शुक्रवार, 24 जून 2022

शिव सेना का अंतःस्फोट

 शिव सेना का अंतःस्फोट



शिव सेना का अंतःस्फोट अचानक पैदा नहीं हुआ है। ज्वालामुखी फटने से पहले धीरे-धीरे धरती के नीचे गर्मी बढ़ते-बढ़ते एक दिन विस्फोट करती है। 


अपने पूरे जीवन जिस विचारधारा और राजनीतिक संस्कृति का शिव सेना ने विरोध किया उसकी दो प्रमुख प्रतिनिधि पार्टियों के साथ हाथ मिला कर महाविकास आघाड़ी गठबंधन सरकार बनाना और चलाना शिव सेना के लिए दिसंबर, २०२१ से ही एक अस्वाभाविक और असहज अनुभव था। सामान्य शिव सैनिक बाल ठाकरे की स्वघोषित ‘ठोकशाही’ वाली शैली को पसंद करने वाले ज़मीनी कार्यकर्ता थे। उद्धव ठाकरे का अनाक्रामक, शांतिप्रिय स्वभाव और राजनीति की संभ्रांत शैली शिव सेना की संस्कति के अनुकूल नहीं थी। 


शासक और प्रशासक के रूप में नितांत अनुभवहीन उद्धव का मुख्यमंत्री के रूप में प्रदर्शन अच्छा रहा है। व्यक्ति के रूप में वह स्वयं और उनके मंत्री पुत्र आदित्य ठाकरे साफ-सुथरे उच्च मध्यवर्गीय तौर तरीकों के आदी रहे हैं। ज़मीन पर सामान्य मराठी समाज की मानसिकता, मनोवैग्यानिक ज़रूरतों और संघर्षों से उनका कोई सीधा प्रत्यक्ष अनुभव-आधारित संबंध नहीं रहा है। उनके साथ काम कर चुके वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं कि मुख्य मंत्री बनने के बाद भी उद्धव की रुचि और बातचीत का विषय उनका वन्य जीवन तथा उसकी फोटोग्राफी रहता था। आदित्य ठाकरे मराठी की बजाए अंग्रेज़ी में ज्यादा सहज थे। दोनों की वेषभूषा और आचार-विचार भी उस मराठी मानूस और उसके मानस से काफी दूर पड़ते थे जिसके हितों, शिकायतों और भावनाओं को अपनी लड़ाकू राजनीति का आधार बना कर शिव सेना को बाल ठाकरे ने राजनीतिक शक्ति के शिखर पर पहुँचाया था। 


अपने सामाजिक आधार से इस मनोवैग्यानिक दूरी ने उद्धव ठाकरे को सेना विधायकों, कार्यकर्ताओं तथा समाज से काट कर अपने एक निजी पारिवारिक परामर्श मंडल का कैदी बना दिया था। संजय राउत उनके सर्वशक्तिमान प्रतिनिधि बन गए थे जो मुख्य मंत्री और पार्टी विधायकों-कार्यकर्ताओं के बीच पुल और संवाद माध्यम का काम करते थे। इस स्थिति में पार्टी की आंतरिक निर्णय प्रक्रिया एक छोटे से गुट के हाथों में सिमट गई थी। एकनाथ शिंदे जैसे शक्तिशाली ज़मीनी नेता के लिए ऐसे में असहज और उपेक्षित महसूस करना स्वाभाविक था। 


पचपन में से लगभग ४० शिव सेना विधायकों का शिंदे के साथ चले जाना प्रमाण है कि उपेक्षित और अपने भविष्य के प्रति आशंकित-असुरक्षित महसूस करने वाले विधायकों की संख्या कितनी बड़ी थी। उसके साथ ही आघाड़ी की सहयोगी पार्टियों, विशेषकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, के मंत्रियों के व्यवहार से भी विधायक नाराज़ थे। लंबे समय से इस बारे में उनकी शिकायतों का कोई असर नहीं हुआ था। बहुतों को डर था कि महाराष्ट्र के सबसे कद्दावर नेता शरद पवार के नेतृत्व में राकांपा उनके चुनाव क्षेत्रों में उनके जीतने की संभावनाओं को गंभीर नुकसान पहुँचा रही थी। 


दूसरी ओर उग्र हिंदुत्व की खुराक पर पले शिव सैनिकों के लिए सेकुलर कांग्रेस और राकांपा के साथ विचारधारात्मक तथा व्यावहारिक तालमेल बिठाना बहुत कठिन हो रहा था। उनकी स्वाभाविक संगति और पिछले ५० साल का अनुभव भाजपा के सौम्य हिंदुत्व के अधिक अनुकूल था। दोनों मिल कर सफलतापूर्वक सरकार चला चुके थे। आशंका थी कि अगर वे इस सेकुलर गठबंधन में ज्यादा दिन रहे तो उनका प्रखर-मुखर हिंदुत्ववादी सामाजिक-वैचारिक आधार बिखर कर भाजपा और राज ठाकरे की मनसे में बँट जाएगा। इन सुलगते हुए मुद्दों को ज़मीन और समाज से गहराई से जुड़े हुए, अपने संघर्ष और पुरुषार्थ के साथ ऑटो चालक से दूसरे सबसे वरिष्ठ मंत्री बने जन्मजात नेता एकनाथ शिंदे ने पहचाना, पकड़ा और अपनी महत्वाकांक्षा का हथियार बना लिया। 


दो साल से उनके घनिष्ठ मित्र बने हुए भाजपा के पूर्व मुख्य मंत्री देवेंद्र फड़णवीस इस पूरे घटनाक्रम को नेपथ्य से प्रभावित और संचालित कर रहे थे। हाल के राज्य सभा चुनाव हों या विधान परिषद चुनाव भाजपा को एक-एक अतिरिक्त सीट जितवा कर फड़णवीस भाजपा के युवा चाणक्य की तरह उभरे हैं। शरद पवार तक ने उनका लोहा मान लिया है। उनकी इस नए घटनाक्रम में क्या भूमिका रही यह जल्दी ही सामने आएगा।


यह सारी हलचल लगभग दो महीने से नेपथ्य में चल रही थी। लेकिन उद्धव ठाकरे की राजनीतिक अपरिपक्वता, असतर्कता और प्रशासनिक ढिलाई का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि उनके दो दर्जन विधायक एक साथ एक उड़ान से शिंदे के साथ सूरत चले गए और उनको कोई खबर नहीं मिली। 


यह लिखे जाने तक की ताज़ा खबर यह थी कि संजय राउत ने कहा है कि पार्टी महाविकास आघाड़ी से बाहर आने यानी कांग्रेज-राकांपा का साथ छोड़ने के लिए तैयार है। यानी दोनों हिंदुत्ववादी दलों के फिर से एक साथ आने और सरकार बनाने के संभावनाएँ एकाएक क्षितिज पर आ गई हैं। इस पूरे घटनाक्रम में शरद पवार और कांग्रेस नेतृत्व का आश्चर्यजनक रूप से उदासीन रवैया तथा निष्क्रियता संकेत देते हैं कि दोनों दलों ने लगभग यह मान लिया है कि गठबंधन सरकार अपनी उम्र पूरी कर चुकी है। कांग्रेस ने गठबंधन से शिव सेना के अलग होने के लिए तैयार होने की बात भी कह दी है। अगले कुछ घंटे और दिन रोचक और रोमांचक होंगे। 


अब राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी और विधान सभा अध्यक्ष का काम देख रहे उपाध्यक्ष की भूमिकाएँ निर्णायक होंगी। अगर दोनों दल साथ आ जाते हैं तो शायद ज़रूरत न पड़े अन्यथा मामला पहले अदालत जाएगा और पूरी संभावना है कि लौट कर सदन में बहुमत साबित करने के संवैधानिक तरीके और परिपाटी पर टिक जाएगा। 


तीन लोगों के लिए ये दिन उनके जीवन के बेहद महत्वपूर्ण दिन होने वाले हैं- उद्धव ठाकरे, एकनाथ शिंदे और देवेंद्र फड़णवीस। राजमुकुट किसके सिर का वरण करेगा यह जल्दी पता चल जाएगा। 


राहुल देव

२३ जून, २०२२। 


सोमवार, 13 जून 2022

विश्वविजयी हिंदी का क्षुद्र समाज

 विश्वविजयी हिंदी का क्षुद्र समाज

 

 

हिंदी संसार को प्रसन्न करने वाली दो बड़ी बातें इस बीच हुई हैं। पहली, गीतांजलि श्री के उपन्यास रेत समाधि और उसके अंग्रेजी अनुवाद टूम्ब ऑफ सैन्ड को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार का मिलना और दूसरी, उसके लगभग 15 दिन बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की आमसभा में कुछ और भाषाओं के साथ हिंदी का भी पहली बार संयुक्त राष्ट्र संबंधित गतिविधियों और सूचनाओं को प्रसारित करने के लिए उल्लेख किया जाना। पहली खबर ने जहाँ सिर्फ हिंदी ही नहीं बल्कि सारी भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों और प्रकाशकों को उत्साहित किया वहीं दूसरी खबर ने हिंदी वालों को यह चिर प्रतीक्षित संतोष दिया कि उनकी हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में अंततः प्रवेश मिल गया है।

 

दोनों उपलब्धियों को लेकर हिंदी वालों में खासे रोचक विभ्रमों की स्थिति बनी रही। पहले बूकर को ले लें। कई हिंदी वालो ने इसे हिंदी उपन्यास रेत समाधि का नहीं उसके डेज़ी रॉकवेल के अंग्रेजी अनुवाद टूम्ब ऑफ सेंड का सम्मान माना। यह तक कहा गया कि इस सम्मान पर खुश होना हिंदी वालों में स्वाभिमान की कमी को दिखाता है, औपनिवेशिक दासता का चिन्ह है। लेखन की भाषा में शैली, प्रवाह, प्रयोग के स्तर पर अनूठे नवाचार करने वाले इस उपन्यास के कुछ पन्नों को सामाजिक मीडिया में प्रसारित करके उपहास किया गया। कई महान चिंतकों ने इसे अपठनीय कूड़ा, हिंदू आस्थाओं का अपमान करने वाला तक बता दिया। ये इतने महान लोग थे कि ३७५ पृष्ठों के उपन्यास के एक या दो पैरे पढ़ कर ही उस पर फतवे जारी कर देने की दिव्यदृष्टि से संपन्न थे।

