हिंदी को राष्ट्रभाषा, विश्व भाषा बनाने की बात मृगतृष्णा है.....
साक्षात्कार
वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव का नाम पत्रकारिता के क्षेत्र में बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है । लखनऊ के ‘दि पायोनियर’ अंग्रेजी समाचार पत्र से उन्होंने अपनी पत्रकारिता की शुरूआत की । हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर गहरी पकड़ रखने वाले श्री राहुल देव ने ४0 वर्ष से भी अधिक समय इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में बिताया है । दि इलस्ट्रेटेड वीकली, करेंट, दि वीक, प्रोब, माया, जनसत्ता और आज समाज में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभालने के अलावा उन्होंने न्यूज चैनल आज तक, दूरदर्शन, जी न्यूज, जनमत और सीएनईबी में प्रमुख जिम्मेदारियां निभाई हैं ।
सकारात्मक पत्रकारिता के लिए उन्हें देश में हिन्दी के सर्वोच्च पुरस्कार 'गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार' तत्कालीन राष्ट्रपति माननीय श्री प्रणव मुकर्जी द्वारा २०१७ में और २०१९ में पंडित हरिदत्त शर्मा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है । २०१५ से २०१९ के बीच माननीय लोक सभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन द्वारा गठित संसदीय शोध कदम, लोकसभा में मानद सलाहकार के पद पर कार्यरत रहे। सम्प्रति वह एसजीटी विश्वविद्यालय, गुरुग्राम में सलाहकार हैं। वह केन्द्रीय हिन्दी समिति के सदस्य रहे हैं। अभी केन्द्रीय गृह मंत्रालय की हिन्दी सलाहकार समिति के सदस्य हैं।
वह सम्यक् न्यास के प्रबंध न्यासी हैं। न्यास भारतीय भाषाओं के संरक्षण, संवर्धन के साथ साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य, विकास, मीडिया प्रशिक्षण आदि क्षेत्रों में सक्रिय है।
प्रश्न- आप काफी लंबे समय से पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं, भारतीय भाषाओं के संरक्षण के लिए भी कार्य कर रहे हैं और संसद में भी कार्यरत रहे हैं। आप हमारे पाठकों को अपनी इस यात्रा के बारे में कुछ बताएं ।
उत्तर- मैं लखनऊ का रहने वाला हूँ। मेरी सारी शिक्षा वहीं हुई है। मैं स्नाकोत्तर करते समय ही पत्रकार बन गया था। मैं अंग्रेजी साहित्य का विद्यार्थी रहा और पहले अंग्रेजी का ही पत्रकार बना। मैंने 1979 में अंग्रेज़ी दैनिक "दि पायनियर" से अपनी पत्रकारिता शुरू की। वहाँ पहले प्रशिक्षु बना फिर उपसंपादक और तब संवाददाता। उसके बाद कई अंग्रेजी पत्रिकाओं में कार्य किया। तकरीबन 9 साल मैंने अंग्रेजी पत्रकारिता की। पायनियर के बाद साप्ताहिक करंट, इलस्ट्रेटड वीकली, दि वीक, सूर्या इंडिया में रहा। जब मैं मित्र प्रकाशन, इलाहाबाद की अंग्रेजी पत्रिका प्रोब इंडिया में मुख्य राजनीतिक संवाददाता था तो उनकी लोकप्रिय हिंदी पत्रिका पाक्षिक "माया" के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख बीमार पड़े और लंबी छुट्टी पर गए तो माया के संपादकों ने मुझसे कहा कि आप हमारे लिए एक आवरण कथा लिख दीजिए। मैंने बड़े ही सहज रूप से उनके लिए आवरण कथा लिख दी। वह कथा उनको पसंद आई और उन्होंने कहा कि अब आप माया का दिल्ली ब्यूरो संभालिए । इस तरह से सहज है मैं अंग्रेजी से हिंदी में आ गया। तब से हिंदी में ही हूँ।
माया के बाद मुझे प्रभाष जी ने बुलाया, और मुंबई जनसत्ता का स्थानीय संपादक बनाकर वहाँ भेजा। मुंबई में मैं तकरीबन साढे़ छह साल रहा। वहाँ खूब काम किया। वह मेरी पत्रकारिता का स्वर्णकाल रहा है । मुंबई से मैंने हिंदी की पहली नगर पत्रिका "सबरंग" शुरू की, मुंबई का सांध्य दैनिक "संझाजनसत्ता" शुरू किया। वह इतने कम समय में एक दैनिक अखबार की शुरुआत का कीर्तिमान बन गया। विचार आने से लेकर अखबार शुरू होने तक की प्रक्रिया केवल 11 दिन में पूरी हुई। बारहवें दिन अखबार बाज़ार में आ गया। यह काम इतने कम समय में होता नहीं है लेकिन हो गया क्योंकि अखबार की संकल्पना, प्रारूप, डिज़ाइन और संपादकीय टीम के अलावा सारा ढांचा वहाँ मौजूद था।
इसके अलावा वहाँ पर एक प्रमुख काम और हुआ। मुंबई में हिंदी भाषियों की सामाजिक स्थिति कुछ खास नहीं थी। उनके पास कोई अच्छा, बड़ा और सक्षम सामाजिक, राजनीतिक नेतृत्व नहीं था। उनका संख्या बल तो बहुत था लेकिन वे बड़े बिखरे हुए और आपस में बड़े असंगठित, उपेक्षित और अपमानित सा जीवन व्यतीत कर रहे थे। उनको सामाजिक, सांस्कृतिक रूप से सक्रिय और संगठित करने की हमने कोशिश की । उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक अस्मिता को थोड़ा सुदृढ़ करने की कोशिश की। मुंबई में उस समय 100 से ज्यादा रामलीलाएं होती थी। वह सबसे बड़ा मौका होता था जब मुंबई का सारा हिंदी समाज एक साथ जुड़ता था। हमने उनके प्रमुख लोगों को साथ बैठा कर एक रामलीला महासंघ बनाया। प्रमुख स्थानीय लोगों, आयोजकों और संस्थाओं को जोड कर एक संस्था बनाई और “जनसत्ता रामलीला पुरस्कार’ स्थापित किए। इसमें हम सर्वश्रेष्ठ रामलीला मंचन और उनकी संस्थाओं को पुरस्कृत करते थे।
हिंदी पत्रकार संघ का गठन किया। निखिल वागले और उनके दफ्तर पर शिवसेना के हमलों का हम लोगों ने सक्रिय विरोध किया, प्रदर्शन किए, जुलूस निकाले। शिवसेना के लोगों की गालियां, धमकियां, ईंट-पत्थर खाए। प्रभाष जी ने उसमें अग्रणी भूमिका निभाई । शिवसेना के इतिहास में पहली और आखिरी बार शिवसेना के दफ्तर के ठीक सामने हम लोगों ने पूरे दिन का धरना दिया जिसमें देश भर से आए प्रमुख राष्ट्रीय संपादकों और पत्रकारों ने हिस्सा लिया । ये सब काफी रोमांचक क्षण थे जिन्हें सोच कर आज भी काफी अच्छा लगता है ।
