यह कहना कठिन है कि उनके मन में खान प्रमुख था, मार्केट या फिर खान मार्केट नाम की भौगोलिक ईकाई, एक इलाका। तीनों शब्दों से अलग अलग निहितार्थ निकलते हैं, खास तौर पर तब जब उनके साथ गैंग यानी गिरोह जोड़ दिया जाए।
आज स्थिति यह है कि खान मार्केट गैंग एक खास, खासा रंगीन और साथ ही गंभीर राजनीतिक मुहावरा बन गया है। शुद्ध राजनीतिक रणनीति के एक प्रबल वाकशस्त्र के रूप में यह लाजवाब रचनात्मक और मौलिक आविष्कार है। इसका पहला अवतार लुटियंस गैंग के नाम से जाना जाता था। लुटियन का टीला, लुटियंन की दिल्ली - ये शब्द प्रयोग भी लगभग दो दशक चलते रहे। लेकिन वे सीमित रहे। उनका न तो ऐसा व्यापक प्रभाव हुआ जैसा इस बार हुआ और न ही देश की जनता लुटियंन शब्द का अर्थ और संदर्भ समझती थ। खुद दिल्ली वालों में भी कम ही जानते हैं कि नई दिल्ली, विशेषतः राष्ट्रपति भवन, संसद भवन सहित कई महत्वपूर्ण इमारतें ब्रिटिश स्थापत्यकार एडविन ल्यूटियेन्स की देन हैं। लेकिन यह ताजा मुहावरा ज्यादा व्यापक, ज्यादा प्रभावी, ज्यादा मूर्त और मारक सिद्ध हुआ है।
खान मार्केट दक्षिण दिल्ली के संभ्रांततम इलाकों में वह बाजार है जो सीमान्त गांधी खान अब्दुल गफ्फार के भाई और स्वतंत्रता सेनानी जब्बार खान के नाम पर बना था। मूलतः यह विभाजन के बाद आए विस्थापित परिवारों के लिए बनाया गया रिफ्यूजी इलाका था जिसमें नीचे दुकानें थीं, ऊपर घर। धीरे धीरे अपने चारों ओर उग आई वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों की कालोनियों, विदेशी राजनयिकों के घरों और विभाजन के बाद पनपे दिल्ली के बड़े नवधनाढ्यों के वैभवशाली घरों से घिर कर पंजाबी शरणार्थियों की यह खान मार्केट आज भारत के सबसे महंगे दामों वाला बाजार बन गया है। अब यह पर्यायवाची है अंग्रेजीभाषी, महानगरीय, अमीर, वैश्विक जीवनशैलियों वाले फैशनपरस्त अभिजनों की पसंदीदा जगह का।
लेकिन नरेन्द्र मोदी की 2019 की अप्रत्याशित रूप से बड़ी, ऐतिहासिक विजय के अगर दो प्रमुख कारणों को चुनना हो तो उनमें इस एक पते से राजनीतिक हथियार बन गए मुहावरे को चुनना पडेगा। दूसरा कारण हिन्दू मानस है जिसने इस बार जाति, क्षेत्र आदि की पारंपरिक राजनीतिक दीवारों को ढहा दिया। लेकिन वह अपने आपमें एक अलग विवेचन का विषय है।
तो क्या है यह खान मार्केट गैंग?