 

पता नहीं भारतीय राज्य के उच्चतम शिखरों पर बैठे लोगों को इन महापुरुषों की आलोचना में दम लगा या उनके साहित्यिक गुप्तचरों ने गीतांजलि श्री की राष्ट्रभक्ति को संदिग्ध बताया लेकिन कुल मिलाकर प्रधानमंत्री, राजभाषा हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए जिम्मेदार गृहमंत्री, विदेशमंत्री, शिक्षा मंत्री, संस्कृति मंत्री, देश की सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष सहित हिंदी प्रदेशों के सभी भाजपा मुख्यमंत्रियों में से किसी ने भी इस पुरस्कार का स्वागत करने की जरूरत नहीं समझी और न ही लेखिका गीतांजलि श्री को बधाई देने की।

 

स्मरण रहे कि ये वो शक्तिशाली महापुरुष हैं जो हर मौके पर अपना हिंदी प्रेम दिखाना नहीं भूलते। दूसरी ओर एक वर्ग मानता है कि इस पुरस्कार ने विश्व साहित्य में हिंदी के लिए एक अभूतपूर्व, ऐतिहासिक और बहुत ऊंची जगह बनाई है। श्रेष्ठ विश्व साहित्य की श्रेणी में धमाकेदार प्रवेश के लिए हिंदी के पास इस अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार से बड़ा बस एक ही माध्यम हो सकता था- साहित्य का नोबेल। 

 

जब किसी भी अंतर्राष्ट्रीय साहित्य पुरस्कार की बात होती है तो उसमें यह तथ्य अनिवार्यतः रहता ही है कि ऐसे पुरस्कार का चयन बिना अनुवाद के नहीं हो सकता। अंतरराष्ट्रीय बूकर पुरस्कार तो दिया ही दो शर्तों के साथ किसी गैर-अंग्रेज़ी पुस्तक को जाता है- पहली, मूल पुस्तक किसी भी भाषा की हो उसका अंग्रेजी अनुवाद जरूरी है और दूसरी, प्रकाशक इंग्लैंड या आयरलैंड का हो। मुख्य बात यह है कि अनुवाद तो तभी होगा जब मूल पुस्तक होगी। यह इस पुरस्कार की प्रशंसनीय विशिष्टता है कि वह लेखक और अनुवादक दोनों को बराबर का सम्मान और बराबर की पुरस्कार राशि देता है। इसलिए लंदन में गीतांजलि श्री और डेज़ी रॉकवेल को एक साथ पुरस्कृत किया गया।

 

हम एक ऐसे निज़ाम में है जिसमे किसी भी विधा में किसी भी क्षेत्र में किसी भी भारतीय द्वारा कोई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार, मेडल, सम्मान या उपलब्धि हासिल की जाती है तो उससे हमारे सभी राज्यों के महापुरुष उत्साह से बधाई देते हैं, ट्वीट करते हैं, फोन करते हैं, नकद ईनाम देते हैं और ज़्यादा ही अच्छी उपलब्धि हो तो बुलाकर सम्मानित करते हैं। चैनलों, अखबारों में ये खबरें आती हैं। अगर गीतांजलि श्री को बड़ा सम्मान छोड़िए एक ट्वीट बधाई के योग्य भी नहीं समझा गया तो निश्चय ही इसकी जिम्मेदार वह स्वयं हैं। या तो वह पर्याप्त रूप से देशभक्त नहीं है और यदि हैं तो इतनी भोली हैं कि भारत की महान संस्कृति को अपनी अपसंस्कृति के माध्यम से नष्ट करने में लगी हुई पश्चिमी शक्तियों के षड्यंत्र का शिकार हो गई हैं। 

 

एक तीसरा कारण भी हो सकता है। यह कि अंतरराष्ट्रीय बूकर पुरस्कार के निर्णायक मण्डल के सभी लोग निहायत मूर्ख किस्म के लेखक हैं जिन्हें साहित्य की कोई सही समझ नहीं है। वरना वे ऐसे रद्दी उपन्यास को क्यों चुनते जबकि एक से एक महान राष्ट्रवादी साहित्यकार भारत में भरे हुए हैं। और यह तो कारण हो ही सकता है कि उपन्यास की अमेरिकन अनुवादक डेज़ी रॉकवेल के अनुवाद की गुणवत्ता इतनी असाधारण रूप से उत्कृष्ट थी कि मूल उपन्यास के घटिया होते हुए भी उसे पुरस्कार योग्य माना गया।

 

जो भी हो रेत समाधि भले ही हिंदी प्रकाशनों की दुनिया में 45,000 से ज्यादा प्रतियों का कीर्तिमान बना चुकी हो और अब 1,00,000 के लगभग निश्चित और अभूतपूर्व लक्ष्य की ओर बढ़ रही हो, भले ही मुख्यतः अंग्रेजी की किताबों से सुशोभित रहने वाली पुस्तक दूकानें रेत समाधि नामक हिंदी उपन्यास को सबसे प्रमुख जगह दे रहे हों, भले ही एमेजॉन जैसे ऑनलाइन पुस्तक विक्रेताओं की सूची में रेत समाधि तीन हफ्ते से लगातार नंबर एक बनी हुई हो, हमारे राष्ट्रवादी हिंदी साहित्य जगत और सरकारी संस्थाओं और शासकीय विभूतियों ने उसे एक मौन राजकीय समाधि दे दी है। 

 

इसे बौद्धिक विपन्नता और हृदय की क्षुद्रता कहने वाले नासमझ और राष्ट्रविरोधी बुद्धिजीवी भी राष्ट्रविरोधी शक्तियां से मिले हुए हैं। इसलिए भले ही इसमें विश्व साहित्य में हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं के अत्यंत उत्कृष्ट लेकिन अल्पज्ञात साहित्य के लिए वैश्विक दृश्यता और प्रतिष्ठा का एक महाद्वार खोला हो, भले ही सारी भारतीय भाषाओं के लेखक और प्रकाशक अपनी-अपनी भाषाओं और कृतियों को भी वैश्विक ध्यान-सम्मान मिलने की संभावनाओं से उत्साहित हुए हों इसको हिंदी की सच्ची वैश्विक उपलब्धि नहीं माना जा सकता। इतना क्या कम है कि रेत समाधि को बूकर मिलने के पीछे के सारे राष्ट्रविरोधी-धर्मविरोधी तत्वों और षडयंत्रों की जाँच के आदेश नहीं दिए गए हैं।

 

अब दूसरी उपलब्धि की बात कर लें। पहले तो कई हिंदी अखबारों, अज्ञात कुल-वय-शील पोर्टलों और फिर चैनलों ने खूब उत्साह से भर कर हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनने की घोषणा कर दी, बधाइयां देनी शुरू कर दिया। हिंदी का सामूहिक दिल बल्लियों उछलने लगा। अब तो हिंदी के विश्वभाषा बनने का स्वप्न साकार होने में कोई देर न थी। हिंदी व्हाट्सऐप समूहों पर समारोह होने लगे। आभासी लड्डुओं का पदार्पण होने ही वाला था कि

कुछ विघ्नसंतोषियों ने ज़रा ध्यान से कुछ प्रामाणिक समाचार पत्रों की खबरों को पढ़ने की गुस्ताखी कर दी। पता चला कि मामला इतना सीधा नहीं है। यह बात सामने आई कि पुर्तगाली, स्वाहिली, बांग्ला, उर्दू और फारसी भी इस सूची में शामिल हैं। फिर कुछ सड़ियल सिरफिरों ने स्वयं संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट पर जाकर बहुभाषावाद के उस प्रस्ताव को पढ़ा जिसके 42वें अनुच्छेद में हिंदी का उल्लेख था तो यह स्पष्ट हुआ कि लगभग 80 देशों के समर्थन से पारित हुए इस प्रस्ताव में संयुक्त राष्ट्र महासचिव को बधाई दी गई थी कि उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की १९४६ की पहली आमसभा में पारित बहुभाषावाद का समर्थन करनेवाली नीति को कार्यान्वित कर के राष्ट्रसंघ की छह आधिकारिक भाषाओं के अलावा अन्य गैर-आधिकारिक भाषाओं में भी राष्ट्र संघ की गतिविधियों का प्रचार व प्रसार प्रारंभ किया है। प्रस्ताव में उन्हें प्रोत्साहित किया गया कि वे विश्व की अधिक से अधिक भाषाओं में राष्ट्रसंघ की सामग्री का प्रचार प्रसार करते हुए बहुभाषावाद की शक्ति को बढ़ाएं और विश्व नागरिकों को राष्ट्र संघ की गतिविधियों के बारे में अवगत कराएं। 

 

