रविवार, 18 अगस्त 2019

भारतीय भाषाएँ : दशा, दिशा और भविष्य

भारतीय भाषाएं: दशा, दिशा और भविष्य

(नवनीत के लिए अगस्त, २०१९ में लिखित, सितंबर अंक में प्रकाशित)

सारी भारतीय भाषाएं अपने जीवन के सबसे गंभीर संकट के मुहाने पर खड़ी हैं। यह संकट अस्तित्व का है, महत्व का है, भविष्य का है। कुछ दर्जन या सौ लोगों द्वारा बोली जाने वाली छोटी आदिवासी भाषाओं से लेकर 45-50 करोड़ भारतीयों की विराट भाषा हिंदी तक इस संकट के सामने अलग-अलग अंशों में लेकिन लगभग अटल और अपरिहार्य दिखते लोप के सामने निरुपाय खड़ी दिखती हैं। 

भाषाओं का यह संकट अपने दीर्घावधि निहितार्थों और बहुआयामी प्रभावों में भारतीय सभ्यता का संकट बन जाता है। कारण सीधा है। भाषा और संस्कृति,राष्ट्र, राष्ट्बोध और राष्ट्रीयता का गर्भनाल जैसा संबंध है। भाषा इनकी गर्भनाल है। भाषा के बिना किसी समाज/समूह की संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती। संस्कृति की सबसे बड़ी, सबसे प्रभावी और शक्तिशाली वाहिका भाषा ही होती है। भाषा में ही संस्कृति के सबसे महत्वपूर्ण उपादान, उसकी चिन्तन-आध्यात्मिक-ज्ञान-साहित्य-शास्त्रीय-लोक संपदा निर्मित, संचारित और प्रवाहित होती है। संस्कृति के अन्य रूप- साहित्य, ललित कलाएं, गीत संगीत, स्थापत्य, वेशभूषा, खानपान, पर्व त्यौहार, सामाजिक रीतियां, परंपराएं, लोकाचार आदि मुख्यतः भाषा के कारण और माध्यम से ही प्रकट होते हैं।



100 साल पहले 1918 में चेन्नई में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति स्थापित करने वाले महात्मा गांधी और उसके 40 साल बाद भारत के संविधान निर्माताओं ने भाषा संबंधी प्रावधान बनाते समय इसकी दूर-दूर तक कल्पना नहीं की थी कि जिन महान उद्देश्यों, राष्ट्रनिर्माण के जिन सपनों को सामने रखकर उन्होंने यह पुरुषार्थ किए थे, भारतीय राष्ट्र और उसके भविष्य का जो चित्र उन्होंने अपने सामने रखा था उसका साकार रूप 70 साल में ही इतना अलग, इतना विकृत हो जाएगा।  लेकिन हमारी आंखों के सामने आज जो दृश्य है और निकट भविष्य में आकार लेता दिखाई दे रहा है वह इतना विकराल है, गहरे संस्कृतिमूलक आयामों में राष्ट्र निर्माताओं की कल्पना के इतना विपरीत है कि विश्वास नहीं होता। 

ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दासता से मुक्त अपनी मौलिक अंतःप्रेरणा और साभ्यतिक आभा के आलोक में भारत एक बार फिर चमचमाकर खड़ा होगा, अपना नवनिर्माण करेगा वह सपना आज अंग्रेज़ी के ऐसे भाषायी साम्राज्यवाद की जकड़ में है जो दिनोंदिन मज़बूत होती जा रही है। १५० वर्षों के प्रयासों के बाद भी १५% भारतीयों की कार्यभाषा बन सकी, अपने भक्तों के सम्मोहन से प्राण वायु पाती अंग्रेज़ी इस देश की ८५% प्रतिभा, उद्यमिता के उच्चतम विकास के आगे पत्थर की दीवार की तरह खड़ी है। अंग्रेजी़ न जानने के कारण उच्च शिक्षा, ऊंचे अवसरों, रोज़गारों से वंचित करोड़ों युवा प्रतिभाएं आज रोज़ कुंठित, अपमानित होने, अपने आत्मसम्मान, आत्मविश्वास को तिल तिल कर मरते देखने, पिछड़ जाने के लिए अभिशप्त हैं। अंग्रेज़ी से वंचित होना दोयम दर्जे का भारतीय होना है। केवल किसी भारतीय भाषा में जीने-काम करने वाला व्यक्ति अंग्रेज़ी वालों के सामने दीन हो जाता है। इस आत्मदैन्य को अपनी बातचीत में अधिक से अधिक अंग्रेज़ी शब्दों, अभिव्यक्तियों को ढूंसता हिन्दुस्तानी ही आज प्रतिनिधि हिन्दुस्तानी है। 

वर्तमान से अब ज़रा भविष्य में चलते हैं। सन २०५० की कल्पना कीजिए। तब तक हमारा भारत विश्व की एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन चुका होगा। भारतीय प्रतिभा, उद्यमशीलता और हमारी बुनियादी लोकतांत्रिकता विश्वमंच पर भारत का अटल उदय सुनिश्चित कर चुके हैं। चरम गरीबी, कुपोषण, भुखमरी, शैक्षिक-आर्थिक पिछड़ापन बड़ी हद तक मिट चुके होंगे। आम भारतीयों का जीवन स्तर, सुविधाएं काफी ऊपर आ चुके होंगे। देश के ५०-६०% भाग का शहरीकरण हो चुका होगा। आधुनिक सुख सुविधाएं, तकनीकें यंत्र, साधन गांव-गांव तक पहुंच चुके होंगे। सारा देश डिजिटल जीवन पद्धति को बहुत बड़ी हद तक अपना चुका होगा। ब्रॉडबैंड और उसके माध्यम से मिलने वाली अनंत सेवाएं आम हो चुके होंगे।

 अब कल्पना के घोड़े दौड़ाइए और सोचिए - उस भारत के अधिकतर नागरिक अपने जीवन के सारे प्रमुख काम किस भाषा में कर रहे होंगे? पूरे देश में शिक्षा, प्रशासन, व्यापार, शोध, पत्रकारिता, स्वास्थ्य, न्याय जैसे हर बड़े क्षेत्र में किस भाषा का प्रमुखता से उपयोग हो रहा होगा? वह देश भारत होगा, भिंडिया या सिर्फ़ इंडिया? 

 उस इंडिया में संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हमारी बड़ी 22 और 16 सौ से अधिक छोटी भाषाओं-बोलियों की स्थिति क्या होगी? कहां होंगी वे? होंगी भी कि नहीं? 

 मेरा अपना आकलन है कि रहेंगी तो जरूर लेकिन गरीबों की गरीब भाषाएं बनकर। हाशियों की भाषा बन कर। गालियों की भाषा बन कर। गीत-संगीत, मनोरंजन, फिल्में ये भाषाओं में बचे रहेंगे हालांकि इनमें भी तब तक आधी से ज्यादा अंग्रेजी प्रवेश कर चुकी होगी। आज बनने वाली हिंदी फिल्मों में आधी से ज्यादा के शीर्षक अब अंग्रेजी के होते हैं। उनके संवादों में हिंदी नहीं हिंग्लिश ज्यादा होती है। पूरी तरह अंग्रेजी में बनने वाली  फिल्में और नेटफ्लिक्स जैसे आधुनिक मंचों पर भारतीय अंग्रेजी धारावाहिक आम हो चले हैं। यह प्रक्रिया बढ़ती ही जाएगी।

 भाषाई अखबारों, फिल्मों और धारावाहिकों का विस्तार हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैचों का आंखों देखा विवरण भी अब हिंदी व भाषाओं में होने लगा है। इस विस्तार पर मुग्ध भाषायी मीडिया और साहित्यकार  अपनी भाषाओं पर किसी तरह के संकट की बात को अरण्य रोदन कह देते हैं। यह दूरदृष्टिहीनता है। भविष्य देखना है तो बच्चों की ओर देखना चाहिए। बच्चों की जो पीढ़ियां अधिकाधिक अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर बड़ी होंगी वे क्या भाषाई अखबारों, साहित्य, पुस्तकों, टीवी समाचारों की पाठक- दर्शक होंगी? हिंदी के कितने लेखकों, पत्रकारों, राजभाषा अधिकारियों के बच्चे हिंदी माध्यम में पढ़ते हैं? इसलिए आज यह जो विस्तार दिख रहा है अगले 20-25 साल का खेल है। उसके बाद ऊपर से नीचे तक अंग्रेजी का ही वर्चस्व हर क्षेत्र में दिखेगा।

 संसार में लगभग 6000 भाषाओं के होने का अनुमान है। भाषा शास्त्रियों की भविष्यवाणी है कि 21वीं सदी के अंत तक इनमें केवल 200 भाषाएं जीवित बचेंगी।  इनमें भारत की सैकड़ों भाषाएं होंगी। भारत की आदिवासी भाषाओं में 196 तो अभी यूनेस्को के अनुसार ही गंभीर संकटग्रस्त भाषाएं हैं। संकटग्रस्त भाषाओं की इस वैश्विक सूची में भारत सबसे ऊपर है। यूनेस्को का भाषा एटलस 6000 में से 2500 भाषाओं को संकटग्रस्त बताता है। यूनेस्को के पूर्व महानिदेशक कोचिरो मत्सूरा ने  कहा था "एक भाषा की मृत्यु उसे बोलने वाले समुदाय की अमूर्त विरासत, परंपराओं और वाचिक अभिव्यक्तियों का नष्ट हो जाना है।" 

भारत की अनुमानित 1957 में कम से कम 1416 लिपिहीन मातृभाषाएं हैं। ये सब आसन्न संकट में हैं। पर भारत के प्रभु और बुद्धिजीवी वर्ग तथा सामान्य जन को इन छोटी भाषाओं की तो क्या अपनी बड़ी भाषाओं की भी चिन्ता और उनके संकट को देखने समझने, बचाने में कोई रुचि नहीं है।

ये वे विशाल, १० लाख से ज्यादा जनसंख्या वाली भाषाएँ हैं जिन्हें भारत के 90% लोग बोलते बरतते हैं। 

किसी भी समाज में भाषा के नियामक-निर्णायक तत्व क्या हैं? भाषा और समावेशी, समतामूलक, लोकतांत्रिक विकास का क्या संबंध है? भाषा और शिक्षा का क्या संबंध है? भाषा का राष्ट्र, राष्ट्र भाव और राष्ट्र निर्माण से क्या संबंध है? राष्ट्र बोध के केंद्रीय महत्व के इन बिंदुओं पर स्वतंत्रता के बाद भारत में सिर्फ एक बार 1967 में उच्चतम स्तर पर समग्रता से विचार मंथन हुआ था राष्ट्रीय उच्चतर अध्ययन संस्थान, शिमला में। उसके बाद उस तरह का कोई विचार कुंभ भाषाओं की बदलती स्थितियों, चुनौतियों और भविष्य पर हुआ हो ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है।

 इसलिए कोई आश्चर्य नहीं है कि विरल भाषिक समृद्धि और विविधताओं के भारत के पास 70 साल में भी अपनी कोई भाषा नीति नहीं है,  न ही उसको बनाने का कोई गंभीर प्रयास किया गया है। अब भी अगर वह नहीं बनाई गई तो अपनी इस अमूल्य और आधारभूत सांस्कृतिक संप्रभुता से दो-तीन पीढ़ियों में ही वंचित होकर हम पश्चिम, मुख्यतः अमेरिका के सांस्कृतिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक उपनिवेश बन जाएंगे।

