शनिवार, 11 सितंबर 2021

नीरज चोपड़ा और मलिश्का-सेठी के सवाल

नीरज चोपड़ा और मलिश्का-सेठी के सवाल


नीरज चोपड़ा लगातार चर्चा में हैं। नीरज ने १३ साल बाद देश को ओलंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीतने का गौरव दिया है इसलिए यह बहुत स्वाभाविक है। लगभग रोज ही कहीं न कहीं उनका ऑनलाइन सत्कार-संवाद-साक्षात्कार दिखते रहते हैं। टोक्यो ओलंपिक खेलों के बाद पैरालिंपिक खेलों में १९ भारतीय खिलाड़ियों के ऐतिहासिक प्रदर्शन ने देश को एक अभूतपूर्व उत्साह और सकारात्मकता से भरा है। यह बहुत स्वागत योग्य है। इसके कारण देश के अनगिनत किशोरों-युवाओं को खेलों में खुद भी कुछ बड़ा कर दिखाने का की प्रेरणा और आत्मविश्वास मिले हैं। पूरे देश में खेलों और खिलाड़ियों के प्रति एक नई स्वीकार्यता और आदर का भाव जगा है। 


लेकिन इस जीत में कई दूसरे आयाम भी सामने आए हैं। सबसे पहली बात नीरज की ही करते हैं। नीरज के साथ सम्मानों- संवादों और साक्षात्कारों की झड़ी में दो ऐसी घटनाएं खूब चर्चित हुई हैं। उन पर थोड़ा गहराई से विचार करना जरूरी है। इन घटनाओं से वे दो अलग संसार हमारे सामने आते हैं जिनमें यह समाज बटा हुआ है लेकिन वे अक्सर हमें दिखाई नहीं देते।


सबसे चर्चित घटना घटी 20 अगस्त को। मुंबई की रेड एफएम रेडियो जॉकी मलिश्का मेंडोसा ने नीरज चोपड़ा को आभासी बातचीत के लिए बुलाया। वह पूरी बातचीत तो कम ही लोगों ने सुनी होगी लेकिन उस बातचीत के सिलसिले में दो वीडियो ने जो स्वयं मलिश्का ने जारी किए सोशल मीडिया पर हंगामा मचा दिया। एक वीडियो में मलिश्का नीरज से कहती हैं कि वह उनकी एक जादू की झप्पी लेने जा रही हैं और उसके बाद वह आगे झुक कर नीरज का एक आभासी चुंबन लेते हुए दिखती हैं। नीरज बहुत शालीनता से हाथ जोड़ते हैं और कहते हैं, “नहीं जी दूर से ही ठीक है”। दूसरा वीडियो जो बड़ी खुशी और गर्व के साथ मलिश्का ने जारी किया उसमें रेड एफएम के स्टूडियो में मलिश्का और उनकी चार सहयोगी लड़कियां एक पुराने लोकप्रिय फिल्मी गाने “ उड़े जब जब ज़ुल्फ़ें तेरी कुँवारियों का दिल मचले…” की धुन पर नाचती हुई दिख रही हैं और सामने लैपटॉप में यह सब निहारते हुए नीरज चोपड़ा अपनी परिचित शर्मीली मुस्कान के साथ चुपचाप बैठे दिखते हैं।