फिर अंत में जब संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि तिरूमूर्ति आमसभा में बोलने खड़े हुए तो उनके संबोधन से कुछ और बातें स्पष्ट हुई। उन्होंने सबसे पहले इस प्रस्ताव के सह-प्रायोजक और सह-समन्वयक देशों पंडोरा और कोलंबिया को धन्यवाद दिया और प्रसन्नता व्यक्त कि पहली बार संयुक्त राष्ट्र में हिंदी का उल्लेख किया गया। इस बात को अलग-अलग समाचार मंचों ने अलग-अलग तरह से पेश किया। एक प्रख्यात राष्ट्रवादी चैनल ने मैच जीतते हुए देश की टीम की कमेंटरी जैसे वीरोचित उत्साह से भरे वॉइस ओवर के साथ बार-बार प्रधानमंत्री के फोटो और वीडियो लगाते हुए भारत और भारत सरकार की इस उपलब्धि का यशगान किया। कुछ दूसरे संयमित अखबारों ने अपने शीर्षकों में लिखा कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकृत यह प्रस्ताव भारत द्वारा प्रयोजित था। अगर संयुक्त राष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधि तिरूमूर्ति के भाषण को ध्यान से न सुना जाए तो पता नहीं चलेगा कि भारत इसके कई सह-प्रायोजकों में से एक था, अकेला या पहला नहीं। आमसभा में इस प्रस्ताव को सबसे पहले भारत ने नहीं अंडोरा नहीं रखा। 

 

यह सब बताने पर लेखक पर यह आरोप लगाया जा सकता है और लगाया ही जाएगा कि वह देश और हिंदी की इतनी बड़ी उपलब्धि पर भी खुश नहीं है और उसमें बिना बात बाल की खाल निकाल कर उसे छोटा करने का प्रयास कर रहा है। उत्तर में सविनय निवेदन यही है कि हम हिंदी वाले झुनझुनों पर बच्चों की तरह खुश होना छोड़ें और तथ्यों की कड़ी जमीन पर खड़े होकर अपने आप को और अपनी भाषा को उसकी संपूर्ण पारिस्थितिकी और संदर्भों में रख कर देखना शुरू करें। हिंदी का भला इन भोली भावुकताओं से नहीं होगा।

 

जब से श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा 1975 में विश्व हिंदी सम्मेलनों की नींव रखी गयी तब से 11 सम्मेलनों में यह संकल्प बार-बार दोहराया गया है कि भारत हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने का पूरा प्रयास करे। 2007 के विश्व हिंदी सम्मेलन का तो उद्घाटन ही न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र के सभागार में तत्कालीन महासचिव बान की मून के द्वारा हुआ था। उनके सामने भी यह मांग रखी ही गई थी। पर उस प्रतीकात्मक प्रसन्नता के आगे बात नहीं बढ़ी।

 

इस बारे में सबसे ठोस प्रयास भारत की विदेश मंत्री के रूप में स्वर्गीय श्रीमती सुषमा स्वराज ने किए थे यह बात असंदिग्ध रूप से कही जा सकती है। पिछले कई दशकों में हिंदी के प्रति सच्ची संवेदना, समझ, प्रतिबद्धता और गंभीरता से  काम करने वाला सुषमा जी के अलावा कोई नहीं हुआ। लेकिन जैसा कि उन्होंने स्वयं एक बार हिंदी के प्रमुख संपादकों के साथ एक विशेष बैठक में बताया, इस काम की दो अनिवार्य आवश्यकताएं हैं जिनके पूरे हुए बिना हिंदी संयुक्त राष्ट्र की सातवीं आधिकारिक भाषा नहीं बन सकती। 

 

ये दो शर्तें हैं कि संयुक्त राष्ट्र के दो तिहाई सदस्य देश यानी 128 देश इस प्रस्ताव का समर्थन करें और सभी १९३ सदस्य देश इस पर होने वाले व्यय को आनुपातिक रूप से वहन करने को तैयार हों। 

 

इसके बारे में दिसंबर 2021 में भारत के विदेश राज्य मंत्री मुरलीधरन ने भी संसद में स्थिति स्पष्ट की। उन्होंने बताया कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार करने के लिए और समूचे संयुक्त राष्ट्र तंत्र में उसे लोकप्रिय बनाने के लिए भारत सरकार निरंतर प्रयास कर रही है। सन् 2018 में संयुक्त राष्ट्र और भारत सरकार के बीच एक विशेष समझौता किया गया ताकि संयुक्त राष्ट्र तंत्र में हिंदी को प्रोत्साहित किया जा सके।  दो साल के लिए किया गया यह समझौता संयुक्त राष्ट्र द्वारा किए जाने वाला इस तरह का पहला समझौता था। इसे 2019 में और आगे बढ़ाया गया और अब यह मार्च 2025 तक लागू रहेगा।

 

इसके तहत भारत सरकार लगभग $8,00,000 प्रतिवर्ष संयुक्त राष्ट्र को देती है। समझौते के अंतर्गत संयुक्त राष्ट्र कार्यालय फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर हिंदी में खाते संचालित करता है, संयुक्त राष्ट्र समाचारों की हिंदी वेबसाइट चलाता है, संयुक्त राष्ट्र समाचारों का हिंदी समाचार बुलेटिन साउंडक्लाउड पर साप्ताहिक रूप से प्रसारित किया जाता है, एक हिंदी ब्लॉग का संचालन किया जाता है और संयुक्तराष्ट्र समाचार की मोबाइल ऐप का एक हिंदी एक्सटेंशन भी एंड्रॉयड तथा आईओएस ऑपरेटिंग सिस्टमों में उपलब्ध कराया गया है। इन सरकारी प्रयासों के अलावा यह हम सब जानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं हर विदेशी दौरे में लगभग हर जगह हिंदी में ही बोलते हैं और इस तरह हिंदी को वैश्विक राजनय के उच्चतम स्तर पर प्रतिष्ठित कर रहे हैं। वे 2014, 2019, 2020 और 2019 में संयुक्त राष्ट्र आमसभा को हिंदी में संबोधित कर चुके हैं और भारत के तत्कालीन विदेशमंत्री आमसभा को 2015, 2016, 2017 और 2018 में हिंदी में संबोधित कर चुके हैं।

 

हम आशा करें कि चूँकि भारत विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठित होने ही वाला है, आर्थिक महाशक्ति बनने ही वाला है तो शीघ्र ही हिंदी भी अंग्रेजी, रूसी, मंदारिन, अरबी, फ़्रेंच और स्पेनिश के बाद संयुक्त राष्ट्र की सातवीं आधिकारिक भाषा बन ही जाएगी। तब तक हम उसके स्वाहिली, बांग्ला, उर्दू और फारसी के साथ संयुक्त राष्ट्र में उल्लेख की अधिकारी बनने और उसके समाचारों का माध्यम बनने का उत्सव अवश्य ही मना सकते हैं, इस प्रवेश का हिंदी के हित में भरपूर लाभ उठा सकते हैं। इसके लिए ज़रूरी है कि संयुक्त राष्ट्र कार्यालय के इन सभी प्रयासों का हम पूरा उपयोग और प्रचार-प्रसार करें। 

 

 

हिंदी के लिए ये जो दो द्वार खुले हैं इनका सापेक्ष आकलन हम कैसे करें? इस अल्पमति की राय यह है कि संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में हिंदी का उल्लेख होने से कई गुना ज्यादा बड़ा, वज़नी, महत्वपूर्ण और दीर्घकालिक लाभ देने वाला द्वार गीतांजलि श्री की रेत समाधि ने खोला है। किसी भारतीय भाषा को  वैश्विक प्रतिष्ठा वाला साहित्यिक पुरस्कार गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की बांग्ला कृति गीतांजलि ने १९१३ में दिलाया था। उसके १०९ साल बाद एक हिंदी उपन्यास ने विश्व के श्रेष्ठतम बौद्धिक और साहित्यिक जगत का ध्यान और सम्मान किसी भारतीय भाषा को दिलाया है। 

 

यह बात हिंदी जगत में कम ही लोग जानते हैं कि बांग्ला में लिखी गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार दिलवाने मैं दो प्रतिष्ठित अंग्रेजी साहित्यकारों ने सहायता की थी। एक थे प्रसिद्ध कवि विलियम बट्लर येट्स और दूसरे थे थॉमस स्टरजी मूर। गेट्स ने तो गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद और संपादर में भी टैगोर की सहायता की थी। मूर ने येट्स के साथ टैगोर और गीतांजलि को ब्रिटिश साहित्यकारों तथा नोबेल समिति से परिचित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। गुरुदेव ने येट्स के साथ मिलकर अगर उसका अंग्रेजी अनुवाद न किया होता तो गीतांजलि को भी नोबेल पुरस्कार न मिलता। 

 

रेत समाधि के अंग्रेजी अनुवाद को पुरस्कार मिलने की बात करके जो अज्ञानी नाक भौं सिकोड़ रहे हैं उनके लिए सामान्य बात समझना जरूरी है कि किसी भी देश, भाषा या संस्थान द्वारा शुरू किया हो गया हो कोई भी अंतरराष्ट्रीय साहित्य पुरस्कार बिना अनुवाद के संभव ही नहीं है। जिन तीन चार दूसरे लेखकों की पुस्तकों के साथ रेत समाधि की टक्कर थी वे पहले से ही बहुत प्रतिष्ठित वैश्विक लेखक थे। एक तो नोबेल पुरस्कार जीत चुके लेखक थे। यदि चयनकर्ताओं ने उन लेखों की कृतियों की तुलना में हिंदी की रेत समाधि को सर्वश्रेष्ठ माना तो यह बहुत असाधारण उपलब्धि है। इस पर प्रश्न खड़े करना केवल अपना अज्ञान, दुराग्रह और ओछापन प्रकट करना है। इससे संसार के बौद्धिक साहित्यिक जगत में हिंदी को जो प्रतिष्ठा मिली है वह निर्विवाद रूप से अभूतपूर्व, ऐतिहासिक और असाधारण है। उसने समूचे भारतीय भाषा परिवार और भारतीय साहित्यकारों के लिए एक नई वैश्विक राह प्रशस्त की है। अपने ही देश में और अपनी भाषा के लोगों द्वारा उसका समुचित सम्मान न होना समूचे देश, राजकीय वर्गों और समूचे हिंदी समाज के लिए एक अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणी है। 

 