 भाषा मनुष्य की श्रेष्ठतम संपदा है। सारी मानवीय सभ्यताएं भाषा के माध्यम से ही विकसित हुई हैं। आदिम समाज तो हो सकते हैं लेकिन आदिम भाषाएं नहीं होतीं। संचार के वाचिक और लिखित माध्यम रूप में यह एक समाज के भावनात्मक जीवन और संस्कृति का सर्वोत्तम उद्घोष है। एक सांस्कृतिक संस्थान होने के कारण यह अपने बोलने बरतने वालों को एक जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में पहचान और अद्वितीयता देती है। जातीयता का एक प्रबल कारक होती है। समाज के सभी क्षेत्रों में- प्रबंधन, प्रशासन, वैज्ञानिक सूचनाओं, शिक्षा और शोध का माध्यम हो या ज्ञान निर्माण का, भाषा विकास का सबसे शक्तिशाली उपकरण है।

 भाषा के विकास को हम उन भूमिकाओं से परिभाषित कर सकते हैं जिन्हें वह अपने समुदाय में निभाती है और  जिन क्षेत्रों में वह प्रमुखता से इस्तेमाल की जाती है। किसी समुदाय में कोई भाषा कितनी प्रतिष्ठा पाती है यह सीधा इस बात पर निर्भर करता है कि वह भाषा अपने समुदाय की कितनी तरह की अभिव्यक्ति-आवश्यकताओं को पूरा करती है - जैसे व्यापार, अर्थतंत्र, तकनीकी, नवाचार, शोध, मौलिक वैज्ञानिक चिंतन,  उद्यमिता, प्रबंधकीय निर्णय आदि। एक बहुभाषी और बहुजातीय समाज में उसकी आधिकारिक भाषा/भाषाएँ सभी सभी वर्गों को तभी स्वीकार्य होती हैं जब वे शिक्षा, आजीविका, व्यवसाय, शोध, तकनीक, नवाचार, विकास और प्रशासनात्मक, प्रबंधकीय निर्णय प्रक्रियाओं की प्रमुख भाषा होती है। 

भाषाओं के संकट से भी बड़ा संकट है उसको न देख पाना।  कमोबेश यह समस्या सारे भाषा समूहों के साथ है। लेकिन हिंदी वालों के साथ तो रोग की हद तक है। बड़े-बड़े हिंदी के विद्वान और पत्रकार प्रतिप्रश्न करते हैं कि जब हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ रही है, हिंदी में सबसे ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, हिंदी फिल्म और टीवी उद्योग बढ़ रहा है तब हिंदी के सामने संकट कैसे हो सकता है? 

संक्षिप्त उत्तर यह है। अब हम वाचिक युग में नहीं लिखित और डिजिटल युग में हैं। इसलिए भाषा का बोली रूप उसे बनाए रखने और बढ़ाने के लिए अपर्याप्त है। यह देखने की बजाय कि हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं को समझने-बोलने वालों की संख्या कितनी बढ़ रही है जो हमें देखना चाहिए वह यह है कि उस भाषा को अपनी इच्छा से पढ़ने-लिखने और सभी गंभीर कार्य क्षेत्रों में व्यवहार करने वाले लोग बढ़ रहे हैं या घट रहे हैं? उस भाषा माध्यम के विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या घट रही है या बढ़ रही है? ज्ञान ग्रहण, ज्ञान निर्माण, भविष्य निर्माण, न्याय,विज्ञान, प्रशासन, व्यापार, प्रबंधन, शोध आदि जीवन के निर्णायक क्षेत्रों में उस भाषा का प्रयोग घट रहा है या बढ़ रहा है?

 सबसे बड़ा प्रश्न जिसे पूछते ही आपके सामने अपनी भाषा का भविष्य साकार खड़ा हो जाएगा यह है - आपकी भाषा की मांग कितनी है? है कि नहीं? घट रही है या बढ़ रही है? इस कसौटी पर हिंदी सहित सारी भारतीय भाषाओं को कसें तो उत्तर बिल्कुल साफ है। आज देश के छोटे से छोटे गांव में गरीब से गरीब व्यक्ति अपने बच्चों के लिए सिर्फ एक भाषा मांग रहा है - अंग्रेजी। किसी भी भारतीय भाषा की मांग नहीं है भारत में। इस बाजार युग में जिस चीज की मांग नहीं है वह कैसे चलेगी, कैसे बचेगी? 

 अभी देश के 30 से 40% बच्चे अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में पढ़ रहे हैं। भले ही कितनी अधकचरी अंग्रेजी वहां पढ़ाई जाती हो, खुद शिक्षकों को ठीक से आती हो या नहीं, यह निर्विवाद रूप से सबका अनुभव है कि जो बच्चा बचपन से एक बार अंग्रेजी माध्यम में पढ़़ गया वह कभी अपने परिवार और परिवेश की, विरासत की भाषा का नहीं होता। उसमें अपनी मातृभाषा/परिवेश भाषा से प्रेम,  लगाव, गर्व की जगह एक हेयभाव और नापसंदगी पैदा होती जाती है जो आयु के साथ बढ़ती ही रहती है। अपनी भाषा से यह दूरी उसे भाषा से परिचित तो बनाए रखती है लेकिन उसमें कुछ भी गंभीर पढ़ने वाला और काम करने वाला नहीं रहने देती। भारत के हर मध्यवर्गीय परिवार की यही स्थिति है।

 10 साल पहले के एक सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार भारत की सभी भाषा-माध्यम विद्यालयों में प्रवेश दर हर साल घट रही थी। सिर्फ दो भाषाएं अपवाद थीं- अंग्रेजी और हिंदी। अंग्रेजी में यह वार्षिक वृद्धि दर 250% से अधिक थी। हिंदी में लगभग 35%। अब जब हिंदीभाषी राज्यों में भी सरकारें हिंदी-माध्यम विद्यालय बंद या बदल कर उन्हें अंग्रेजी-माध्यम करती जा रही है तो हिंदी का भविष्य स्पष्ट है। ठीक यही चीज़ हर प्रदेश में हो रही है।

यूनेस्को के कहने पर विश्व के श्रेष्ठ भाषाविदों ने किसी भी भाषा की जीवंतता और संकटग्रस्तता नापने के लिए 9 कसौटियां निर्धारित की हैं। पहली है, एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी के बीच उस भाषा का अंतरण, जाना कितना हो रहा है? दूसरी कसौटियों में प्रमुख हैं ज्ञान विज्ञान के आधुनिक क्षेत्रों में उस भाषा में काम हो रहा है या नहीं,  घट रहा है या बढ़ रहा है? वह भाषा नई तकनीक और आधुनिक माध्यमों को कितना अपना रही है? उस भाषा के विविध रूपों का दस्तावेजीकरण कितना और किस स्तर का है? उस समाज की महत्वपूर्ण राजकीय/अराजकीय संस्थाओं की उस भाषा के बारे में नीतियां और रुख़ कैसे हैं? अंतिम लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण कसौटी है उस भाषा समुदाय का अपनी भाषा के प्रति रुख़ क्या है, भाव क्या है?

 इनमें से किसी भी कसौटी पर किसी भी भारतीय भाषा को तोल लीजिए तुरंत समझ में आ जाएगा कि भविष्य के संकेत संकट की ओर इशारा करते हैं या विकास-विस्तार की ओर।

एक बार फिर २०५० पर चलते हैं। उस वैश्विक महाशक्ति, आधुनिक, वैश्वीकृत, संपन्न-सबल इंडिया में जब हर नागरिक अपने जीवन का हर महत्वपूर्ण काम सिर्फ अंग्रेजी में कर रहा होगा, उसमें भारत, भारतीयता और भारतीय सभ्यता ने ५०००-६००० वर्ष की अपनी अविच्छिन्न यात्रा में जो समूची साहित्यिक-सांस्कृतिक-ज्ञान-लौकिक-आध्यात्मिक संपदा अर्जित की है वह इस संपदा की निर्मात्री भाषाओं के बिना कैसे जीवंत और जीवित रहेगी, अगली पीढ़ियों तक कैसे पहुंचेगी? क्या अंग्रेज़ी यह कर सकती है? 

रंगरूप में भारतीय लेकिन दिलो-दिमाग, जीवन शैली, सोच-संस्कार से अमेरिका के उन नकलची नागरिकों का भारत-बोध, अपनी साभ्यतिक ऊंचाईयों-विरासत की स्मृति, सांस्कृतिक संप्रभुता का अहसास कैसा होगा? 

 कम से कम मुझे स्पष्ट दिखता है कि समूची भारतीय सभ्यता लोप, विस्मृति और भयानक हाशियाकरण की कगार पर खड़ी है। उसके पास शायद सिर्फ दो पीढ़ियों का समय है बचने के लिए। यानि हमारी और हमारे बच्चों की पीढ़ी आज अगर चाहे, राजसत्ता को बुद्धि आ जाए, समूचा राष्ट्र संकल्पबद्ध हो, राष्ट्रीय और निजी महत्व के हर क्षेत्र में भारतीय भाषाओं को स्थापित करने में जुटे तो इस प्रक्रिया को हम रोककर उलट सकते हैं। वरना शैशव से ही अंग्रेजी/अंग्रेज़ियत में पली, पढ़ी और बढ़ी पीढ़ियां चाहेंगी भी तो इस संपदा और सभ्यता को पुनर्जीवित करना उनके लिए असंभव नहीं तो असंभव जैसा जरूर होगा।

 यहां महत्वपूर्ण हो जाती है प्रत्येक भाषा में काम करने,, लिखने वाले साहित्यकारों-लेखकों-विद्वानों- बुद्धिजीवियों-शिक्षाविदों, मीडिया, पत्रकारों और संपूर्ण नागर समाज की भूमिका। यही वे वर्ग हैं जो अपने अपने क्षेत्रों में, अपने भाषा समाज में एक विमर्श उत्पन्न करते हैं, चिंतन को आगे बढ़ाते हैं, महत्वपूर्ण चिंताओं,संकटों और सरोकारों के प्रति समाज को जागरूक करते हैं।

कमाल यह है कि ऐसे अभूतपूर्व प्राणांतक संकट से देश का लगभग समूचा नियंता प्रभु वर्ग, नीति निर्माता, बुद्धिजीवी, शिक्षाविद, राजनीतिक दल, संसद, विधानसभाएं, सरकारें, मीडिया और व्यापक नागर समाज अनभिज्ञ और इसलिए उदासीन दिखते हैं।  इस विराट सभ्यतामूलक संकट का मुख्य कारण, उस का सबसे बड़ा स्रोत सीधा और स्पष्ट है - अंग्रेज़ी । और उसके प्रति हमारा शर्मनाक दासतापूर्ण और शर्मनाक सम्मोहन। 


 भारतीय चरित्र इजराइली चरित्र जैसा नहीं है जिसने 2000 साल से मृत पड़ी हिब्रू को आज वैज्ञानिक शोध, नवाचार और आधुनिक ज्ञान निर्माण की श्रेष्ठतम वैश्विक भाषाओं में एक बना दिया है। जिसके बल पर 40 लाख की जनसंख्या वाला इजरायल एक दर्जन से ज्यादा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार जीत चुका है। सारे इस्लामी देशों की शत्रुता के बावजूद अपनी पूरी अस्मिता, धमक और शक्ति के साथ अजेय बना विश्व पटल पर विराजमान है। विश्व गुरु बनने के सपने देखता भारत चाहे तो इजराइल से प्रेरणा ले सकता है।