मेरे पत्रकारीय जीवन का यह सबसे गौरव पूर्ण अध्याय था । प्रेस की आजादी के लिए, प्रेस की एकता के लिए और प्रेस की आजादी पर हमला करने वालों के खिलाफ हमने लाठियां खाई, पत्थर खाए, संघर्ष किया, सड़कों पर उतरे । मुझे मिलने वाली धमकियों, पत्नी को अश्लील फोनों, धमकियों को देखते हुए मुंबई पुलिस ने कई महीने चौबीस घंटे की सुरक्षा प्रदान की। वे जो पत्थर पड़े मैं मानता हूँ कि वे मेरे सबसे गौरवपूर्ण मुकुट हैं।
उसके बाद मुझे प्रभाष जी की सेवा निवृत्ति के बाद दिल्ली आकर जनसत्ता का नेतृत्व करने का सौभाग्य मिला। जनसत्ता के बाद मुझे ‘आज तक’ का नेतृत्व करने का निमन्त्रण। उसके बाद दूरदर्शन, ज़ी न्यूज़, जनमत, सीएनईबी चैनलों में काम किया। अंतिम में प्रधान संपादक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी भी रहा। उसके बाद दो साल दैनिक आज समाज तथा साप्ताहिक इंडिया न्यूज़ का प्रधान संपादक रहा।
अब मैं स्वतंत्र कार्य कर रहा हूँ। पिछले साल जुलाई तक संसद में कार्यरत रहा।१६वीं लोकसभा की माननीय अध्यक्ष सुमित्रा महाजन जी ने २०१५ में एक महत्वपूर्ण नया कार्य शुरू किया था " अध्यक्षीय शोध कदम" नाम से। उसके मानद सलाहकार के रूप में संचालन की जिम्मेदारी उन्होंने मुझे दी। यह एक अत्यन्त समृद्ध अनुभव था। हम सांसदों के लिए महत्वपूर्ण राष्ट्रीय विषयों पर अच्छे से अच्छे विशेषज्ञों को बुला कर कार्यशाला करते थे। इसे सांसदों का अच्छा प्रतिसाद मिला।
इसी के साथ अपनी संस्था सम्यक न्यास के माध्यम से हमने सार्वजनिक स्वास्थ्य, एचआईवी एड्स, टीकाकरण, जल-स्वच्छता-सफाई, विकास आदि क्षेत्रों में राष्ट्रीय तथा बहुराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ काफी काम किया। राष्ट्रीय एड्स नियन्त्रण संगठन, यूनिसेफ, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम, यूएनएड्स, एक्शनएड जैसी वैश्विक संस्थाओं के साथ मीडिया प्रशिक्षण का काम करना एक अत्यन्त समृद्ध अनुभव रहा। एचआईवी एड्स की ठीक रिपोर्टिंग पर देश के ११ राज्यों तथा नेपाल और बांग्लादेश के पत्रकारों के प्रशिक्षण का काम बेहद लाभदायी रहा। हमने यूएनडीपी की प्रतिष्ठित ‘मानव विकास रिपोर्ट’ का तीन वर्ष तक हिन्दी अनुवाद भी किया।
इसके साथ ‘सम्यक’ के मंच से दिल्ली, मुंबई में प्रमुख भारतीय भाषाओं के विद्वानों के साथ भारत के भाषा संकट पर गंभीर गोष्ठियों की श्रंखला का भी आयोजन किया। यह काम अभी जारी हैं।
इस समय मैं श्री गुरु गोवन्द सिंह जन्म त्रिशताब्दी विश्वविद्यालय के सलाहकार के रूप में कुछ समय दे रहा हूं।
प्रश्न-2 मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। आप पत्रकारिता से लंबे समय से जुड़े हैं । आप हिंदी पत्रकारिता में हिंदी को किस स्तर पर देखते हैं?
उत्तर- मैं बरसों से यह कह रहा हूँ कि हिंदी के अधिकतर प्रमुख अखबार और चैनल, कुछ अपवादों को छोड़कर, हिंदी के दैनिक हत्यारे हो गए हैं। पत्रकारिता से कई तरह की अपेक्षाएं समाज को होती हैं। पत्रकारिता के कई कर्तव्य होते हैं। सबसे पहला तो यह कि जो हो रहा है वह जनता को बताना और उसे संदर्भ के साथ, परिप्रेक्ष्य के साथ बताना, उसका विश्लेषण करना, टिप्पणी करना। लोकहित में जो कुछ भी प्रकाश में लाए जाने योग्य है, नागरिकों को बताए जाने योग्य है उसको सभी के समक्ष लाना उसका मूल कर्तव्य है।
इसी के साथ लोक रुचि का परिष्कार करना भी पत्रकारिता का एक काम है । लोक रुचि के परिष्कार में भाषा का निर्माण तथा परिष्कार भी शामिल है । हमारी पीढ़ी के लोगों ने अपने समय के अखबारों और पत्रिकाओं को पढ़कर भाषा को सुधारा है। अच्छी भाषा आती है अच्छा पढ़कर। बिना अच्छा पढ़े अच्छी भाषा नहीं आ सकती।इसका मतलब यह है कि जो कुछ भी प्रकाशित होता है चाहे दैनिक अखबारों में हो, पत्रिकाओं हों या पुस्तकों में हों, उसका काम बाकी कामों के अलावा पाठक की भाषा का परिष्कार भी है । पत्रकारिता लोक शिक्षण तो करती ही है साथ-साथ भाषा शिक्षण भी करती है। सार्थक संवाद करना भी सिखाती है ।
अगर इस कसौटी पर हम आज की पत्रकारिता के दोनों माध्यमों, टीवी और अखबार को कसें तो पाएंगे कि अपवादो को छोड़कर वह रोज अपने दर्शकों और पाठकों की भाषा को बिगाड़ रहे हैं, उन्हें साफ-सुथरी हिंदी से दूर कर रहे हैं, वंचित कर रहे हैं और उन्हें ऐसी भाषा दे रहे हैं जो न तो हिंदी है और न अंग्रेजी बल्कि एक अपाहिज, लूली, लंगड़ी, भ्रष्ट भाषा है । नई पीढ़ियां वही सुनकर और पढ़कर बड़ी हो रही हैं । हमारे समाज में भी वह इतना फैल गई है कि अब यह तय करना कठिन हो गया है कि समाज की भाषिक भ्रष्टता का प्रतिबिंब हमें पत्रकारिता की भाषा में मिल रहा है या पत्रकारिता की भाषा समाज की भाषा को भ्रष्ट कर रही है ।
पत्रकारिता का काम समाज की बुराइयों को ज्यों का त्यों सामने रखना नहीं है बल्कि उनके विश्लेषित, सुविचारित परिष्कृत सत्य को सामने रखना और लोक रुचि का परिष्कार करना है।लेकिन जिस तरीके का माहौल वर्तमान में चल रहा है उसे देख कर लगता है कि हमारी भाषाएँ जीवंत और सबल भाषाओं के रूप में नहीं बचेंगी। इसकी बहुत बड़ी जिम्मेदारी हमारी पत्रकरिता और हमारे मीडिया पर होगी - मुद्रित और टीवी दोनों माध्यमों पर।
प्रश्न-3 राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के परिदृश्य को आप किस प्रकार देखते हैं? क्या आप हिंदी की वर्तमान स्थिति से संतुष्ट हैं?