मैं नहीं जानता कि लंदन से लौटने पर गीतांजलि श्री का हवाई अड्डे पर कैसे स्वागत हुआ लेकिन अगर हम सचमुच अपनी बौद्धिक प्रतिभाओ और साहित्यिक रत्नों को सम्मानित करने वाले स्वाभिमानी और भाषाभिमानी समाज होते तो हवाई अड्डे से उनके घर तक गीतांजलि श्री की बड़ी विजय यात्रा निकालते, अब तक उनके दैनिक सम्मानों की झड़ी लगी हुई होती और देश का सर्वोच्च नेतृत्व उन्हें बुला कर विश्वविजेता की तरह सम्मानित करता। गीतांजलि श्री ने सचमुच हिंदी को विश्वविजय दिलाई है। ऐसा कुछ भी होने की कोई सूचना या संभावना हमें नहीं मिली है तो यह हमारे लिए सामूहिक शर्म की बात है।

 

राहुल देव

१३ जून, २०२२



TV9Hindi.com के लिए

रविवार, 12 जून 2022

नरेंद्र कोहली का न होना

 नरेंद्र कोहली का न होना 


नरेन्द्र कोहली का न होना एक ऐसे जल स्रोत का सूख जाना है जो अपना पावन जल भारतीय संस्कृति के अजस्र भूगर्भ से प्राप्त करता था और इसलिए सदा नया, ताज़ा, पुष्टिकारी और ऊर्जावान बना रहता था। 


भारतीय सभ्यता के दो प्राचीनतम और सर्वाधिक शक्तिशाली महाआख्यानों- रामायण तथा महाभारत तथा उनके चिरंजीवी पात्रों के तटों के बीच ही हजारों साल से हमारी सभ्यता-संस्कृति की गंगा बहती आई है। ये दो आख्यान अपने भीतर तथा मध्य में समूची सनातन संस्कृति को परिभाषित और प्रस्तुत कर देते हैं। नरेंद्र कोहली ने इन्हीं दोनों महाकथानकों तथा उनके पात्रों को भी दो भिन्न पाटों के बीच खड़े होकर देखा और समकालीन हिंदी पाठकों के सामने प्रस्तुत किया। पहला पाट उनका है जो रामायण-महाभारत की शास्त्रीय व्याख्या की दृष्टि और तरीका अपनाते हैं। उनकी दृष्टि में आस्था का तत्व सबसे प्रधान है। वे समकालीनता और उसकी ज़रूरतों, संवेदनशीलताओँ तथा माँगों की चिंता नहीं करते, ज़ोर देते हैं कि इन शास्त्रों को उनके मूल संदर्भों में ही देखा-समझा, अपनाया और समझाया जाना चाहिए। दूसरा उनका जो मानते हैं कि सनातन को भी समकालीन बना कर नई पीढ़ियों के सामने लाना ज़रूरी है। पीढ़ियों के साथ भाषाएँ, अभिव्यक्तियाँ, संदर्भ, परिप्रेक्ष्य तथा समझ भी बदलते हैं। इसलिए अगर संस्कृति और इतिहास के सनातन माने जाने वाले तत्वों को भी समकालीन संदर्भों-परिप्रेक्ष्यों तथा समकालीन भाषा-मुहावरे में न रखा जाए तो वे शास्त्रों-ग्रंथों में ही कैद होकर जड़ हो जाएँगे। नई पीढ़ियाँ उनसे दूर चली जाएँगी और अपरिचित रह जाएँगी।


आधुनिकता, प्रगतिशीलता, वैग्यानिकता के नाम पर व्यक्ति और समाज की आंतरिक, मनोवैग्यानिक और सांस्कृतिक आत्मबोध की भूमिका और आवश्यकताओं की उपेक्षा भारत जैसे प्राचीन देश के लिए घातक सिद्ध होती है। अब तो नए राष्ट्रों को भी अपनी विरासत को गढ़ने की ज़रूरत महसूस हो रही है। वे राष्ट्र जिनके पास भारत जैसी हज़ारों वर्ष की असाधारण रूप से समृद्ध विरासत की धरोहर है उनके लिए तो यह अनिवार्य है कि अपने अतीत को देखने-समझने के लिए उनके पास एक दृष्टि हो जिससे हर पीढ़ी के उसके नागरिक अपने-आपको अपने अतीत की निरंतरता में देख सकें, अपनी सांस्कृतिक पहचान बना सकें और उससे अपने आत्मबोध को संपन्न बना सकें। यह तभी संभव है जब ऐसे विद्वान, व्याख्याकार और लेखक हर पीढ़ी में उपलब्ध हों जो अपने-अपने समय और समाज के लिए इस ऐतिहासिक-सांस्कतिक आवश्यकता को पूरा कर सकें। 


अपने अतीत और सभ्यता के विशिष्ट, स्थायी और सनातन तत्वों को हम तभी अपनी ऐतिहासिक-साभ्यतिक पूँजी की तरह पहचान कर उसका अपने वर्तमान और भविष्य के निर्माण में उपयोग कर सकते हैं जब अतीत और वर्तमान के बीच समझ के ऐसे पुल बनाने वाले उपस्थित हों।


नरेन्द्र कोहली ने भी आधुनिक भारत की इस बड़ी ज़रूरत को समझा, शास्त्र और लोक के बीच पुल बनाने की समय की माँग को देखा और अपनी समूची ऊर्जा, समय और सामर्थ्य लगाकर उसे अपनी रचनात्मकता से पूरा किया। आज तो बहुत से हिंदी लेखक आ गए हैं जो भारतीय संस्कृति के अनन्त कोष से एक-एक रत्न निकाल कर उन्हें समकालीन प्रासंगिकता देते हुए प्रस्तुत कर रहे हैं चाहें वे पौराणिक कथाएँ हों, चरित्र हों या घटनाएँ हों लेकिन जब कोहली जी ने यह बीड़ा उठाया था तो वह लगभग अकेले थे। 



नरेन्द्र कोहली ये पुल बनाने वाले आरंभिक निर्माताओं में अग्रणी और वरेण्य थे लेकिन पहले नहीं। उनसे पहले भी गुरुदत्त, आचार्य चतुरसेन, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी आदि कुछ प्रमुख नाम इस राह पर चल कर नाम कमा चुके थे। लेकिन अपने पौराणिक लेखन, रामायण और महाभारत पर पुस्तकों की लंबी श्रंखलाएँ लिख कर इतना बड़ा पाठक वर्ग बनाने और पुस्तकों की बिक्री के रिकॉर्ड बनाने वाले केवल लेखन के जरिए जीवन जीने वाले सफलतम लेखक शायद कोहली जी ही माने जाएँगे। 



आज साहित्य में ऐसे लेखन को स्थान और महत्व दिया जाने लगा है। लेकिन उनके समय हिंदी साहित्य जगत में जो तथाकथित आधुनिकता और प्रगतिशीलता हावी थी उसने दशकों तक कोहली जी के इस भगीरथ जैसे अध्यवसाय को उपेक्षित किया। यह कोहली जी की इच्छा शक्ति और संकल्प की दृढ़ता थी जिसने उन्हें अपनी एकांत साधना को बिना रुके, बिना थके और बिना हतोत्साहित हुए जारी रखने की सामर्थ्य दी। 


वामपंथ-प्रभावित लेखकों, आलोचकों के बड़े और शक्तिशाली वर्ग ने उन्हें जितना उपेक्षित, कई बार तो अपमानित भी, किया उतना ही उनके पाठकों और प्रकाशकों ने उन्हें हाथों हाथ लिया। लेकिन अगर कोहली जी आलोचकों और हिंदी साहित्य के स्वयंभू मठाधीशों-न्यायाधीशों की उपेक्षा-आलोचना के दंश से अप्रभावित-अप्रतिहत रह कर अपनी स्वाभाविक मस्ती और ठसके के साथ निरंतर एक के बाद एक लोकप्रिय पुस्तकें देते रह सके तो इसके पीछे उनके पाठकों का जबर्दस्त पाठकीय समर्थन तो था ही, उनकी अपनी स्वभावगत जिद और अदम्य आत्मविश्वास भी था। वह बने ही ऐसी मिट्टी के थे कि जो उन्हें ठीक लगे उसके लिए दुनिया को ठेंगे पर रखना उनके लिए सहज हो जाता था। ज़रूरत से ज्यादा किसी की परवाह करना उनकी बनावट में नहीं था। 


यह प्रकृति कई बार अप्रिय स्थितियाँ भी बना देती थी। लोग उन्हें रूखा, अभिमानी और बहुत सख्त मान लेते थे, कहते थे। कोहली जी को भी शायद लोगों को चौंकाने, अपने दो-टूकपन से विचलित कर देने में मज़ा आता था। कुल मिला कर मामला कुछ ऐसा बन गया था कि कई लोगों को उनसे बात करने के लिए हिम्मत जुटानी पड़ती थी। लेकिन एक बार उनके सतही रूखेपन को भेद पाने में सफल होने वाले को उनके भीतर बहती चिन्तन और सह्रदयता की धारा का रस पाने में समस्या नहीं होती थी।  


उनके दोटूकपन की धार से एकाध बार मुझे भी खरोंच लगी। लेकिन कुछ समय बाद समझ आ गया कि यह उनका स्वभाव था, दुर्भावना या अहंकार नहीं। लेकिन कई बार इसके कारण उनसे मुक्त संवाद कठिन भी हो जाता था। लगता था अपने कहे-किए-लिखे पर पुनर्विचार की उनकी आदत नहीं थी। 


किंतु नरेन्द्र कोहली इन बातों के लिए याद नहीं किए जाएँगे। उनकी कमी इसलिए नहीं महसूस होगी। इसलिए होगी कि उनके जैसा तपस्वी जैसे लेखकीय अनुशासन में अपने को बाँध कर लगातार इतने उत्कृष्ट और प्रचुर लेखन की सौगात हिंदी समाज को देते रहने वाला आधुनिक व्यास अब दोबारा नहीं आएगा। हमारे विराट सांस्कृतिक अतीत और आख्यानों के कालजयी पात्रों, कथानकों, परिस्थितियों को आज के आधुनिक पाठकों की कई पीढ़ियों को रोचकता, सरलता, सहजता और समझ के साथ ग्राह्य, स्वीकार्य, परिचित, मानवीय, विश्वसनीय और अनुकरणीय बनाने वाला व्याख्याकार आसानी से नहीं मिलेगा। 


संस्कृति की समझ के ऐसे सरस स्रोत न रहें तो समय और समाज आत्मबोध संपन्न नहीं रह पाते। 


राहुल देव

१६ दिसंबर, २०२१


प्रेम जनमेजय द्वारा संपादित पुस्तक में प्रकाशित लेख।

Tomb of Sand : A New Dawn for Bhashas

 Tomb of Sand: A New Dawn for Bhashas

 

Rahul Dev

 

Acclaim matters to books and their authors. Awards and prizes matter. Of course, the right kind of acclaim and the right kind of award. National acclaim as well as international. Like the International Booker Prize. The right kind of acclaim/award rewards the author, confer on or confirm her stature and virtuosity, shine the literary spotlight on her, encourage and inspire other writers, even as it engenders inevitable envy. 