अथ खान मार्केट कथा

यह कहना कठिन है कि उनके मन में खान प्रमुख था, मार्केट या फिर खान मार्केट नाम की भौगोलिक ईकाई, एक इलाका। तीनों शब्दों से अलग अलग निहितार्थ निकलते हैं, खास तौर पर तब जब उनके साथ गैंग यानी गिरोह जोड़ दिया जाए। 
आज स्थिति यह है कि खान मार्केट गैंग एक खास, खासा रंगीन और साथ ही गंभीर राजनीतिक मुहावरा बन गया है। शुद्ध राजनीतिक रणनीति के एक प्रबल वाकशस्त्र के रूप में यह लाजवाब रचनात्मक और मौलिक आविष्कार है। इसका पहला अवतार लुटियंस गैंग के नाम से जाना जाता था। लुटियन का टीला, लुटियंन की दिल्ली - ये शब्द प्रयोग भी लगभग दो दशक चलते रहे। लेकिन वे सीमित रहे। उनका न तो ऐसा व्यापक प्रभाव हुआ जैसा इस बार हुआ और न ही देश की जनता लुटियंन शब्द का अर्थ और संदर्भ समझती थ। खुद दिल्ली वालों में भी कम ही जानते हैं कि नई दिल्ली, विशेषतः राष्ट्रपति भवन, संसद भवन सहित कई महत्वपूर्ण इमारतें ब्रिटिश स्थापत्यकार एडविन  ल्यूटियेन्स की देन हैं। लेकिन यह ताजा मुहावरा ज्यादा व्यापक, ज्यादा प्रभावी, ज्यादा मूर्त और मारक सिद्ध हुआ है। 
खान मार्केट दक्षिण दिल्ली के संभ्रांततम इलाकों में वह बाजार है जो सीमान्त गांधी खान अब्दुल गफ्फार के भाई और स्वतंत्रता सेनानी जब्बार खान के नाम पर बना था। मूलतः यह विभाजन के बाद आए विस्थापित परिवारों के लिए बनाया गया रिफ्यूजी इलाका था जिसमें नीचे दुकानें थीं, ऊपर घर। धीरे धीरे अपने चारों ओर उग आई वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों की कालोनियों, विदेशी राजनयिकों के घरों और विभाजन के बाद पनपे दिल्ली के बड़े नवधनाढ्यों के वैभवशाली घरों से घिर कर पंजाबी शरणार्थियों की यह खान मार्केट आज भारत के सबसे महंगे दामों वाला बाजार बन गया है। अब यह पर्यायवाची है अंग्रेजीभाषी, महानगरीय, अमीर, वैश्विक जीवनशैलियों वाले फैशनपरस्त अभिजनों की पसंदीदा जगह का। 
लेकिन नरेन्द्र मोदी की 2019 की अप्रत्याशित रूप से बड़ी, ऐतिहासिक विजय के अगर दो प्रमुख कारणों को चुनना हो तो उनमें इस एक पते से राजनीतिक हथियार बन गए मुहावरे को चुनना पडेगा। दूसरा कारण हिन्दू मानस है जिसने इस बार जाति, क्षेत्र आदि की पारंपरिक राजनीतिक दीवारों को ढहा दिया। लेकिन वह अपने आपमें एक अलग विवेचन का विषय है। 
तो क्या है यह खान मार्केट गैंग?
यह एक ऐसे अखिल भारतीय वर्ग का प्रतीक है जो मोदी के शब्दों में भारत पर दशकों से राज कर रहा था। संभ्रांत, अमीर, कुलीन, अंग्रेजी जुबान, दिलो-दिमाग और तौर तरीकों वाले नई दिल्ली के चार-पांच वर्ग किमी में रहने, घूमने फिरने वाले इस छोटे से क्वब के सदस्य हैं खानदानी अंग्रेजीदां रईस, बड़े सरकारी अधिकारी, अंग्रेजी अखबारों, चैनलों के संपादक-स्तंभकार, बुद्धिजीवी, कुछ चुनिंदा अमीर और युवा राजनीतिक राजकुमार और राजकुमारियां, ऊंचे नीति निर्माता, जीवनशैली से रईस लेकिन विचारधारा से वामपंथी या वाम रूझान के केन्द्रवादी यानी कांग्रेस संस्कृति में रचे बसे, पुष्पित पल्लवित सांस्कृतिक, बौद्धिक, अकादमिक मठाधीश। 
यह वह क्वब है जो अब तक अधिकतर सरकारी नीतियां तय करता था, देश के बौद्धिक-सांस्कृतिक-कला-राजनीतिक-मीडिया विमर्श को संचालित और नियंत्रित करता था। इसमें  कुछ क्षेत्रीय कुलीन और विशिष्ट लोग भी शामिल हैं लेकिन मुख्यतः ये दिल्ली के लुटियन ज़ोन में रहने वाले लोग हैें। इनकी प्रमुख भाषा और बौद्धिक संसार एक है- अंग्रेजी। इनकी पसन्द-नापसन्द आधुनिक पश्चिमी ढंग की राजसी अभिरुचियों वाली है। इनके संपर्कसूत्र देश और विदेश के आर्थिक शक्ति केन्द्रों, बहुराष्ट्रीय संस्थाओं, वैश्विक स्वयंसेवी संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, थिंक टैंकों में फैले हुए हैं। 
विचारधारा और दृष्टिकोण में यह वर्ग वाम/केन्द्रवाद प्रभावित उदारवादी है। इसके नैतिक मानदंड पश्चिमी उदारवाद निर्मित हैं। सामाजिक संवेदनशीलताएं अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी जीवनशैली से प्रभावित और आधुनिक-वैश्विक ढंग-ढर्रे वाली हैं। धार्मिक कर्मकांड, पारंपरिक संगठित हिन्दू निम्न और मध्यवर्ग के तौर तरीके, तीज त्योहार, संवेदनशीलताएं, पौराणिक मान्यताएं और आस्थाओं को यह वर्ग कभी हिकारत, कभी संग्रहालयी नमूनों की तरह विरक्त कौतूहल और उदासीनता या अधिक से अधिक एक तटस्थ अकादमिक जिज्ञासा से देखता है। उसके आध्यात्मिक शौक अंग्रेजीभाषी आधुनिक धर्मगुरुओं से मिलने जुलने, सुनने पढ़ने से पूरे होते हैं। उसके प्रिय आध्यात्मिक गुरु हैं श्री श्री रविशंकर, जग्गी वासुदेव जो अब सिर्फ सद्गुरु नाम से लोकप्रिय हैं। उनसे पहले स्वामी चिन्मयानन्द, अमरीका वासी दीपक चोपड़ा आदि रहे हैं। 
इस वर्ग के प्रांतीय अध्याय भी हैं। ये प्रदेशों की राजधानियों, व्यावसायिक शहरों में केन्द्रित हैं। इनमें वह नवधनाढ्य युवा भी शामिल है जो अपनी  मंहगी कारों, घरों, प्रदर्शनीय वैभव से अपने अपने प्रदेशों-शहरों में रईसी शानोशौकत के द्वीपों जैसे रहते विचरते हैं स्थानीय अंग्रेजी-परस्त बुद्धिजीवियों के साथ। 
अब तक इस वर्ग की चमक, धमक, ताकत, ग्लैमर, प्रतिष्ठा, वैभव को इन सबसे वंचित वह अपार जनसमूह, विशेषतः युवा, देखता रहा है जो टीवी और स्मार्टफोन की कृपा से इस स्वप्नवत संसार और नवकुबेरों के अस्तित्व और हैसियत का परिचयय तो पा चुका है लेकिन उनके क्वब में प्रवेश की सोच भी नहीं सकता ।  इस जनसमूह का अपना जीवन अभाव, संघर्ष, रोज़ रोजी-रोटी की आत्महीन, गरिमाहीन कश्मकश भरी लड़ाई, झुग्गियों, संकरी गलियों में घनी बसी गंदी, नीमअंधेरी, अराजक बस्तियों मोहल्लों, छोटी नौकरियों, स्वरोजगारों, सस्ते मनोरंजन, फिल्मी सितारों की भोंडी नकल करते सस्ते फैशन वाले कपड़ों, भीड़ भरी बसों, टेम्पो, साइकिलों, शहरी सस्ते ढाबों के भोजन से बनता है। 
भारत की भीषण, और बढ़ती हुई आर्थिक, सामाजिक असमानता ने इस वंचित भारत को इंडिया के वैभव और शक्ति के प्रति ईर्ष्या, उसकी अप्राप्यता से उत्पन्न कुंठा और सतह के नीचे कुलबुलाते आक्रोश, एक दबी हुई घृणा तथा प्रतिहिंसा की आहटों से धीरे धीरे भर दिया है। उसकी अपनी भाषा तक उसे इस अंग्रेजीदां वर्ग से सीधा सादा गरिमापूर्ण मानवीय संवाद तक बना पाने में असमर्थ बनाती है। एक हीनताबोध और दैन्य से भरती है। इस वर्ग की अपनी भाषाएं- हिन्दी, मराठी, पंजाबी, हरियाणवी, भोजपुरी, बुंदेली, मराठी आदि अपने अपने क्षेत्रों में राजनीतिक रूप से सर्वशक्तिशाली हैं लेकिन वह राजनीतिक ताकत संसद और विधानसभाओं, राजनीतिक रैलियों और देशी नेताओं में संवाद में कुछ भागीदारी का संतोष तो देती है पर असली शक्ति के इस अंग्रेजीमय लघु संसार में प्रवेश का अधिकार और साहस नहीं देती। 
नरेन्द्र मोदी इसी वर्ग से उठ कर आए हैं। अपनी असाधारण प्रतिभा, जिज्ञासा, मौलिकता, तकनीकप्रियता और आश्चर्यजनक ढंग के अपने लक्ष्य-केन्द्रित पुरुषार्थ के बल पर वह आज ऐसी जगह पहुंचे हैं जहां ये सारे कुलीन, अमीर, अंग्रेजीदां अभिजात लोग अचानक अप्रासंगिक और बौने हो गए हैं। इन दोनों वर्गों के मनोविज्ञान की विस्मयकारी, नैसर्गिक पकड़ मोदी ने दिखाई है। दोनों की नब्ज़ वह जानते हैं। अपने 12 वर्षों के गुजरात के मुख्यमंत्रित्व में उन्होंने इन धनीधोरियों को खूब ठीक से समझा परखा है और उन्हें अपने हितों के लिए साधने में महारत हासिल की है। लेकिन यह वर्ग वोट नहीं दिलाता। वोट दिलाने वाले उस वंचित, विषमताजनित गरीब और निम्न-मध्यवर्गीय वर्ग का मन वह स्वयं अपने जिए हुए अनुभव से जानते हैं। 
वंचितों और वैभवशालियों के इस अंतर को जितनी चतुराई और प्रभावी ढंग से नरेंद्र मोदी ने अपने समर्थन के लिए साधा है वैसा आज तक कोई नहीं कर पाया था।  'कामदार' और 'नामदार' शब्दों का लगातार प्रभावी इस्तेमाल करके उन्होंने अपने को अपने काम के बल पर ऊपर उठने वाले और अपना जीवन बनाने वाले वंचित वर्ग से जुड़ा और राहुल गांधी जैसे पैतृक शक्ति और वैभव पाने वाले अभिजात लोगों को 'खान मार्केट' के रूपक का इस्तेमाल करके एक कटघरे में खड़ा कर दिया। 
 2014 की उनकी जीत ही यह प्रमाणित कर चुकी थी कि अपने सारे बौद्धिक और सामाजिक श्रेष्ठता के दावों और आत्म छवि के बावजूद यह समूचा वामपंथी अंग्रेजी भाषी बौद्धिक वर्ग देश के बहुसंख्यक जनमानस, मुख्यतः हिन्दू मानस, की नब्ज़ को पकड़ने में घोर असफल रहा है। राष्ट्रवाद बनाम आतंकवाद की बहस को देश के हर मुद्दे के ऊपर रखने में और उस के बल पर जीत हासिल करने में उन्होंने एक बार फिर से इस वर्ग की बौद्धिक अक्षमताओं, पूर्वप्रतिज्ञाओं, मान्यताओं और अहंकार को धूल चटाई है। इसके साथ ही यह तो कहना ही पड़ेगा कि इस जीत की नींव हिंदू राष्ट्रवाद के भाव को हर दूसरी भावना और विचार से ज्यादा प्रबल और शक्तिशाली बनाकर रखी गई है। जब चुनावी रणभूमि को इस ढंग से निरूपित किया जाए तो एक तरफ वंशवाद की विरासतवादी, अभिदात राजनीति के प्रतीक राहुल गांधी, उनकी पार्टी तथा उनके सहयोगी तथा दूसरी ओर देश के श्रमशील, अपने संघर्ष के बल पर विकसित होने और ऊपर उठने के लिए छटपटाते  वंचित भारतीयों के बीच कोई मुकाबला रह ही नहीं सकता था।

