आदरणीय नीलेंद्र जी को इस विषय पर यह गोष्ठी रखने के लिए मैं साधुवाद देता हूँ। और धन्यवाद देता हूँ कि इस विषय पर प्रस्तावना के लिए उन्होंने मुझे अवसर दिया। श्री मणिशंकर अय्यर, श्री कुमार प्रशांत, डॉक्टर आनंद कुमार का इस संगोष्ठी में स्वागत करता हूँ।
यहाँ बहुत से अन्य विशिष्ट लोग भी उपस्थित हैं। मैं उनका भी स्वागत करता हूँ। संख्या भले ही कम हो लेकिन यहाँ बैठे सभी लोगों की गुणवत्ता, भागीदारी और दृष्टियाँ महत्वपूर्ण और शक्तिशाली हैं।
याद नहीं आता कि नीलेंद्र जी को मैं कभी यह बता पाया कि नहीं कि जिन नानी पालकीवाला जी के स्मारक कार्यक्रम में हम उपस्थित हैं उनसे एक बार मिलने का सौभाग्य मुझे मिला था। मैं मुंबई में तब जनसत्ता का संपादक था। नरीमन पाइंट में हमारा कार्यालय एक्सप्रेस टावर्स में था जो मरीन ड्राइव पर पालकीवाला जी के घर के बहुत पास था। लगभग सामने ही। मुझे प्रसंग तो याद नहीं आ रहा लेकिन मैं किसी सिलसिले में उनसे मिलने उनके घर गया था और उनके साथ कुछ समय बिताया था।
वह बातचीत तो अब याद नहीं, यह लगभग 30 साल पुरानी बात है, लेकिन जो एक स्पष्ट छवि मेरी स्मृति में अंकित है वह उनकी निजी और उनके घर की सादगी की है। वह एक बड़ा फ़्लैट था, जैसे फ़्लैट की हम नानी पालकीवाला जैसे विराट, प्रसिद्ध व्यक्तित्व के और इतने बड़े वक़ील के घर से अपेक्षा कर सकते हैं। लेकिन उसमें इतनी सादगी थी कि एक भी ऐसी चीज़ उनके फ़्लैट में और ख़ुद उनकी अपनी वेशभूषा में, बातचीत में, भाषा और व्यवहार में नहीं थी जो अनावश्यक हो, प्रभाव उत्पन्न करने के लिए हो। केवल ज़रूरी, सादा, सुरुचिपूर्ण फ़र्नीचर। वैसी ही साज सज्जा जिसमें वैभव और समृद्धि की कोई झलक नहीं थी। वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था जो उनके सार्वजनिक क़द और टाटा संस के निदेशक होने के बारे में, इतने सफल और बड़े वक़ील होने के बारे में कोई संकेत देता हो। उनके साथ थोड़ा समय बिता कर मन में यह आया कि अगर आज के आधुनिक युग में हमें संविधान, क़ानून और उच्च प्रबंधन में कोई तपस्वी ढूँढना हो तो नानी पालकीवाला से बेहतर तपस्वी हमें नहीं मिल सकता।
इसलिए उनकी स्मृति से जुड़े इस कार्यक्रम में शामिल होना मेरे लिए एक विशेष निजी प्रसन्नता का कारण है। यह अवसर देने के लिए मैं नीलेंद्र जी और समिति के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।
हमने जब यह विषय सोचा था तब अयोध्या मामले का फ़ैसला आ जाने की कोई आहट नहीं थी। इतना ही पता था कि वह जल्दी आने वाला है, कभी भी आ सकता है। यह नहीं मालूम था कि जब हम इस विषय पर बात कर रहे होंगे तब फ़ैसला आ चुका होगा। आज लगता है इस दृष्टि से हमारा विषय चयन ठीक ही रहा।
मैं अभी तक सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले का पूरा अध्ययन नहीं कर पाया हूँ। हो सकता है आपमें से कुछ लोगों ने किया हो। इससे कोई भी असहमत नहीं होगा कि यह फ़ैसला समकालीन भारत के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक फैसलों में से एक है। और जिन तीन शब्दों को हमने अपने आज के विषय के रूप में रखा है उन तीनों से यह फ़ैसला गहराई से जुड़ा हुआ है। इस समय शायद यह देश का सबसे बड़ा क़ानूनी, धार्मिक और सामाजिक प्रकरण है।