 

When a book receives an established and respected international literary award like the International Booker or the Nobel it matters not just to the author and to the book but to their language and country too.  The author, in this case the translator too, of course gets glory, money and a brighter publishing future but the language and its authors too get new recognition, salience, significance, strength and self-confidence.

 

These may not matter to already global, powerful literary languages like English, French, Spanish, Japanese etc. But they matter hugely to lesser known languages from the third or second world. They elevate, energise and empower the entire publishing industry in these languages. Emboldens them, as well as the authors, to aim higher, be more ambitious in their endeavours and broaden their horizons. 

 

The International Booker Prize for Tomb of Sand, Geetanjali Shri’s Ret Samadhi’s English translation by Daisy Rockwell, as has been widely reported, the first novel translated from an Indian language to win this prize. The last big international award an Indian language book translated into English won was the Nobel prize by Rabindranath Tagore’s Geetanjali in 1913. It was originally written in Bangla and was translated by Gurudev himself. Several Indian writers have won international literary prizes, including the main Booker since but they were all writing in English. From Salman Rushdie to Amitava Ghosh, Arundhati Roy, Arvind Adiga, they have become global representatives of ‘Indian’ writing for the world. 

 

It has taken over a century for a literary work in an Indian language to break through the English glass ceiling to arrive on the world stage with a bang, bringing global attention to the supremely rich world of Indian language writing that has largely remained little known to the wider world. It is a rightfully proud though belated moment for all Indian language writing not just for Hindi, arguably the world’s third most spoken language. Justifiable comments on the colonial gaze finally descending on the formerly colonised notwithstanding, the moment needs to be welcomed, cherished and celebrated. Especially when, as the European culture reporter of the New York Times noted, “the novel claimed the title despite not having been reviewed by a major British newspaper. It is the first in an Indian language to win the International Booker Prize, and the first in Hindi to even secure a nomination.

 

What a coveted prize as this does to the author, language, publisher and the community of writers and publishers is best understood in the words of its publisher, Rajkamal Prakashan’s Amod Maheshwari. “Ret Samadhi is on its way to creating Hindi publishing history. It had had two editions when it was longlisted for the prize. After winning it has gone into the eighth edition and demand keeps pouring in. It is number one on Amazon in literature and fourth overall. No. one on Kindle. Earlier, we used to chase big book sellers and chains to keep our Hindi books, to give them decent display instead of a small corner at the back. Not only is it getting the best display space in big, mainly English language book shops, we are getting calls from them to rush deliveries. Every day we are getting calls and orders from 5-6 new book sellers. This is unprecedented.”, he told the writer. 

 

“This means big for Hindi writers and publishers. For all Indian language publishing. The whole world of Indian language writing-publishing is going to experience a new boom, a new visibility nationally and globally.” Amod says. 

 

Not just the writers-publishers, the prize is eqally important to the oft-neglected community of translators. We may scoff at the supposedly ‘colonial’ nature of IBP being giving to only English language translations of non-English novels and the additional condition that they must be published by a publisher in UK or Ireland but we must at the same time duly recognize that the prize accords the same dignity and honour to the writer and the translator. Both share the prize money equally. This equality of acclaim needs to be strongly applauded. If there were no translations there would be no such thing as ‘world literature’. 

 

It is through translations that a work of literature crosses borders and boundaries of nations, languages and cultures and comes to belong to the whole world, a theme that so hauntingly permeates Geetanjali Shree’s brilliant novel. The managing director of Rajkamal, Ashok Maheshwari had told me while gifting me the book three years ago that a novel like this doesn’t exist anywhere. He has been proven right. 

 

While no one of sane mind would claim that Ret Samadhi is the best novel written in the world since 2018 or even in India, we must remember that it won against some very big, known names. In the words of  Frank Wynne, the chair of the judges for this year’s prize, Tomb of Sand was “overwhelmingly” the judges’ choice, deserving to beat the five other shortlisted novels.  Some of those books were by internationally well-known authors, including ‘The Books of Jacob’ by Olga Takarczuk, the Nobel Prize-winning Polish novelist, and ‘Heaven’ by Mieko Kawakami, the Japanese author best known for ‘Breasts and Eggs’.  

 

For an international award the intrinsic superiority of a work of literature by itself isn’t the sole requirement. It needs an extraordinarily skilled translator and literary intermediaries like agents or friends in the right places in the literary establishment abroad. In the case of Tagore’s Gitanjali he himself translated much of the Bangla poems assisted by none less than his friend, the celebrated poet W. B. Yeats. Yeats assisted Tagore both with the translation as well as pushing the book with the Nobel committee. Their friend Thomas Sturge Moore too played a significant role. Yeats even wrote an introduction to the English translation of Gitanjali.

 

In Geetanjali Shree’s case, Arunava Sinha, a Bengali and English writer, had introduced her American translator-painter Daisy Rockwell to the publisher of the English translation. It perhaps helped too that Geetanjali Shree wasn’t completely unknown abroad. She has more than one English book to her credit and has been translated in English earlier. Ret Samadhi itself had first been translated and published in French before the IBP. 

This prize underscores the great need for good translators of Indian literary works into English and other major world languages. It is some consolation that many bhasha writers have been translated and well received in English in recent years. Translated works have started gaining traction and attention across book shelves. The phenomenon will now get a strong filip. But much more is needed to ensure this does not end up being an episodic euphoria of celebration of bhasha writing. Major publishers, governments, academia need to cast their net wider to spot, encourage and empower the vast pool of talent among the bhashas. The lives, loves, struggles, victories and vicissitudes in their countless ways and colours and sensibilities of Bharat need to enter the consciousness of the reading humanity across the barriers of language, culture and countries. 

Thankfully slowly the English-only elite have begun to notice the merits and strengths of bhashas they had forgotten or given up. Hopefully, this global recognition for Ret Samadhi will not only give Hindi a new respectability in a class of Indo-Anglians for whom literature and good writing begins and ends with English within India but raise the awareness and profile of bhasha writing in general. For Hindi, long starved of respect by the non-Hindi elite and accused of myriad sins by narrow-minded politicians of some states, it is a new dawn of arrival at the world stage. 

One last comment. The silence of the lions of the ruling establishment who leave no achievement, big or small, by an Indian on the world stage in any field unroared, unsung and publicly uncongratulated is deafening. The establishment that makes a fetish of promoting Hindi nationally and globally seems to have been stunned into silence by this singular, historic, unprecedented achievement of Hindi and a Hindi writer. It is as if they fear that by acknowledging and honouring this work and this author they and their ideology will be enfeebled. I think we should be thankful that the prize has not yet been attacked for being anti-India and a conspiracy. Thank God for small mercies. 

Rahul Dev

2 June, 2022

Published in The Quint on 3 June, 2022

प्रवक्ता, प्रमाद और विवाद

 प्रवक्ता, प्रमाद और विवाद

 

किसने सोचा होगा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के दर्जन भर प्रवक्ताओं में फकत एक प्रवक्ता और एक स्थानीय मीडिया प्रमुख की सिर्फ दो बातें पूरी पार्टी, उसकी सरकार और समूचे देश के लिए भारी पड़ सकते हैं? पर यह अनहोनी हो गई है। 

 

स्वघोषित विश्वगुरु आज दुनिया के १५-१६ कुछ ऐसे मुस्लिम देशों से राजनयिक डाँट सुनने और उन्हें सफ़ाई देने के लिए बाध्य है जिन्हें, सऊदी अरब और ईरान को छोड़ कर, न तो विश्व शक्ति माना जाता है न विश्व के महत्वपूर्ण प्रमुख देशों में गिना जाता है।       

 

दूसरी ओर देश के भीतर लगभग उतने ही शहरों में १० जून की जुम्मे की नमाज़ के बाद विरोध प्रदर्शनों, पथरावों, पुलिस से झड़पों, और आगज़नी की घटनाओं ने साम्प्रदायिक तापमान को असाधारण रूप से बढ़ा दिया है। सारा देश धार्मिक विद्वेष और प्रमाद की एक नई गर्म लहर से सुलगने लगा है। 

 

चारों दिशाओं में इतने शहरों-कस्बों में जुम्मे की नमाज़ के बाद मस्जिदों से निकली भीड़ के ये प्रदर्शन और उपद्रव असंदिग्ध रूप से एक देशव्यापी योजना और तैयारी का परिणाम थे, विरोध के साथ-साथ शक्ति प्रदर्शन भी थे यह स्पष्ट है। कई जगह तो भीड़ जबर्दस्त पथराव और मामूली आगज़नी, पुलिस पर हमलों तक ही सीमित रही लेकिन राँची में दो-तीन जानें भी चली गई हैं। हज़ारों की संख्या में एफआईआर और दर्जनों गिरफ्तारियाँ हुई हैं। 