 और अब इस 'खान मार्केट गिरोह'  के सामने बड़ी चुनौती यह खड़ी है कि वह अगले 5 साल यह समझने में गुजारे कि उनकी सारी समझ, आकलन के तौर तरीके, जन मन को समझने की क्षमता इतने दशक तक भारत के बौद्धिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, प्रशासनिक क्षेत्रों में लगभग एकछत्र साम्राज्य के पैरों तले की जमीन खिसक कर कहां चली गई और कैसे।

बीबीसी हिन्दी के लिए लिखा लेख।

सोमवार, 27 मई 2019

कमल हासन के बहाने गोडसे और आतंकवाद


कमल हासन के बहाने गोडसे और आतंकवाद

कमल हासन के असमय और अदूरदर्शितापूर्ण बयान ने एक बार फिर गांधी-वध, गोडसे, हिन्दू आतंकवाद बनाम इस्लामिक आतंकवाद तथा आतंकवाद की परिभाषा को लेकर पुरानी बहसों को पुनर्जीवित कर दिया है। उनके बयान को असमय और अदूरदर्शितापूर्ण कहने पर बहुत से लोगों को आपत्ति होगी। वे मानते हैं कि यह सोचा समझा, एक रणनीति के अनुसार दिया गया बयान है, इसे कमल की राजनीतिक अपरिपक्वता मानना गलत है।

 लेकिन जिस तरह एक वर्ग इस बयान का समर्थन कर रहा है, पूछ रहा है कि गोडसे द्वारा गांधी जी की हत्या को आतंकवाद न कहा जाए तो क्या कहा जाए, उसे आजादी के बाद का पहला हिन्दू आतंकवादी कहने में गलत क्या है, उससे ज़रूरी हो गया है कि आतंकवादी हिंसा और सामान्य हिंसा में अन्तर स्पष्ट किया जाए।

हत्या, वध और आतंकवादी हत्या- इन तीनों में अन्तर है। हत्या तो स्पष्ट है। निजी कारणों से जान लेना हत्या है। सामान्य मानवीय अपराध है। वह एकल या सामूहिक भी हो सकती है।

अव्यक्तिगत, विचारधारात्म्क, राजनीतिक कारणों से एक व्यक्ति की जान लेना वध है। वह एक विशिष्ट व्यक्ति को,कुछ स्पष्ट कारणों और उद्देश्यों से दृश्य से हटा कर किसी घटनाक्रम को प्रभावित करने, उसकी दिशा और चरित्र बदलने के लिए किया जाता है। वध ज्यादातर राजनीतिक या धार्मिक षडयंत्रों से किए या कराए जाते हैं। उनमें किराए के हत्यारों का भी इस्तेमाल किया जाता है या किसी समूह के एक या एकाधिक सदस्य योजना बना कर करते हैं। 
   
विचारधारात्मक लेकिन अव्यक्तिगत कारणों से बड़ी संख्या में लोगों की हत्या को आतंकवादी हत्या कहते हैं। वह एक समूह, वर्ग, स्थान में जन सामान्य में आतंक फैलाने के, एक संदेश देने के स्पष्ट उद्देश्य से की जाती है। उसमें उसके लक्ष्यों-निशानों का चुनाव उनसे किसी निजी परिचय या विरोध के आधार पर नहीं उनकी सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक पहचान, प्रभाव और संख्या के आधार पर किया जाता है। अधिक से अधिक संख्या में लोग उस आतंकवादी हमले से प्रभावित हों, आतंकित हों, आतंकवादी या आतंकवादियों की सोच और शक्ति को स्वीकार करने को बाध्य हों, वहां की सरकारों और समाज में आतंकवादियों के विचार या शिकायतों को मान्यता मिले, वे सरकारें और समाज आतंकवादियों और उनके विचारों को गंभीरता से लें, कमजोर हों, समझौते करने पर मजबूर हों- इस तरह के लक्ष्यों के लिए आतंकवादी हमले किए जाते हैं।

नाथूराम गोडसे का अपने 7 साथियों के साथ योजना बना कर गांधी जी को मारना वध था- एक राजनैतिक वध। वह आतंकवादी हत्या नहीं थी। अगर गोडसे को आतंक फैलाना होता तो वह 30 जनवरी 1948 को प्रार्थना सभा में बम फेंक कर सैकड़ों की हत्या कर सकता था। मुसलमानों की किसी सभा या भीड़ में बम विस्फोट कर सकता था। अगर वह उस अर्थ में हिन्दू आतंकवादी होता जिसमें कमल हासन और बहुत से सेकुलरवादी, वामपंथी उसे निरूपित कर रहे हैं तो उसे किसी मस्जिद में, मुस्लिम इलाके और भीड़ में विस्फोट या गोलीबारी करनी चाहिए थी।

उन दिनों दिल्ली में पाकिस्तान से आए हुए, लुटे-पिटे, सब कुछ गंवा चुके हिन्दू शरणार्थियों के शिविर भी थे जहां गांधी को गालियां, बद्दुआएं और धमकियां रोज़ मिलती थीं। और दूसरी ओर हिन्दू प्रतिक्रिया और प्रतिहिंसा से डरे हुए मुसलमानों के शिविर और मोहल्ले भी थे जहां गांधी से उन्हें क्रुद्ध हिन्दुओं से बचाने की अपीलें भी की जाती थीं। ऐसे में गोडसे और उनके साथियों के लिए किसी भी मुस्लिम इलाके में जाकर मुसलमानों को बड़ी संख्या में मारने का विकल्प मौजूद था।

उसने ऐसा नहीं किया, केवल गांधी जी पर गोलियां चलाईं। भागने की कोशिश भी नहीं की। हालाँकि उसकी गुंजाइश भी शायद नहीं थी। आम तौर पर आतंकवादी अपना काम करके भाग जाते हैं। भागने की योजना बना कर हमले करते हैं। पिछले कुछ वर्षों से इस्लामी आतंकवाद के नए आत्मघाती मुजाहिदों के प्रादुर्भाव से पहले अधिकतर आतंकवादी हमलों में ऐसा ही होता था।
 इसलिए कमल हासन का गोडसे को आजादी के बाद का पहला आतंकवादी कहना गलत है। वह राजनीतिक हत्यारा था। वह और उसके साथी प्रखर हिन्दूवादी थे। उनके मन मस्तिष्क गांधी जी के मुसलमानों की ओर अतिरिक्त झुकाव और उनके द्वारा  हिन्दू हितों और भावनाओं की तुलना में मुस्लिम हितों और भावनाओं की ज्यादा चिन्ता करने के अपने विकृत बोध से उद्वेलित थे।

 यह गांधी जी के बारे में उनकी अपनी सोच थी, सत्य नहीं। उनका सत्य-बोध पूर्वाग्रहग्रस्त, पश्चिमी पंजाब जो अब पाकिस्तान बन गया था वहां के हिन्दुओं पर अत्याचारों  से उद्वेलित और भारत विभाजन की त्रासदी के लिए गांधी को जिम्मेदार मानने की  भावना से निर्मित था। वे एक स्तर पर गांधी की महानता, उनके असामान्य गुणों को आदर के साथ स्वीकार भी करते थे लेकिन उनके कदमों से इस हद तक उग्रतापूर्वक असहमत थे कि गांधी जी का भारत में सक्रिय बने रहना उन्हें हिन्दू हितों के लिए सबसे बड़ी बाधा लगता था। उनके लिए हिन्दू हित ही भारत हित थे।

उस काल की सबसे पहली और बडी आतंकवादी घटना को चुनना हो तो मैं भारत की स्वतंत्रता के ठीक एक साल पहले 16 अगस्त, 1946 को मुस्लिम लीग और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्ना की सीधी कार्रवाई’ (डायरेक्ट एक्शन) की घोषणा को चुनूंगा। उस समय तक यह तय हो चुका था कि अंग्रेज सरकार भारत से हटने और उसे स्वतंत्रता देने के लिए तैयार है। इसकी घोषणा 1945 में हो चुकी थी। उसके बाद सत्ता हस्तांतरण, जिन्ना की मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग, कांग्रेस का बंटवारे से इन्कार, संविधान सभा का गठन, स्वतंत्र भारत की सरकार का गठन, अल्पसंख्यकों, दलितों के प्रतिनिधित्व, अधिकारों आदि को लेकर चले जटिल घटनाक्रम का समय था। गांधी और कांग्रेस भारत विभाजन के विचार का कड़ा विरोध कर रहे थे। जिन्ना को मनाने की कोशिशें चल रही थीं। जिन्ना भारत के मुसलमानों के लिए अलग देश हासिल करने पर तुले थे। किसी भी तरह के समझौते के लिए तैयार नहीं थे। मौलाना आज़ाद जैसे कुछ प्रमुख लेकिन संख्या में बहुत कम मुस्लिम नेताओं को छोड़ कर देश के अधिकतर मुसलमान कांग्रेस के खिलाफ मुस्लिम लीग  और पाकिस्तान के सपने के पीछे आ चुके थे। जिन्ना कांग्रेस को हिन्दू-पार्टी कहते थे। गांधी जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के सख्त खिलाफ थे। उनका विचार था कि यह विचार अति भयावह है। एक बहुत ही छोटे हिस्से को छोड़ कर अधिकांश मुसलमान जन-मानस धर्मान्तरित निवासियों का है और वे भारत में जन्मे पुरखों के वंशज हैं।

इस माहौल में जिन्ना ने अलग पाकिस्तान की अपनी मांग पर ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस को बाध्य करने के लिए 16 अगस्त 1946 को मुसलमानों द्वारा सीधी कार्रवाई दिन मनाने का आह्वान कर दिया। इस आशय के प्रस्ताव के पारित होने के बाद जिन्ना ने अपने भाषण में पिस्तौल उठाने की बात कर दी थी।  तब तक प्रांतों में अन्तरिम सरकारें बन चुकी थीं। बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार थी। सुहरावर्दी मुख्यमंत्री थे। उस 16 अगस्त को कलकत्ता में भारत की पहली बड़ी सामूहिक साम्प्रदायिक हिंसा हुई थी। उसमें लगभग 5000 जानें गईं। अधिकांश सेकुलर इतिहासकार भी उसकी शुरुआत का जिम्मेदार मुस्लिम लोग और सुहरावर्दी को मानते हैं। हिन्दू-मुसलमान दोनों ही मारे गए थे। उसके बाद बंगाल के नोआखाली, फिर बिहार में जो हिन्दू-मुस्लिम हिंसा का क्रम शुरु हुआ उसने कितनी जानें लीं इसका आज तक सही हिसाब नहीं लगा है। वह हमारे निकट इतिहास का अत्यन्त दुखद, अत्यन्त विवादित, रक्तरंजित इतिहास है। मैं सीधी कार्रवाईकी घोषणा और उसके बाद के घटनाक्रम को आधुनिक भारत की पहली आतंकवादी घटना मानता हूं।

इतिहास बिरले ही निरपेक्ष, वस्तुपरक, आग्रह और विशिष्ट दृष्टि-मुक्त, सर्वस्वीकार्य होता है। वह अक्सर ही राजनीति का शिकार हो जाता है। चुनावों के दौरान इतिहास का मनमाना इस्तेमाल तो स्वाभाविक है। सब अपनी अपनी सुविधा और राजनैतिक हितों के हिसाब से करते हैं। फिर भी इतनी अपेक्षा तो हम अपने राजनीतिक नेताओं से कर ही सकते हैं, विशेषतः गंभीर माने जाने वाले कमल हासन जैसों से, कि हिन्दू-मुस्लिम परिप्रेक्ष्य में कुछ भी कहने से पहले वे अतिरिक्त संवेदनशीलता और सावधानी से काम लें। यह अपेक्षा दक्षिण-वाम-मध्य हर तरह के नेताओं से है।