दूसरी घटना 4 या 5 सितंबर की है। एक अंग्रेज़ी अखबार के एक पत्रकार के साथ ऑनलाइन चर्चा में देश के प्रसिद्ध सौंदर्यशास्त्री और कला इतिहासकार राजीव सेठी शामिल हुए। एक गाड़ी में कहीं जाते हुए राजीव सेठी ने नीरज से बातचीत की शुरुआत इस टिप्पणी से की, “नीरज कितने सुंदर नौजवान हैं आप” और इसके बाद उन्होंने जो सवाल पूछे उन्होंने नीरज को बहुत असहज कर दिया। उन्होंने कहा,” मैं आपसे जानना चाहता हूं कि आप अपनी एथलेटिक्स की जिंदगी और सेक्स जिंदगी को कैसे संतुलित रखते हैं... मैं जानता हूं कि यह एक बेहूदा सवाल है लेकिन यकीन मानिए इसके पीछे एक गंभीर बात भी है।” पर्दे पर देखने से ही असहज लग रहे नीरज ने इस सवाल का जवाब देने से मना कर दिया और कहा, “सर मैंने पहले ही सॉरी कह दिया है।” राजीव इससे विरत नहीं हुए। उन्होंने दोबारा सवाल का जवाब मांगा तो नीरज ने ऐसा जवाब दिया जो इन दो अलग संस्कारों-संसारों और संस्कृति में विभाजित भारत की सच्चाई को बड़े तीखे तरीके से सामने लाता है। नीरज ने कहा, “प्लीज सर आपके सवाल से मेरा मन भर गया है।”


नीरज की उपलब्धि को देखकर उनसे बातचीत में किसी का भी अतिरिक्त उत्साहित होना समझ में आता है। इस असली युवा सितारे की ज़िंदगी के विविध पहलुओं के  बारे में सब कुछ जानने की जिज्ञासा समझ में आती है। लेकिन मीडिया जैसे सार्वजनिक मंच पर हर बातचीत और प्रश्न-उत्तर की एक मर्यादा होती है, कुछ स्वयं स्वीकृत सीमाएं और लक्ष्मण रेखाएं होती हैं। यहां पर इन दोनों घटनाओं में इस मर्यादा और सीमा का उल्लंघन हुआ। सार्वजनिक जिज्ञासा के नाम पर किसी भी व्यक्ति या सितारे की निजता में हस्तक्षेप करने की पत्रकारों को इजाजत नहीं होती। मलिश्का और उनकी पूरी टीम का आचरण पत्रकारिता की व्यावसायिक आचार संहिता और सामान्य भारतीय शिष्टाचार का साफ उल्लंघन था।


स्त्री देह सदियों से पुरुष के आकर्षण और जिज्ञासा का केंद्र रही है। आधुनिकता और बाजारकी विज्ञापन-आधारित व्यवस्था ने दशकों से स्त्री देह को उघाड़ कर, उसे लोभ और उपभोग की वस्तु बना कर उसका दुरुपयोग किया है। अब जब स्त्री की आधुनिकता को उसकी स्वाभाविक पुरुष-आकर्षण और इच्छा को उसके यौन अधिकारों तथा मुक्ति के साथ जोड़ दिया गया है इस संस्कृति और विज्ञापन-विद्वानों ने पुरुष देह को भी आकर्षण और प्रदर्शन की वस्तु बना दिया है। लेकिन यहां बात फिल्म-विज्ञापन जगत में स्त्री/पुरुष देह-प्रदर्शन और देह-उपयोग की नहीं समाचार माध्यमों में व्यावसायिक आधुनिकता के नाम पर पैठ चुकी प्रवृत्ति की है।


अब सोचिए अगर ये ही प्रश्न और प्रदर्शन किसी उसी आधुनिक शहरी दुनिया से आने वाले खिलाड़ी या सितारे से पूछा गया होता जिससे प्रश्नकर्ता आते हैं तो उसका जवाब क्या नीरज जैसा होता। नहीं। क्योंकि उस पृष्ठभूमि और मानसिकता में ये प्रश्न परम सहज हैं। वह बिना झेंपे, सुकुचाए-शर्माए ऐसे स्वागत और सवालों का आनंद लेते हुए जवाब देता। उसकी प्रतिक्रिया नीरज के लगभग उलटी होती। क्या है यह अंतर? क्यों है?


