शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

सामाजिक मीडिया और हिन्दी




सामाजिक मीडिया और हिन्दी

आजकल जब लगभग हर चीज को सामाजिक मीडिया में उसकी उपस्थिति से नापा जा रहा है, हर संस्था, व्यक्ति, सरकार, कंपनी, साहित्यकर्मी से समाजकर्मी  तक और नेता से अभिनेता तक को सामाजिक मीडिया में उसके वज़न, प्रभाव और लोकप्रियता की कसौटी पर तौला जा रहा है यह स्वाभाविक है कि इस नई तकनीकी-सामाजिक शक्ति और भाषा के संबंध को भी हम समझने की कोशिश करें।

कुछ बुनियादी बातें शुरु में। यह सामाजिक मीडिया भी अंततः और प्रमुखतः एक तकनीकी चीज है और हर तकनीकी आविष्कार की तरह तत्वतः मूल्य-निरपेक्ष है। यानी हर तरह के काम के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है चाहे वह अच्छा हो या बुरा। इसलिए हर तकनीकी आविष्कार की तरह इसके दुरुपयोग पर हमें ज्यादा आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हर वैज्ञानिक या तकनीकी आविष्कार, यदि वह एक व्यापक समाज के लिए रोचक या उपयोगी है, अपनी एक नई जगह बना लेता है। यह जगह पूरी तरह नई भी हो सकती है या पुरानी कुछ चीजों को हटा कर, घटा कर बनाई गई जगह भी। और जब यह नई तकनीक संवाद और संप्रेषण से जुड़ी हो तो स्वाभाविक है कि वह अपनी विशिष्टताओं के साथ  संवाद और संप्रेषण के पुराने, मौजूदा तरीकों, उपकरणों और तकनीकों को कुछ विस्थापित करके ही अपनी जगह बनाती है।

 जब प्रिंट आया तो वाचिक संवाद की सर्वव्याप्तता घटी। जब रेडियो आया तो उसने लिखित और मुद्रित माध्यम को थोड़ा खिसका कर अपनी जगह बनाई। जब टेलीविजन आया तो बहुत से लोगों ने मुद्रित माध्यम के अवसान की घोषणा कर दी। उसका अवसान तो नहीं हुआ लेकिन उसके विकास, प्रभाव, व्याप्तता और राजस्व पर सीधा प्रभाव पड़ा और आज भी पड़ता ही जा रहा है। इतना कि आज टीवी प्रिंट माध्यम से प्रसार और राजस्व दोनों में लगभग आगे निकल रहा है। अब सोशल मीडिया नाम के इस नए प्राणी ने संचार माध्यमों की दुनिया को फिर बड़े बुनियादी ढंग से बदल दिया है। यह प्रक्रिया जारी है और कहां जाकर स्थिर होगी, क्या समीकरण और अनुपात होंगे इन नए माध्यमों के बीच, और कौन से नए, अभी अदृश्य माध्यम क्षितिज पर उभर कर इन समीकरणो को भी उलट पुलट कर देंगे यह कोई नहीं जानता।

लेकिन इन नए संप्रेषण मंचों और पुरानों में एक बुनियादी अंतर है- अखबार, पुस्तकों, पत्रिकाओं, रेडियो और टीवी से अलग इस माध्यम की संवाद क्षमता इसे शायद इन सबसे ज्यादा निजी, आकर्षक, अंतरंग और इसलिए शक्तिशाली बनाती है। दूसरे माध्यम एकदिशात्मक थे। यह नया माध्यम अंतःक्रियात्मक है, आपसी संवाद संभव बनाता है, अपने उपभोक्ता को केवल संप्रेषण का प्राप्तकर्ता नहीं, संवादी और संप्रेषक भी बनाता है। और अब जब यह डेस्कटॉप कम्प्यूटरों, लैपटॉपों से निकल कर मोबाइल फोन पर आ गया है तो सर्वव्यापी, सर्वसमय, सर्वत्र और सर्वसुलभ हो गया है।  इसीलिए यह इतना सम्मोहक, इतना सोख लेने वाला बनता जा रहा है।
  
और हर नए, अपने समय के लिए आधुनिक और सशक्त संचार-संवाद माध्यम की तरह इस सामाजिक मीडिया ने भी मानवीय संबंधों, परिवारों और रिश्तों के आंतरिक समीकरणों, तौर तरीकों, संवाद शैलियों को प्रभावित किया है। इसने राजनीतिक रणनीतियों, विमर्श और चुनावी नतीजों में अपनी जगह बनाई है। कंपनियों और उनके उत्पादों- सेवाओं के प्रचार- प्रसार, उपभोग, मार्केटिंग और ग्राहकों तक पहुंचने, उन्हें छूने के तौर तरीकों को बदला है। व्हाट्सऐप, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, लिंक्डइन आदि ने एक ऐसी आभासी दुनिया बना दी है जिसमें 8-10 साल के बच्चों से लेकर 50-60 की गृहणियों को भी अपने चंगुल में ऐसा फाँस लिया है कि उनका अधिकांश मुक्त समय इसमें ही खपने लगा है। व्यापार, उद्योग, अभिशासन, मनोरंजन, राजनीति और मीडिया जगत के लोगों के लिए तो ये मंच महत्वपूर्ण हैं ही।