राहुल देव
5/14/2019

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

वह काल 1966

वह काल

दीनदयाल उपाध्याय संपूर्ण वांग्मय के लिए लिखा गया वह काल (1966) 

युगान्तरकारी तो कई वर्ष हुए हैं अपने इतिहास में, पर शुरु होते ही इतिहास बदलने वाले, गहरे और दूरगामी परिवर्तन लाने वाले कुछ ही होंगे। वर्ष 1966 उनमें एक है।

देश पिछले साल अगस्त-सितम्बर में पाकिस्तान के साथ युद्ध में जीतने की खुशी, सकारात्मकता और गर्व से अब भी आविष्ट था। सन 1962 में चीन से अपमानजनक पराजय के बाद 1965 में पाकिस्तान को जम कर मज़ा चखाने के अनुभव ने देश का आत्मविश्वास और मनोबल खूब बढ़ा रखे थे। छोटे कद के सरल, शुद्ध देसी आम आदमी लगने वाले पौने दो  साल पुराने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जवाहरलाल नेहरू की विराट छाया से अपने को मुक्त करके, अपने बारे में सारी आशंकाओं को दूर कर के देश को पाकिस्तान से युद्ध में निर्णायक जीत दिलाई थी। उनके तेजी से बढ़ते राजनीतिक कद ने देश और विदेश दोनों जगह एक स्पष्ट, सकारात्मक छाप छोड़ी थी। उनकी अहिंसक, गांधीवादी छवि इतने कम समय में ही एक निर्णायक, मज़बूत और नवाचारी नेतृत्वशाली नेता में बदल चुकी थी। सबको इस अति साधारण दिखने वाले, शांत, सौम्य प्रधानमंत्री से बड़ी आशाएं जग चुकी थीं।

इस पृष्ठभूमि में साल शुरु होते ही कल्पनातीत तुषारापात हुआ। ताशकंद में शास्त्री जी की अकस्मात ह्रदयाघात से मृत्यु हो गई। उससे कुछ घंटे पहले ही उन्होंने भारी रूसी दबाव में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के साथ 'ताशकन्द समझौते ' पर हस्ताक्षर किए थे। रूसी प्रधानमंत्री कोसिजिन ने दोनों युद्धरत देशों के बीच समझौता कराने के लिए अपनी मध्यस्थता का प्रस्ताव किया था। इसे मान कर दोनों राष्ट्राध्यक्ष ताशकंद पहुंचे। एक सप्ताह तनावपूर्ण वार्ताएं चलीं। अंत में दोनों एक समझौते पर सहमत हुए और कोसिजिन की उपस्थिति में भारतीय प्रधानमंत्री और पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने 10 जनवरी को उस पर हस्ताक्षर किए। एक विजेता देश के प्रधानमंत्री होने के बावजूद उन पर बराबरी का समझौता लादा जा रहा था यानी हमलावर पाकिस्तान और हमले के शिकार भारत को एक ही तराजू पर रख दिया गया था। उसमें पाकिस्तान के हमलावर होने की स्वीकारोक्ति या उल्लेख का इशारा तक नहीं था। भारत को युद्ध में जीते हुए  भूभाग को अपने कब्जे में रखने की और पाकिस्तान को इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने की मांगें छोड़नी पड़ी थीं। रूस सरकार का इसे मानने के लिए बहुत दबाव था। रूस इस समझौते का श्रेय लेकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी राजनयिक हैसियत और दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता था।

देश यह कभी नहीं जान पाया कि किन परिस्थितियों में, किन दबावों में शास्त्री जी को हस्ताक्षर करने पड़े।  उनकी मृत्यु के कारणों पर भी आज तक एक रहस्य लोगों के मन में बना हुआ है। विभिन्न संभावनाओं, संभावित षडयंत्रों की चर्चाएं हुईं, विवाद हुए, उनके परिवार के सदस्यों को दिल के दौरे की बात पर कभी पूरा भरोसा नहीं हुआ, कुल मिला कर आधिकारिक मत यही बना कि उनका एक दिल का दौरा झेल चुका दिल और राष्ट्रीय स्वाभिमान उस अंतिम सप्ताह के दौरान उन पर पड़े ज्ञात-अज्ञात दबावों और हस्ताक्षर करने की विवशता को सहन न कर सके और नींद में ही उनका निधन हो गया।

सारा देश स्तब्ध था। एक विजेता के रूप में ताशकंद गए शास्त्री जी का शव ही लौटा था, रूसी विमान में रूसी प्रधानमंत्री कोसिजिन के साथ। दीनदयाल जी ने लिखा- Home they brought their warrior dead. सचमुच दो से कम सालों में ही पाकिस्तान से 1965 में दो युद्धों में अपने निर्णायक, सक्षम नेतृत्व से गांधी के इस परम शिष्य, शांतिवादी नेहरू के विश्वस्त सहयोगी और उत्तराधिकारी ने दिखा दिया था कि वह अहिंसावादी होने के बावजूद जरूरत पड़ने पर कडे, स्पष्ट और साहसी सैनिक फैसले ले सकता था, युद्ध से मुंह चुराने वाला नहीं युद्ध की तैयारी भी कर सकता था, लड़ सकता था, और जीत सकता था।

इसकी तुलना के लिए 1962 के चीनी आक्रमण का वह समय याद करना होगा जब प्रधानमंत्री नेहरू ने अपनी पिटती थलसेना की गुहारों के बावजूद उसे वायुसेना का कवच देने से इंकार कर दिया था। इसके विपरीत शास्त्री ने अपने सैन्य अधिकारियों को पूरा समर्थन दिया और अपने सेना कमांडरों को पाकिस्तानी पंजाब सीमा के भीतर घुस कर हमले की भी अनुमति दी। हालांकि यह भी हमारे इतिहास का एक विवादित और अनुत्तरित प्रश्न है कि जब भारतीय सेनाएं 1965 में कश्मीर और पंजाब के मोर्चों पर लडती हुई लाहौर से सिर्फ तीन किमी रह गई थीं तो उन्हें वहीं क्यों रोक दिया गया। भारतीय आधिकारिक पक्ष का कहना था कि सेना घने बसे लाहौर में गली-गली, घर-घर के खतरनाक और जनघाती युद्ध में जाए और लाहौर पर कब्ज़ा करे यह एजेंडे पर था ही नहीं। जो भी हो, इससे पाकिस्तान को यह दावा करने का मौका मिल गया कि उसके रणबांकुरों ने भारतीय सेना के लिए आगे बढ़ना असंभव कर दिया और भारतीय सेनाध्यक्ष की वह घोषणा निष्फल कर दी कि वह अपनी शाम की ' ड्रिंक ' लाहौर जिमखाना में लेंगे।

और यूं भारत के दूसरे प्रधानमंत्री 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्धों के सबसे प्रमुख शिकार बन गए।

इस युद्ध की पृष्ठभूमि का संक्षिप्त उल्लेख आवश्यक है। सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारत की सैन्य तैयारी और संकल्प के अभाव से हुई पराजय और उसके बाद 1965 में कच्छ के रन में पाकिस्तानी सेनाओं को मिली आंशिक, आरंभिक सैनिक सफलता से पाकिस्तानी सैनिक राष्ट्रपति जनरल अयूब और उनके सलाहकारों की समझ यह बनी की भारत में युद्ध की इच्छा शक्ति और मनोबल ही नहीं है। उनके हमलों के पीछे एक लगभग खुली साम्प्रदायिक सोच काम कर रही थी। इसलिए उन्होंने शास्त्री के भारत की सामरिक इच्छा शक्ति को बहुत कम करके आँका। एक पाकिस्तानी जनरल ने विश्वासपूर्वक घोषणा की कि "एक सामान्य नियम है कि हिन्दू मनोबल सही समय और स्थान पर की गई एक या दो कड़ी चोटों को सहन नहीं कर पाएगा। "

इस मानसिकता के साथ पाकिस्तानी मुसलमानों ने अपने कश्मीरी सहधर्मियों की ओर से उनके लिए यह सैनिक अभियान शुरु किया था। दस सदी पहले जीते गए युद्धों की स्मृतियों को उभारा गया। पाकिस्तानी लड़ाकों और अधिकारियों को विश्वास था कि इस्लामी जोश और अमरीकी हथियारों का मिश्रण काफिरों को हराने के लिए काफी होगा। उम्मीद यह थी कि कश्मीरियों के विद्रोह कर देने के बाद वे दुश्मन के संचार तंत्र को काट देंगे और फिर धर्मयोद्धाओं की यह संयुक्त सेना टैंकों का काफिला लेकर ग्रांड ट्रंक रोड पर विजय यात्रा निकालते हुए दिल्ली पर कब्ज़ा कर लेगी और तब भारत को आत्म समर्पण के लिए मजबूर कर देगी। इन लड़ाकों के होंठों पर यह गाना था- हँस के लिया है पाकिस्तान, लड़ के लेंगे हिन्दुस्तान।

असर ठीक उल्टा हुआ। समूचा भारत अपने सब मतभेद भुला कर एक हो गया। बहुत से कश्मीरी भी भारतीय सेना के साथ हमलावरों से लड़े। केरल के एक मुस्लिम सैनिक को भारत का उच्चतम वीरता पुरस्कार परम वीर चक्र मिला। राजस्थान के एक मुसलमान सैनिक अयूब खान ने कई पैटन टैंकों को अकेले ध्वस्त कर दिया। सारे देश में मुस्लिम बुद्धिजीवियों और धर्मगुरुओं ने पाकिस्तान की निन्दा और मातृभूमि के लिए अपनी जान देने के बयान दिए।

एक बड़ा अन्तर यह था कि 1965 का भारत 1962 का भारत नहीं था, रक्षामंत्री यशवन्त राव चह्वाण 1962 के कृष्ण मेनन नहीं थे, और न शास्त्री नेहरू थे। इस शांतिप्रिय प्रधानमंत्री को पाकिस्तानी पैटन टैंक के ऊपर बाकायदा धोती-कोट पहने विजय-मुद्रा में फोटो खिंचाने में कोई हिचक न थी। नेहरू शायद यह नहीं करते।

'जय जवान जय किसान' का नारा इसी प्रधानमंत्री ने दिया था। इसी ने आजादी के अठारह सालों बाद सेना और कृषि दोनों को एक साथ इतना महत्व दिया था। इसी प्रधानमंत्री ने कृषि का बजट बढ़ाया, सी सुब्रमण्यम जैसे तेज तर्रार, गतिवान मंत्री को इस्पात और खान मंत्रालय से हटाकर कृषि व खाद्य मंत्री बनाया और इन दोनों ने आज भी सक्रिय देश के अन्यतम कृषि वैज्ञानिक तथा आविष्कारक डा. एम एस स्वामिनाथन तथा तत्कालीन कृषि सचिव शिवरामण के साथ मिलकर उस हरित क्रांति की नींव रखी जिसने अगले कुछ वर्षों में ही सूखे, अकाल और भुखमरी के शिकार भारत को खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर बना दिया।  युद्ध-विरोधी, अहिंसक प्रतिरोध के पुरोधा महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता पाए और बड़े उद्योगों, बड़े बाँधों, आधुनिक विकास की नेहरू घुट्टी पिलाए हुए देश के लिए यह एक बड़ा परिवर्तन था।