उत्तर- एक तरफ हिंदी में अब भी बहुत उत्कृष्ट वैचारिक लेखन हो रहा है। साहित्य लेखन पहले से बहुत ज्यादा बड़ी मात्रा में हो रहा है। सोशल मीडिया की नई तकनीक ने सभी को लेखक बना दिया है। जिसके पास भी कहने को कुछ विचार हैं, कविता है, भाषा है उसके पास आज कई मंच उपलब्ध हैं। इस नई तकनीक के आने से हिंदी लेखन में अपार विस्तार हुआ है। नई तरह का लेखन हो रहा है, नए तरीके का साहित्य लिखा जा रहा है, नई शैलियों, विषयों, दृष्टियों के साथ, नए मुहावरों और नए तेवरों के साथ। विचार और साहित्य का एक विराट प्रस्फुटन और लोकतंत्रीकरण किया है नए माध्यमों ने।
एक तरफ तो इस नई और लोकतांत्रिक तकनीक के आने से हिंदी रचनाशीलता का विस्फोटक विस्तार हुआ है। बहुत सारे नए उत्कृष्ट लेखक सामने आए हैं। वहीं दूसरी स्थिति यह है कि आम समाज में, हिंदी समाज में जो हिंदी बोली जा रही है वह निरन्तर निम्न से निम्नतर, निकृष्टतर, भ्रष्टतर होती जा रही है। उसको देख कर मुझे वर्षों से यह दिख रहा है, और जिसे मैं चीख चीख कर कह रहा हूँ, कि अगर यही चलता रहा, ये चीजें अगर नहीं बदली तो हिंदी नहीं बचेगी।
हिंदी की पत्रिकाओं और चैनलों की बात तो छोड़िए अब हिंदी के बड़े अखबार भी अपने शीर्षक पूरे अंग्रेजी में देने लगे हैं । अब ये छात्र न लिखकर स्टूडेंट लिखते हैं, अभिभावक नहीं पैरेन्ट्स, कमरा नहीं रूम, शिक्षक नहीं टीचर छापते हैं। अंग्रेजी के शब्दों का ही नहीं अंग्रेजी के व्याकरण का भी इस्तेमाल ये अखबार और चैनल कर रहे हैं, जैसे स्टूडेंट्स, टीचर्स, डॉक्टर्स।
किसी भी तरह के जन माध्यम की सहज प्रकृति होती है कि वह जिस भी चीज को बाहर लाता है, प्रकाशित कर देता है वह अपने आप ही एक विशिष्टता हासिल कर लेता है, सामान्य से बड़ी छवि हासिल कर लेता है। और चाहे नकारात्मक ही हो लेकिन एक खास तरह की लोक उपस्थिति भी प्राप्त कर लेता है। एक तरह का मानक बन जाता है। यही चीज़ भाषा के साथ होती है पढ़ने और लिखने वालों के लिए। और यूं ऐसी भ्रष्ट, घटिया हिन्दी को ही पत्रकारिता की मुख्य धारा की भाषा बना कर एक बेहद भ्रष्ट और अपाहिज भाषा को स्वीकार्य ही नहीं मानक बनाया जा रहा है ।
जो युवा पाठक हैं, जो अभी परिष्कृत पाठक नहीं हैं, अभी किशोर हैं, युवा हैं, इन अखबारों और चैनलों को पढ़ते हैं देखते हैं उनके लिए तो यही भ्रष्ट हिंदी अब सही हिंदी है, सामान्य हिंदी है। और अब स्थिति यह है कि सही, सामान्य, सरल हिंदी बोलो तो लोगों को उलझन होने लगती है । अब हम लोग ‘समय’ और ‘वक्त’ का इस्तेमाल नहीं करते केवल ‘टाइम’ का इस्तेमाल करते हैं, ‘लेकिन’ और ‘परंतु’ अब हमारे मुँह से नहीं निकलते ‘बट’ निकलता है। इस तरीके से आम मध्यवर्गीय हिंदीभाषी लोगों ने भी हिंदी को दूषित किया है। मैं जब इन रुझानों को अगले 50 सालों पर प्रक्षेपित करता हूँ तो मुझे लगता है अगले 30- 40 साल बाद हिंदी बचने वाली नहीं है।
आज हिंदी के साहित्यकार लेखन करने के बाद एक दूसरे के लेखन की सराहना करते हैं, एक दूसरे की पीठ थपथपाते हैं, आप मेरी प्रशंसा करते हैं मैं आपकी प्रशंसा करता हूँ यही तो हो रहा है हिंदी साहित्य जगत में, गोष्ठियों में। मेरा सवाल है 20 साल बाद इस साहित्य का पाठक कौन होगा? आपके अपने बच्चे ही आपके पाठक नहीं है तो बाकियों की तो छोड़ ही दीजिए। फिर कौन पढे़गा प्रेमचंद और हजारी प्रसाद द्विवेदी को और फिर तुलसी को कौन पढ़ेगा, रामचरितमानस को कौन पढ़ेगा?