इसलिए अब हमारी- आपकी बोलने और लिखने की भाषा पर भी उसका असर दिखने और कई बार सिर चढ़ कर बोलने लगे तो क्या आश्चर्य? सारी भाषाओं में यह असर है पर हमारी हिन्दी पर कुछ ज्यादा ही।
भाषा के दो प्रमुख आयाम हैं। एक, उसका शुद्ध भाषिक आयाम जिसमे उसके शब्दों, वाक्य रचना, व्याकरण, शब्दकोश आदि पर ध्यान रहता है। दूसरा, भाषा का सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक संदर्भ जिसमें उसके इन संदर्भो में प्रयोग, परिवर्तनो, अर्थों, प्रभावों आदि पर ध्यान होता है।

लेकिन केवल भाषा पर सामाजिक मीडिया के प्रभाव और उनके अन्तर्सम्बन्ध पर बात करने से बेहतर होगा हम आज के समय में संवाद और संप्रेषण तथा भाषा के सम्बन्ध पर उसकी संपूर्णता में बात करें। वह इसलिए कि हम जानते हैं कि भाषा यानी शब्द किसी शून्य में नहीं वृहत्तर समाज की तमाम प्रवृत्तियों, रुझानों, सक्रियताओं, प्रक्रियाओं और चलन के बीचों बीच स्थित, सक्रिय और गतिमान रहते हैं।
आज संसार की लगभग हर भाषा पर सामाजिक मीडिया के प्रभाव को महसूस किया जा रहा है, उसे समझने की कोशिश हो रही है और विमर्श हो रहा है। इस नए माध्यम ने हर नए माध्यम की तरह हर भाषा के प्रयोग के तौर तरीकों, शब्दकोश, शैली, शुद्धता, व्याकरण और वाक्य रचना को प्रभावित किया है। यह असर लिखित ही नहीं बोलने वाली भाषा पर भी दिख रहा है। जब ईमेल आई तो कहा गया कि पत्र लिखना ही समाप्त हो जाएगा। वह तो नहीं हुआ लेकिन हाथ या टाइपराइटर से पत्र लिखना ज़रूर लगभग खत्म हो गई है। कम से कम उनमें जो कम्प्यूटर तक पहुंच गए हैं। पर बात यहीं तक नहीं है। अब एसएमएस, ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सऐप ने बहुत से लोगों के लिए ईमेल को भी अनावश्यक और अप्रासंगिक बना दिया है।

एसएमएस ने तो अंग्रेजी से शुरु करके हर भाषा में शब्दों के रूप रंग और वर्तनी को सिर के बल खड़ा कर दिया है। छोटे से फोन की स्क्रीन पर समय और श्रम बचाने के लिए शब्दों के संक्षिप्ततम रूपों के आविष्कार से लेकर एकदम नए शब्दों (उन्हें शब्दिकाएं कहें तो क्या ज्यादा सटीक न होगा...?) को गढ़ लिया गया है। आज जिस एलओएल (lol) का इस्तेमाल हिन्दी वाले भी धड़ल्ले से कर रहे हैं हिन्ग्लिश या रोमन हिन्दी में उसके आविष्कार को 25 साल हो चुके हैं। और बिना उसका असली रूप और अर्थ समझे उसका इस्तेमाल करने वाले बहुत से युवा ज्ञानी हिन्दी में उसे लोल्ज़ लिखने-बोलने लगे हैं।

भाषा और शब्दों के सौन्दर्य, मर्यादा, गरिमा और स्वरूप की चिन्ता करने वाले सभी इस नई भाषा के प्रभाव और भविष्य पर तो चिन्तित हैं ही इस पर भी हैं कि इस खिचड़ी, विकृत, कई बार लंगड़ी भाषा की खुराक पर पल-बढ़ रही किशोर और युवा पीढ़ी वयस्क होने पर किसी भी एक भाषा में सशक्त और प्रभावी संप्रेषण के योग्य बचेगी या नहीं। यह खतरा इसलिए भी गंभीर होता जा रहा है कि ये नई पीढ़ियां पाठ्यपुस्तकों के अलावा कुछ भी गंभीर, स्वस्थ, विचारपूर्ण लेखन, साहित्य, वैचारिक पठन से लगातार दूर जा रही हैं। अच्छी, असरदार भाषा अच्छा पढ़ने से ही आती है। अच्छी भाषा के बिना गहरा, गंभीर विचार, विमर्श, चिंतन और ज्ञान-निर्माण संभव नहीं।

वे पीढियां जो विद्यालयों की मजबूरन पढ़ाई के बाहर केवल या अधिकांशतः यह खिचड़ी, लंगड़ी-लूली, भ्रष्ट भाषा ही पढ़ लिख रही हैं उसकी बौद्धिक क्षमताएं ठीक से विकसित होंगी कि नहीं? अगर गंभीर चिंतन और विमर्श में सक्षम ही नहीं होंगे हमारे भावी नागरिक तो उसका उनके विकास के अवसरों और व्यापक सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, बौद्धिक, राजनीतिक विकास पर कैसा असर पड़ेगा इस पर अभी हमारे बौद्धिक समाज, सरकार और नीतिनिर्माताओं का ध्यान बहुत कम गया है।

