बुधवार, 28 मई 2008

भारतीय भाषाओं का भविष्य - एक निमन्त्रण

भारतीय भाषाओं का भविष्य

भारत के वर्तमान और भविष्य से जुड़ा एक बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा जो जितना महत्वपूर्ण है उतना ही उपेक्षित भी।

भारत, कम से कम शिक्षित, शहरी भारत, संसार की एक महाशक्ति बनने के सपने देख रहा है। दुनिया भी अब मानने लगी है कि भारत में महाशक्ति बनने की इच्छा, क्षमता और संभावनाएं तीनों मौजूद हैं। यह परिदृश्य हर भारतीय के मन में एक नई आशा, उत्साह और आत्मविश्वास का संचार करता है। हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, योजना आयोग, ज्ञान आयोग, देशी विदेशी विद्वान, अर्थशास्त्री, लेखक, चिंतक, उद्योगपति आदि सब ज्ञान युग में भारत की बौद्धिक शक्ति और उद्यमशीलता की संयुक्त संभावनाओं के ही आधार पर यह कल्पना साकार होती देखते हैं।

इस बौद्धिक शक्ति का साक्षात हमारी शिक्षा करेगी इस पर भी सब सहमत हैं। शिक्षा व्यवस्था को संसाधनों, गुणवत्ता और सुलभता से संपन्न बनाने की बड़ी बड़ी योजनाएं बन रही हैं। ज्ञान आयोग ने शिक्षा संबंधी जो कई सिफारिशें प्रधानमंत्री से की हैं उनमें एक यह भी है कि पूरे देश में अंग्रेजी को पहली कक्षा से पढ़ाना शुरू किया जाय। पूरे देश में बच्चों को बढ़िया अंग्रेज़ी शिक्षा मिल सके उसके लिए अंग्रेज़ी शिक्षकों को प्रशिक्षित करने और 6 लाख नए अंग्रेज़ी शिक्षक तैयार करने की भी उन्होंने सिफारिश की है।

आज देश का हर गाँव, ज़रा भी शिक्षा का महत्व जानने वाला ग़रीब से ग़रीब नागरिक अपने बच्चों के लिए अंग्रेज़ी शिक्षा माँग रहा है। राज्य सरकारों पर ज़बर्दस्त दबाव है कि सरकारी स्कूलों में भी अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी माध्यम की पढ़ाई जल्दी से जल्दी शुरू की जाय। कई राज्य यह कर चुके हैं। बाकी भी करेंगे। सब चाहते हैं कि प्रगति और वैश्वीकरण की इस भाषा से कोई वंचित न रहे। सबने मान लिया है कि भारत के महाशक्ति बनने में अंग्रेज़ी सबसे बड़ा साधन है और होगी।

अंग्रेज़ी-माहात्म्य की इस जयजयकार के नक्कारखाने में हम एक तूती की आवाज़ उठाना चाहते हैं।
अगर यह ऐसे ही चलता रहा तो दो पीढ़ियों के बाद भारत की सारी भाषाओं की स्थिति क्या होगी?
उनमें पढ़ने, लिखने और बोलने वाले कौन होंगे?
क्या ये सभी भाषाएं सिर्फ़ बोलियाँ बन जाएंगी?
या भरी-पूरी, अपने बेहद समृद्ध अतीत की तरह अपने-अपने समाजों की रचनात्मक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक, साहित्यिक अभिव्यक्ति और संवाद की सहज भाषाएं बनी रहेंगी?
क्या आज से दो पीढ़ियों बाद के शिक्षित भारतीय इन भाषाओं में वह सब करेंगे जो आज करते हैं, अब तक करते रहे हैं?
नहीं?
तो क्या आपको भी हमारी तरह यह दिखता है कि 20-30 साल आगे का शिक्षित भारत ज्यादातर हर गंभीर, महत्वपूर्ण काम अंग्रेज़ी में करेगा या करने की जीतोड़ कोशिश में लगा होगा?
अगर हाँ, तो तब इन सारी भाषाओं की स्थिति, व्यवहार के तरीके और क्षेत्र, प्रभाव, शक्ति, प्रतिष्ठा आदि क्या होंगे?
उनकी देश के व्यापक शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, बौद्धिक, साहित्यिक, कलात्मक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक आदि सभी ज्ञानात्मक क्षेत्रों में जगह क्या होगी?