आज की पूरी शिक्षा प्रणाली में हिंदी सिर्फ एक कोने में पड़ा हुआ उपेक्षित विषय है। हर साल अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या दुगनी हो रही है, २०३०-३५ तक इस देश के सारे बच्चे सिर्फ अंग्रेजी माध्यम में पढ़ रहे होंगे। हर प्रदेश में स्थानीय भाषाई माध्यम विद्यालय बंद हो रहे हैं। सरकारी विद्यालयों में भी सरकारें अपनी भाषा नीति के खिलाफ अपने हिंदी माध्यम विद्यालयों को भी अंग्रेजी माध्यम कर रही हैं । मराठी, गुजराती, पंजाबी देश की सभी भाषाओं में यही हो रहा है। निजी विद्यालय तो दशकों से अंग्रेजी माध्यम हैं ही अब सरकारी स्कूल भी अंग्रेजी माध्यम हो रहे हैं।
हमारी नई पीढ़ियां देवनागरी सहित अपनी लिपियों से ही अपरिचित बनाई जा रही है। हमारे बच्चों को उनकी अपनी लिपि दिखती ही नहीं है। आज सब जगह पोस्टर, विज्ञापन अंग्रेजी में ही छपते हैं। घरों में उनकी अपनी ही भाषा की किताबें नहीं है, माँ-बाप किताबें लाते ही नहीं है और यदि लाते है तो अंग्रेजी की किताब लाते हैं। हिंदी की किताबें, पत्रिकाएं खरीदने में अब लोगों को शर्म आती है। अंग्रेजी वालों के सामने आज हिंदी वाला दीन हो जाता है।
इन सारी चीजों को मिलाकर जब मैं भविष्य देखता हूं तो मुझे साफ दिखता है हिंदी सहित हमारी सभी भाषाएं बहुत कमजोर और हाशिए की भाषाएं बन कर ही बचने वाली हैं । ये भाषाएँ रहेगी, खत्म नहीं होंगी लेकिन फिल्मों की भाषा के रूप में, मनोरंजन की भाषा के रूप में, गालियों की भाषा के रूप में, और ऐसे साहित्य की भाषा के रूप में जिसे पढ़ने वाले मुट्ठी भर लोग होंगे। यदि हमें हिंदी का भविष्य देखना है तो यह नहीं देखना होगा कि कितने लोग हिंदी समझ और बोल रहे होंगे। असली प्रश्न यह है कि कितने लोग हिंदी में पढ़ और लिख रहे होंगे। भविष्य का संकेत वहाँ से मिलेगा। और सारे संकेत बता रहे हैं कि हिंदी पढ़ने और लिखने वालों की संख्या लगातार कम हो रही है।
यह मैंने हिंदी का भविष्य और वर्तमान आपके सामने रखा है । इसमें दुखद यह है कि जिस वर्ग को इस खतरे से सबसे पहले अवगत होना चाहिए, उद्वेलित और व्याकुल होना चाहिए, यह खतरा जिन्हें सबसे पहले दिखना चाहिए, हिंदी में वह जो रचने वाला वर्ग है, साहित्यकार और लेखक है, सबसे ज्यादा मौन वहीं है। इस विषय पर वह शुतुरमुर्ग हो गया है। वे अपनी रचना में, अपनी रचना प्रक्रिया में, अपनी वाहवाही में इतना आत्ममुग्ध और व्यस्त है कि जिस भाषा में वे रच रहे हैं, इतना यश, कीर्ति और पुरस्कार पा रहे है, उस भाषा की जमीन दिनों दिन खिसक रही है और उनको यह दिखता ही नहीं है। उसको कोई कष्ट ही नहीं होता, उनको कोई चिंता ही नहीं है। यह मेरे लिए सबसे बड़ा आश्चर्य है। दूसरा आश्चर्य है कि हिंदी जगत से, हिंदी शिक्षा जगत से जुड़े लोग, हिन्दी के शिक्षक, हिन्दी जिनकी आजीविका है वे भी इस पर आंदोलित नहीं है, चिंतित नहीं हैं।
प्रश्न-4 वर्तमान में विद्यालयों में प्राथमिक शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से दी जाती है और आठवीं कक्षा से हिंदी को वैकल्पिक बनाकर विदेशी भाषाएं पढ़ाई जाती हैं। हिंदी के प्रति इस रवैये पर आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर - यह हिंदी को खत्म करने का रवैया है, गला घोटने का रवैया है, उसका भविष्य नष्ट करने का रवैया है। और यह घोर मूर्खतापूर्ण रवैया है। यह ऐसा रवैया है जो हिंदी को ही नहीं बल्कि भारत में रहने वाले करोड़ों बच्चों के भविष्य को, उनके बौद्धिक विकास को अवरुद्ध करने वाला, उनके भविष्य को बिगाड़ने वाला है। अभी जो नई शिक्षा नीति का प्रारूप आया है वह सौभाग्य से काफी अच्छा आया है । पहली बार किसी शिक्षा नीति के प्रारूप में भाषा को इतना महत्व और इतनी जगह दी गई है। इसमें प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा के महत्व को काफी प्रबलता से रेखांकित किया गया है । यह बच्चे के बौद्धिक और संवेगात्मक विकास के लिए मातृभाषा या घर की भाषा के महत्व पर केन्द्रित है। यह अभी तक नहीं हुआ था। लेकिन हमारे देश की अब तक चल रही राष्ट्रीय शिक्षा नीति के स्पष्ट उल्लंघन में राज्य सरकारें और केंद्र सरकार के शैक्षिक संगठन भी धीरे-धीरे अपनी शिक्षा से हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं को बेदखल कर रहें है। इसके बहुत बड़े दुष्परिणाम हो रहे हैं और होंगे। मैं चकित हूँ कि हमारे नीति निर्माताओं को बिलकुल सामने खड़ा यह संकट दिखता ही नहीं है। यह मेरे लिए बड़े आश्चर्य का विषय है।
प्रश्न-5 पिछले दिनों ही हमारी नई शिक्षा नीति का प्रारूप आया और दक्षिण राज्यों के दबाव के चलते उसमें से हिंदी को अनिवार्य भाषा बनाने वाले खंड को हटा दिया गया। आप इसे किस रूप में देखते हैं?
उत्तर- शुरू में मुझे भी झटका लगा था । उस कदम से बहुत बुरा लगा था लेकिन मैंने उसके बाद इस विषय का अध्ययन किया कि तमिलनाडु के इस पुराने, ऐतिहासिक और असाधारण रूप से उग्र हिंदी विरोध का कारण क्या है, उसकी जड़ें कहां हैं। मुझे इसमें कई चीजें मिली हैं। अभी अध्ययन चल रहा है लेकिन मुझे कुछ समझ में आने लगा है कि यह क्यों हो रहा है।
दरअसल इसे बाकायदा निर्मित किया गया है । इस स्थिति को बनने में 100 साल लगे हैं । तमिल लोगों के दिलो-दिमाग में हिंदी के प्रति घृणा एक लंबी प्रक्रिया और काल में भरी गई है। इस सामूहिक मानसिकता के चार स्तंभ हैं- हिंदी से घृणा, ब्राह्मणवाद से घृणा, संस्कृत से घृणा और उत्तर भारत के नकली आर्य-द्रविड़ विभाजन में आर्यों से घृणा । आर्य और द्रविड़ कृत्रिम विभाजन से यह शुरू हुआ था, और जो कुछ भी उत्तर से आता था उससे, उत्तर की हर चीज और प्रभाव का विरोध और उससे नफरत करने की भावना तमिल लोगों के दिमाग में विधिवत भरी गई है।
