पत्रकारिता की भाषा
ज्ञान और प्रयोग के विभिन्न क्षेत्रों की जरूरत के हिसाब से अलग अलग
तरह की भाषा के अस्तित्व और आवश्यकता को सब स्वीकार करते हैं। किसी भी भाषाविद से,
या विचारवान व्यक्ति से पूछ लीजिए वह इससे सहमत होगा। लेकिन हमारी हिन्दी
पत्रकारिता के वरिष्ठ लोगों तक में वर्षों से यह वैचारिक चलन पनपता रहा है कि
पत्रकारिता की भाषा चूंकि सरल, सहज, सुगम होनी चाहिए इसलिए उसे सड़क की या बाजारू,
अर्धशिक्षित सी भाषा बनाने में कोई हर्ज नहीं अच्छाई ही है। यूं हिन्दी के रक्षकों
ने ही उसे सहज, सरल बनाने के नाम पर आहत, अशक्त करने, अपाहिज बनाने का बीड़ा सा
उठाया हुआ है। सब इसमें शामिल नहीं पर काफी प्रभावशाली लोग, अखबार और समाचार चैनल
जोरशोर से इसमें लगे हुए हैं।
कुछ साल पहले प्रसिद्ध लेखक-चित्रकार प्रभु जोशी ने एक लेख श्रंखला
लिखी थी। हिन्दी को मारने के अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय षडयंत्र और उनकी
रणनीतियों पर ऐसा तीखा, मर्मस्पर्शी, अन्तर्दृष्टिपूर्ण लेखन हिन्दी में शायद अब
तक नहीं हुआ था। उसमें पहली बार प्रभु जोशी ने हिन्दी के कई बड़े अखबारों पर सीधे
सीधे हिन्दी की हत्या का आरोप लगाया था। यह भी कहा था कि वे जानबूझ कर अंग्रेजी के
लिए नर्सरी तैयार कर रहे हैं।
मुझे हिन्दी के प्रति ऐसे किसी सुनियोजित राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय
षडयंत्र होने की बातों पर संदेह रहा है, भले ही यह मेरा भोलापन हो। लेकिन एक सच तो
यह है ही कि धीरे धीरे, जाने या अनजाने हिन्दी के समाचार चैनल, मनोरंजन चैनल और कई
बड़े अखबार हिन्दी को रोज कमजोर करने में लगे हुए हैं।
नई पत्रकारिता में एक बड़ा अन्तर, जिसे पीढ़ियों का अन्तर कह सकते हैं,
यह आया है कि संपादकों, पत्रकारों की यह नई पीढ़ी अपनी यह भूमिका स्वीकार करने को
तैयार नहीं है कि वह अपनी भाषा से अपने पाठकों, दर्शकों की भाषा का निर्माण और
संस्कार करते हैं। पत्रकारिता की लोक शिक्षक की भूमिका निर्विवाद है। यह भूमिका
स्वयं ही एक जिम्मेदारी भी निश्चित कर देती है। यह जिम्मेदारी मीडिया की सामाजिक
जिम्मेदारी से पूरी तरह जुड़ी हुई तो है पर उससे अलग है, अतिरिक्त है।
मीडिया बिना वित्त के नहीं चलता। चल नहीं सकता। वह वित्त निर्माण यानी
लाभ करे यह भी जरूरी है। लेकिन वह एक व्यावसायिक गतिविधि, एक उद्योग होने के साथ
साथ समाज का चित्त निर्माण भी करता है। इस चित्त में शामिल है लगभग वह सबकुछ जो
नागरिकों, और बच्चों की भी, चेतना में जाता है, रहता है, सक्रिय रहता है या
असक्रिय रह कर भी बीज की तरह पड़ जाता है भविष्य़ में कभी उग कर बड़े बन जाने वाले
पौधे की तरह। इस चेतना में नागरिकों की राजनीतिक चेतना, सामाजिक चेतना, जागरूकता,
जानकारी, पूर्वाग्रह, पसन्द-नापसन्द, आकांक्षाएं, अभीप्साएं, वासनाएं, सामाजिक और
निजी नैतिकता की परिवर्तनशील कसौटियां, आदर्श यानी रोल मॉडल, देश-विदेश के तमाम