 

पश्चिम एशिया के मुस्लिम देशों के विरोध और उसके प्रभावों को तो भारत की राजनयिक व्यवस्था सार्वजनिक और नेपथ्य के तरीकों से शांत करने में लगी है और कर भी लेगी। भले ही देश की अंतरराष्ट्रीय छवि को बहुत बड़ा झटका लगा है, अपने स्वभाव के विपरीत उसे विनम्र स्पष्टीकरण देने पर बाध्य होना पड़ा है, और वैश्विक मंच पर भारत की उज्ज्वल छवि तथा नैतिक कद को दूरगामी हानि हुई है लेकिन इतना हम तय मान सकते हैं कि इस नुकसान को तात्कालिक रूप से आगे बढ़ने से रोक लिया गया है।

 

लेकिन देश की आंतरिक दशा के बारे में ऐसे आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। हिंदू-मुस्लिम विभाजन और विद्वेष हमारे सामुदायिक जीवन का कई सौ साल से अविभाज्य भाग बना हुआ है। इस विद्वेष और उस पर आधारित राजनीति ने देश का विभाजन कराया है। १९४७ के बाद कई दशकों तक यह खाई बनी तो रही, हिंदू-मुस्लिम दंगे इधर-उधर होते तो रहे लेकिन समूचे राष्ट्रीय जीवन पर उस तरह से हावी नहीं हुए थे जैसे इधर के तीन-चार दशकों में। मई-जून की इन ताज़ा घटनाओं के साथ देश एक नए दौर में प्रवेश कर गया है जिसमें हमारे पूरे राष्ट्रीय-सामाजिक वातावरण, गतिविधियों, विमर्श, राजनीति और एकता-अखंडता को गहराई से विभाजित, विषाक्त और विस्फोटक बना देने की संभावनाएँ सामने दिखने लगी हैं। 

 

हिंदू और मुस्लिम, दोनों कट्टरताएँ आमने-सामने खड़ी हो गई हैं। मुस्लिम समाज, विशेषकर युवाओं को, भड़काने के काम में विदेशी और देशी संगठन और शक्तियाँ तो कई दशकों से सक्रिय रही हैं लेकिन उनकी उपस्थिति दबी-छिपी और समय-समय पर छोटी या बड़ी आतंकवादी गतिविधियों में ही दिखती रही है। अब लगता है उनके प्रभाव ने एक महत्वपूर्ण सीमा पार कर ली है। अब वह सार्वजनिक, मुखर और प्रखर है। 

 

इसमें अगर किसी ने उत्प्रेरक के रूप में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है तो वह पिछले तीन-चार दशकों से धीरे-धीरे उग्र और व्यापक होती रहने वाली हिंदू सांप्रदायिकता ने। मैं जानता हूँ इस पर तुरंत क्रुद्ध आवाज़ें उठने लगेंगी कि हिंदू कभी सांप्रदायिक हो ही नहीं सकता, हिंसक हो ही नहीं सकता। लेकिन सच यही है। यह एक ऐसा सतही मिथक है जिसे हर समूह अपनी एक उज्ज्वल आत्मछवि बनाने के लिए गढ़ लेता है। मिथक की विशेषता होती है कि अपने मानने वालों को वह स्वतः प्रमाणित सत्य लगता है और उस पर प्रश्न उठाना अनधिकार चेष्टा लेकिन वहीं दूसरों के ऐसे ही आत्म-निर्मित मिथकों को असत्य मानना, उनका उपहास करना विचित्र और विरोधाभासी नहीं लगता।  इस्लाम एक शांतिप्रिय धर्म है कहे जाने पर उग्र हिंदूवादी मज़ाक उड़ाते हैं लेकिन यह कहते हुए खुद वे कितने सांप्रदायिक, दुराग्रहों और द्वेष से भरे हुए, मानसिक-शाब्दिक हिंसा का व्यवहार करने वाले बन गए हैं यह उन्हें नहीं दिखता।  

 

सच यह है कि अपनी कमियों को देखने-मानने से बचना और दूसरे की कमियों को बढ़ा-चढ़ा कर देखना-बताना एक सार्वभौमिक मानवीय मनोविज्ञान है। गंभीर और विचारवान व्यक्ति और समूह इससे बच कर ही कुछ श्रेष्ठ सोच और कर पाते हैं।

 

अस्सी के दशक से धर्म, हिंदुत्व और संस्कृति की एक संकीर्ण परिभाषा की नींव पर हिंदू समाज का जो एकत्रीकरण तीव्र हुआ था वह अब खुले मुस्लिम-इस्लाम विद्वेष में बदल गया है। मुगलों के हिंदू-विरोधी कामों, मंदिरों के ध्वंस, अत्याचारों को ही पिछले १००० साल के भारतीय इतिहास का मुख्य आख्यान बना कर आज के भारतीय मुसलमानों को कटघरे में खड़ा करना धीरे-धीरे देश का सबसे बड़ा विमर्श बना दिया गया है। अतीत को नए सिरे से परिभाषित करने, इतिहास को नए सिरे से गढ़ने का बौद्धिक उद्योग इतना सर पर चढ़ गया है कि आज के नागरिक इतिहास के खलनायक बनाए जा रहे हैं। 

 

हमारी चुनौती इतिहास का पुनर्निर्माण नहीं भविष्य का नवनिर्माण है। अतीत के विवादों को वर्तमान के संघर्ष बनाना अविवेकपूर्ण और आत्मघाती काम है। कुछ समय के लिए कुछ लोगों को ये संघर्ष विजेता होने का दंभ दे सकते हैं लेकिन अंततः इससे सारा देश आहत, दुर्बल और असुरक्षित होता है। लेकिन यह देखने के लिए जो प्रज्ञा चाहिए वह भारतीय संस्कृति की महानता का खोखला उद्घोष करने वाले आज के छद्मनायकों की पहुँच से बाहर दिखती है।

 

खुले और उच्चस्तरीय राजनीतिक प्रश्रय में फैलते इस मुस्लिम-इस्लाम विद्वेष ने मुसलमानों के शिक्षित और समझदार हिस्सों को भी चुप और युवाओं को उग्र बनाया है। ढाई सौ साल से पनपती हुई मुस्लिम सांप्रदायिकता, अलगाववाद और कट्टरता मज़बूत हुए हैं। यह होना ही था। अपने घर के बच्चे को भी अगर दिन-रात कोसा जाए, अपराधी कहा जाए, उसके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाई जाए तो वह एक दिन माँ-बाप के सामने ही तन कर खड़ा हो जाता है, आक्रामक हो जाता है। 

 

मुसलमानों का बड़ा हिस्सा तो अपने समाज पर मुल्ला-मौलवियों की संकीर्ण व्याख्याओं और अपने नेताओं की विवेकहीन राजनीति के कुप्रभाव के कारण पहले से ही भारतीय समाज में उस तरह कभी समरस नहीं हो पाया जिस तरह अधिकांश दूसरे धर्म जो भारत में आ कर घुल-मिल गए। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता है कि उदार, समझदार, समन्वयवादी मुस्लिम नेतृत्व अपवादों को छोड़ कर कभी इतना प्रबल नहीं हो पाया कि पूरे समाज को सही दिशा में ले जा सके। उनके नेतृत्व ने अपनी विशिष्टताओं और हिंदू समाज से भिन्नताओं को पृथकताओं और पहचान की लड़ाइयों में बदल कर भुनाया। 

 

दोनों ओर की अदूरदर्शिताओं ने आज दोनों समुदायों को आमने-सामने खड़ा कर दिया है। देश एक बेहद नाज़ुक मोड़ पर आ गया है। यह समय दोनों समुदायों के धार्मिक-सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व के लिए चुनौती का है। यह परिस्थिति अपराधियों के साथ विधि-सम्मत सख्ती और बाकी के साथ संतुलन, संयम तथा संवेदनशीलता के साथ संवाद की माँग करती है। 

 

हमें याद रखना होगा कि निर्बाध, अनियंत्रित धार्मिक विद्वेष देश के विभाजन तक चले जाते हैं यह हम एक बार देख चुके हैं। 

 

राहुल देव

११ जून २०२२

TV9Hindi में १२ जून, २०२२ को प्रकाशित

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2021

हिंदी का होना, हिंदी का रोना, हिंदी का ढोना

 हिंदी का होना, हिंदी का रोना, हिंदी का ढोना

 

 

-राहुल देव

 

 

सितंबर जा रहा है। भारत के केंद्रीय सरकारी विभागों, कार्यालयों, बैंकों, विश्वविद्यालयों में सितंबर एक खास सितम का महीना है। एक संवैधानिक कर्तव्य निभाने की कठिन मजबूरी का महीना है। इस कठिन काल में जय-हिंदी का जाप संवैधानिक मजबूरी का ताप शांत करता है। हिंदी का होना या हिंदी का रोना या हिंदी का ढोना, भीतरी भाव कुछ भी हो अनुष्ठान आवश्यक है। 

 

इस अनुष्ठान के पुरोहित एक ऐसी शासकीय श्रेणी के सदस्य हैं जो शायद ही किसी दूसरे देश के प्रशासन में अस्तित्व रखती हो। ये हैं केंद्र सरकार के लगभग अनगिनत कार्यालयों, निगमों, संस्थानों, सरकारी बैंकों, विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में काम करने वाले राजभाषा अधिकारी। सरकारी सेवा की भाषा में यह एक संवर्ग है। इनकी कुल संख्या का एक अनुमान नौ से दस हज़ार तक है। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के हिंदी विभाग तथा शिक्षक भी राजभाषा अधिकारी न होते हुए भी हिंदी से जुड़े होने के कारण इस पुरोहित वर्ग में आते हैं। सैकड़ों गैर-सरकारी, हिंदी सेवी, साहित्यिक संस्थाएँ हैं जो राजभाषा दिवस के हिंदी दिवस के रूप में मनाती हैं। कुल मिला कर सितंबर में कई हज़ार कार्यक्रम होते हैं।