भारतीय समाज जैसा है, बहुत लंबे समय से, जैसी उसकी प्रकृति है, जिस पृष्ठभूमि में से, जिन तरीक़ों से, जिन पूर्वप्रतिज्ञाओं, बुनियादी मान्यताओं, सभ्यतामूलक जीवन मूल्यों के आधार पर हमारी स्वतंत्रता का आंदोलन चला, जिनके आधार पर हमारा संविधान बना और फिर हमारे राज्य का ढांचा बना उस सब में धर्म की एक विशिष्ट भारतीय परिभाषा हर जगह शामिल है। जब से भारत है तब से धर्म है। हालाँकि यह बात केवल भारत के लिए ही नहीं अधिकांश प्राचीन समाजों और सभ्यताओं के लिए कही जा सकती है। विविध सभ्यताओं के विकास के साथ ही साथ धर्म भी विकसित होता आया है। जहाँ जहाँ संगठित मनुष्य समाज है वहाँ धर्म का कोई न कोई एक रूप रहा है। कई बार तो एक से अधिक भी।
लेकिन आज कई वर्षों से भारत में धर्म कुछ अलग ही ढंग से एक प्रमुख, प्रबल, प्रभावशाली लेकिन विवादित संस्था के रूप में उभरा है। यह विकास कुछ इस तरह से हुआ है जैसा हम अन्य लोकतंत्रों में ठीक इसी रूप में नहीं पाते। एक निजी, सामाजिक अंतरंगता में सजीव रहने वाली उपस्थिति और क्षेत्र की जगह अब वह एक संघर्ष-भूमि, संघर्ष-विषय और समस्या के रूप में हमारे सार्वजनिक-राजनीतिक जीवन में सक्रिय है।
इसके बावजूद यह मानना चाहिए कि हमारे संविधान निर्माताओं ने, राष्ट्र निर्माण में शामिल प्रमुख लोगों ने, नए भारत के राज्यों के निर्माताओं ने जिस तरह का ढांचा बनाया, जैसा संविधान अंगीकार किया उसने हमारी सारी सामाजिक-धार्मिक-सांप्रदायिक-वर्गीय-आर्थिक और राजनीतिक जटिलताओं तथा उलझनों के बावजूद दुनिया के दूसरे बहुत से बड़े-बड़े देशों और लोकतंत्रों की तुलना में भारत को एक ठीक-ठाक चलने वाला तथा उत्तरोत्तर आगे बढ़ने वाला प्रजातंत्र बनाया है। समस्याएं सब जगह होती हैं , यहाँ भी हैं। पहले भी रही हैं और आगे भी रहेंगी। लेकिन उसके बावजूद कुछ बात है कि हम न सिर्फ़ एक बने हुए हैं बल्कि लगातार धीमी या तेज गति से बढ़ते रहे हैं।
राज्य, धर्म और संविधान - तीनों संस्थाओं के बीच में हमारे इतिहास के हर मोड़ पर नई उलझनें, समस्याएं और नए समीकरण उभरते रहे हैं। राज्य का जो ढांचा और उसका आदर्श व्यवहार जो हमारे प्रशासकों को अखिल भारतीय सेवाओं की लाल बहादुर शास्त्री अकादमी में पढ़ाया जाता है उस से बहुत अलग तरह का व्यावहारिक आचरण हम जीवन में देखते हैं। जब हम राज्य की बात करें तो उसमें कम से कम मैं राजनीति को शामिल करके बात करता हूँ क्योंकि इन दोनों के बिना हम आधुनिक राज्य की कल्पना नहीं कर सकते। धर्म के बिना हम अपने समाज की कल्पना नहीं कर सकते और राजनीति के बिना हम राज्य की कल्पना नहीं कर सकते, भले ही संविधान में इसका कोई उल्लेख न हो।