महत्वपूर्ण विषयों पर राय, विचार, उपभोग के रुझान, जीवनशैलियों की इच्छाएं....सूची
अनन्त है।
इन सबके साथ मीडिया समाज की, अपने दर्शकों-पाठकों की भाषा और अभिव्यक्ति
क्षमता का भी निर्माण करता है। जहां आपसी बातचीत की सामान्य, अनौपचारिक भाषा का
निर्माण समाज और उसके विभिन्न वर्गों के सहज भाषा व्यवहार से, बाजार की बातचीत से
होता है वहीं औपचारिक, उच्चस्तरीय, बौद्धिक, ज्ञान की परिष्कृत भाषा का निर्माण
उसके साहित्य और जन माध्यमों यानी मीडिया से होता है। हर व्यक्ति और समाज को दोनों
तरह की भाषा की जरूरत होती है- सामान्य लोकव्यवहार की अनौपचारिक हल्की फुल्की भाषा
और गंभीर, महत्वपूर्ण ज्ञान प्राप्ति, विचार, विमर्श और ज्ञान निर्माण जैसे उच्चतर
कामों के लिए एक औपचारिक, परिष्कृत, संस्कृत भाषा की। दूसरी भाषा स्वाभाविक ही
पहली की तुलना में कठिन और यत्नसाध्य होती है। अनौपचारिक भाषा अपने आप आ जाती है।
औपचारिक, गंभीर कामों-विचारों-अभिव्यकतियों वाली भाषा सीखनी पड़ती है, साधनी पड़ती
है।
लेकिन पिछले कई सालों से नया चलन यह कहने, मानने और बरतने का चल गया
है कि चूंकि मीडिया की भाषा को सहज, सरल, आम फहम होना चाहिए इसलिए उसे अनिवार्यतः
बाजार की, गली मोहल्लों में बोली जाने वाली हिन्दी ही होना चाहिए। किसी भी गंभीर,
औपचारिक, परिष्कृत और उच्चतर विमर्श में प्रयोग होने वाले शब्दों का प्रयोग करना
हिन्दी को कठिन, दुरूह और बोझिल बनाना है। और चूंकि बाजार की हिन्दी में अंग्रेजी
शब्द भर गए हैं, सामान्य सरल हिन्दी शब्दों को बाहर धकेल कर फादर, मदर, सिस्टर,
रूम, चेयर, टीचर, स्टूडेंट आदि सैकड़ों शब्द उस तथाकथित हिन्दी के आम आदमी की
जिन्दगी में आ गए हैं इसलिए मीडिया की हिन्दी को भी आम फहम बनाने के लिए उसमें इन
शब्दों का यथावत प्रयोग अनिवार्य हो गया है, वांछनीय हो गया है। तो समीकरण यह बनता
है- सहज, सरल हिन्दी यानी हिन्ग्लिश। हिन्दी हिन्दी बनी रह कर सहज नहीं रह सकती।
हिन्गलिश ही अब हिन्दी है।
यह एक आश्चर्यजनक स्थापना है। दुनिया के दूसरे देशों के मीडिया और
भाषा प्रयोग को तो छोडिए, अपने ही देश में अंग्रेजी अखबारों, चैनलों को देख लीजिए।
क्या अंग्रेजी के पत्रकार, अखबार, पत्रिकाएं, चैनल अपनी अंग्रेजी में वैसी ही
हिन्दी या दूसरी भाषाओं की मिलावट करते हैं जैसी हिन्दी वाले करते हैं? क्या अंग्रेजी
मीडिया की अंग्रेजी सडकछाप अंग्रेजी है? क्या अंग्रेजी में कठिन,
पारिभाषिक, जटिल शब्दों का प्रयोग नहीं होता? खूब होता है पर
अंग्रेजीभाषी समाज में यह कभी बहस नहीं चलती कि अंग्रेजी मीडिया की अंग्रेजी कठिन
है, उसे सरल बनाना चाहिए।
मैं अक्सर हिन्दी के एंकरों, संवाददाताओं से सीधे पूछता हूं- क्या
अंग्रेजी के एंकर, संवाददाता अपनी अंग्रेजी से वैसी छूट लेते हैं जैसी आप लेते हैं? नहीं न, तो क्या