हिन्दी पर यह मार दोहरी है। स्वाभिमानी समाजों के विपरीत व्यापक हिन्दी समाज एक आत्मलज्जित समाज है। अंग्रेजी की शक्ति और प्रतिष्ठा से आक्रांत, स्वभाषा-गौरव से हीन, अंग्रेजी और अंग्रेजी वालों के सामने भीतर से दीन हो जाने वाला यह समाज अपनी सहज, सुपरिचित, सशक्त हिन्दी में अंग्रेजी के शब्द ठूंस कर अपना दैन्य ढंकने की कोशिश में इतना व्यस्त है कि उसे पता ही नहीं चल रहा कि वह किसी भी भाषा के घर और घाट से वंचित भाषिक अपाहिज बनता जा रहा है।

लेकिन सामाजिक मीडिया का असर सारा नकारात्मक ही नहीं है। ट्विटर और एसएमएस की शब्द सीमा ने, खास तौर पर ट्विटर की, अपनी बात को चुस्त, कम से कम शब्दों में, 140 मात्राओं के भीतर कहने के अभ्यास को संभव बनाया है। संक्षिप्त, चुस्त, चुटीले किन्तु प्रभावी संप्रेषण का यह अभ्यास हमारी लंबी चौड़ी, अनावश्यक लफ्फाजी की हमारी पुरानी आदतों के लिए अच्छी खुराक है।

सामाजिक मीडिया ने सार्वजनिक अभिव्यक्ति और एक बड़े समुदाय तक निडर और बिना रोक- टोक और नियन्त्रण के अपनी बात, अपनी सोच और अनुभव पहुंचाना संभव बना कर अरबों लोगो को एक नई ताकत, समाज और अभिशासन में, छोटी बड़ी बहसों मे भागीदारी का नया स्वाद और हिम्मत दी है। सामाजिक विमर्श की यह मुक्त लोकतांत्रिकता शुभ है। लोकतांत्रिक भावना और व्यवहार को व्यापक और गहरा और समावेशी बनाने वाली है। इस नई ताकत ने सरकारों, शासनों, शासकों को ज्यादा पारदर्शी, संवादमुखी और जवाबदेह बनाया है, जनता के मन और नब्ज़ को जानने का नया माध्यम दिया है।

सामाजिक मीडिया की ताकत ने शासनों को, पार्टियों को, नेताओं उनके फैसलों, नीतियों और व्यवहारों को बदलने पर भी मजबूर किया है। यह सब स्वागतयोग्य है।

पर क्या इस मीडिया ने लोक- विमर्श को ज्यादा गंभीर, गहरा, व्यापक, उदार बनाया है? क्या जब करोड़ों लोग एक साथ इतना लिख- बोल रहे हैं इन मंचों पर उससे सार्वजनिक विमर्श की गुणवत्ता बढ़ी है, स्तर बेहतर हुआ है?

इस पर दो टूक राय देना संभव नहीं क्योंकि संसार में कुछ भी एकांगी, एकदिशात्मक नहीं होता, जैसा हम शुरु में ही कह चुके हैं। विमर्श की व्यापकता, भागीदारी, समावेशी चरित्र और विशालता बढ़ी है। ऐसे अनन्त लेखक, विचारक, प्रबुद्ध, चिंतनशील नागरिक सामने आए हैं जो अब तक अखबारों, पत्रिकाओं, चैनलों से बाहर थे। उन्हें भी तमाम नामी, स्थापित लोगों के साथ सीधे संवाद करने और उसे समृद्ध बनाने का अवसर मिला है। लेकिन हर तस्वीर की तरह इसका दूसरा पहलू भी है।


भाषा की आंतरिक संरचना और बाह्य प्रयोग को प्रभावित, और कई बार विकृत भी, करने के साथ साथ इस मीडिया द्वारा प्रयोगकर्ताओं को दी गई अज्ञातता ने एक नए तरीके की प्रवृत्ति को जन्म दिया है। इस अज्ञातता का लाभ उठा कर बहुत से लोगों ने गाली गलौज, अश्लीलता, वाचिक हिंसा और बेहद आपत्तिजनक, हिंसक और अपमानजनक बातों की अभिव्यक्ति से पूरे विमर्श को दूषित किया है। यह इतना बढ गया है कि किसी भी मुद्दे पर फेसबुक या ट्विटर पर एक शालीन बहस या संवाद करना ही लगभग असंभव हो गया है।

इस सामाजिक मीडिया का असामाजिक, सभ्यता-विरोधी चेहरा भी सामने आया है। विचारहीन, कुत्सा, अज्ञान, क्रूरता, प्रतिहिंसा, घृणा से भरे, सच्चे- झूठे आक्रोशों, कुंठाओं, दुराग्रहों से तिलमिलाते, कुढ़ते दिमागों को अपनी गंदगी इन माध्यमों पर निकालने का भी मौका और मंच मिल गया है और वे पूरे जोश से इसका फायदा उठा रहे हैं। इस परिघटना को समानांतर रूप से समाज और राजनीति में बढ़ती खाइयों, दूरियों, दुराग्रहों और दुरभिसंधियों ने बढ़ाया और तीखा किया है। अंग्रेजी में ट्रौलिंग कहलाने वाली इस प्रवृत्ति ने गालियों, धमकियों, चरित्र हत्या का सहारा लेकर बहुत से क्षेत्रों के प्रमुख व्यक्तियों, नेताओं, पत्रकारों, चिंतकों, अभिनेताओं के निजी जीवन को प्रभावित किया है।