जब लगभग हर शिक्षित भारतीय पढ़ने, लिखने और गंभीर बातचीत में सिर्फ़ अंग्रेज़ी का प्रयोग करेगा, ये सारे काम अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं या पारंपरिक मातृभाषाओं में सहजता से करने में असमर्थ होगा, वैसे ही जैसे आज भी केवल अंग्रेज़ी माध्यम घरों-स्कूलों से निकले बच्चे असमर्थ होते जा रहे हैं, तब कैसा होगा वह भारत?
कैसे होंगे वे भारतीय?
कितने और किस तरह के भारतीय होंगे वे?
इन सारी भाषाओं में जो अमूल्य धरोहर, संवेदनाएं, संस्कार, ज्ञान, जातीय स्मृतियाँ संचित हैं और अब तक हर भारतीय को मातृभाषा के माध्यम से सहज ही मिलती रही हैं उनका क्या होगा?
सिर्फ या ज्यादातर अंग्रेज़ी पढ़ने, लिखने, बोलने वाले महाशक्ति भारत के इन निर्माताओं की सोच, संस्कार, जीवन शैली, सपने, मनोरंजन के तरीके, शौक, महत्वाकांक्षाएं, पहनावा, खानपान, मूल्यबोध, एक भारतीय होने का आत्मबोध – ये सब कैसे होंगे?
भाषा व्यवहार, स्थितियों और भाषाओं के आपसी रिश्तों में यह जो देशव्यापी, विराट और गहरा परिवर्तन लगभग अलक्षित ही घट रहा है क्या देश ने इस पर इसी गहराई से विचार भी करना शुरू किया है?
क्या हमें यह प्रक्रिया दिख भी रही है?
क्या यह विचार-योग्य है?
क्या इन भाषाओं के आसन्न भविष्य के बारे में कुछ करने की ज़रूरत है?
अगर है तो क्या किया जा सकता है?
आपकी हमारी भूमिका इसमें क्या हो सकती है?

हम कुछ मित्र इन प्रश्नों पर चिंतित हैं।

इसे समूची भारतीयता पर घिरता संकट मानते हैं।

काश हम और हमारे ये भय ग़लत और निराधार साबित हों। लेकिन हम इन सवालों पर मिल कर विचार करना चाहते हैं। इस परिवर्तन और इसके निहितार्थों, इससे निकलती संभावनाओं को समझना चाहते हैं।

हम देश के हर प्रमुख भाषाभाषी समाज के साथ यह विचार मंथन और विमर्श करना चाहते हैं। क्योंकि हमें लगता है कि ये सिर्फ़ हिन्दी नहीं हर भारतीय भाषा के सामने खड़े प्रश्न हैं। शायद जीवन-मरण के, अस्तित्व की शर्तों और स्थितियों को बदलने वाले प्रश्न हैं।

हम अंग्रेज़ी के कतई ख़िलाफ़ नहीं। उसमें दक्षता को उपयोगी मानते हैं। लेकिन अपनी भारतीय भाषाओं की केन्द्रीयता, प्रतिष्ठा, शक्ति, गरिमा, व्यवहार और विकास पर आँच नहीं आने देना चाहते। भारत में एक नए भाषायी संतुलन को साधना चाहते हैं जिसमें एक भाषा दूसरी की कीमत पर न बढ़े, हावी न हो।

हम चिंतित हैं निराश नहीं। कुछ अस्पष्ट रणनीतियाँ, कुछ विचार हमारे मन में हैं। उन्हें मित्रों के सामने रख कर, उनसे समझ, सुझाव और सामर्थ्य प्राप्त करना चाहते हैं।

इस विमर्श की शुरूआत हमने शनिवार, 17 मई, 2008 को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक संगोष्ठी से की है। इस चर्चा का उद्घाटन दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने किया। अध्यक्षता हिन्दी के प्रख्यात लेखक, आलोचक और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष अशोक वाजपेयी ने की।