इन दोनों को चलाने वाला, नियमित और निगमित करने वाला अगर एक ढांचा हमारे पास है तो वह एक जीवंत जीवित दस्तावेज़ के रूप में हमारा संविधान है। धर्म को लेकर भारतीय राज्य के सामने जो कठिन चुनौतियां थी वे स्वाधीनता प्राप्ति के लगभग तुरंत बाद ही सामने आ गई थीं चाहे सोमनाथ मंदिर का मामला हो या गोहत्या नियंत्रण का, राज्य के भीतर उच्चतम स्तर पर मतभेदों की उपस्थिति, दो अलग-अलग अलग दृष्टियों का टकराव सामने आया। राज्य की संस्थाओं में बैठे लोगों, संवैधानिक और शासकीय पदों पर बैठे लोगों में धर्म की भूमिका को लेकर सार्वजनिक तनाव उभरे।
एक व्यापक रूप में हम यह मान सकते हैं कि हमारे संविधान ने आज तक हमको, हमारे राष्ट्र समाज और लोकतंत्र को एकसूत्रता दी है, आधुनिक लोकतांत्रिक ढंग से जीने, काम करने का तौर तरीका, ढांचा, एकता और निरंतरता प्रदान की है। उसको निरंतर आगे ले जाने वाला एक ऐसा मार्ग बनाया है जो अपनी तमाम अड़चनों, ऊँच- नीच और इधर उधर निकल जाने वाली पगडंडियों के बावजूद बना हुआ है और यह सिद्ध कर चुका है कि वह हमें आगे ले जाने में समर्थ है।
लेकिन इतना भर मान लेने से हमारा संतोष नहीं होता क्योंकि हर पीढ़ी के सामने इन तीनों संस्थाओं के बीच लगभग रोज़ ही नए तरह के सवाल, नई चुनौतियां और नए तरह के तनाव आते रहते हैं। आज हम देख रहे हैं कि ऐसे कई तीखे तनाव हमारे अपने समय और समाज में हमारे सामने मौजूद हैं।
मैं यहाँ एक सूत्रधार और पत्रकार की भूमिका में हूँ इसलिए अपनी निजी राय न रखते हुए आपके सामने आज का परिदृश्य रख रहा हूँ। हमारे साथ तीन बहुत महत्वपूर्ण, विचारवान लोग हैं जो अपनी-अपनी समझ और दृष्टि से इन तीनों पर अपनी बात रखेंगे।
मैं केवल अपनी एक चिंता यहाँ रखना चाहता हूँ। यह हमारे अतीत और वर्तमान से जुड़ी तो है लेकिन उन पर टिकी नहीं है। उसका ज़्यादा वास्ता भविष्य से है। जिस तरह के एक तनावपूर्ण भविष्य में लगभग सारा विश्व और हमारा भारत भी जाता दिख रहा है, जैसी एक ख़ास तरह की धार्मिकता और धार्मिक विमर्शों का उदय हम सब जगह देख रहे हैं, पुराने सामाजिक संतुलनों-समीकरणों, पारंपरिक मूल्यों का क्षरण देख रहे हैं वे भविष्य के प्रति ऐसी आशंकाओं को जन्म दे रहे हैं जो शायद नई तो नहीं है लेकिन नए प्रकार के संकटों की ओर संकेत करती दिखती हैं।
अल्पसंख्यकवाद बनाम बहुसंख्यकवाद, राष्ट्रवाद बनाम कथित अराष्ट्रवाद, परंपरा बनाम पंथनिरपेक्षता, सवर्ण बनाम दलित जैसे पुराने विमर्श और संघर्ष नए रूपों और तीव्रता के साथ नई खाईयों के रूप में उभर रहे हैं। तीखे हो रहे हैं। जिस राज्य से हम तटस्थता की उम्मीद रखते हैं उसकी अपनी भूमिका कई बार संदिग्ध दिखती है।
ऐसा नहीं कि यह केवल हमारे लोकतंत्र में है। हम कहीं भी देखें इस तरह के तनाव किसी न किसी रूप में सब जगह दिखते हैं। शायद अपने मूल रूप में यह प्राचीन बनाम आधुनिक के बीच का तनाव है। लेकिन नई तकनीकों, माध्यमों, वैश्विक व्यवस्थाओं ने उसे एक नई, मारक धार दे दी है।
आज हम जहाँ खड़े हैं उसको देखते हुए अगले पचास या सौ साल बाद के भारत की यदि हम कल्पना करें तो उसमें हमें इन तीनों संस्थाओं की कैसी तस्वीर दिखती है? मैं चाहूंगा कि हमारे आमंत्रित वक्ता इस पर प्रकाश डालें।