संवाद, संप्रेषण और उनकी भाषा की सारी मर्यादाओं और शालीनता का यह बढ़ता अतिक्रमण और प्रदूषण अंततः अगली पीढ़ियों की सहज संवाद शैली का स्थाई अंग और तरीका न बन जाए इसकी चिन्ता करना समाज के सभी प्रबुद्ध वर्गों के साथ साथ राज्य की संस्थाओं और उनके नियामकों की साझा जिम्मेदारी है।

राहुल देव
13.9.2016


जागरण के लिए लिखा गया।

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

पत्रकारिता की भाषा

पत्रकारिता की भाषा


ज्ञान और प्रयोग के विभिन्न क्षेत्रों की जरूरत के हिसाब से अलग अलग तरह की भाषा के अस्तित्व और आवश्यकता को सब स्वीकार करते हैं। किसी भी भाषाविद से, या विचारवान व्यक्ति से पूछ लीजिए वह इससे सहमत होगा। लेकिन हमारी हिन्दी पत्रकारिता के वरिष्ठ लोगों तक में वर्षों से यह वैचारिक चलन पनपता रहा है कि पत्रकारिता की भाषा चूंकि सरल, सहज, सुगम होनी चाहिए इसलिए उसे सड़क की या बाजारू, अर्धशिक्षित सी भाषा बनाने में कोई हर्ज नहीं अच्छाई ही है। यूं हिन्दी के रक्षकों ने ही उसे सहज, सरल बनाने के नाम पर आहत, अशक्त करने, अपाहिज बनाने का बीड़ा सा उठाया हुआ है। सब इसमें शामिल नहीं पर काफी प्रभावशाली लोग, अखबार और समाचार चैनल जोरशोर से इसमें लगे हुए हैं।
कुछ साल पहले प्रसिद्ध लेखक-चित्रकार प्रभु जोशी ने एक लेख श्रंखला लिखी थी। हिन्दी को मारने के अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय षडयंत्र और उनकी रणनीतियों पर ऐसा तीखा, मर्मस्पर्शी, अन्तर्दृष्टिपूर्ण लेखन हिन्दी में शायद अब तक नहीं हुआ था। उसमें पहली बार प्रभु जोशी ने हिन्दी के कई बड़े अखबारों पर सीधे सीधे हिन्दी की हत्या का आरोप लगाया था। यह भी कहा था कि वे जानबूझ कर अंग्रेजी के लिए नर्सरी तैयार कर रहे हैं।
मुझे हिन्दी के प्रति ऐसे किसी सुनियोजित राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय षडयंत्र होने की बातों पर संदेह रहा है, भले ही यह मेरा भोलापन हो। लेकिन एक सच तो यह है ही कि धीरे धीरे, जाने या अनजाने हिन्दी के समाचार चैनल, मनोरंजन चैनल और कई बड़े अखबार हिन्दी को रोज कमजोर करने में लगे हुए हैं।
नई पत्रकारिता में एक बड़ा अन्तर, जिसे पीढ़ियों का अन्तर कह सकते हैं, यह आया है कि संपादकों, पत्रकारों की यह नई पीढ़ी अपनी यह भूमिका स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि वह अपनी भाषा से अपने पाठकों, दर्शकों की भाषा का निर्माण और संस्कार करते हैं। पत्रकारिता की लोक शिक्षक की भूमिका निर्विवाद है। यह भूमिका स्वयं ही एक जिम्मेदारी भी निश्चित कर देती है। यह जिम्मेदारी मीडिया की सामाजिक जिम्मेदारी से पूरी तरह जुड़ी हुई तो है पर उससे अलग है, अतिरिक्त है।
मीडिया बिना वित्त के नहीं चलता। चल नहीं सकता। वह वित्त निर्माण यानी लाभ करे यह भी जरूरी है। लेकिन वह एक व्यावसायिक गतिविधि, एक उद्योग होने के साथ साथ समाज का चित्त निर्माण भी करता है। इस चित्त में शामिल है लगभग वह सबकुछ जो नागरिकों, और बच्चों की भी, चेतना में जाता है, रहता है, सक्रिय रहता है या असक्रिय रह कर भी बीज की तरह पड़ जाता है भविष्य़ में कभी उग कर बड़े बन जाने वाले पौधे की तरह। इस चेतना में नागरिकों की राजनीतिक चेतना, सामाजिक चेतना, जागरूकता, जानकारी, पूर्वाग्रह, पसन्द-नापसन्द, आकांक्षाएं, अभीप्साएं, वासनाएं, सामाजिक और निजी नैतिकता की परिवर्तनशील कसौटियां, आदर्श यानी रोल मॉडल, देश-विदेश के तमाम महत्वपूर्ण विषयों पर राय, विचार, उपभोग के रुझान, जीवनशैलियों की इच्छाएं....सूची अनन्त है।