 

हिंदी के नाम पर हो या राजभाषा के, अधिकतर उत्सव और समारोह-माह-पखवाड़े-दिवस कवि सम्मेलनों, कवियों-लेखकों से भरे रहते हैं। अधिकांश लोगों के लिए भाषा का मतलब उसका साहित्य और हिंदी का मतलब कविता-कहानी-उपन्यास है। हिंदी लेखकों को भी साहित्य और अपनी रचनाओँ-रचना प्रक्रिया आदि से थोड़ा हट कर जीवन-कर्म-चिंतन-ज्ञान-विज्ञान-व्यवसाय-शिक्षा की भाषा के रूप में हिंदी को देखने-समझने का अभ्यास नहीं है। दूसरे भाषाई समाजों की तुलना में हिंदी समाज में अपनी भाषा को समग्रता में देखने में रुचि और गति पीड़ाजनक रूप से कम है। 

 

हिंदी का यह शोर, समारोह, उत्सव, केंद्रीय गृह मंत्री के भाषण, हिंदी के महत्व, ऐतिहासिक भूमिका आदि पर ऊँची-ऊँची बातें दूसरी भाषाओं के लोगों को चुभती हैं। सामाजिक माध्यमों में आलोचना, टिप्पणियाँ शुरू हो जाते हैं। दक्षिणी राज्यों, विशेषतः तमिल नाडु, कर्नाटक के हिंदी द्वेषी लोग सक्रिय हो जाते हैं। हिंदी लादे जाने के खिलाफ अभियान (स्टॉप हिंदी इंपोज़ीशन) चलने लगते हैं। किसी और भारतीय भाषा को ऐसा सरकारी समर्थन और प्रोत्साहन नहीं मिलता इसलिए अधिकतर हिंदीतर भाषाओँ के लोग जो संविधान, संविधान सभा की बहसों, फैसले और संविधान के भाषा संबंधी अनुच्छेदों (३४३ से ३५१) के अस्तित्व तथा पृष्ठभूमि से परिचित नहीं होते उन्हें यह सब अपनी भाषा की उपेक्षा के रूप में दिखता है, हिंदी को उनकी भाषाओं से ज्यादा शक्तिशाली और वर्चस्वशाली बनाने के प्रयासों के रूप में दिखता है, हिंदी थोपने की केंद्रीय योजना लगता है। युवा पीढ़ी तो संविधान और उसकी ऐतिहासिक राजनीतिक-भाषिक परिस्थितियों, पृष्ठभूमि तथा संदर्भों से बहुत अधिक अपरिचित है। इसलिए इन भाषाओं की युवा पीढ़ी में हिंदी के प्रति तल्ख़ी और विरोध ज्यादा मुखर है। 

 

लेकिन इसके एक उलट धारा भी मौजूद है। वह हिंदी-विरोधी धारा से ज्यादा बड़ी है लेकिन उतनी मुखर नहीं है। दक्षिणी राज्यों में ऐसे युवाओं-छात्रों की संख्या बढ़ रही है जो अपनी आगे की ज़िन्दगी में हिंदी की ज़रूरत महसूस करते हैं, उसे सीखना चाहते हैं। जो भी युवा तमिलनाडु या केरल के बाहर जाकर देश के दूसरे हिस्सों में पढ़ने या काम करने की इच्छा रखता है वह समझता है कि उस स्थिति में हिंदी के बिना काम नहीं चलेगा। दक्षिण भारत राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की कक्षाओं में लगभग चार लाख तमिल हिंदी पढ़ रहे हैं, उसकी परीक्षाएँ दे रहे हैं। तमिल नाडु सरकार और तमिल राजनीतिक दलों का पारंपरिक हिंदी-संस्कृत-उत्तर भारत विरोध तो रस्मी तौर पर कायम है लेकिन समाज, विशेषतः व्यापारी और युवा, द्रविड़ नाडु के पुराने सम्मोहन से आगे निकल आए हैं। वे उच्च शिक्षा और नौकरियों के लिए अंग्रेज़ी की और देश के दूसरे हिस्सों से संपर्क के लिए हिंदी की उपयोगिता समझते हैं। हिंदी फिल्मों, टीवी धारावाहिकों की लोकप्रियता बनी हुई है। बोली के रूप में हिंदी का विस्तार हो रहा है। 

 

लेकिन हिंदीतर प्रदेशों में एक नई प्रवृत्ति भी बढ़ती हुई दिख रही है पढ़े लिखे लोगों का एक वर्ग ऐसा है जो अपने प्रदेश के भीतर जीवन के लिए प्रादेशिक भाषा और बाकी देश और दुनिया से संपर्क के लिए अंग्रेजी को पर्याप्त मानता है,  जिसकी प्रथम भाषा या उच्च शिक्षा और काम की प्रथम भाषा अंग्रेजी हो गई है। अंग्रेजी के वृत्त से बाहर रहने और जीने वाले भारतीयों, निम्न मध्यम और निर्धन-वंचित-अल्पशिक्षित वर्ग से जुड़ने- उसको समझने और उसके साथ किसी सघन सम्बन्ध-संवाद-व्यवहार की कोई ज़रूरत महसूस नहीं होती। इसलिए इन वर्गों से संवाद के लिए उसे किसी दूसरी भारतीय भाषा की जरूरत भी महसूस नहीं होती। ऐसे लोगों के लिए संपर्क भाषा के रूप में भी हिन्दी अब उपयोगी नहीं रही है। कई दशकों से बहुत तेजी से बढ़ रही और अब लगभग अनिवार्य हो चली अंग्रेजी माध्यम शिक्षा ने इस वर्ग की संख्या में जबरदस्त वृद्धि की है। डर यह है कि जैसे-जैसे लगभग सारा देश ही अंग्रेजी माध्यम शिक्षा की ओर बढ़ रहा है, उसे अपना रहा है यह मानसिकता और संवादहीनता भी वैसे-वैसे ही व्यापक होती जाएगी। और जनसामान्य की राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में भी हिंदी का दायरा सिकुड़ता जाएगा भले ही अभी यह परिघटना साफ साफ दिख नहीं रही हो।

 

यही वह अभिजन, प्रभुवर्ग है जो मीडिया में, राजनीतिक मंचों पर और सोशल मीडिया पर स्टॉप हिन्दी इंपोजिशन  अभियान चलाता है। बहुत आक्रामकता के साथ हिन्दी और हिंदी भाषी प्रदेशों पर अशिक्षित, गरीब और पिछड़े होने के आरोप लगाकर उन्हें ख़ारिज करता है। यह मुखर वर्ग हिन्दी और उत्तर के हिंदी वालों पर, भाजपा पर, वर्तमान केंद्र सरकार पर उनकी अपनी भाषाओं को दबाने का आरोप लगाता है। हिन्दी को उपनिवेशवादी भाषा कहता है। 

 

एक हास्यास्पद विडंबना यह है कि इस वर्ग को हिंदी का काल्पनिक उपनिवेशवाद तो दिखता है लेकिन पिछले 100 वर्ष से चलते और बढ़ते जा रहे अंग्रेजी के उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी वर्चस्व से कोई समस्या नहीं होती। ऐसे कई महापुरुष तो अपनी तमिल- कन्नड़- तेलुगू से अंग्रेजी की नजदीकी ज्यादा देखते हैं। हिंदी उन्हें ज्यादा कठिन और पराई लगती है। भाषिक और बौद्धिक औपनिवेशिकता का यह स्पष्ट लक्षण है कि उसे अपरिचित, दूर तथा वर्चस्वशाली पराए अपनों से ज्यादा परिचित और करीबी लगते हैं। 

 

हिंदी दिवस पर जिनके पेट में मरोड़ उठते हैं वे केवल हिंदीतर प्रदेशों के इस अंग्रेजी-अंग्रेजियत भरे उच्चवर्गीय दिमागों तक ही नहीं है हिंदी प्रदेशों में भी एक वर्ग है जो इन उत्सवों से चिढ़ता भले ही उतना खुलकर व्यक्त न करता हो। हिंदी की 50 से ऊपर की सह-भाषाओं के बोलने वालों का एक वर्ग हिंदी पर ऐसी ही एक उपनिवेशवादी भाषा होने और उनकी भाषाओं के विकास को अवरूद्ध करने का आरोप लगाता है। इनमें सबसे प्रमुख है भोजपुरी, राजस्थानी तथा छत्तीसगढ़ी बोलनेवालों एक मुखर, महत्वाकांक्षी वर्ग। यह वर्ग कई दशकों से अपनी भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के प्रयासों में लगा है।

 

चुनावों के समय इन्हें ऐसे राजनेता और सांसद मिल जाते हैं जो इन आकांक्षाओं को संसद और विधानसभाओं में स्वर देते हैं। हर बार केंद्र सरकार के कुछ मंत्री, मुख्यतः गृहमंत्री, संसद में आश्वासन देते हैं कि इन भाषाओं के दावे पर सरकार सहानुभूतिपूर्वक विचार कर रखी है, उनकी उपेक्षा नहीं की जाएगी। दो तीन बार तो तत्कालीन गृह मंत्रियों ने सदन में इन भाषाओं को अनुसूची में शामिल करने का ठोस आश्वासन भी दिया है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि तमाम आश्वासनों के बावजूद इन्हें सूची में शामिल करने के लिए किसी भी सरकार ने कोई गंभीर कदम नहीं उठाए हैं।

 

कारण स्पष्ट है, और उचित है। आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की इन भाषाओं की अपनी आंतरिक योग्यताओं और पात्रताओँ को छोड़ भी दें तो भी एक ही बात इस कारण को स्पष्ट कर देती है। देश के लगभग हर हिस्से से ३८-४० भाषाओं को अनुसूची में शामिल किए जाने के  मांग पत्र गृहमंत्रालय की फ़ाइलों में दर्ज हैं। 