यह एक ऐसे अखिल भारतीय वर्ग का प्रतीक है जो मोदी के शब्दों में भारत पर दशकों से राज कर रहा था। संभ्रांत, अमीर, कुलीन, अंग्रेजी जुबान, दिलो-दिमाग और तौर तरीकों वाले नई दिल्ली के चार-पांच वर्ग किमी में रहने, घूमने फिरने वाले इस छोटे से क्वब के सदस्य हैं खानदानी अंग्रेजीदां रईस, बड़े सरकारी अधिकारी, अंग्रेजी अखबारों, चैनलों के संपादक-स्तंभकार, बुद्धिजीवी, कुछ चुनिंदा अमीर और युवा राजनीतिक राजकुमार और राजकुमारियां, ऊंचे नीति निर्माता, जीवनशैली से रईस लेकिन विचारधारा से वामपंथी या वाम रूझान के केन्द्रवादी यानी कांग्रेस संस्कृति में रचे बसे, पुष्पित पल्लवित सांस्कृतिक, बौद्धिक, अकादमिक मठाधीश।
यह वह क्वब है जो अब तक अधिकतर सरकारी नीतियां तय करता था, देश के बौद्धिक-सांस्कृतिक-कला-राजनीतिक-मीडिया विमर्श को संचालित और नियंत्रित करता था। इसमें कुछ क्षेत्रीय कुलीन और विशिष्ट लोग भी शामिल हैं लेकिन मुख्यतः ये दिल्ली के लुटियन ज़ोन में रहने वाले लोग हैें। इनकी प्रमुख भाषा और बौद्धिक संसार एक है- अंग्रेजी। इनकी पसन्द-नापसन्द आधुनिक पश्चिमी ढंग की राजसी अभिरुचियों वाली है। इनके संपर्कसूत्र देश और विदेश के आर्थिक शक्ति केन्द्रों, बहुराष्ट्रीय संस्थाओं, वैश्विक स्वयंसेवी संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, थिंक टैंकों में फैले हुए हैं।
विचारधारा और दृष्टिकोण में यह वर्ग वाम/केन्द्रवाद प्रभावित उदारवादी है। इसके नैतिक मानदंड पश्चिमी उदारवाद निर्मित हैं। सामाजिक संवेदनशीलताएं अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी जीवनशैली से प्रभावित और आधुनिक-वैश्विक ढंग-ढर्रे वाली हैं। धार्मिक कर्मकांड, पारंपरिक संगठित हिन्दू निम्न और मध्यवर्ग के तौर तरीके, तीज त्योहार, संवेदनशीलताएं, पौराणिक मान्यताएं और आस्थाओं को यह वर्ग कभी हिकारत, कभी संग्रहालयी नमूनों की तरह विरक्त कौतूहल और उदासीनता या अधिक से अधिक एक तटस्थ अकादमिक जिज्ञासा से देखता है। उसके आध्यात्मिक शौक अंग्रेजीभाषी आधुनिक धर्मगुरुओं से मिलने जुलने, सुनने पढ़ने से पूरे होते हैं। उसके प्रिय आध्यात्मिक गुरु हैं श्री श्री रविशंकर, जग्गी वासुदेव जो अब सिर्फ सद्गुरु नाम से लोकप्रिय हैं। उनसे पहले स्वामी चिन्मयानन्द, अमरीका वासी दीपक चोपड़ा आदि रहे हैं।
इस वर्ग के प्रांतीय अध्याय भी हैं। ये प्रदेशों की राजधानियों, व्यावसायिक शहरों में केन्द्रित हैं। इनमें वह नवधनाढ्य युवा भी शामिल है जो अपनी मंहगी कारों, घरों, प्रदर्शनीय वैभव से अपने अपने प्रदेशों-शहरों में रईसी शानोशौकत के द्वीपों जैसे रहते विचरते हैं स्थानीय अंग्रेजी-परस्त बुद्धिजीवियों के साथ।
अब तक इस वर्ग की चमक, धमक, ताकत, ग्लैमर, प्रतिष्ठा, वैभव को इन सबसे वंचित वह अपार जनसमूह, विशेषतः युवा, देखता रहा है जो टीवी और स्मार्टफोन की कृपा से इस स्वप्नवत संसार और नवकुबेरों के अस्तित्व और हैसियत का परिचयय तो पा चुका है लेकिन उनके क्वब में प्रवेश की सोच भी नहीं सकता । इस जनसमूह का अपना जीवन अभाव, संघर्ष, रोज़ रोजी-रोटी की आत्महीन, गरिमाहीन कश्मकश भरी लड़ाई, झुग्गियों, संकरी गलियों में घनी बसी गंदी, नीमअंधेरी, अराजक बस्तियों मोहल्लों, छोटी नौकरियों, स्वरोजगारों, सस्ते मनोरंजन, फिल्मी सितारों की भोंडी नकल करते सस्ते फैशन वाले कपड़ों, भीड़ भरी बसों, टेम्पो, साइकिलों, शहरी सस्ते ढाबों के भोजन से बनता है।