इन सबके साथ मीडिया समाज की, अपने दर्शकों-पाठकों की भाषा और अभिव्यक्ति क्षमता का भी निर्माण करता है। जहां आपसी बातचीत की सामान्य, अनौपचारिक भाषा का निर्माण समाज और उसके विभिन्न वर्गों के सहज भाषा व्यवहार से, बाजार की बातचीत से होता है वहीं औपचारिक, उच्चस्तरीय, बौद्धिक, ज्ञान की परिष्कृत भाषा का निर्माण उसके साहित्य और जन माध्यमों यानी मीडिया से होता है। हर व्यक्ति और समाज को दोनों तरह की भाषा की जरूरत होती है- सामान्य लोकव्यवहार की अनौपचारिक हल्की फुल्की भाषा और गंभीर, महत्वपूर्ण ज्ञान प्राप्ति, विचार, विमर्श और ज्ञान निर्माण जैसे उच्चतर कामों के लिए एक औपचारिक, परिष्कृत, संस्कृत भाषा की। दूसरी भाषा स्वाभाविक ही पहली की तुलना में कठिन और यत्नसाध्य होती है। अनौपचारिक भाषा अपने आप आ जाती है। औपचारिक, गंभीर कामों-विचारों-अभिव्यकतियों वाली भाषा सीखनी पड़ती है, साधनी पड़ती है।
लेकिन पिछले कई सालों से नया चलन यह कहने, मानने और बरतने का चल गया है कि चूंकि मीडिया की भाषा को सहज, सरल, आम फहम होना चाहिए इसलिए उसे अनिवार्यतः बाजार की, गली मोहल्लों में बोली जाने वाली हिन्दी ही होना चाहिए। किसी भी गंभीर, औपचारिक, परिष्कृत और उच्चतर विमर्श में प्रयोग होने वाले शब्दों का प्रयोग करना हिन्दी को कठिन, दुरूह और बोझिल बनाना है। और चूंकि बाजार की हिन्दी में अंग्रेजी शब्द भर गए हैं, सामान्य सरल हिन्दी शब्दों को बाहर धकेल कर फादर, मदर, सिस्टर, रूम, चेयर, टीचर, स्टूडेंट आदि सैकड़ों शब्द उस तथाकथित हिन्दी के आम आदमी की जिन्दगी में आ गए हैं इसलिए मीडिया की हिन्दी को भी आम फहम बनाने के लिए उसमें इन शब्दों का यथावत प्रयोग अनिवार्य हो गया है, वांछनीय हो गया है। तो समीकरण यह बनता है- सहज, सरल हिन्दी यानी हिन्ग्लिश। हिन्दी हिन्दी बनी रह कर सहज नहीं रह सकती। हिन्गलिश ही अब हिन्दी है।
यह एक आश्चर्यजनक स्थापना है। दुनिया के दूसरे देशों के मीडिया और भाषा प्रयोग को तो छोडिए, अपने ही देश में अंग्रेजी अखबारों, चैनलों को देख लीजिए। क्या अंग्रेजी के पत्रकार, अखबार, पत्रिकाएं, चैनल अपनी अंग्रेजी में वैसी ही हिन्दी या दूसरी भाषाओं की मिलावट करते हैं जैसी हिन्दी वाले करते हैं? क्या अंग्रेजी मीडिया की अंग्रेजी सडकछाप अंग्रेजी है? क्या अंग्रेजी में कठिन, पारिभाषिक, जटिल शब्दों का प्रयोग नहीं होता? खूब होता है पर अंग्रेजीभाषी समाज में यह कभी बहस नहीं चलती कि अंग्रेजी मीडिया की अंग्रेजी कठिन है, उसे सरल बनाना चाहिए।
मैं अक्सर हिन्दी के एंकरों, संवाददाताओं से सीधे पूछता हूं- क्या अंग्रेजी के एंकर, संवाददाता अपनी अंग्रेजी से वैसी छूट लेते हैं जैसी आप लेते हैं? नहीं न, तो क्या आपमें क्षमता कम है, बुद्धि कम है, क्या आपमें आत्मसम्मान कम है या भाषा-स्वाभिमान कम है, क्या भीतर कहीं हीनता महसूस करते हैं जिसे भरने के लिए अंग्रेजी के शब्द ढूंसते है, क्या आप उनसे हीन हैं जो ऐसा करते हैं? दूसरी बात उनके सामने रखता हूं- आप अपनी यह भूमिका या प्रभाव स्वीकार करें न करें लेकिन बच्चों, किशोरों, वयस्कों की एक बहुत बड़ी संख्या आपको देख कर, सुन कर जाने और अनजाने दोनों तरीकों से भाषा सीखती है। शब्द सीखती है, उनका इस्तेमाल और अभिव्यक्ति सीखती है। अधिकांश दर्शकों के लिए एंकरों, संवाददाता की भाषा अनजाने में भाषा-मानक गढ़ने का काम करती है। वे जिन शब्दों, अभिव्यक्तियों, शैली का प्रयोग करते हैं वह लोगों के लिए मानक, स्वीकार्य और अनुकरणीय बन जाते हैं। यह प्रक्रिया अवचेतन और चेतन दोनों स्तरों पर घटती है। 