आपमें क्षमता कम है, बुद्धि कम है, क्या आपमें आत्मसम्मान कम है या भाषा-स्वाभिमान
कम है, क्या भीतर कहीं हीनता महसूस करते हैं जिसे भरने के लिए अंग्रेजी के शब्द
ढूंसते है, क्या आप उनसे हीन हैं जो ऐसा करते हैं? दूसरी बात उनके सामने
रखता हूं- आप अपनी यह भूमिका या प्रभाव स्वीकार करें न करें लेकिन बच्चों,
किशोरों, वयस्कों की एक बहुत बड़ी संख्या आपको देख कर, सुन कर जाने और अनजाने
दोनों तरीकों से भाषा सीखती है। शब्द सीखती है, उनका इस्तेमाल और अभिव्यक्ति सीखती
है। अधिकांश दर्शकों के लिए एंकरों, संवाददाता की भाषा अनजाने में भाषा-मानक गढ़ने
का काम करती है। वे जिन शब्दों, अभिव्यक्तियों, शैली का प्रयोग करते हैं वह लोगों
के लिए मानक, स्वीकार्य और अनुकरणीय बन जाते हैं। यह प्रक्रिया अवचेतन और चेतन
दोनों स्तरों पर घटती है।
टीवी की भाषा का सबसे सीधा, प्रत्यक्ष प्रभाव
अगर देखना हो तो उन बच्चों की हिन्दी में देखा जा सकता है जो नियमित हिन्दी के
कार्टून चैनल देखते हैं। बहुत से बच्चे इन चैनलों की नकली, किताबी लेकिन खासी
खालिस हिन्दी बोलने लगे हैं, उसके शब्दों, अभिव्यक्तियों और अदा के साथ। जाहिर है वयस्कों पर टीवी का असर इतना सीधा नहीं
होता, पर होता जरूर है। सामान्य लोग चैनलों में सुनाई देने वाली और अखबारों में
दिखने वाली भाषा को अनजाने में ही अपनाने और बरतने लगते हैं। जब इन जगहों पर भी
सड़क पर बोली जाने वाली भ्रष्ट, सस्ती, खिचड़ी, अनावश्यक अंग्रेजी-लदी भाषा
सुनते-देखते हैं तो उनकी अपनी भ्रष्ट भाषा को वैधता, अनुमोदन और शक्ति मिलती है।
इस भाषा के हिमायती, मीडिया में अपसंस्कृति,
अपराध, सनसनीखेज चीजों जैसी दूसरी आपत्तिजनक बातों की सफाई की तरह, यह पुरानी दलील
देते हैं कि जो आम लोग बोलते हैं हम वही बोलते-लिखते हैं। यह मुर्गी और अंडे जैसा
तर्क लग सकता है पर दरअसल है नहीं। यह आलसी, विचारहीन, भाषाहीन, गैरजिम्मेदार या
केवल मालिक का हुक्म बजाने को तत्पर, मजबूर, कमजोर, रीढ़हीन लोगों का तर्क है
जिसके लिए ‘भाषा बहता नीर’ की ढाल का भी सहारा लिया जाता है।
यह ऐसे लोगों का तर्क है जो या तो जानते नहीं
या शुतुर्मुर्ग की तरह देखना नहीं चाहते कि लगभग हर देश और भाषा की पत्रकारिता ने
अपनी अपनी भाषा को अपने अभिनव, रचनात्मक प्रयोगों से समृद्ध किया है, उसे नए शब्द,
नई अभिव्यक्तियां, शैलियां दी हैं। अपनी हिन्दी के पुराने, अनगढ़ रूप को भी
परिष्कृत, समृद्ध और आधुनिक समय की जरूरतों और विषयों के अनुरूप समर्थ बनाने का
काम बहुत बड़ी मात्रा में बड़े संपादकों ने ही अपने अखबारों, पत्रिकाओं के जरिए
किया था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, अम्बिका प्रसाद बाजपेई, माधव सप्रे,
बाबूराव विष्णु पड़ारकर, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि ने हिन्दी को राष्ट्रपति, संसद
जैसे शब्द दिए, अर्थशास्त्र, विज्ञान, दर्शन, समाजशास्त्र, अन्तरराष्ट्रीय संबंधों