अंतर भाषा और उससे बने संसार का है,संस्कार का है, संवेदनशीलताओं का है, संस्कृति का है। र्अंग्रेजी चैनलों पर या अंग्रेजी फिल्मों-धारावाहिकों में लोगों के सेक्स जीवन को लेकर जैसी खुली बातचीत-संवाद-मजाक और व्यवहार सहज सुनने-देखने को मिलते हैं  वह भाषाई चैनलों, फिल्मों और धारावाहिकों में नहीं। अंग्रेजी की दुनिया भाषा की दुनिया से बिल्कुल अलग है। वहां जो सहज है वह भाषा की दुनिया में चौंकाने वाला और अमर्यादित हो सकता है। अंग्रेजी के टॉक शो में करण जौहर फिल्मी सितारों से जिस सहजता से उनके अंतरंग सेक्स जीवन के बारे में सवाल पूछ लेते हैं, उनकी जैसी ही २४ घंटे अमीरी, अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत में जीने वाले पिता-पुत्री या भाई-बहन या माँ-बेटे ऐसे विषयों पर बिंदास बात कर लेते हैं वह किसी हिंदी या मराठी या बांग्ला टॉक शो में असंभव है। अंग्रेजी की इसी आधुनिकता को अंग्रेजी समाचार माध्यमों और उसके पत्रकारों ने भी अपना लिया है। इसलिए नविका कुमार जैसी वरिष्ठ चैनल संपादक नीरज चोपड़ा से उनके सेक्स जीवन और गर्लफ्रेंड के बारे में आराम से पूछ सकती हैं। 


इसके विपरीत नीरज का व्यवहार देखिए। नीरज की पारिवारिक-सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि देखिए। हरियाणा के एक गाँव से आने वाला, किसान पिता का बेटा जो सिर्फ़ हिंदी में सहज है। उसकी मानसिक दुनिया में उसका गाँव, माँ-बाप, दोस्त-रिश्तेदार और ग्राम्य संस्कारों से बसी है। वह शरीर से कहीँ भी हो मन से उसी दुनिया में रहता है। वह एक युवा, आकर्षक, अत्यंत सफल खिलाड़ी और अब अंतरराष्ट्रीय सितारा है। ऐसा नहीं कि वह नीरज यौवन और इन सब तत्वों के सम्मिलित प्रभाव से मुक्त होगा। वह ब्रह्मचर्य में दीक्षित कोई सन्यासी नहीं है। विपरीत लिंग के लिए उसके मन में कोई आकर्षण नहीं होगा यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन उसके संस्कार और व्यवहार सुंदरियों से घिरे रह कर या उनके द्वारा खुलेआम एक सेक्स प्रतीक के रूप में देखे जाने से बदलते नहीं। वह हर ऐसे सवाल को अपनी सहज शर्मीली मुस्कान के साथ, बिना क्रुद्ध या उग्र हुए टाल देता है।


एक नौजवान, सुंदर और बलिष्ठ खेल सितारे के लिए जैसा उन्मुक्त आचरण और इच्छा मलिश्का ने दिखाई वह सबको अखरा। उस वर्ग के लोगों और स्त्रियों को भी जिससे वह आती हैं। उनका और उनके साथियों का वह नाच गाना केवल एक ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता के स्वागत का उत्साह नहीं था। उसमें एक सेक्स प्रतीक के रूप में उनको देखने की मलिश्का और उनकी सहयोगियों की वर्गीय मनोवृत्ति थी। ये कन्याएं जिस भाषिक-सामाजिक और सांस्कृतिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की दिख रही थीं उसमें यौनिकता की जो जगह और सहज स्वीकार तथा प्रदर्शन है वह अंग्रेजी और अंग्रेजियत के संस्कारों से आता है। ये संस्कार और व्यवहार सीधे-सीधे उस पश्चिम की नकल है जिसकी मीडिया और मनोरंजन संस्कृति, जीवनशैली, मानसिकता, सामाजिक व्यवहार और मूल्यों  को हमारा आधुनिक युवा वर्ग परम काम्य मानकर आत्मसात कर चुका है। उसके लिए पारंपरिक भारतीय शालीनता और मर्यादा पिछड़ेपन की निशानी हैं, अनाधुनिक हैं और उस भारत की चीज़ें हैं जिनका कोई प्रवेश उनके जीवन और आंतरिक संसार में नहीं है। वे उसके आंतरिक संसार से बाहर जा चुके हैं। इनके साथ-साथ शायद कुछ नया, कुछ हंगामेदार करने की वह इच्छा भी रही होगी जो एफएम रेडियो चैनलों, फिल्म और मनोरंजन के दूसरे मंचों पर चलने वाली गलाकाटू होड़ का एक स्वाभाविक परिणाम है।