टीवी की भाषा का सबसे सीधा, प्रत्यक्ष प्रभाव अगर देखना हो तो उन बच्चों की हिन्दी में देखा जा सकता है जो नियमित हिन्दी के कार्टून चैनल देखते हैं। बहुत से बच्चे इन चैनलों की नकली, किताबी लेकिन खासी खालिस हिन्दी बोलने लगे हैं, उसके शब्दों, अभिव्यक्तियों और अदा के साथ।  जाहिर है वयस्कों पर टीवी का असर इतना सीधा नहीं होता, पर होता जरूर है। सामान्य लोग चैनलों में सुनाई देने वाली और अखबारों में दिखने वाली भाषा को अनजाने में ही अपनाने और बरतने लगते हैं। जब इन जगहों पर भी सड़क पर बोली जाने वाली भ्रष्ट, सस्ती, खिचड़ी, अनावश्यक अंग्रेजी-लदी भाषा सुनते-देखते हैं तो उनकी अपनी भ्रष्ट भाषा को वैधता, अनुमोदन और शक्ति मिलती है।
इस भाषा के हिमायती, मीडिया में अपसंस्कृति, अपराध, सनसनीखेज चीजों जैसी दूसरी आपत्तिजनक बातों की सफाई की तरह, यह पुरानी दलील देते हैं कि जो आम लोग बोलते हैं हम वही बोलते-लिखते हैं। यह मुर्गी और अंडे जैसा तर्क लग सकता है पर दरअसल है नहीं। यह आलसी, विचारहीन, भाषाहीन, गैरजिम्मेदार या केवल मालिक का हुक्म बजाने को तत्पर, मजबूर, कमजोर, रीढ़हीन लोगों का तर्क है जिसके लिए भाषा बहता नीर की ढाल का भी सहारा लिया जाता है।
यह ऐसे लोगों का तर्क है जो या तो जानते नहीं या शुतुर्मुर्ग की तरह देखना नहीं चाहते कि लगभग हर देश और भाषा की पत्रकारिता ने अपनी अपनी भाषा को अपने अभिनव, रचनात्मक प्रयोगों से समृद्ध किया है, उसे नए शब्द, नई अभिव्यक्तियां, शैलियां दी हैं। अपनी हिन्दी के पुराने, अनगढ़ रूप को भी परिष्कृत, समृद्ध और आधुनिक समय की जरूरतों और विषयों के अनुरूप समर्थ बनाने का काम बहुत बड़ी मात्रा में बड़े संपादकों ने ही अपने अखबारों, पत्रिकाओं के जरिए किया था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, अम्बिका प्रसाद बाजपेई, माधव सप्रे, बाबूराव विष्णु पड़ारकर, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि ने हिन्दी को राष्ट्रपति, संसद जैसे शब्द दिए, अर्थशास्त्र, विज्ञान, दर्शन, समाजशास्त्र, अन्तरराष्ट्रीय संबंधों जैसे नए विषयों में गंभीर लेखन योग्य बनाया।
कहा जाता है वह समय गया जब पुरानी पीढ़ी के लोग अखबार पढ़कर अपनी भाषा संवारने, सुधारने और सीखने का काम करते थे। यह भी गलत है। आज भले ही नई पीढ़ी अखबार, पत्रिकाएं कम पढ़ती है, और यह प्रवृत्ति बढती जा रही है, तब भी वह अपनी भाषा, नई अभिव्यक्तियां, भाषा प्रयोग के नए तौर-तरीके अधिकांशतः मीडिया से ही प्राप्त करती है भले ही मीडिया के उनके मंच अखबार न होकर इंटरनेट और मोबाइल फोन हों।
मंच बदलते रह सकते हैं, अब ईमेल, संदेश और समाचार हाथघड़ी पर पढ़ने का भी समय आ चुका है, पर एक बात कभी नहीं बदलेगी मनुष्य के जीवन में- वह है भाषा की केन्द्रीयता, भूमिका और महत्ता। और तकनीक इतनी लचीली और समर्थ होती है कि वह जटिल से जटिल भाषा की जरूरतों के अनुरूप ढल जाती है। आखिर दुनिया के सबसे आईटी-सक्षम, इंटरनेट-दक्ष और डिजिटलजीवी लोग- चीनी, जापानी, कोरियाई, रूसी, इजराइली- आधुनिक से आधुनिक तकनीकों, उत्पादों, कम्प्यूटरों, मोबाइलों का प्रयोग अपनी अपनी भाषा और लिपि में ही करते हैं। उन भाषाओं में जो सबसे कठिन और जटिल कही जाती हैं। भाषा और तकनीक में कोई विरोध, कोई असामन्जस्य नहीं है।
इन सारी बातों के बावजूद हम पाते हैं कि हिन्दी चैनलों और अखबारों में हिन्ग्लिश लगातार बढ़ती जा रही है। इसके कारण कई है। पहला तो इस आत्मलज्जित, स्वाभिमानहीन, घटिया समाज में अंग्रेजी का ऐसा ऐतिहासिक आतंक है कि आम हिन्दी वाला अंग्रेजी और अंग्रेजी वालों के सामने हीन, दीन और दुर्बल महसूस करता है। इस आत्महीनता, दीनता की कमी वह अपनी हिन्दी में अधिक से अधिक अंग्रेजी ढूंस कर करता है। यह बात और है कि इससे वह अंग्रेजीदां लोगों के बीच अपने को हास्यास्पद ही बनाता है। इस हीनता ग्रंथि से हिन्दी के बड़े बड़े दिग्गज संपादक, पत्रकार, लेखक, शिक्षक भी ग्रस्त पाए जाते हैं। विश्वविद्यालय के हिन्दी