जैसे नए विषयों में गंभीर लेखन योग्य बनाया।
कहा जाता है वह समय गया जब पुरानी पीढ़ी के
लोग अखबार पढ़कर अपनी भाषा संवारने, सुधारने और सीखने का काम करते थे। यह भी गलत
है। आज भले ही नई पीढ़ी अखबार, पत्रिकाएं कम पढ़ती है, और यह प्रवृत्ति बढती जा
रही है, तब भी वह अपनी भाषा, नई अभिव्यक्तियां, भाषा प्रयोग के नए तौर-तरीके
अधिकांशतः मीडिया से ही प्राप्त करती है भले ही मीडिया के उनके मंच अखबार न होकर
इंटरनेट और मोबाइल फोन हों।
मंच बदलते रह सकते हैं, अब ईमेल, संदेश और
समाचार हाथघड़ी पर पढ़ने का भी समय आ चुका है, पर एक बात कभी नहीं बदलेगी मनुष्य
के जीवन में- वह है भाषा की केन्द्रीयता, भूमिका और महत्ता। और तकनीक इतनी लचीली
और समर्थ होती है कि वह जटिल से जटिल भाषा की जरूरतों के अनुरूप ढल जाती है। आखिर
दुनिया के सबसे आईटी-सक्षम, इंटरनेट-दक्ष और डिजिटलजीवी लोग- चीनी, जापानी,
कोरियाई, रूसी, इजराइली- आधुनिक से आधुनिक तकनीकों, उत्पादों, कम्प्यूटरों,
मोबाइलों का प्रयोग अपनी अपनी भाषा और लिपि में ही करते हैं। उन भाषाओं में जो
सबसे कठिन और जटिल कही जाती हैं। भाषा और तकनीक में कोई विरोध, कोई असामन्जस्य
नहीं है।
इन सारी बातों के बावजूद हम पाते हैं कि
हिन्दी चैनलों और अखबारों में हिन्ग्लिश लगातार बढ़ती जा रही है। इसके कारण कई है।
पहला तो इस आत्मलज्जित, स्वाभिमानहीन, घटिया समाज में अंग्रेजी का ऐसा ऐतिहासिक
आतंक है कि आम हिन्दी वाला अंग्रेजी और अंग्रेजी वालों के सामने हीन, दीन और
दुर्बल महसूस करता है। इस आत्महीनता, दीनता की कमी वह अपनी हिन्दी में अधिक से
अधिक अंग्रेजी ढूंस कर करता है। यह बात और है कि इससे वह अंग्रेजीदां लोगों के बीच
अपने को हास्यास्पद ही बनाता है। इस हीनता ग्रंथि से हिन्दी के बड़े बड़े दिग्गज
संपादक, पत्रकार, लेखक, शिक्षक भी ग्रस्त पाए जाते हैं। विश्वविद्यालय के हिन्दी
प्रोफेसर भी कक्षा के बाहर सामान्य बातचीत में यह ग्रंथि प्रदर्शित करते हैं, यह
जताने की कोशिश में रहते हैं कि वे अंग्रेजी में भी निष्णात हैं। निन्यान्नबे
प्रतिशत को तो दरअसल केवल हिन्दी बोलने का अभ्यास ही नहीं रह गया है। यह इसलिए भी
है कि घटिया हिन्ग्लिश बोलने पर कोई टोकता नहीं, उनको गलती और शर्म का अहसास नहीं
कराता। नतीजा यह है कि हिन्दी से अनुराग रखने वाले, उसकी रोटी खाने वाले लोग भी
धीरे धीरे कुछ इस व्यापक स्वभाषा-संकोच, कुछ अपनी असावधानी और अचेत भाषा व्यवहार
के कारण सहज ही हिन्ग्लिश भाषी हो गए हैं। उनके मुंह से आदतन यह अंग्रेजी-मिश्रित
हिन्दी ही निकलती है। एंकरिंग में, टीवी पर संवाद देते हुए या मंचों पर।
अच्छी हिन्दी अब केवल हिन्दी की साहित्यिक
गोष्ठियों, पुस्तकों, अखबारों के संपादकीय पन्नों, साहित्यिक-बौद्धिक पत्रिकाओं
में ही पाई जाती है। अच्छी, प्रांजल हिन्दी सुनना अब एक दुर्लभ सुख है।
