हेमंत शर्मा के फेसबुक पर लॉकडाउन साहित्य श्रंखला में लड्डू के बहाने मुझ पर लिख लेख के उत्तर में मेरा लेख
वायदे के बावजूद अब तक गांडीव नहीं उठाया था तो दो कारण थे। एक तो आजकल कोशिश करके भी हास्य भाव पैदा नहीं हो रहा है, और बिना उस भाव में पैठे हेमन्त के प्रहारों का प्रत्युत्तर देना कठिन है। वह भी केवल निर्मल हास्य वाला भाव नहीं, खांटी बनारसी खटमिट्ठा हास्य भाव जिसमें दुष्टता ही परम शौर्य है और वक्रता वह धनुष जिससे आपके शब्द-बाण निकलें। दूसरे, युद्ध में धकेल दिए जाने के बावजूद गीता के पहले अध्याय के अर्जुन की तरह इस स्नेह-संकोच रूपी मोह में आबद्ध मन को लड़ने की अपेक्षा धनुष रथ में रख कर युद्ध विरत हो शस्रपाणि द्वारा मार दिया जाना श्रेयस्कर लग रहा था।
लेकिन जब कई कृष्णों ने समझाया कि वत्स, इस बंधुमोह जनित 'क्लैव्य' भाव को प्राप्त न हो,.. युद्धाय कृत निश्चयः... लड़ोगे नहीं तो मृत्यु से भी भयंकर अकीर्ति रूपी गति को प्राप्त होगे तो भारी मन से गांडीव उठाना पड़ा है। सो हे भद्रों, हम चूंकि बाबा और काशी के भक्त तो हैं लेकिन काशीजन्म से वंचित रहने के कारण उनके गण नहीं बन पाए हैं इसलिए अन्नपूर्णा स्तुति के अंतिम और अद्भुत श्लोक के '...बान्धवः शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम' (...शिवभक्त ही मेरे बंधु हैं और तीनों लोक मेरा स्वदेश) की महान भावना का पालन करते हुए सेवा में निवेदन किया है....
कि जो नाम से हेमन्त हो लेकिन प्रकृति में ग्रीष्म ऋतु के आज कल चल रहे वैशाख जैसा, जिसके नाम में तो शर्मा हो लेकिन स्वभाव में शर्म जिससे शर्माती हो ऐसी विकट विभूति की अगम्य गति और मदनमत्त मति के लिए क्या कहा जाए। यह तो भला हो भोले का कि यौवन प्राप्त होते ही वीणा रूपी सरस्वती को साथ करके मर्यादा का अंकुश लगा दिया वरना काशी का यह भैरव काशी के तप-ज्ञान वैभव में वैसी ही खलबली मचाता जैसी पक्का महाल की गलियों में निरंकुश नंदी अनादि काल से मचाते आ रहे हैं। हर तरह के बल से भरपूर, शिवगणों का यह गणाध्यक्ष अपने तीखे सींगों से राह चलते, जाने-अनजाने किसकी टोपी उछाल दे, धोती खींच दे, नाड़ा खोल दे, पतलून फाड़ दे कोई नहीं जानता।बलवानों को अपनी कृपा से वंचित रख कर बलहीनों पर अपनी वक्री दृष्टि डाल उनके उपरि-अधो, अंग-अनंग वस्त्रों को समान अद्वैत भाव से उछालते इस वीर के पराक्रम और प्रभाव से कौन परिचित नहीं?