ऐसे लाल बहादुर शास्त्री का 18 महीनों में ही चला जाना इसलिए युगान्तरकारी घटना थी कि इतने कम समय में ही इस प्रधानमंत्री ने दिखा दिया था कि यदि उसे पूरा समय मिलता तो देश उस रास्ते से बिलकुल अलग ही दिशा में चलता जिस पर नेहरू और उनके बाद उनकी बेटी के वामपंथी रुझान और नीतियों ने देश को चलाया और भारत ने अपनी तरुणाई के अमूल्य आरंभिक दशक खोए।

उस समय विश्व की प्रमुखतम अंग्रेजी पत्रिका, अमरीका की 'लाइफ' ने शास्त्री की मृत्यु को आवरण कथा बनाया जैसा नेहरू के निधन को बनाया था। शास्त्री पर 'लाइफ' का आकलन यूं थाः "उनके साथ बहुत से भारतीय नेहरू की अपेक्षा ज्यादा गहरा लगाव महसूस करते थे।..जो शास्त्री ने भारत को दिया वह मुख्यतः एक मूड था- एक नया इस्पातीपन, राष्ट्रीय एकता का एक नया अहसास। चीन से युद्ध ने देश को लगभग ध्वस्त स्थिति में ला दिया था। लेकिन इस बार जब युद्ध आया तो...हर चीज काम करती रही, रेलगाडियां दौड़ती रहीं, सेना डटी रही, कहीं साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुए। पुराने नैतिक आडम्बर, मोहभंग और ठहराव, भय और चिन्ता जा चुके थे।"

और तब शुरु हुआ इंदिरा युग। 12 जनवरी को शास्त्री जी के अंतिम संस्कार के बाद 19 जनवरी को ही नेहरू परिवार-भक्त कांग्रेस अध्यक्ष कामराज ने पार्टी के प्रांतीय मुख्यमंत्रियों, क्षत्रपों, वरिष्ठ नेताओं से धुंआधार मंत्रणाएं करके, उन्हें अपनी ओर मिला कर मोरारजी देसाई की घोषित दावेदारी को नाकाम करते हुए अनुभवहीन, अपरीक्षित नेहरू-पुत्री इंदिरा को  भारत का तीसरा प्रधानमंत्री बनवा दिया।

उप-प्रधानमंत्री रह चुके मोरारजी की कार्यकुशलता, प्रशासनिक क्षमता और अनुभव, चरम नैतिकता, सादगी, न्यायप्रियता और कड़े निर्णय लेने की योग्यता, ये सब असंदिग्ध थे। पर उनकी सख्त प्रकृति और गैर-लचीलापन उसके अधिकांश साथियों को डराता भी था।

इंदिरा गांधी 48 वर्ष की युवा, आकर्षक, पिता के साथ विश्व नेताओं से मिलजुल चुकीं और देश के चहेते जवाहर लाल नेहरू की बेटी थीं। कामराज और उनके सिंडिकेट कांग्रेसी साथियों के लिए ये गुण उन्हें ज्यादा स्वीकार्य बनाते थे। और कामराज मंडली को यह भी विश्वास था कि अनुभवहीन इंदिरा सिंडिकेट-संचालित सामूहिक नेतृत्व के लिए ज्यादा उपयोगी और लचीली होंगी मोरारजी की तुलना में। तभी निकले ये शब्द- गूंगी गुड़िया।

यह आशा कितनी सफल हुई यह देश जानता है।

मोरारजी को मनाने की कोशिशें हुईं। पर प्रधानमंत्री बनने का अपना दूसरा और आयु को देखते हुए अंतिम अवसर देख रहे मोरारजी नहीं माने, घोषणा कर दी कि वह इंदिरा को सीधी चुनौती देंगे। कांग्रेस संसदीय दल में प्रधानमंत्री चुनने के लिए मतदान हुआ। इंदिरा गांधी को 355 वोट मिले, मोरारजी देसाई को 169

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तुरंत घोषणा की कि उनकी सरकार नेहरू की नीतियों पर चलेगी और ताशकंद समझौते की सभी शर्तों का पालन किया जाएगा। शास्त्री की मृत्यु से स्तब्ध देश को तब तक समझौते का सटीक, गंभीर विश्लेषण करने का मौका नहीं मिला था, न देशमन उस मनःस्थिति में था। उसकी सबसे गहरी मीमांसा करने वालों में थे दीनदयाल उपाध्याय। उन्होंने समझौते की बिन्दुवार 'शव परीक्षा' करते हुए उसे उन भारतीय शर्तों और संकल्प के विरुद्ध बताया जो संसद के सामने रख कर शास्त्री जी ताशकंद गए थे। उन्होंने समझौते को देशहित विरोधी सिद्ध किया। लेकिन नई सरकार अपनी दिशा और मन्तव्य स्पष्ट कर चुकी थी। प्रधानमंत्री ने कहा था- हमें ताशकंद की भावना को प्रोत्साहित करना चाहिए। हमें घर और बाहर शांति रखनी चाहिए, यदि संभव हो।

ताशकंद समझौते से जनसंघ ही असंतुष्ट नहीं था। केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य महावीर त्यागी ने भी समझौते के विरोध में त्यागपत्र दे दिया। भारतीय जनसंघ और कई विरोधी दलों ने देश भर में उसके खिलाफ सभाएं, आंदोलन किया। सबसे प्रखर आलोचना और आंदोलन दीनदयाल जी के नेतृत्व में हुआ।

शांति बनाए रखने वाली ताशकंद की भावना को जल्दी ही चुनौती मिल गई। मार्च में देश के उत्तर पूर्व में मिजो सशस्त्र विद्रोह ने गंभीर रुख धारण कर लिया। भारतीय सेना को भारी गोलीबारी करनी पड़ी। नगालैंड के हिंसक प्रतिरोध के बाद यह दूसरा बड़ा सशस्त्र विद्रोह था। अलग नगालैंड के लिए वर्षों के  खूनी संघर्ष ने बहुलतावादी भारतीय राष्ट्र-राज्य में प्रांतीय अलगाववाद की चिंगारियों को  भड़का दिया था। अब यह बड़ी लपट स्वतंत्र मिजो राष्ट्र की हिंसक मांग की थी। वर्षों की गुपचुप तैयारी, मिज़ो युवकों को जोड़ने और पूर्व पाकिस्तान सरकार से संपर्क करके हथियार, धन और हमले के आधार के लिए भूमि का आश्वासन प्राप्त कर चुके लालडेंगा ने फरवरी के आखिरी दिन सशस्त्र विद्रोह की शुरुआत कर दी। एमएनएफ सैनिकों ने सरकारी कार्यालयों पर हमले किए, आग लगाई, बैंक लूट लिए, संचार व्यवस्था बिगाड़ दी। भारतीय सेना को रोकने के लिए सड़कें जाम कर दी गईं। हत्याएं की गईं। मार्च में मिजो नेशनल फ्रंट ने घोषणा कर दी कि यह भूभाग भारत से अलग हो चुका है और अब एक 'स्वतंत्र गणराज्य ' बन चुका है।

फ्रंट ने एक शहर पर कब्जा कर लिया और विद्रोही जिला राजधानी ऐजोल की ओर बढ़ने लगे। भारत ने सेना बुला ली और वायुसेना भी। विद्रोहियों को उनके ठिकानों से निकालने के लिए आकाश से गोलीबारी की गई। यह पहला अवसर था जब भारतीय राज्य ने अपने ही नागरिकों पर वायुसेना का प्रयोग किया था। मिजो नागरिक सेना और विद्रोहियों के बीच फंस कर पिस रहे थे। विद्रोगी भाग कर जंगलों में छिप गए। उन्होंने समर्पण नहीं किया। बल्कि पूर्व पाकिस्तान के अपने ठिकानों और जंगलों से वे पूरे साल और अगले साल तक लड़ते रहे।

उधर नगालैंड की आग सुलग ही रही थी। सन 1964 में जय प्रकाश नारायण, असम मुख्यमंत्री बिमला प्रसाद चालिहा और रेवेरेन्ड माइकेल स्कॉट को शामिल करके नगालैंड शान्ति मिशन बनाया गया जिसने सरकार और फिजो के नेतृत्व वाली नगा नेशनल काउंसिल के बीच सितम्बर में सशस्त्र कार्रवाहियां निलम्बित करने का समझौता कराया था। लेकिन नगा विद्रोही हिंसा करते रहे। समझौता लगभग ध्वस्त हो चुका था। फरवरी 1966 में जय प्रकाश नारायण ने मिशन से यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि वह नगाओं का विश्वास खो चुके हैं। उन्होंने भूमिगत नगा नेताओं से कहा था कि भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद उन्हें आजादी की अपनी मांग छोड़ देनी चाहिए और भारतीय संघ के भीतर ही स्वायत्तता स्वीकार कर लेनी चाहिए। उन्हें विदेशी मामले और रक्षा को छोड़ कर सब कुछ अपने हाथ में रखने का अधिकार संघीय ढांचे में मिल जाएगा। वे हथियार डाल दें, चुनाव लड़ें और शांतिपूर्ण तरीके से प्रशासन अपने हाथ में लें।

फिजो और उनके साथी तैयार नहीं हुए। इधर जेपी का उनसे मोहभंग हुआ उधर भारत सरकार का मिशन के तीसरे सदस्य ब्रिटेन के पादरी माइकेल स्कॉट से। सरकार ने आरोप लगाया कि वह इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जा कर उसका अंतरराष्ट्रीयकरण करना चाहते थे। मई 1966 में सरकार ने स्कॉट को देश छोड़ने का आदेश दिया। नगाओं के प्रति अपनी गहरी प्रतिबद्धता में स्कॉट यह नहीं देख पाए कि भारतीय राज्य के लिए नगाओं को राजनीतिक स्वतंत्रता देना असंभव था। वह फिजो को क्षमा देने, सुरक्षित भारत में आने देने, यहां तक कि मुख्यमंत्री पद देने के लिए भी तैयार था। फिजो नहीं माने। हिंसक हमले, हत्याएं, बम विस्फोट जारी रहे। अब उनके तार चीन भी जुड़ गए थे। यह बड़ा सहारा पाकर एक लंबा खूनी संघर्ष जारी रखने की उनकी ताकत बढ़ गई।

एक ओर सीमाओं पर ये जनजातियां संघर्षरत थीं, दूसरी ओर देश के बीचोंबीच हालात भी बिगड़ रहे थे। मध्य भारत में, बस्तर के आदिवासी जिले में भुखमरी की स्थितियों ने वहां के पारंपरिक जनजातीय अपदस्थ महाराजा प्रवीर चन्द्र भंज देव के नेतृत्व में एक मजबूत आंदोलन खड़ा कर दिया था। घोर सनकी महाराजा को सरकार ने अपदस्थ कर उनके छोटे भाई को गद्दी पर बिठा दिया था लेकिन बस्तर की जनता प्रवीर चन्द्र भंज देव को देवता की तरह पूजती थी। उनकी मान्यताओं में राजा अर्ध-ईश्वर ही होता था। उनमें यह धारण बैठ गई थी कि असली महाराजा को गद्दी पर बिठाने पर ही अकाल जाएगा, समृद्धि लौटेगी।

मार्च 23 को प्रवीर चन्द्र को गद्दी सौंपने के लिए आंदोलनरत आदिवासियों ने पुरानी राजधानी जगदलपुर पर धावा बोल दिया। तीर-कमान से लैस हजारों आदिवासियों और बंदूक- आंसू गैस धारी पुलिस के बीच संघर्ष में  लगभग 40 की मौत हुई। इनमें बस एक पुलिसकर्मी था। मारे जाने वालों में प्रवीर चन्द्र भंज देव भी थे। इससे पूरे देश में असंतोष की लहर फैली।

इन विद्रोहों से निपटती प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कुछ राहत मिली एक और पुरानी धधकती आग के शांत होने से। यह आग थी पंजाबी सूबे की आजादी से भी पहले की मांग की, यानी सिखों के लिए एक अलग राज्य की।