जीवन को आगे बढ़ाने, अच्छे अवसर, नौकरियां और
इज्ज़त पाने में अंग्रेजी की अनिवार्यता को पूरे भारत ने इस कदर आत्मसात कर लिया
है कि अपनी भाषा बोझ लगने लगी है, शर्म और मजबूरी की वस्तु लगनी लगी है जिसे जितनी
जल्दी उतार कर फेंका जा सके उतना अच्छा है। लेकिन इस भाव का असर जितना हिन्दी समाज
पर पड़ा है उतना मराठी, बंगला, तमिल, मलयालम आदि पर नहीं। अंग्रेजी का आकर्षण, उस
पर अधिकार और प्रयोग वहां भी है, शायद हमसे ज्यादा ही, पर इस कदर आत्मदैन्य, अपनी
भाषा पर शर्म के साथ नहीं। इसके सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक-आर्थिक कारणों के
विश्लेषण का यहां समय नहीं है पर हिन्दी पट्टी के साफ दिखने वाले
सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक पिछड़ेपन को सीधे इस आत्मलज्जा से जोड़ा जा सकता है।
दुर्भाग्य से हमारी पत्रकारिता भी इसके
प्रभाव में आ गई है। एक समय था जब यह पत्रकारिता भाषा सहित तमाम क्षेत्रों में
समाज का नेतृत्व करती थी, आगे चलती थी और उसे समृद्ध करती थी। आज कम से कम भाषा और
कथ्य में वह समाज का अनुसरण कर रही है। यह समाज के लिए भी घातक है, पत्रकारिता के
लिए भी और भाषा के लिए भी। अगर एक जिम्मेदार, जनसरोकारी, सोद्देश्य, मूल्य-आधारित,
मूल्य-वर्धी पत्रकारिता के हम हिमायती हैं, चाहते हैं कि अपनी तमाम समकालीन
चुनौतियों का सामना करते हुए भी भी कुछ आदर्शों, सामाजिक अपेक्षाओं और अपने उच्चतर
दायित्वों के प्रति जवाबदेह और प्रतिबद्ध बनी रहे तो विचार, ज्ञान, लोकतांत्रिकता
आदि का संवर्धन करने के साथ साथ भाषा के लिए भी ऐसी ही निर्माणकारी भूमिका और
उत्तरदायित्व को स्वीकार करना होगा।
एक तरह से हिन्दी सहित सारी भारतीय भाषाओं को
बचाने का काम पत्रकारिता से बेहतर शायद कोई नहीं कर सकता। क्योंकि भाषाओं को
बचाने, बढ़ाने और उनके माध्यम से भारतीयतामात्र को बचाए रखने और बढ़ाने के लिए
तमाम विरोधी राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय शक्तियों का मुकाबला करने के लिए जो
शक्तिशाली जनमत चाहिए उसे पत्रकारिता यानी मीडिया ही तैयार कर सकता है। यह तब हो
सकेगा जब मीडिया और हर स्तर पर उसमें कार्यरत लोग यह समझेंगे कि हमारी सारी भाषाओं
पर बहुत गहरा, विराट, अस्तित्वमूलक संकट है। अगर उससे निपटा नहीं गया तो वह समूची
भारतीय सभ्यता को लील सकता है। इस संकट की प्रकृति को समझ कर समाज, सरकार,
न्यायपालिका, संसद-विधानसभाओं, संस्थाओं, शैक्षिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठान को सचेत,
सक्रिय करने का काम मीडिया ही कर सकता है। पर यह तो वह तभी कर पाएगा जब खुद अपनी
भाषा को बचा पाएगा, और उसके सही, सगर्व, सम्यक्, सामूहिक प्रयोग से उसे संवर्धित
भी करेगा।
राहुल देव
10 जुलाई, 2015
(साहित्य अमृत पत्रिका के पत्रकारिता विशेषांक में प्रकाशित)
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