अब मुरारि स्वयं तो कामदेव को भस्म कर फिर समाधिस्थ हो जगत के अगले संहार की योजना में व्यस्त हो गए जिसकी आहट आज सुनाई दे रही है, पर अपने तीसरे नेत्र की एक भौं अपने इस गण को दे गए। नतीजा यह है कि लक्ष्मण का यह कलुयुगी संस्करण महिलाओं के तो चरणों से ऊपर दृष्टि नहीं उठाता लेकिन पुरुषों के मामले में इसकी दृष्टि कटि से ऊपर नहीं उठती। इसलिए विषय चाहे जो हो, संदर्भ चाहे जो हो इनकी कृपापूर्ण अधोदृष्टि जिस पुरुष पर पड़ती है उसके अधोव्यक्तित्व, अधोजीवन का अनुसंधान करके उसकी अधोगति करने में कोई कसर नहीं छोड़ती।
अतएव, काशी की औघड़ परंपरा के इस देदीप्यमान रत्न की प्रतिभा सबसे अधिक मनुष्यों के अधोव्यापारों को प्रकाश में ला कर संसार को ज्ञानसंपन्न बनाने में प्रस्फुटित होती है। कोई कैसा ही सम्मानित आदि हो लेकिन यह दिव्य अधोदृष्टि उसके वास्तविक-काल्पनिक अधोमर्मों को उद्घाटित-निर्मित कर देती है।
इसलिए कभी इनका शौर्य हमारी प्यारी बिटिया के विवाह वैभवों के दौरान मामा की लुंगी खोलने के उपक्रम के चित्रों में दिख जाता है, कभी मित्रों के स्नानागार और समुद्रतटों पर खींचे गए फोटो में जिन्हें ये ढूंढ ढूंढ कर सार्वजनिक करने में परम आनंद प्राप्त करते हैं। अब चूंकि गणाध्यक्ष हैं तो दरबारी बेचारे विशेषण खोज खोज कर भूरि भूरि प्रशंसा करने में धन्य हुए जाते हैं। लेकिन यह स्वीकार करना यहां उचित होगा कि उपरिवर्णित बलवानों तथा चंद पितातुल्य वरिष्ठों को छोड़ कर आपकी किरपा लगभग सभी पर थोड़ा उन्नीस-बीस के अन्तर से बरसती है। बालसखा हों, पूर्व सहपाठी हों, अब सत्ता-वंचित राजनीतिक मित्र हों, पूर्व-गुरु हों, घंटाल हों, पारिवारिक मित्र हों या कार्यालयी सहयोगी हों, कानपुर के ठग्गू के लड्डुओं की तरह कौन है जिसका इन्होंने चीरहरण नहीं किया?
अब चूंकि तालाबंदी है इसलिए जो अदम्य ऊर्जा भागदौड़, इधर-उधर मिलने मिलाने में कुछ व्यय होती थी एकाग्र होकर दैनिक साहित्य के रूप में मित्रों के सच्चे-झूठे बंद ताले तोड़ने-उघाड़ने में लग रही है। लेकिन तपस्वी लेखक पिता का पुण्य प्रभाव है, वीणा का साथ है, अंतस्थ ज्ञानमूर्ति दक्षिणामूर्ति का वर है तो वक्रोक्ति भी ज्ञानरसरंजित होती है। पांडित्य, भले ही अच्छे संदर्भग्रंथों को उलटने पलटने के श्रम का परिहार हो, व्यंग, हास्य और परिहास को भी आभामंडित करता है।
कहां तक गिनाया जाए, गुणों की खान हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश की महान प्राग्वैदिक ‘भैया’ परंपरा को जीवन्त बनाए रखने में आपका सानी नहीं। इस परंपरा में चरणों या चरणों से घुटनों तक के किसी भी भाग को पास या दूर से छूने का श्रद्धापूर्वक उपक्रम करते हुए एक विशिष्ट स्वर और छंद में ‘भैया…’ मंत्र का उच्चारण करने के बाद कुछ कहने की ज़रूरत नहीं रह जाती। आप दरबार के हिस्से हो गए, शरण में आ गए। अब आप हर भव बाधा के उपस्थित होने पर यदि आर्त स्वर में प्रार्थना करेंगे तो भैरव की कृपा का कवच आपका है। ऐसे भक्त गणों के लिए उचित-अनुचित, धर्माधर्म आदि लौकिक चिन्ताओं का कोई मतलब नहीं। यदि आप सारे धर्मों को छोड़ कर शरण में आ गए हैं तो उद्धार निश्चित है। आप सब पापों से मुक्त कर दिए जाएंगे। मा शुचः…(शोक मत कर)। यदि आप नियमित अनन्य भाव से भैयापासना में रत हैं तो आपके योग-क्षेम का वहन किया जाएगा।
आप गुरुओं के गुरु हैं। घंटालों के महाघंटाल हैं। विरोधियों के महाकाल हैं। मित्रों के सुख हैं। दुष्टों के कवच हैं। भगवान वेदव्यास से गीता के दसवें विभूतियोग नामक अध्याय में एक विभूति का उल्लेख न करने की चूक हो गई- मैं दुष्टों में …हूं। अब जोड़ना चाहते हैं लेकिन कलियुग में कौन सुने? बेचारे अभी तक बांहें ऊंची किए पुकार रहे हैं - ऊर्ध्वबाहुविरौम्येष न च कश्चित श्रणोति मे…( बाहें उठा कर कह रहा हूं कोई मेरी सुनता नहीं….)
भगवान वासुदेव तथा व्यास से क्षमायाचना के साथ, आत्मरक्षा में उठाए गए गांडीव को पुनः रथ में नीचे रख कर अब, न योत्स्य....युद्ध नहीं करूंगा।
९ मई, २०२० को फेसबुक पर प्रकाशित।
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