इसका इतिहास काफी लंबा है मैं उसमें नहीं जाऊंगा । तमिल भाषा के प्रति उसके लोगों का जो प्रेम है वह सामान्य प्रेम नहीं एक असामान्यता और विकृति की हद तक पहुंचने वाला प्रेम है । वह तमिल भक्ति की भावना में बदल चुका है। तमिल को उसके साहित्य और लोक मानस में देवी, मां की जगह प्राप्त है। कई दशकों की इस लंबी प्रक्रिया ने एक ओर एक विशिष्ट तरह की तमिल भाषाभक्ति को जन्म दिया वहीं हिंदी के प्रति उनके दिलों में घृणा भी उत्पन्न कर दी है ।
इसके काफी प्रमाण उपलब्ध हैं । गीतों, कविताओं, लेखों और भाषणों में आज से 50-60-70 साल पहले तक हिंदी को राक्षसी, तमिल की हत्यारी, कुलटा और पूतना जैसी भाषा के तौर पर निरूपित किया गया है । यह भाव उनके अंदर भरा गया है। इसका दूसरा पहलू यह है कि वे तमिल को एक देवी के रूप में, माँ के रूप में और एक असामान्य, अलौकिक, आध्यात्मिक अस्मिता और हस्ती के रूप में देखते हैं । अपनी भाषा से यह रिश्ता हमारे लिए अपरिचित है। हम लोग हिंदी को ऐसे नहीं देखते। किसी भी भारतीय भाषा के लोग उसे ऐसे नहीं देखते। हम जिस भाव से भारत माता बोलते हैं वही भाव उनके मन में तमिल माता के लिए है।
अकेली तमिल ऐसी भाषा है जिसमें जब उसके समर्थकों को लगा कि हिंदी हमारे पर थोपी जा रही है तो उन्होंने आत्मदाह किया। 20 से ज्यादा लोगों ने तमिल के लिए अपना बलिदान दिया। एेसे हालात के बाद, तमिलों के इतने कड़े विरोध के इतिहास के बाद एक बार फिर से इस विरोध की भावना को उग्र होने का अवसर देना, उस आंदोलन को फिर से खड़े होने का मौका देना उचित नहीं होता। मैं समझता हूं सरकार ने ठीक किया इसको वापस लेकर।
मेरा सिर्फ यह कहना है कि इस नीति के प्रारूप को नए शिक्षा मंत्री के पदभार ग्रहण करने वाले दिन ही तुरंत उनके हाथ में सौंपने की जरूरत नहीं थी। ऐसी जल्दी क्या थी? एक हफ्ता रुक जाते। एक समिति बना कर उसे इस मुद्दे पर जाँच करने का कहा जा सकता था। विरोधी दलों, संगठनों से संवाद की शुरुआत की जा सकती थी। सरकार थोड़ी सावधानी बरतती, इतनी हड़बड़ी न दिखाती तो इस फजीहत से बच सकती थी कि नए शिक्षा मंत्री और नई सरकार का पहला काम ही इस प्रारूप को वापस लेना और हड़बड़ी में विरोधियों से समझौता करके उसे संशोधित करना हो गया।
लेकिन यह हमारे लिए संतोष की बात होनी चाहिए कि तमिलनाडु और कर्नाटक के कुछ वर्गों को छोड़कर बाकी देश के किसी भी प्रदेश से नई शिक्षा नीति में हिंदी की अनिवार्यता को लेकर कोई विरोध नहीं हुआ। पूरे देश में संपर्क भाषा के रूप में हिंदी की स्वीकार्यता है, न केवल स्वीकार्यता है बल्कि हिंदी की मांग है। तमिलनाडु में, कर्नाटक सहित सब जगह है । तमिलनाडु में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, जो गांधी जी ने 1918 में स्थापित की थी, हिन्दी की परीक्षाएं लेती है। उसमें लगभग साढे चार लाख तमिल लोग हिंदी सीख रहे हैं। मैंने २०१४ का एनडीटीवी अंग्रेजी का एक वीडियो देखा जिसमें चेन्नई के अंग्रेजी माध्यम के एक बड़े स्कूल के बच्चे और उनके शिक्षक अंग्रेजी में यह कह रहे हैं कि हमें हिंदी चाहिए, हम हिंदी पढ़ना चाहते हैं। तो इस समय जो नई पीढ़ी वहाँ पर है, जो युवा हैं वे और उनके शिक्षक भी हिंदी की ज़रूरत और महत्व महसूस कर रहे हैं। वे हिंदी सीख भी रहे हैं । यह एक शुद्ध राजनीतिक विरोध है और द्रविड़ अलगाववादी राजनीति का बड़ा हिस्सा और परिणाम है। हिंदी और तमिलनाडु का यह जो इतिहास है उसकी इस विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए मेरे ख्याल से अभी प्राथमिक शिक्षा में हिन्दी की अनिवार्यता के मामले को छोड़ देना चाहिए।
प्रश्न-6 आजादी के बाद काफी समय गुजर गया है लेकिन उसके बावजूद हम आज तक अपनी मातृभाषाओं को शिक्षा के साथ नहीं जोड़ पाए हैं। ऐसे क्या कारण हैं कि हम लोग ऐसी कोई ठोस नीति नहीं बना पाए जिससे प्राथमिक शिक्षा हम अपनी मातृभाषा में दे सकें हालांकि इस पर चर्चाएं बहुत हुई हैं?
उत्तर- अभी तक तो यही हो रहा था यानी मातृभाषा या स्थानीय प्रादेशिक भाषा में पढ़ाई। मैं समझता हूँ कि पिछले 25 साल में आर्थिक उदारीकरण जब से तेज हुआ है तब से अंग्रेजी की बाढ़ आई है वरना आज भी सभी प्रदेशों की जो शिक्षा नीतियां हैं उनमें तो मातृभाषा माध्यम का ही प्रावधान है । नीति के नाम पर तो अब भी वही नीति है लेकिन व्यवहार लगातार बदलता जा रहा है। मुख्य बात यह है कि आजादी के बाद डॉ.कोठारी, डॉ.राधाकृष्णन, राममूर्ति जैसे बड़े शिक्षाविदों को छोड़कर शिक्षाविदों ने, सरकार ने, समाज ने भाषाओं के बारे में गहराई से चिंतन करना, उन को गंभीरता से लेना ही एक तरह से छोड़ दिया था । भाषाओं को बचाने की ज़रूरत है, उन पर इस तरह का संकट खड़ा हो सकता है यह अनुमान ही कोई नहीं लगा पाया, गांधीजी भी नहीं और नेहरू जी भी नहीं। आज हम पाते हैं कि सारे शिक्षा आयोगों की सिफारिशों के खिलाफ, राष्ट्रीय शिक्षा नीति में घोषित नीति के खिलाफ लगातार कार्य किया गया है और किया जा रहा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि आज सारी भारतीय भाषाएं बहुत गहरे संकट में आ गई हैं । पूरे देश में शिक्षा व्यवस्था की जो आज दुर्दशा है यह उसी का हिस्सा है कि भाषा की भी दुर्दशा है । जो किसी भी नए स्वाधीन देश के लिए सबसे पहला काम होना चाहिए था कि अपने लोगों को अपने तरीके से, अपनी भाषाओं और उनके वातावरण में शिक्षित करने का ताकि वह अपनी देशज, मौलिक प्रतिभा और मनीषा के अनुसार अपना भविष्य निर्माण कर सकें उस को गंभीरता से लिया ही नहीं गया। अंग्रेज़ी के सम्मोहन में छोड़ दिया गया ।
प्रश्न-7। भारत की भाषिक विविधता एक समस्या के रूप में देखी जाती है। कुछ लोग हिंदी पर वर्चस्ववादी होने का आरोप भी लगाते हैं। यह कहाँ तक सही है?