राजीव सेठी के सवाल को थोड़ा सा अलग दृष्टि से देखना होगा। नहीं जानता कि यह लिखना चाहिए कि नहीं लेकिन उनका पहला वाक्य, “कितने सुंदर नौजवान हैं आप” उनकी निजी यौनिकता की सहज अभिव्यक्ति ही दिखता है अन्यथा सामान्यतः पुरुष दूसरे पुरुषों से इस तरह बातचीत शुरू नहीं करते। लेकिन अपने खिलाड़ी जीवन और सेक्स जीवन के बीच संतुलन साधने को लेकर नीरज से पूछा गया उनका प्रश्न केवल सेठी की विशिष्ट यौनिकता से ही नहीं उपजा था हालांकि हम जानते हैं कि वैकल्पिक यौनिकताओं वाले व्यक्तियों के लिए सेक्स अतिरिक्त रूप से महत्वपूर्ण और प्रबल रूचि की चीज़ होती है। वह सवाल उसी अंग्रेजी पोषित आधुनिक मनुष्य की मानसिकता और जिज्ञासा को दर्शाता है जिसके दर्शन हमें मलिश्का के व्यवहार में होते हैं। 


दिलचस्प बात यह है कि जिस मूल काम की वजह से नीरज आज राष्ट्रीय गर्व बने हैं उस जैवलिन के खेल के बारे में, उनकी तपस्या, तकनीक, संघर्षों और अनुभवों के बारे में इन विभूतियों की जिज्ञासा नहीं थी। उनके लिए नीरज प्रथमतः एक कामना-योग्य पुरुष थे। यह भी कहा गया है कि अगर ऐसा ही आचरण किसी पुरुष ने किसी स्त्री खिलाड़ी के साथ किया होता, ऐसे प्रश्न पूछे होते तो उसका जीना हराम कर दिया गया होता। पहले तो शायद यह पूछने की हिम्मत ही नहीं होती। और भाषाओं के संसार में जीने वालों के लिए तो इस तरह की जिज्ञासाओँ को सार्वजनिक रूप से उठाना और ऐसा व्यवहार करना अकल्पनीय ही है।


मूल बात है वह सामाजिक परिघटना जिसमें हर संभव व्यक्ति और वस्तु का यौनिकीकरण लगातार व्यापक, गहरा और सामान्य के रूप में स्वीकृत होता जा रहा है। कपड़ों, फैशन, विज्ञापन, फिल्मों आदि में तो यह लगभग अनिवार्य अंग था ही अब अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी के नकलची मीडिया की दुनिया में भी प्रचलित हो चला है। लेकिन शायद इतनी ही विशाव, व्यापक और गहरी परिघटना हमारे देश में एक साथ रह रहे इन दो सामाजिक-सांस्कृतिक संसारों के बने हुए और बढ़ते जा रहे विभाजन की है जो एक औपनिवेशिक भाषा के बने रहने के कारण निर्मित हुआ है। भारत और इंडिया का यह विभाजन अगले ५०-१०० वर्षों में कैसा देश और समाज बनाएगा अभी यह कहना कठिन है।  


राहुल देव


९ सितंबर, २०२१

टीवी९भारतवर्ष में प्रकाशित लेख।




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