भारत की भीषण, और बढ़ती हुई आर्थिक, सामाजिक असमानता ने इस वंचित भारत को इंडिया के वैभव और शक्ति के प्रति ईर्ष्या, उसकी अप्राप्यता से उत्पन्न कुंठा और सतह के नीचे कुलबुलाते आक्रोश, एक दबी हुई घृणा तथा प्रतिहिंसा की आहटों से धीरे धीरे भर दिया है। उसकी अपनी भाषा तक उसे इस अंग्रेजीदां वर्ग से सीधा सादा गरिमापूर्ण मानवीय संवाद तक बना पाने में असमर्थ बनाती है। एक हीनताबोध और दैन्य से भरती है। इस वर्ग की अपनी भाषाएं- हिन्दी, मराठी, पंजाबी, हरियाणवी, भोजपुरी, बुंदेली, मराठी आदि अपने अपने क्षेत्रों में राजनीतिक रूप से सर्वशक्तिशाली हैं लेकिन वह राजनीतिक ताकत संसद और विधानसभाओं, राजनीतिक रैलियों और देशी नेताओं में संवाद में कुछ भागीदारी का संतोष तो देती है पर असली शक्ति के इस अंग्रेजीमय लघु संसार में प्रवेश का अधिकार और साहस नहीं देती।
नरेन्द्र मोदी इसी वर्ग से उठ कर आए हैं। अपनी असाधारण प्रतिभा, जिज्ञासा, मौलिकता, तकनीकप्रियता और आश्चर्यजनक ढंग के अपने लक्ष्य-केन्द्रित पुरुषार्थ के बल पर वह आज ऐसी जगह पहुंचे हैं जहां ये सारे कुलीन, अमीर, अंग्रेजीदां अभिजात लोग अचानक अप्रासंगिक और बौने हो गए हैं। इन दोनों वर्गों के मनोविज्ञान की विस्मयकारी, नैसर्गिक पकड़ मोदी ने दिखाई है। दोनों की नब्ज़ वह जानते हैं। अपने 12 वर्षों के गुजरात के मुख्यमंत्रित्व में उन्होंने इन धनीधोरियों को खूब ठीक से समझा परखा है और उन्हें अपने हितों के लिए साधने में महारत हासिल की है। लेकिन यह वर्ग वोट नहीं दिलाता। वोट दिलाने वाले उस वंचित, विषमताजनित गरीब और निम्न-मध्यवर्गीय वर्ग का मन वह स्वयं अपने जिए हुए अनुभव से जानते हैं।
वंचितों और वैभवशालियों के इस अंतर को जितनी चतुराई और प्रभावी ढंग से नरेंद्र मोदी ने अपने समर्थन के लिए साधा है वैसा आज तक कोई नहीं कर पाया था। 'कामदार' और 'नामदार' शब्दों का लगातार प्रभावी इस्तेमाल करके उन्होंने अपने को अपने काम के बल पर ऊपर उठने वाले और अपना जीवन बनाने वाले वंचित वर्ग से जुड़ा और राहुल गांधी जैसे पैतृक शक्ति और वैभव पाने वाले अभिजात लोगों को 'खान मार्केट' के रूपक का इस्तेमाल करके एक कटघरे में खड़ा कर दिया।
2014 की उनकी जीत ही यह प्रमाणित कर चुकी थी कि अपने सारे बौद्धिक और सामाजिक श्रेष्ठता के दावों और आत्म छवि के बावजूद यह समूचा वामपंथी अंग्रेजी भाषी बौद्धिक वर्ग देश के बहुसंख्यक जनमानस, मुख्यतः हिन्दू मानस, की नब्ज़ को पकड़ने में घोर असफल रहा है। राष्ट्रवाद बनाम आतंकवाद की बहस को देश के हर मुद्दे के ऊपर रखने में और उस के बल पर जीत हासिल करने में उन्होंने एक बार फिर से इस वर्ग की बौद्धिक अक्षमताओं, पूर्वप्रतिज्ञाओं, मान्यताओं और अहंकार को धूल चटाई है। इसके साथ ही यह तो कहना ही पड़ेगा कि इस जीत की नींव हिंदू राष्ट्रवाद के भाव को हर दूसरी भावना और विचार से ज्यादा प्रबल और शक्तिशाली बनाकर रखी गई है। जब चुनावी रणभूमि को इस ढंग से निरूपित किया जाए तो एक तरफ वंशवाद की विरासतवादी, अभिदात राजनीति के प्रतीक राहुल गांधी, उनकी पार्टी तथा उनके सहयोगी तथा दूसरी ओर देश के श्रमशील, अपने संघर्ष के बल पर विकसित होने और ऊपर उठने के लिए छटपटाते वंचित भारतीयों के बीच कोई मुकाबला रह ही नहीं सकता था।
और अब इस 'खान मार्केट गिरोह' के सामने बड़ी चुनौती यह खड़ी है कि वह अगले 5 साल यह समझने में गुजारे कि उनकी सारी समझ, आकलन के तौर तरीके, जन मन को समझने की क्षमता इतने दशक तक भारत के बौद्धिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, प्रशासनिक क्षेत्रों में लगभग एकछत्र साम्राज्य के पैरों तले की जमीन खिसक कर कहां चली गई और कैसे।
बीबीसी हिन्दी के लिए लिखा लेख।
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