उत्तर- शुरू में मुझे भी यह बात बुरी लगती थी। हिंदी के एक प्रबल समर्थक और कार्यकर्ता के रूप में मैं चूंकि अपने को कहीं से भी वर्चस्ववादी नहीं पाता इसलिए मेरी प्रिय हिंदी वर्चस्ववादी हो सकती है यह मानने में मुझे दिक्कत होती थी। लेकिन आज मैं चीजों को गहराई से समझने और अध्ययन करने के बाद पाता हूँ कि कई क्षेत्र और आयाम ऐसे हैं जहाँ पर हिंदी भी स्थानीय भाषाओं के लिए एक वर्चस्ववादी भाषा हो सकती है । यह स्थिति विशेष तौर से आदिवासी समाजों के लिए बिल्कुल वास्तविक है।
आदिवासी हमारे देश का बड़ा हिस्सा हैं। उनकी भाषाएं इंडो-यूरोपीयन भाषाओं में नहीं आती हैं । जो चार-पांच भाषा परिवार भारत में हैं उनमें जो सबसे छोटा परिवार है उसमें ज्यादातर आदिवासी भाषाएं आती हैं । जिसे हम मुख्यधारा या भारतीय जीवन धारा कहेंगे हमारे आदिवासी उससे एक अलग जीवन जीते हैं । उनकी भाषाएं अलग है, उनकी जीवनपद्धति, मूल्यव्यवस्था अलग है, तौर-तरीके अलग हैं, दिलो-दिमाग अलग हैं, रस्मो रिवाज अलग है, दुनिया अलग है ।
उनके बच्चे जब किसी गांव के प्राथमिक विद्यालयों में जाते हैं तो वहाँ की जो स्कूली हिंदी है, जो हमारी किताबी हिंदी है वह उनके लिए उतनी ही अपरिचित होती है जितनी हमारे घर के बच्चों के लिए अंग्रेजी । इससे एक तो उन बच्चों के मन में शिक्षा, विद्यालय के प्रति और अपनी भाषा के प्रति अरुचि हो जाती है। साथ ही उनका आत्मबोध, आत्म-सम्मान आहत होता है, अपनी भाषा और अपने अस्तित्व को लेकर एक हीन भावना भी गहरे बैठ जाती है। दूसरे, कक्षा में बरती जानी वाली इस अपरिचित हिन्दी से उनका अधिगम प्रभावित होता है। वे विषय समझ और सीख नहीं पाते। ऐसे विद्यालयों में जहाँ पर हिंदी बोलने वाले या स्थानीय प्रमुख भाषा बोलने वाले बच्चे और आदिवासी भाषा बोलने वाले बच्चे साथ होते हैं वहाँ आदिवासी बच्चे अपने आप को अलग, उपेक्षित और अपमानित महसूस करते हैं। उनकी भाषा का, उनके रंग रूप का मजाक उड़ाया जाता है।
धीरे-धीरे इसका एक बहुत ही खराब मनोवैज्ञानिक असर होता है और जो सीखने के लिए उनको भेजा जाता है वह तो वे सीखते ही नहीं है उल्टा वे नई तरह की ग्रंथियां ले कर लौटते हैं । आदिवासी भाषा बोलने वालो को पहले 5 वर्ष की शिक्षा अपनी मातृभाषा, अपने घर की भाषा में मिलनी चाहिए। हिंदी को भी वहाँ दूसरी तीसरी के बाद धीरे से लाया जाना चाहिए। अंग्रेजी तो दसवीं-ग्यारहवीं से पहले बिल्कुल नहीं लानी चाहिए । ऐसी स्थिति में हिंदी का जो विरोध है, अब उसकी अपनी सहायक भाषाओं से और बोलियों से होने लगा है ।
प्रश्न-8 क्या हमसे त्रिभाषा फार्मूला को सही ढंग से लागू करने में चूक हुई है? क्या इस समय इस फार्मूले का कोई औचित्य बचा है?
उत्तर- बहुत ज्यादा चूक हुई है। नई शिक्षा नीति का प्रारूप यह स्वीकार कर रहा है कि हिंदी भाषी राज्यों ने भाषा सूत्रों को ईमानदारी से लागू नहीं किया है। हमने किया यहा है कि हम हिंदी और अंग्रेजी तो शौक से पढ़ते हैं और तीसरी भाषा के नाम पर सब संस्कृत ले लेते हैं । संस्कृत न तो ठीक से पढ़ाई जाती है, न समझाई जाती है। केवल उसमें अंक ज्यादा मिल जाते है, शिक्षक उसमें दिल खोलकर अंक दे देते हैं इसलिए बच्चे इस विकल्प को चुन लते हैं । हिन्दी भाषी राज्यों ने यह बहुत बड़ी बेईमानी की है और इसका बहुत खराब असर दक्षिण भारत के राज्यों पर पड़ा है। इसलिए कि उन लोगों ने अपने यहाँ ठीक से हिंदी सिखाई है और आज भी सिखा रहे हैं । केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में लोग हिंदी सीख रहे हैं लेकिन हमने उनकी भाषाओं को न तो सीखा ही और न ही अपने बच्चों को सिखाया । हिंदी भाषियों की समस्या यह है कि दूसरे भाषाई समाजों की तुलना में समाजिक स्तर पर वह बेहद घटिया समाज है। वह एक बहुत आत्मलीन, आत्मलज्जित और अंतर्मुखी समाज है । वह एकभाषी है। जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि भारत में सबसे ज्यादा एकल भाषी हिंदी भाषी हैं। दूसरी सभी भाषाओं के लोगों में एकभाषिता हमसे कम और बहुभाषिता हमसे ज्यादा पाई जाती है।
कई जगह पर तो लोगों को दो-दो तीन-तीन भाषाएं आती हैं, लेकिन हिंदी वाले सिर्फ हिंदी पढ़ते और जानते हैं। न तो उन्हें दूसरी भाषा आती है और न ही वे जानना चाहते हैं । इससे नुकसान भी उन्हीं का हुआ है, हिन्दी का हुआ है। स्वाभाविक रूप से दूसरे समाजों में इसका विरोध और प्रतिक्रिया होती है। और दूसरी भाषाओं वालों का यह तीखा तथा वाजिब सवाल बन जाता है कि भाई जब आप हमारी भाषा सीखने को तैयार नहीं है तो हम आपकी भाषा क्यों सीखे, क्यों बोलें? इसका हमारे पास कोई जवाब नहीं होता।
प्रश्न-9 जब भी देश में चुनाव आते हैं आठवीं अनुसूची का मुद्दा गर्मा जाता है। आठवीं अनुसूची में सम्मिलित होने की पंक्ति में लगी तमाम हिंदी पट्टी की बोलियों और भाषाओं के विषय में आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर- दुर्भाग्य से हमारे संविधान में जो कई रहस्य है उनमें एक आठवीं अनुसूची का रहस्य भी है । आठवीं अनुसूची क्यों बनी, बनाने का उद्देश्य क्या था, उसमें भाषाओं के चयन का आधार क्या था, किस भाषा को लेना है, किसको नहीं लेना है इसका कहीं कोई लिखित उल्लेख नहीं मिलता, कहीं कोई व्याख्या नहीं है। मैंने इसको थोड़ा बहुत समझने की कोशिश की है। शुरू में इसमें 14 भाषाएँ थी जो अब 22 हो गई हैं। अधिकतर भाषाएं तो अपने आकार के कारण आई हैं । यह स्वाभाविक है। कुछ भाषाएँ राजनीतिक कारणों से आई जैसे सिंधी। सिन्ध अब भारत में नहीं है लेकिन तब भी सिंधी को रखा गया क्योंकि उसके राजनयिक और राजनीतिक कारण थे। सिंधी बड़ी संख्या में यहाँ रहते हैं और सिंधी को हम अपना मानते हैं। उसको बचाने के लिए हमने उसे सरकारी मान्यता दी।