पाकिस्तान से 1965 की लड़ाइयों में सिख सेनाधिकारियों और सैनिकों ने बड़ी संख्या में अपनी वीरता के जौहर दिखाए थे। आम पंजाबियों ने भी दिल खोल कर युद्ध में अपनी भूमिका निभाई थी। किसानों ने सड़कों पर आते जाते सेना की टुकड़ियों के लिए भोजन के स्टॉल लगाए। दूसरों ने उनके लिए अपने घर खोल दिए। कुछ अन्य ने सैनिकों की परिचर्या की जिम्मेदारी संभाली। पूरा पंजाब ही युद्ध में अपनी शक्तिभर सहायता की भावना से ओतप्रोत हो गया था।

इन बातों से प्रभावित भारत सरकार ने उनकी पुरानी मांग को मान लेने का फैसला किया। मार्च 1966 में सांसदों की एक समिति ने मौजूदा प्रांत को तीन भागों में बांटने की सिफारिश की- पहाड़ी जिले हिमाचल प्रदेश को, पूर्वी हिन्दी-भाषी हिन्दू बहुल जिले एक नए राज्य हरियाणा को और सिख वर्चस्व वाले, पंजाबी-भाषी जिले पंजाब को।

इस फैसले में राष्ट्रीय सहमति कतई नहीं थी। भारतीय जनसंघ और कई दूसरे दल और लोग देश को भाषाई और साम्प्रदायिक आधार पर राज्यों में बाँटने के सिद्धांत का प्रखर विरोध कर रहे थे। विभाजन के कारण पहले ही छोटे हो चुके पंजाब के दोबारा विभाजन के प्रदेश के कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता भी विरोधी थे। अटल बिहारी वाजपेई ने प्रखर विरोध किया। जनसंघ के प्रमुख पंजाब नेता यज्ञदत्त शर्मा  अनशन पर बैठे। उधर प्रमुख अकाली नेता सरदार फतेह सिंह पंजाबी सूबे के लिए आमरण अनशन की घोषणा कर चुके थे। 9 मार्च को कांग्रेस कार्यसमिति ने भाषाई आधार पर पंजाब के पुनर्गठन  की सरकारी समिति द्वारा की गई सिफारिश को स्वीकार कर लिया।

पूरे पंजाब में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। धरने, प्रदर्शन, लाठीचार्ज और पुलिस गोलीबारी हुए। कई लोग मारे गए। तीन हजार गिफ्तार हुए। बातचीत के बाद सरकार ने केवल भाषाई आधार पर पुनर्गठन और उसे पूरी तरह गैर-सामप्रदायिक बनाए रखने का वायदा किया तो यज्ञदत्त शर्मा ने अनशन वापस लिया।

इस बीच फरवरी में देश की एक और बड़ी हानि हुई। स्वातंत्र्य वीर सावरकर का निधन हो गया। 'हिन्दुत्व ' की मूल अवधारणा के जनक, अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी, लेखक, कवि, नाटककार, विचारक और इतिहासकार विनायक दामोदर सावरकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक अतिविशिष्ट, अद्वितीय, मौलिक, जाज्वल्यमान विभूति थे। अपने को नास्तिक कहने वाले सावरकर ने हिन्दुत्व की एक सर्वथा मौलिक राजनीतिक-सांस्कृतिक अवधारणा प्रस्तुत की, हिन्दु राष्ट्र और अखंड भारत की कल्पना को आकार दिया, जाति प्रथा को नष्ट करने का आव्हान किया, और रूढिवादी हिन्दु विश्वासों, रीतियों को कड़ी चुनौती दी। वह भारतीय स्वतंत्रता को क्रांतिकारी साधनों से हासिल करने के पक्षधर थे। सावरकर का समूचा जीवन, कृतित्व, रचनाएं और  लेखन देशप्रेम, बलिदान, रोमांच, प्रखर बौद्धिकता, विस्मयकारी साहस और अप्रतिहत, आजीवन संघर्ष की महागाथा है। समुद्र में पानी के जहाज से उनका भागना, गिरफ्तारी और फिर अंदमान जेल में काला पानी की सज़ा में यंत्रणाएं, उसी दौरान कांटों और कोयले से अपनी  कविताओं को दीवारों पर लिखना और एकान्त कारावास के 13 लंबे वर्षों तक उन  हजारों पन्नों को स्मृति में संजोए रखना- ये घटनाएं किंवदती बन चुकी हैं। महात्मा गांधी की हत्या के मामले में उनकी गिरफ्तारी, फिर आरोपों से बरी होकर एक बार फिर से वैचारिक और हिन्दु महासभा अध्यक्ष के रूप में राजनीतिक गतिविधियों में लीन हो जाना, अन्त तक अद्भुत पुरुषार्थ, उतार-चढ़ावों, विवादों से भरी एक रोमांचक कहानी है।

ऐसे सावरकर 26 फरवरी को 83 वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हो गए।

देश में अनाज की कमी गंभीर रूप धारण कर चुकी थी। लगातार दो साल से वर्षा कम होने से फसलें बैठ गई थीं। किसान त्राहि त्राहि कर रहे थे। उधर औद्योगिक निवेश और उत्पादन घट गए थे क्योंकि पाकिस्तान से दो युद्धों में हथियार आदि खरीदने में विदेशी मुद्रा भंडार में चिंताजनक कमी आ गई थी। देश को अनाज, कर्ज और उत्पादन बढ़ाने- तीनों के लिए विदेशी सहायता अनिवार्य हो गई थी। पिछले साल नए कृषि मंत्री सुब्रमण्यम द्वारा शुरु किए गए दूरगामी, महत्वपूर्ण कदम एक साल में नतीजे नहीं दिखा सकते थे। उनकी टीम द्वारा जिस हरित क्रांति की नींव रखी गई थी उसके परिणाम आने में समय था। सुब्रमण्यम ने अपने सरकारी बंगले के लॉन को नए, उन्नत, ज्यादा पैदावार वाले गेंहूं की बुवाई के लिए जुतवा दिया था जिसपर उनकी वैज्ञानिक टीम प्रयोग कर रही थी।

तब तक अमेरिकी किसानों के उगाए पीएल 480 गेहूं से ही देश का पेट भर रहा था जो कुछ साल पहले एक समझौते में अमेरिका ने भारत को कर्ज में देना शुरु किया था, औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाने के लिए एक कर्ज के साथ। देश विदेशों से कर्ज लेकर चल रहा था, दूसरों के दान के अन्न पर जी रहा था।

ऐसे समय में मार्च में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपनी पहली विदेश यात्रा में अमेरिका गईं। एक अमेरिकी अखबार ने सुर्खी बनाई- 'नई भारतीय नेता भीख मांगने आईं ' (New Indian Leader Comes Abegging)। अमेरिकन राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन से भेंट उनकी अच्छी हुई, उनका अच्छा प्रभाव पड़ा और गेहूं तथा नकद सहायता के और आश्वासन लेकर इंदिरा गांधी लौट आईं। लेकिन जहां भारतीय अधिकारियों ने कहा था कि उन्हें खाद्य सहायता पूरे साल की एकमुश्त दे दी जाए, जॉनसन ने उसे एक एक महीने पर जारी करने के आदेश दिए। वह अपने याचकों को दबाव में बनाए रखना चाहते थे।

अपने राष्ट्रपति के इस रवैये पर खुद भारत में अमेरिकी राजपूत ने एक मित्र से  टिप्पणी की कि जॉनसन का रुख क्रूर था। वह भारत की नाक धूल में रगड़ना चाहते थे, उसके गर्व को ध्वस्त करना चाहते थे। एक समय तो झुंझला कर जॉनसन ने यह तक सुझाव दिया कि हिन्दुस्तानियों को खेती करना सिखाने के लिए वह 1000 अमेरिकी किसानों को वहां भेज दें।

भारत ने दो वर्षों, 1965-66, में पीएल-480 के तहत डेढ़ करोड़ टन अमेरिकन गेहूं आयात किया था। इससे 4 करोड़ देशवासियों का पेट भर रहा था। अमेरिकी सरकार के एक आन्तरिक दस्तावेज के शब्द थे- भारत कंगाल था।

अमेरिकी तल्खी का कारण था। उसके कई वर्ग इससे नाराज थे कि एक ओर भारत उससे अनाज और मदद मांग रहा था दूसरी ओर अमेरिकी विदेश नीति, विशेषतः वियतनाम युद्ध में उसकी भूमिका की तीखी आलोचना भी कर रहा था। इस बारे में भारतीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के उन्हें भेजे एक पत्र से अमेरिकी राष्ट्रपति खासे चिढ़े हुए थे।

विदेशों से अनाज, हथियार, मशीनरी खरीदने और औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने के लिए लिए गए कर्जों के कारण भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खतरनाक हद तक घट गया था। सन 1966 के मार्च में वह केवल $62.5 करोड़ डालर रह गया था। यह थी वह स्थिति जिसके कारण प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जून में रुपए का अवमूल्यन करने का फैसला किया। इससे रुपए का मूल्य डालर की तुलना मे पहले के रु. 4.76 से घट कर रु. 7.50 रह गया। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, दोनों ने भारत से अवमूल्यन की संस्तुति की थी। लेकिन सरकार रुपए के दाम इतने ज्यादा घटा देगी यह अनुमान उन्हें भी नहीं था। एक झटके में रुपए का मूल्य (डालर की तुलना में) 57.5 % गिरा दिया गया था।

अवमूल्यन से देश भर में हंगामा मच गया। विपक्षी दल तो प्रखर विरोध कर ही रहे थे, कांग्रेस पार्टी के बड़े हिस्से में भी इसे लेकर विरोध था। कांग्रेस अध्यक्ष कामराज का मत था कि इससे देश की आर्थिक आत्मनिर्भरता की नींव कमजोर होगी। निर्यातमुखी नीतियां देश के अपने उद्यमों को उभरने में बाधा पैदा करेंगी। दीनदयाल जी ने लंबा लेख लिख कर अब तक की देश की समूची अर्थ नीति और कदमों के विस्तृत विश्लेषण से सिद्ध किया कि यह अवमूल्यन पश्चिमी दबाव में लिया गया था और यह देश के हित में नहीं अमेरिका और विश्व बैंक के हित में काम करेगा। उन्होंने आरोप लगाया कि इतने अहम फैसले में कैबिनेट और संसद को विश्वास में न लेकर प्रधानमंत्री ने अपने ही स्तर पर निर्णय ले कर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष को सूचित कर दिया था। उन्होंने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री अपने मार्च के अमेरिका दौरे में अमेरिकी सरकार से इसका वायदा करके आई थीं, और इसी के आधार पर भारत को अमेरिकी कर्ज मिला था। ''यह आर्थिक दासता की ओर एक बड़ा कदम था।"

'न्यू यॉर्क टाइम्स' की एक रिपोर्ट ने दो टूक शब्दों में सच का उद्घाटन कर दिया था। "...भारत की आर्थिक नीतियों में परिवर्तन अधिकांशतः अमेरिकी और विश्व बैंक के दबाव में किए गए थे। अमेरिकी दबाव ज्यादा प्रभावशाली रहा है क्योंकि भारत के आर्थिक विकास और औद्योगीकरण के लिए अधिकांश धन अमेरिका ने दिया है। इस दबाव को मानने के सिवा भारत के पास कोई चारा नहीं है।... "

दीनदयाल जी ने इसे देश का महान पतन कहा तो साम्यवादी मजदूर संगठनों और नेताओं ने इसे राष्ट्रीय विश्वासघात का शर्मनाक कदम कहा। एक मित्र को लिखे पत्र में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लिखा कि अवमूल्यन एक बेहद कठिन और पीड़ाजनक निर्णय था। जब पिछले दो वर्ष में बाकी सारे उपाय नाकाम हो गए तो इसे लेना पड़ा।