प्रोफेसर भी कक्षा के बाहर सामान्य बातचीत में यह ग्रंथि प्रदर्शित करते हैं, यह जताने की कोशिश में रहते हैं कि वे अंग्रेजी में भी निष्णात हैं। निन्यान्नबे प्रतिशत को तो दरअसल केवल हिन्दी बोलने का अभ्यास ही नहीं रह गया है। यह इसलिए भी है कि घटिया हिन्ग्लिश बोलने पर कोई टोकता नहीं, उनको गलती और शर्म का अहसास नहीं कराता। नतीजा यह है कि हिन्दी से अनुराग रखने वाले, उसकी रोटी खाने वाले लोग भी धीरे धीरे कुछ इस व्यापक स्वभाषा-संकोच, कुछ अपनी असावधानी और अचेत भाषा व्यवहार के कारण सहज ही हिन्ग्लिश भाषी हो गए हैं। उनके मुंह से आदतन यह अंग्रेजी-मिश्रित हिन्दी ही निकलती है। एंकरिंग में, टीवी पर संवाद देते हुए या मंचों पर।
अच्छी हिन्दी अब केवल हिन्दी की साहित्यिक गोष्ठियों, पुस्तकों, अखबारों के संपादकीय पन्नों, साहित्यिक-बौद्धिक पत्रिकाओं में ही पाई जाती है। अच्छी, प्रांजल हिन्दी सुनना अब एक दुर्लभ सुख है।
जीवन को आगे बढ़ाने, अच्छे अवसर, नौकरियां और इज्ज़त पाने में अंग्रेजी की अनिवार्यता को पूरे भारत ने इस कदर आत्मसात कर लिया है कि अपनी भाषा बोझ लगने लगी है, शर्म और मजबूरी की वस्तु लगनी लगी है जिसे जितनी जल्दी उतार कर फेंका जा सके उतना अच्छा है। लेकिन इस भाव का असर जितना हिन्दी समाज पर पड़ा है उतना मराठी, बंगला, तमिल, मलयालम आदि पर नहीं। अंग्रेजी का आकर्षण, उस पर अधिकार और प्रयोग वहां भी है, शायद हमसे ज्यादा ही, पर इस कदर आत्मदैन्य, अपनी भाषा पर शर्म के साथ नहीं। इसके सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक-आर्थिक कारणों के विश्लेषण का यहां समय नहीं है पर हिन्दी पट्टी के साफ दिखने वाले सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक पिछड़ेपन को सीधे इस आत्मलज्जा से जोड़ा जा सकता है।
दुर्भाग्य से हमारी पत्रकारिता भी इसके प्रभाव में आ गई है। एक समय था जब यह पत्रकारिता भाषा सहित तमाम क्षेत्रों में समाज का नेतृत्व करती थी, आगे चलती थी और उसे समृद्ध करती थी। आज कम से कम भाषा और कथ्य में वह समाज का अनुसरण कर रही है। यह समाज के लिए भी घातक है, पत्रकारिता के लिए भी और भाषा के लिए भी। अगर एक जिम्मेदार, जनसरोकारी, सोद्देश्य, मूल्य-आधारित, मूल्य-वर्धी पत्रकारिता के हम हिमायती हैं, चाहते हैं कि अपनी तमाम समकालीन चुनौतियों का सामना करते हुए भी भी कुछ आदर्शों, सामाजिक अपेक्षाओं और अपने उच्चतर दायित्वों के प्रति जवाबदेह और प्रतिबद्ध बनी रहे तो विचार, ज्ञान, लोकतांत्रिकता आदि का संवर्धन करने के साथ साथ भाषा के लिए भी ऐसी ही निर्माणकारी भूमिका और उत्तरदायित्व को स्वीकार करना होगा।
एक तरह से हिन्दी सहित सारी भारतीय भाषाओं को बचाने का काम पत्रकारिता से बेहतर शायद कोई नहीं कर सकता। क्योंकि भाषाओं को बचाने, बढ़ाने और उनके माध्यम से भारतीयतामात्र को बचाए रखने और बढ़ाने के लिए तमाम विरोधी राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय शक्तियों का मुकाबला करने के लिए जो शक्तिशाली जनमत चाहिए उसे पत्रकारिता यानी मीडिया ही तैयार कर सकता है। यह तब हो सकेगा जब मीडिया और हर स्तर पर उसमें कार्यरत लोग यह समझेंगे कि हमारी सारी भाषाओं पर बहुत गहरा, विराट, अस्तित्वमूलक संकट है। अगर उससे निपटा नहीं गया तो वह समूची भारतीय सभ्यता को लील सकता है। इस संकट की प्रकृति को समझ कर समाज, सरकार, न्यायपालिका, संसद-विधानसभाओं, संस्थाओं, शैक्षिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठान को सचेत, सक्रिय करने का काम मीडिया ही कर सकता है। पर यह तो वह तभी कर पाएगा जब खुद अपनी भाषा को बचा पाएगा, और उसके सही, सगर्व, सम्यक्, सामूहिक प्रयोग से उसे संवर्धित भी करेगा।