संस्कृत किसी भी एक जगह की भाषा नहीं है लेकिन वह हमारी शास्त्रीय भाषा है, भारत की आत्मा है। इसलिए उसको बचाने की जरूरत थी। मैथिली पहले नहीं थी, काफी बाद में आ गई क्योंकि मैथिली वालों ने बहुत संघर्ष किया उसके लिए। हिंसक आंदोलन हुआ और उन लोगों ने एक तरीके से जबरदस्ती आंदोलन करके अपने को शामिल करवा लिया । उससे मैथिली का कोई भला हुआ हो ऐसा तो नहीं दिखता लेकिन वह आ गई ।
अब इस समय 38 भाषाओं से प्रार्थना पत्र गृह मंत्रालय में रखे हुए हैं जो सब आठवीं अनुसूची में शामिल होना चाहती हैं । अभी तो जो ये 22 हैं उनकी अपनी हालत कोई अच्छी नहीं है। इन ३८ को शामिल करने पर जब 60-65 हो जाएंगी तो इनका और सबका क्या होगा पता नहीं ।
कई लोगों ने इस सूची के उद्गम और आयामों को समझने के लिए काफी खोजबीन और लेखन किया है। जो कुछ भी हमारे विद्वानों ने कहा है, सुभाष कश्यप जैसे लोगों ने कहा है, उसे देखने के बाद मेरी यह समझ बनी है कि आठवीं अनुसूची में किन भाषाओं को रखा गया और क्यों रखा गया इसका सूत्र है संविधान की धारा ३५१। उसमें कहा गया है- "संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूचि में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।"
यानी इन भाषाओं से अभिव्यक्ति, शब्द, शैली लेकर हिंदी का एक सर्व स्वीकार्य राष्ट्रीय स्वरूप उभरे।
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का जो प्रश्न था वह किसी न किसी रूप में आज भी बना हुआ है। इस पर आरंभ से खूब विवाद हुआ है। संविधान सभा में यह अकेला विषय था जिस पर पूरे 3 दिन की बहस हुई, वह भी बहुत तीखी। हिन्दी अंततः अखिल भारतीय बनी तो राजभाषा के रूप में ही। राष्ट्रभाषा का पद और प्रतिष्ठा उसे नहीं मिल सके।
देश की सर्वमान्य संपर्क भाषा के रूप में हिंदी स्थापित, प्रचलित तथा विकसित हो यह संभावित उद्देश्य तो आठवीं अनुसूची का स्पष्ट दिखता है । इसके अलावा कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि यह सूची क्यों बनी, उसके पीछे की क्या चयन पद्धिति थी, क्या तर्क थे, उसका आधार क्या था तथा आगे किन आधारों पर इस सूची में परिवर्तन किए जाएंगे। इन प्रश्नों के कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिलते। केवल अलग अलग संविधान विशेषक्षों के अनुमान और व्याख्याएं मिलती हैं।
आज की स्थिति में उसके विस्तार से भाषाओं कोई ठीस लाभ होगा यह नहीं दिखता। क्योंकि जो अभी तक 70 साल में हमने देखा है वह यह बताता है कि इन सूचियों से भाषाओं का विकास नहीं होता। वह अगर होता है और हुआ है तो अपने अपने राज्यों में सरकारों, प्रशासन तथा जनता के सक्रिय भाषा व्यवहार से, साहित्य लेखन से। जिन भाषाओं के पास अपना प्रदेश था, राज्य तथा समाज की शक्ति थी वे विकसित हुईं और बढ़ीं। लेकिन जिनके पास राज्य की यह शक्ति नहीं थी वे कमज़ोर हुई हैं आठवीं अनुसूची में रहने के बावजूद, जैसे- सिंधी, कश्मीरी तथा संस्कृत।
इन नई भाषाओं के अनुसूची में शामिल होने की मांग का एकमात्र आधार अस्मिता की पहचान का प्रश्न है । भाषा हमारी अस्मिता का बड़ा तत्व और आधार होती है। इसलिए मुझे इस मांग का मनोविज्ञान समझ में आता है। भाषा भावनाओं से जुड़ी होती है इसलिए उसके सवाल पर लोगों का उद्वेलित और आंदोलित होना समझ में आता है । हम सब अपनी-अपनी भाषाओं को लेकर बहुत भावुक होते हैं। लेकिन मैं समझता हूँ भारत जैसे समर्थ देश के लिए यह संभव होना चाहिए कि वह अनुसूची में शामिल भाषाओं को ही नहीं देश की सारी भाषाओं को बचाए और उनका विकास कर सके, संवर्धन कर सके। उसके लिए राज्य को सब कुछ करना चाहिए। यह राज्य की जिम्मेदारी है । वह नहीं करता, उसने नहीं किया, यह उसकी कोताही है, नाकामी है।
लेकिन आज जो ये 22 भाषाएँ है, हम उनको ६० कर दें ६५ कर दें ७० कर दें तो उससे केवल भयानक जटिलताएं बढ़ेंगीं। उससे व्यवहारिक लाभ क्या होगा? सिर्फ कुछ नए पद उत्पन्न हो जाएंगे, कुछ नए विभाग और बजट बन जाएंगे, कुछ पुरस्कार घोषित हो जाएंगे, नए पुरस्कारों और पदों की राजनीति शुरू हो जाएगी। कुछ लोगों को लाभ होगा। कुछ लोग इन भाषाओं आंदोलनों के नेता बन संसद और विधानसभाओं में आ जाएंगे। कुछ नए राजनीतिक करियर बन जाएंगे।
यही सब आज तक अनुसूची की भाषाओं में होता आया है। लेकिन उससे उन भाषाओं का वर्तमान और भविष्य बेहतर और सुदृढ़तर नहीं हुए हैं। बल्कि सारी भाषाओं का संकट गहराया ही है।
प्रश्न-10 क्या आपको लगता है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का मुद्दा अभी भी जीवित है? हमारी तत्कालीन विदेश मंत्री ने 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन के मंच से हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए गंभीर प्रयासों की बात कही थी। तो क्या हिंदी प्रेमी यह आशा रखें कि हिंदी को जल्द ही राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाएगा?