अवमूल्यन से कई उदारवादी अर्थव्यवस्था के समर्थकों, अर्थशास्त्रियों को आशा बंधी थी कि अब देश पिछले दो दशकों की समाजवादी आर्थिक नीतियों पर चलने की बजाय मुक्त, उदारवादी, बाजारोन्मुख उद्यमिता को बढ़ावा देने, निर्यातमुखी उत्पादन और व्यापार मजबूत करने की नई आर्थिक राह पर चलेगा। लेकिन आशा निष्फल रही। देशी और अन्तरराष्ट्रीय व्यापार पुराने नियन्त्रणवादी नियमों से बंधा रहा, लाइसेंस परमिट राज बदस्तूर जारी रहा, विदेशी पूंजी के आने-जाने में बाधाएं बनी रहीं, निर्यात बढ़ाने के प्रयास नहीं हुए। अवमूल्यन के व्यापक विरोध और पार्टी की आन्तरिक आलोचना ने इंदिरा गांधी को उसका पूरा लाभ नहीं उठाने दिया। या यह मान सकते हैं कि उन्होंने किसी गहरे आर्थिक चिन्तन-मन्थन के बाद अर्थनीति में मूलगामी सुधार करने की नीयत से नहीं बल्कि बाहरी दबाव में एक तात्कालिक कदम के रूप में ही यह फैसला किया था। देश नेहरूवादी नीतियों पर ही चलता रहा। आज यह विचार किया जा सकता है कि अगर ऐसा न हुआ होता, आर्थिक नीतियों की दिशा और चरित्र बदल गया होता तो शायद देश को अगले तीन दशक और मंद आर्थिक विकास और आर्थिक पिछड़ापन न झेलना पड़ता।

इसी वर्ष 19 जून को मुंबई में राजनीतिक व्यंगचित्रकार बाल ठाकरे ने शिवसेना का गठन किया।

इसी वर्ष जनवरी में प्रयाग में प्रथम विश्व हिन्दू सम्मेलन आयोजित हुआ था जिसमें गोरक्षा पर प्रस्ताव पारित किया गया कि संपूर्ण भारत में गोहत्या बंदी का केन्द्रीय कानून बनाया जाए। दिल्ली में 7 नवंबर के गोरक्षा सम्मेलन तथा 20 नवंबर से गोवर्धन पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ जी और पूज्य श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी द्वारा आमरण अनशन की घोषणाएं की गईं। गोरक्षा का प्रश्न स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही देश के वरिष्ठतम नेताओं द्वारा उठाया जाता रहा था। गांधी जी से लेकर विनोबा तक के लिए यह केन्द्रीय महत्व का विषय था।

किन्तु 7 नवंबर को एक अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण घटना घट गई। उस दिन सर्वदलीय गोरक्षा महाभियान समिति के संचालक करपात्री जी महाराज के नेतृत्व में अखिल भारतीय सत्याग्रह का आयोजन था। चांदनी चौक आर्य समाज मंदिर से लाखों साधुओं, संतों, धर्माचार्यों, गोभक्तों का विराट जुलूस संसद भवन के सामने पहुंच कर जनसभा में बदल गया। मंच पर जगन्नाथपुरी, ज्योतिषपीठ, द्वारका पीठ के शंकराचार्य, वल्लभ संप्रदाय के सातों पीठाधिपति, रामानुज, मध्व, रामानंदाचार्य, आर्य समाज, नाथ संप्रदायों, जैन, बौद्ध तथा सिख धर्माचार्य, नागा साधु, निहंग उपस्थित थे।

आर्य समाज के स्वामी रामेश्वरानंद, जो सांसद भी थे, ने संबोधनों के क्रम में बोलते हुए सरकार को झकझोरने के लिए वहां उपस्थित समुदाय का आह्वान कर दिया कि वे संसद के भीतर घुस जाएं और सांसदों को खींच कर बाहर ले आएं।

नौजवान, नागा साधु आदि संसद की दीवारें, जंगले फांद कर अंदर घुसने लगे। भीड़ ने संसद भवन को घेर लिया। पुलिस ने लाठी, आंसूगैस और गोलियां चलाईं। उस दिन वहां कितने आंदोलनकारी मरे, कितने घायल हुए यह ठीक ठीक कभी पता न चल सका। वहां से भागती भीड़ ने रास्ते में काफी तोड़फोड़, आगजनी की। दिल्ली में बेहद तनावपूर्ण और सनसनी, अटकलों, आक्रोश का वातावरण था। शाम तक राजधानी में सेना बुला कर उसकी गश्त शुरु कर दी गई। बड़ी संख्या में लोग, साधु-संत लापता हो गए। करपात्री जी सहित हजारों आंदोलनकारियों को जेल में डाल दिया गया।

इस अप्रत्याशित घटनाक्रम और हिंसा की देश में व्यापक प्रतिक्रिया हुई। अपनी पुलिस व्यवस्था की नाकामी के लिए गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा को केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा।

यह वर्ष अगले वर्ष देश के चौथे आम चुनाव की तैयारी का भी था। सभी दल अपने अपने हिसाब से तैयारियां कर रहे थे। यह पहला चुनाव होना था जो जवाहर लाल नेहरू की अनुपस्थिति में होता। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व का प्रारंभिक काल था।  रोचक होगा यह देखना कि दुनिया भारत को इस समय कैसे देख रही थी।

नेहरू जी के निधन के बाद से ही कई प्रश्न भारत की चिन्ता करने वाले लोगों और देशों को विचलित कर रहे थे- नेहरू के बाद कौन?  नेहरू के बाद क्या ? पश्चिमी देशों के लाडले नेहरू के लगभग चमत्कारी नेतृत्व से वंचित भारत का बाल लोकतंत्र क्या चल पाएगा? कैसे चलेगा?  केवल 19 वर्ष पहले ही एक अखंड राजनीतिक राष्ट्र-राज्य बना भारत क्या एक रह पाएगा?

पश्चिम में एक धारणा बनी हुई थी कि यह जवाहर लाल नेहरू के व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि भारत की एकता और लोकतंत्र बचे हुए थे। उनकी मृत्यु के बाद दो बार नेतृत्व परिवर्तन, एक के बाद एक सूखे, छोटे छोटे क्षेत्रीय विद्रोहों और पाकिस्तान से बड़े युद्ध जैसी घटनाओं ने इन पश्चिमी आशंकाओं को पुष्ट ही किया था। अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के अखबारों, पत्रिकाओं की उन दिनों की भारत-कवरेज भारत में लोकतंत्र के प्रति इन्हीं भावों और भयों से भरी हुई थी।

एक साल पहले, 1965 में प्रसिद्ध लेखक रोनल्ड सेगल ने भारत का भ्रमण करके एक प्रमुख अध्ययन प्रकाशित किया- " भारत का संकट "। उन्होंने पाया, " भारत एक आर्थिक कगार पर खड़ा है...उसके नीचे की जमीन बिखर रही है...उसकी अन्तरराष्ट्रीय छवि निम्न थी और गिर रही थी... " सेगल को भारत में लोकतंत्र के बचने की आशा नहीं थी। उन्हें दो ही विकल्प दिख रहे थे- "वाम दिशा में कम्युनिस्ट शासन या दक्षिण में उग्र साम्प्रदायिकता, और इनमें से कोई एक कुछ ही वर्षों में सच होने वाला था।"

जब  1966 में भी मानसून नाकाम हो गया, लगातार दूसरे साल सूखा पड़ा तो भविष्यवाणियां लोकतंत्र के लोप से हट कर व्यापक भुखमरी की हो गईं। स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित जन्तुशास्त्री पॉल एर्हलिच ने लिखा कि सिद्धांत रूप में पढ़े हुए जनसंख्या विस्फोट के परिणामों को उन्होंने अपनी भारत-यात्रा में दिल्ली की एक गर्म, दुर्गन्धपूर्ण रात में प्रत्यक्ष देखा- "रेंगती टैक्सी से दिखते खाते हुए लोग, नहाते हुए लोग, सोते हुए लोग, आते-जाते, बतियाते-बहसते-चिल्लाते लोग, भीख मांगते हाथों को टैक्सी के अन्दर डालते लोग, मल-मूत्र त्यागते लोग, बसों पर लदे लोग, पशुओं को हांकते लोग। लोग लोग लोग।"

इसी वर्ष दो अन्य अमेरिकी विद्वान लिख रहे थे- "आज अकाल और आपदा की कगार पर खड़े देशों में पहला भारत है। कल अकाल आएगा, और उसके साथ आएंगे दंगे, अन्य नागरिक संघर्ष जिन्हें एक दुर्बल केन्द्र सरकार सँभाल नहीं पाएगी।" उन्होंने भविष्यवाणी की -"1975 तक नागरिक अव्यवस्था, अराजकता, सैनिक तानाशाहियां, छलांगती मंहगाई, ठप यातायात सेवाएं और अनियन्त्रित अशांति रोजाना की घटनाएं होंगी।"

नवंबर 1966 में पारंपरिक रूप से कांग्रेस-समर्थक अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स ने एक मुख्य लेख छापा- '19 वर्ष की गंभीरतम स्थिति ' । तमाम समस्याएं और संकट गिनाते हुए अखबार ने लिखा- "देश का भविष्य बहुत से कारणों से अंधकारमय है...जो सब के सब 19 वर्षों के कांग्रेस राज की सीधी देन हैं।"

प्रमुख अमेरिकी पत्रिका दि यूएस न्यूज़ एंड वर्ल्ड रिपोर्ट ने अपने संवाददाता सैंडर्स को 1966 के अंतिम सप्ताहों में भारत भेजा। उन्होंने रिपोर्ट लिखी- भारतः विनाश की कगार पर खड़ा एक विशाल देश। धार्मिक कट्टरता, भाषा की बाधाओं, क्षेत्रीय संघर्षों, अनाज की कमी, मंहगाई, सतत जारी जनसंख्या विस्फोट, हिंसा के इन विभिन्न रूपों से ग्रस्त भारत की अजीबोगरीब समस्याओं को गिनाते हुए उन्होंने लिखा कि 1967 में आम चुनाव के होने में शंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। उनको यह संभावना दूर नहीं लगी कि कानून व्यवस्था इतनी ध्वस्त हो जाएगी कि सेना सत्ता हथिया लेगी, जैसा पड़ोसी पाकिस्तान और बर्मा में हुआ।

लंडन टाइम्स के भारत में वर्षों रह चुके संवाददाता नेविल मैक्सविल ने 1967 के आरंभ में रिपोर्ट श्रंखला लिखी- भारत का बिखरता लोकतंत्र"अकाल का खतरा है, प्रशासन लडखड़ा रहा है और सर्वत्र भ्रष्ट माना जाता है, सरकार और सत्तारूढ़ दल जनता का विश्वास और अपने आप में विश्वास भी खो चुके हैं ... इन सब बातों ने मिल कर संसदीय लोकतंत्र के अस्वीकार की भावनात्मक जमीन तैयार कर दी है।" उनकी भविष्यवाणी दो टूक थी- "भारत अपने चौथे, और निश्चय ही अंतिम, चुनाव में मतदान तो करेगा लेकिन भारत को एक लोकतांत्रिक ढाँचे में विकसित करने का प्रयोग विफल हो चुका है।..सेना ही अधिकार और व्यवस्था का एकमात्र वैकल्पिक स्रोत बचेगी। उसका एक नागरिक भूमिका में आना अपरिहार्य है, प्रश्न केवल यह है कि कैसे?"

इन भावों और भविष्यवाणियों से निकल कर देश आज वैश्विक महाशक्ति बनने की कगार पर खड़ा हुआ है।


राहुल देव

प्रकाशित वांग्मय में इस लेख में गोहत्या आंदोलन के विवरण के कुछ तथ्य सुधारे गए हैं। 

वांग्मय का लोकार्पण 9 अक्तूबर, 2016 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों हुआ।