इतिहास को हम अनंत दृष्टियों से देख सकते हैं। उसकी मनचाही समझ बना सकते हैं। और चूँकि हम इतिहास के किसी भी काल, अध्याय और आयाम के बारे में एक राय नहीं बना पा रहे हैं इसलिए इतिहास हमारे लिए महत्वपूर्ण सबकों से भरा होने के बावजूद बहुत उपयोगी नहीं रह गया है। लेकिन यदि हम अतीत से ज़्यादा भविष्य को समझने और उसके हिसाब से वर्तमान की भूमिका तय करने का प्रयास करें तो शायद ज़्यादा स्वस्थ और सकारात्मक विचार कर पाएंगे। अतीत हमारे लिए आज एक भारी समस्या बना हुआ है। इसलिए मेरा अनुरोध है कि हम अतीत में ज़्यादा जाने की बजाय अपनी दृष्टि भविष्यमुखी रखें।
इन तीनों संस्थाओं यानी हमारे प्रातिनिधिक लोकतंत्र और उसे संचालित करने वाली संसद-विधान सभाओं, उन में बनने वाले कानूनों और उनके अधीन चलने वाले राज्य की संस्थाओं के आचरण; संविधान; और समाज तथा धर्म- इनकी आज की भूमिका को देखते हुए कैसी चुनौतियां हमारे सामने हैं? क्या हमें इन तीनों में ही परिवर्तनों की ज़रूरत है, पुनर्विचार की ज़रूरत है? क्या हमें कुछ नई तरह की व्यवस्थाओं- प्रणालियों की ज़रूरत है? इस त्रिमूर्ति की प्रत्येक संस्था की भूमिका कैसी और कहाँ तक होनी चाहिए? कहाँ नहीं होनी चाहिए? कहाँ उसको खुला छोड़ दिया जाना चाहिए? ये प्रश्न हमारे सामने हैं।
क्या हम आशा कर सकते हैं कि अयोध्या प्रकरण के इस फ़ैसले से कोई स्थायी समाधान निकलेगा? कम से कम एक विभाजक विवाद का कुछ हद तक स्थायी पटाक्षेप होगा?
मुझे यह आशा नहीं है कि इस फ़ैसले से बहुत दूरगामी और स्थायी समाधान निकलेंगे। क्योंकि जो बुनियादी परस्पर टकराती दृष्टियाँ है और जो आधारभूत खाइयाँ हैं वे अभी बनी हुई हैं।
दुर्भाग्य से हमारे लोकतंत्र का इतिहास यह स्पष्ट रूप से बताता है कि खाइयों को बढ़ाने से राजनीति और राजनेताओं को लाभ होता है। 70 साल का अनुभव बताता है कि किसी भी तरह की खाई-दूरी-कटुता या विभाजन, वह चाहे जातियों के बीच हो, वर्गों के बीच हो, धर्मों के बीच हो या प्रदेशों, भाषाओं के बीच, उससे फ़ायदा उठाने की प्रवृत्ति से हम अपने राजनीतिज्ञों और राज्य संस्थाओं से जुड़े लोगों को रोक नहीं सकते। ऐसी क्षमता हमारे भीतर नहीं है। क्या हमारा संविधान इसे रोक सकेगा? रोकने की ज़रूरत तो स्पष्ट है और संविधान ही एक ऐसी आशा और उपकरण हमारे पास है जिसके पास इन समस्याओं के समाधान के लिए हम जा सकते हैं। क्या हमारे संविधान में वह सब है जो हमें बार-बार उठने वाली ऐसी समस्याओं के समाधान देगा? या हमें वहाँ भी पुनर्विचार की, नई चीज़ों की ज़रूरत है?
ये कुछ प्रश्न मैं अपने विद्वान वक्ताओं के सामने रखता हूँ और आशा करता हूँ कि आज कुछ नई रोशनी हमें मिलेगी।
(१३ नवंबर, २०१९ को 'भारतीय राज्य, धर्म और संविधान' पर दिया गया प्रास्ताविक वक्तव्य। नानी पालकीवाला जन्म शताब्दी समारोह समिति द्वारा इंडियन सोसाइटी फॉर इंटरनेशनल लॉ के सभागार में आयोजित संगोष्ठी)
Rethinking Palkhivala: Centenary Commemorative Volume, edited b Maj. Gen. Nilendra Kumar में प्रकाशित। प्रकाशकः ओकब्रिज, वर्ष २०२१। Publisher - Oakbridge. 2021.
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