राहुल देव


10 जुलाई, 2015

(साहित्य अमृत पत्रिका के पत्रकारिता विशेषांक में प्रकाशित)

शनिवार, 26 जुलाई 2014

सीसैट और भाषा-माध्यम प्रतियोगी

सीसैट और भारतीय भाषा माध्यम प्रतियोगी


संघ लोकसेवा आयोग की प्रारम्भिक परीक्षा में सीसैट के सवाल पर उद्वेलित, आंदोलित छात्रों का आक्रोश जायज है। यह समूचे भारतीय उच्च शिक्षा जगत, और उससे निकलने वाले युवाओं के भविष्य के संदर्भ में केन्द्रीय महत्व का ऐसा मुद्दा है जिसे मौन और उपेक्षा  के एक लगभग अखिल भारतीय अनौपचारिक षडयंत्र के तहत अब तक किसी तरह दबा-छिपा कर रखा गया था।  आज यह इस आंदोलन के रूप में विस्फोट के साथ बाहर आ गया है। अब इसे राष्ट्रीय चिन्ताओं के हाशियों पर रखना कठिन होगा।

मूल प्रश्न है कि इस सहित हर परीक्षा के प्रतिभागियों को स्वस्थ प्रतियोगिता के लिए एक अनिवार्यतः समतल, समतापूर्ण मंच या मैदान मिलना चाहिए कि नहीं, वह जिसे अंग्रेजी में लेवल प्लेयिंग फील्ड कहते हैं।  अगर हम इस बुनियादी सत्य को मानते हैं कि प्रकृति मानव प्रतिभा का वितरण समान भाव से करती है और सबको अपने विकास के समान अवसर मिलने चाहिए तो नौकरियां हों या स्व-रोजगार, व्यवसाय हो, निजी क्षेत्र हो या सरकारी, उनमें प्रवेश की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो प्रतिभा/योग्यता को जांचे, पुरस्कृत करे लेकिन भाषा/वर्ग/पृष्ठभूमि-निरपेक्ष हो। यह सबको सच्ची समान शिक्षा देने वाले तंत्र से ही संभव है। लेकिन दुर्भाग्य और हमारे प्रभुवर्ग के आपराधिक षडयंत्र से यह भारत में लगभग असंभव बना दिया गया है। 

सन 2011 से संघ लोकसेवा आयोग ने जो बदलाव किए उनसे किसी को फायदा हुआ हो या नहीं, लेकिन हिन्दी सहित सारे भारतीय भाषा-माध्यम प्रतियोगियों के लिए इस परीक्षा में पार होना दुरूह बनाकर देश के उच्चतम प्रशासनिक वर्ग को और ज्यादा असमतापूर्ण, अन्यायपूर्ण, वर्गवादी, अभिजनवादी, अंग्रेजीपरस्त और भारतीय भाषा/मनीषा विरोधी बनाने का रास्ता साफ किया है। पिछले तीन सालों में इस परीक्षा में सफल होने वाले भारतीय भाषा-माध्यम प्रतियोगियों की तेजी से घटी संख्या इस बात का प्रमाण है कि इस सीसैट पर्चे ने अंग्रेजी-माध्यम शिक्षित, शहरी, संपन्न और इंजीनियरिंग/विज्ञान/प्रबन्धन/वाणिज्य धाराओं के छात्रों को अनुचित बढ़ावा दिया है, भारतीय भाषा-माध्यम के, ग्रामीण, निम्न मध्यवर्गीय और निर्धन तथा मानविकी छात्रों को नुकसान पहुंचाया है। 

यह समूची हिन्दी पट्टी के युवाओं के लिए एक दोहरा आघात है क्योंकि निजी उद्योगों, उद्यमिता, नए तकनीक-आधारित रोजगारों/नौकरियों से मिलने वाले विकास अवसरों से वंचित इस युवा शक्ति के सामने सरकारी नौकरी ही सबसे बड़ा और लगभग एकमात्र अवसर बचा है। संघ लोकसेवा आयोग के माध्यम से उच्चतम प्रशासनिक पदों को पाना इस आधे भारत के प्रतिभाशाली युवाओं के लिए अपनी महत्वाकांक्षांओं को साकार करने का सर्वोत्तम और सुलभ साधन बचा है। अंग्रेजी की छननी का इस्तेमाल करके उनकी शुरुआती दौर में ही ऐसी छंटनी कर देना एक क्रूर और अक्षम्य अपराध है। 

संघ लोकसेवा आयोग इस पूरे विवाद में सबसे ज्यादा जवाबदेह होना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनकी ओर से कोई स्पष्टीकरण और आश्वासन देश को अभी तक नहीं मिला है। आशा करें कि इतने प्रतियोगियों को लगी चोटें, उन्हें मिली जेल आयोग के नियन्ताओं की संवेदना को कुछ सक्रिय करेंगे। 

राहुल देव 


(कल्पवृक्ष टाइम्स, आगरा के लिए लिखी टिप्पणी)