उत्तर- स्वर्गीय सुषमा स्वराज जी को मैं पिछले कई दशकों में हिन्दी के प्रति सबसे गंभीर बड़े नेताओं में अग्रणी मानता हूं। लेकिन उनके प्रति अपनी सारी श्रद्धा के बावजूद मैं अब हिंदी को राष्ट्रभाषा और विश्व भाषा बनाने की बात को मृगतृष्णा मानता हूँ । हिंदीभाषी होने के नाते किस को यह अच्छा नहीं लगेगा कि हिंदी राष्ट्रभाषा बने। लेकिन हम हिंदी वालों के साथ कई समस्याएं हैं। सामान्य ही नहीं बड़े-बड़े लोगों को मैं यह कहते पाता हूँ कि हिंदी तो हमारी मातृभाषा है, भारत की मातृभाषा है। हिंदी पूरे देश की मातृभाषा नहीं है भाई। हिंदी तो हिंदी प्रदेशों में ही सब की मातृभाषा नहीं है। लेकिन हिंदी वाले पता नहीं किस दुनिया में जीते हैं कि उनको लगता है सारा देश हिंदी भाषी है । वे बहुत आराम से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बोल देते हैं, भारत की मातृभाषा बोल देते हैं। यह मूर्खता है। राजभाषा बनने के बाद भी उसका अनुपालन 50% भी नहीं हुआ है। वह लगातार सरकारी कामकाज में पिछड़ रही है। कुछ जगह जरूर बढ़ी है लेकिन पूरा माहौल ही हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं के खिलाफ जा रहा है ।
ऐसे समय में राष्ट्रभाषा के मुद्दे को उठाने का क्या मतलब है? जो राजभाषा को स्वीकार करने और व्यवहार के स्तर पर अपनाने के लिए ७२ साल बाद तैयार नहीं हो सके हैं वे उसे राष्ट्रभाषा के रूप में कैसे स्वीकर करेंगे? संपर्क भाषा के रूप में भी कई लोग इसका विरोध करते हैं। मुख्यतः दक्षिण भारत और बंगाल के लोग। उस विरोध को हम छोड़ भी दें तो अब देश आजादी के समय से जब राष्ट्रभाषा का प्रश्न ज्वलंत तथा सक्रिय था उस से बहुत आगे निकल आया है ।
मुझे बहुत अच्छा लगेगा, मैं दिल से चाहता हूँ कि हिंदी राष्ट्रभाषा हो क्योंकि इससे राष्ट्र का फायदा होगा। लेकिन अभी जो परिस्थिति है भाषाओं की उसमें हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाएं, संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाएं, विश्व भाषा बनाएं यह मजाक जैसी लगती है। विश्व में बहुत से देशों में लोग हिंदी बोलते हैं। हिंदी दो जगह राजभाषा भी है। वहाँ भारत सरकार को, हिंदी समाज को भरपूर मदद करनी चाहिए।उस को बढ़ावा देना चाहिए, उनके संसाधनों का विकास करना चाहिए, जो कुछ हम उसको उन देशों में दे सकते हैं देना चाहिए। किन्तु कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं और व्यक्तियों को छोड़ कर कोई इसे ठीक से, गंभीरता से नहीं कर रहा है। केन्द्र सरकार तो नहीं ही कर रही है।
लेकिन इसके बजाय आप उस को विश्व भाषा बना रहे है, संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा बनाने की नारेबाजी कर रहे हैं। जिस भाषा का अपने देश में विरोध हो, जिसकी हैसियत और प्रतिष्ठा रोज़ घट रही हो, जिसके प्रभुवर्ग उसका प्रयोग न करते हों वह कैसे विश्वभाषा बन जाएगी। ऐसा कहाँ होता है? इससे लाभ क्या होगा? यह मरीचिका है। इसलिए मैं इन दोनों प्रश्नों की तरफ बहुत सक्रिय होने की, आंदोलित होने की जरूरत महसूस नहीं करता। मेरे सामने तो हिंदी को बचाने का प्रश्न है। सारी भारतीय भाषाएं संकटग्रस्त हैं। उन्हें कैसे बचाएं? हिंदी को कैसे बचाएं, मराठी को कैसे बचाएं, पंजाबी को कैसे बचाएं, उर्दू को कैसे बचाएं अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व से? मेरी मातृभाषा पंजाबी है। वह हिंदी से ज्यादा संकट में है। उर्दू, सिंधी, कश्मीरी, डोगरी बेहद गहरे संकट में हैं।
प्रश्न-11 आप हिंदुस्तानी भाषा भारती पत्रिका के पाठकों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
उत्तर- संदेश केवल यह है कि लोगों को हिंदी की अच्छी पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित कीजिए। अच्छा पढेंगे तो अच्छा बोलेंगे, अच्छा लिखेंगे। हम निजी स्तर पर अपने-अपने परिवारो में यह कोशिश करें कि हम जब हिंदी बोलें तो सिर्फ हिंदी बोलें । मैं बता चुका हूँ कि मैं मूलतः अंग्रेजी साहित्य का विद्यार्थी हूँ, प्रथमतः अंग्रेजी का पत्रकार हूँ । तो अंग्रेजी से मुझे कोई समस्या नहीं है। मुझे उस से बकायदा इश़्क है। अंग्रेज़ी से प्रेम करता हूँ। उसको देश के लिए सामूहिक स्तर पर और हम सबके लिए व्यक्तिशः बहुत उपयोगी मानता हूँ।
हमारा भविष्य ज्ञान से बनेगा। हम सबको ज्ञान की जरूरत है और अंग्रेजी में इस समय दुर्भाग्य से हिंदी की तुलना में कई हजार गुना ज्यादा ज्ञान है। नया ज्ञान निर्माण अंग्रेजी में सबसे अधिक हो रहा है। यदि हमें ज्ञान चाहिए तो हमें अंग्रेजी से लेना होगा, फ्रेंच से लेना होगा, हिब्रू और मंडारिन से भी लेना होगा। अंग्रेजी वैश्विक भाषा है, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का सबसे बड़ा भंडार है। उसमें मौलिक शोध, लेखन, चिंतन, वैज्ञानिक और आधुनिक विमर्श ज्यादा है इसलिए हमें अंग्रेजी की जरूरत है। हम केवल हिंदी के सहारे आगे नहीं बढ़ पाएंगे। अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं से ज्ञान लेकर अभी हमें हिंदी के कई पक्षों को मजबूत करने की जरूरत है। हिंदी में बहुत से बड़े-बड़े ज्ञान-गड्ढे हैं उनको भरने की जरूरत है। हिंदी को बहुत सारा ज्ञान निर्माण करने की जरूरत है, बहुत सी ज्ञान सामग्री को लाने की जरूरत है। वह सब हम करें । हम हिंदी में ज्ञान निर्माण करें। बड़ी मात्रा में अनुवाद करें। जो इस में सक्षम हैं वे आगे आएं । केवल साहित्य निर्माण न करें ज्ञान निर्माण करें। सबको यह समझाएं कि अपनी स्थानीय भाषा में पारंगत हो कर, उस पर अधिकार करके हम बाकी भाषाएं भी बेहतर सीख सकते हैं । अगर हम अपने बच्चों को यह मिश्रित, लंगड़ी-लूली अपाहिज हिंदी सिखाएंगे तो हम उनको भाषिक अपाहिज बना रहे हैं। और जो आज भाषिक अपाहिज है वे बच्चे बड़े होकर बौद्धिक अपाहिज बनेंगे। इसलिए उनको अच्छी हिंदी सिखाएं। खुद भी अच्छी हिंदी बोलें। और बच्चो को अच्छी अंग्रेजी भी सिखाएँ। आप भी अच्छी अंग्रेजी सीखें। दोनों को अलग रखें और दोनों को अच्छे से सीखें ।
राहुल देव
१.४.२०२०
हिंदुस्तानी भाषा अकादमी के लिए सुरेखा शर्मा तथा पुलकित द्वारा लिया गया।
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