्यायालय १९९२ से अब तक इंदिरा साहनी मामले में अपने ऐतिहासिक फैसले के तरत इस सीमा को बढ़ाने से इंकार करता आया है वह अब क्या निर्णय करेगा यह अभी नहीं कहा जा सकता। अभी तो सिर्फ इतना ही तय है कि उसे नई चुनौतियाँ मिलेंगी और यह कानूनी लड़ाई लंबी चलेगी। एक आध दशक भी चल सकती है।
इस विधेयक के बाद अब देश में जातीय उथल-पुथल की नई लहर शुरू होगी। जब तक सर्वोच्च न्यायालय की ५०% की सीमा लागू है नई पिछड़ी जातियों-उपजातियों और पहले से आरक्षण का लाभ उठा रही शक्तिशाली जातियों के बीच खींचतान और तनाव होंगे। सरकारी नौकरियों का हलुआ पहले ही लगातार छोटा होता जा रहा है। अब उसी के नए दावेदार आएँगे। स्थापित जातियों से एक मज़बूत विरोध की अपेक्षा की जा सकती है। यह उथल-पुथल क्या रूप धारण करती है, उसके क्या दूरगामी परिणाम होंगे यह भविष्य बताएगा।
इतना तय है कि मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने का बाद जैसे भारतीय राजनीत निर्णायक रूप से रूपांतरित हो गई थी वैसे ही रूपांतरण की संभावना अब सामने खड़ी है। पिछड़ी-अति पिछड़ी जातियों की आकाँक्षाएँ गगनचुंबी होंगी। पिछड़ेपन की नई योग्यताएँ स्थापित होंगी। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पटेल, कर्नाटक में लिंगायत - आरक्षण की माँग को लेकर उग्रतापूर्ण रूप से आंदोलनरत ये जातियाँ अपने अपने प्रांतों में आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक रूप से भरपूर समर्थ और शक्तिशाली जातियाँ हैं। अध्ययन बताते हैं कि ये जातियाँ भूसंपत्ति में, मँहगी उपभोक्ता सामग्रियों के स्वामित्व में, निजी पक्के मकानों में या तो अगड़ी, सवर्ण जातियों के बराबर हैं या कुछ मामलों में आगे हैं। अपनी समग्रता में वे अपने ही जाति परिवारों की छोटी उपजातियों से कहीं ज्यादा ‘अगड़ी’ और समर्थ हैं जितनी तथाकथित अगड़ी जातियाँ।
गैर-यादव पिछड़ी और गैर-जाटव दलित उपजातियों को अपनी ओर करके ही भाजपा ने उप्र में बसपा और सपा को हराया है। अब इस राजनीति के रासायनिक फार्मूले में नए तत्व शामिल होने के लिए तैयार होंगे। अंतर-ओबीसी स्पर्धा बढ़ेगी, तीखी होगी। एक महत्वपूर्ण तत्व यह है कि इन नई आरक्षित जातियों की आरक्षण का लाभ उठाने की क्षमता कितनी है।
अब तक का अनुभव बताता है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर अनुसूचित जातियों और जनजातियों को भी आरक्षण का पूरा फायदा नहीं मिल पाया है। बड़ी संख्या में केंद्रीय और प्रदेश सरकरों में आरक्षित पद खाली पड़े रहते हैं। प्रतियोगिताओं में इतने अभ्यर्थी नहीं होते जो जगहों, सीटों को भर सकें। इसका मतलब है कि ७२-७३ सालों के बाद भी कई पिछड़े वर्गों-जातियों में आरक्षण का पूरा फायदा उठाने के लिए ज़रूरी शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक क्षमताएँ विकसित नहीं हुई हैं। उन्हें विकसित करना होगा। सबसे ज्यादा हाशिए पर खड़ी जातियों के लिए यह बड़ी चुनौती होगी। इसके लिए एक प्रज्ञावान, प्रगतिशील, सुशिक्षित नेतृत्व चाहिए। किस जाति में कितना है यह देखना है।
अगर विभिन्न राज्यों ने कम या ज्यादा हद तक इन नई जातियों को आरक्षण देने में सफलता हासिल कर ली, ५०% की सीमा को बढ़ा लिया तो सवर्ण और पिछड़ों के नए स्थानीय संघर्ष जन्म ले सकते हैं। लेकिन भारतीय लोकतंत्र ने सभी वर्गों, जातियों को सामाजिक न्याय, समानता, समृद्धि और शक्ति के राजकीय ढाँचों में भागीदारी की जिन आकाँक्षाओं को जगा दिया है वे अब अपने पुराने हाशियों में लौटने वाली नहीं है। १२७वें संविधान संशोधन पर सारे देश के सभी राजनीतिक दलों की दुर्लभ एकता और सर्वानुमति ने यह सुनिश्चित कर दिया है।
राहुल देव
१३ अगस्त, २०२१
टीवी९भारतवर्ष ऑनलाइन के लिए लिखा गया लेख