संगोष्ठी में शामिल थे योजना आयोग, विदेश मंत्रालय, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम, अंतरराष्ट्रीय और भारतीय विकास एजेंसियों के प्रतिनिधि, दैनिक भास्कर के समूह संपादक श्रवण गर्ग, आज तक और आईबीएन 7 समाचार चैनलों के प्रमुख कमर वहीद नक़वी और आशुतोष, मानुषी की संपादक और प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता, चिंतक मधु किश्वर, हिन्दी में नए मीडिया विशेषज्ञ बालेन्दु दधीच सहित जाने माने अर्थशास्त्री, लेखक, पत्रकार, हिन्दीसेवी विद्वान।

इसकी दूसरी कड़ी का आयोजन मुंबई में 24 मई को सम्यक् ,न्यास दिल्ली और महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में हुआ। इंडियन मर्चेन्ट्स चैंबर में आयोजित इस गोलमेज़ चर्चा में आशा से अधिक लोग आए। प्रमुख लोगों में शामिल हैं महाराष्ट्र राज्य उर्दू अकादमी के अध्यक्ष, बृहन्मुंबई गुजराती समाज के अध्यक्ष, फिल्मकार महेश भट्ट, पेन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय से पिछले महीने सेवानिवृत्त हुए प्रोफेसर सुरेन्द्र गंभीर, मराठी, हिन्दी, अंग्रेजी, स्विस भाषाओं के वरिष्ठ पत्रकार, मलयालम, बांगला, तमिल भाषाओं में काम करने वाले लोग, उद्योगपति आदि। इसकी विस्तृत रिपोर्ट जल्दी इस ब्लॉग पर चढ़ाई जाएगी।

इसके बाद हम इसे देश की हर प्रमुख राजधानी और शहर में ले जाना चाहते हैं ताकि हर भाषा के मुख्य चिंतकों, कर्णधारों से बात कर सकें, और सारी प्रमुख भारतीय भाषाओं में इस बारे में साझा चिंतन शुरू हो जाए।

इसके बाद हम देश के जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों, विषयों और वर्गों पर केन्द्रित गोष्ठियाँ और कार्यशालाएं आयोजित करना चाहते हैं। ये विषय हैं – भाषा और प्राथमिक शिक्षा, भाषा और उच्च शिक्षा, विज्ञान और तकनीकी शिक्षा, प्रशासन, न्याय व्यवस्था, राजनीति, साहित्य, संस्कृति, अर्थशास्त्र, व्यापार, विकास, ग्रामीण विकास, कृषि, सूचना टेक्नालाजी, मीडिया, मनोरंजन जगत, व्यापार प्रबंधन, विज्ञापन जगत, नीति निर्माण, स्वास्थ्य, धर्म-अध्यात्म, पर्यावरण आदि।

इस मुहिम का तीसरा चरण एक विशाल बहुभाषा राष्ट्रीय सम्मेलन और चौथा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होगा।

इन कार्यक्रमों के साथ ही एक उच्च स्तरीय शोध संस्थान भी हम स्थापित करना चाहते हैं जिसमें भाषाओं और ऊपर लिखे सभी क्षेत्रों के अंतरसंबंधों के महत्वपूर्ण पहलुओं पर ठोस शोध और अध्ययन हो।

हम इस विमर्श में केवल उन्हें ही नहीं जोड़ना चाहते जो भारतीय भाषाओं को बचाने के लिए पहले से जागरूक और सक्रिय हैं। हम हर क्षेत्र और क्षमता के उन विशिष्ट लोगों को भी जोड़ना चाहते हैं जिनकी हमारी भाषाओं को ज़रूरत है भले ही स्वयं उन्हें अभी भाषाओं की ज़रूरत यूँ महसूस न होती हो, जो अभी इस घिरते संकट को देख नहीं रहे हैं।

इस विमर्श में शामिल होने का हम आपको निमंत्रण देते हैं। आपसे सहयोग की भी प्रार्थना करते हैं। इस विमर्श में बहुत सारे लोग, शक्ति और संसाधन लगेंगे। आप इसमें धन, समय और अपनी विशिष्ट दक्षता/क्षमता का योगदान दे सकते हैं।

आपकी प्रतिक्रिया का हम इंतज़ार करेंगे।

राहुल देव, सुरेन्द्र गंभीर, विजय कुमार मल्होत्रा

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