 

भाषा एक बहुत भावनात्मक और संवेदनशील मुद्दा है। यह एक सार्वभौमिक तथ्य है। एक बहुत गहरे स्तर पर भाषा एक व्यक्ति या वर्ग की पहचान, आत्म-बोध तथा संस्कृति से जुड़ी होती है।  सारी सरकारे ये समझती आई है कि इतने सारे दावों में से कुछ को मान लेना और कुछ को छोड़ देना एक बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा काम होगा। इससे विभिन्न भाषाओं में आपस में ही संघर्ष शुरू हो जाएँगे। देश की एकता और अखंडता को चुनौती देने वाली शक्तियां और समस्याएँ देश के विभिन्न हिस्सों में पहले ही सक्रिय हैं। उनमें अगर भाषाओं की आपसी लड़ाईयां भी शामिल हो गईं तो समाज में इतने तनाव और पारस्परिक विरोधी आंदोलन शुरू हो जाएंगे कि संभालना कठिन होगा। 60 के दशक में देश भाषाई विद्वेष को हिंसक आंदोलनों में बदलते कई बार देख चुका है। कई बार भाषाएँ पहचान की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति के रूप में अलगाववाद को भड़काने में का भी माध्यम बनाई जा चुकी हैं। तमिल अलगाववाद इसका सबसे प्रमुख उदाहरण है। इन बातों को देखते हुए फिलहाल ऐसी कोई संभावना दूर-दूर तक नहीं दिखती कि देशहित की इच्छुक कोई भी सरकार कुछ नई भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करके नए भाषाई तनावों और आंदोलनों को हवा देगी।

 

लगभग हर बड़ी बात की तरह भारतीय भाषाओँ का सवाल भी विडंबनाओँ, विरोधाभासों और जटिलताओँ से भरा हुआ है। एक ओर  प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद से शिक्षा मंत्रालय तथा अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद इंजीनियरिंग के उच्च शिक्षा संस्थानों- आईआईटी, एनआईटी तथा निजी संस्थानों में भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की शिक्षा शुरू करने की तैयारियों में गंभीरता से लगे हैं दूसरी ओर राज्य सरकारें प्राथमिक ही नहीं माध्यमिक और उच्च शिक्षा में भी अपनी अपनी प्रादेशिक भाषाओं को हटाकर अंग्रेजी को अनिवार्य माध्यम भाषा बनाने की ओर बढ़ रही हैं। जगन रेड्डी की आंध्र प्रदेश सरकार ने नीचे से ऊपर तक समूची शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम को अनिवार्य बना दिया है तेलुगू वहाँ अब केवल एक विषय के रूप में पढ़ाई जाएगी। यह कदम तेलुगू भाषा के दूरगामी भविष्य के लिए मृत्युदंड सिद्ध होगा लेकिन अंग्रेजी के मोह में अंधी हुई सरकार और नागरिको-अभिभावकों किसी को भी न तो यह दिखता है और न तेलुगू के लुप्त होने से होने वाली सांस्कृतिक-सामाजिक अपूरणीय क्षति की कोई चिन्ता और समझ उनमें दिखाई देती है।

 

लेकिन आंध्रप्रदेश पहला जरूर है अंतिम नहीं रहेगा। लगभग सभी राज्य सरकारे इसी दिशा में बढ़ रही हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि के शिक्षा विभाग अपने यहाँ सैकड़ों की संख्या में आदर्श मॉडल स्कूल बनाने की घोषणा कर चुके हैं। ये मॉडल सरकारी स्कूल सभी आधुनिक संसाधनों, सुविधाओं और तकनीक से संपन्न होंगे। इनमें शिक्षा का माध्यम केवल अंग्रेजी होगी। जिन प्रदेशों में अच्छी हिंदी सिखाने वाले शिक्षकों का ही जबरदस्त अभाव है वहाँ इतनी बड़ी संख्या में अच्छी अंग्रेजी सिखाने में सक्षम शिक्षक कहाँ से आयेंगे इस व्यावहारिक समस्या को छोड़ भी दें तो यह बात समझ से परे है कि ये सरकारें अपने ही भाषा माध्यम विद्यालयों और शिक्षकों को स्वयं घटिया और अनुत्कृष्ट सिद्ध कर करने पर तुली हैं। जब हर जिले में एक मॉडल विद्यालय होगा तब कौन अभिभावक अपने बच्चों को उन पुराने सुविधा-संसाधनहीन, जीर्ण सरकारी स्कूलों में भेजना चाहेगा जहाँ प्रदेश भाषा माध्यम भाषा है?

 

अब तक भारत में शैक्षिक असमानता सरकारी और निजी शिक्षा की थी, आर्थिक थी, अब सरकारी शिक्षा व्यवस्था के भीतर ही भाषा-आधारित असमानता को स्थापित किया जा रहा है। 

 

इन सरकारों के शिक्षा विभागों में बैठे अधिकारी-शिक्षाविद इस  सार्वभौमिक, सर्व-स्वीकृत तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि बच्चों के आरंभिक संवेगात्मक-ज्ञानात्मक विकास के लिए मातृभाषा ही सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। एक बच्चे को अपने घर की भाषा के माहौल से एक घोर पराई, अपरिचित भाषा के माहौल में भेजना उसके मानसिक विकास के साथ घोर हिंसा करता है, उसे कुंठित करता है। वे यह भी समझते होंगे कि अपनी मातृभाषा माध्यम में पड़ा हुआ बच्चा दूसरी भाषाओं और विषयों को बेहतर ग्रहण करता है, उसका अधिगम बेहतर होता है। लेकिन सब जगह अंग्रेजी शिक्षा की विराट मांग के दबाव के चलते और मुख्य मंत्रियों, शिक्षा मंत्रियों, विधायकों, सासंदों और नेताओं में शैक्षिक समझ के अभाव और उथलेपन के कारण अंग्रेजी माध्यम शिक्षा की यह महामारी बढ़ते-बढ़ते असाध्य होती जा रही है। 

 

हिंदी या राजभाषा दिवस को अगर भारतीय भाषा दिवस बना दिया जाए तो केवल हिंदी वालों का ही नहीं सभी २२ प्रमुख भाषाओं की वर्तमान स्थिति, चुनौतियों और आसन्न साझे संकट पर पूरे देश का ध्यान केंद्रित किया जा सकता है। आठवीं अनुसूची से बाहर की सैकड़ों भाषाओं को भी इस राष्ट्रीय विमर्श और चिंता में शामिल किया जा सकता है। अंग्रेज़ी की उपयोगिता-आवश्यकता को बनाए रखते हुए भारतीय भाषाओं की वृहत्तर भूमिका को लोगों के दिलों-दिमागों में पुनर्प्रतिष्ठित किया जा सकता है। भारतीय देशज प्रतिभा की मौलिक सृजनशीलता को अंग्रेज़ी की दासता से मुक्त करके सच्चे भारतीय पुनर्जागरण को संभव बनाया जा सकता है। 

 

राहुल देव

२९ सितंबर, २०२१

  

 

 

 

 

 

  

शनिवार, 11 सितंबर 2021

जात सुमिर, जात सुमिर, एही तेरो काज है...

 जात सुमिर, जात सुमिर, एही  तेरो काज है...

 

लगभग ५०० साल पहले गुरु नानक देव ने हमसे राम सुमिर, राम सुमिर...कहा था। लेकिन यह राम भवसागर से पार कराने वाला है। भारतीय लोकतंत्र के राजनीतिक भवसागर से पार कराने वाला यह तत्व जाति है यह गुरुमंत्र संभवतः भारत के सर्वश्रेष्ठ समाजशास्त्री और नृतत्वशास्त्री एम एन श्रीनिवास ने १९५७ में दिया था।यह देश के दूसरे लोक सभा चुनाव से कुछ ही दिन पहले हुए भारतीय विज्ञान सम्मेलन में कहा गया था। 

उसके बाद के राजनीतिक इतिहास ने इस गुरुमंत्र की सच्चाई और उपयोगिता को न सिर्फ बार-बार प्रमाणित किया है बल्कि उसकी निरंतर बढ़ती हुई प्रासंगिकता अब भारतीय समाज और राजनीति का एक स्थापित, सनातन और निर्विवाद सत्य स्वीकार कर लिया गया है। 

श्रीनिवास ने कहा था, “मैं आपके सामने प्रमाण रख रहा हूँ कि पिछले १०० वर्षों में ब्रिटिश-पूर्व काल की तुलना में जाति कहीँ ज्यादा शक्तिशाली हुई है। हमारे संविधान में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार और पिछड़े समुदायों को दी गई सुरक्षाओं ने जाति को दृश्य रूप से मज़बूत किया है। जाति की यह नई सुदृढ़ता ‘एक जातिविहीन और वर्गविहीन समाज’ बनाने के कांग्रेस और  अधिकांश राजनीतिक दलों के घोषित उद्देश्य के विपरीत है।” यही मंशा और उद्देश्य संविधान का भी था।  

आपातकाल के बाद बनी पहले जनता पार्टी सरकार ने १९७८ में इस सत्य को पहचान कर बीपी मंडल की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग नियुक्त किया। आयोग ने १९८० में रिपोर्ट दी। तब तक कांग्रेस सत्ता में लौट चुकी थी। बीपी मंडल द्वारा दी गई रिपोर्ट को जारी और क्रियान्वित करने की उसकी हिम्मत न हुई। रिपोर्ट १० साल दबी रही। भारतीय राजनीति के उस समय के चमचमाते उद्धारक, सार्वजनिक ईमानदारी और भ्रष्टाचार के विरुद्ध महाभारत के स्वयंभू अर्जुन नवगठित राष्टीय मोर्चा सरकार के प्रधान मंत्री  विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस  मंत्र का स्मरण किया और अगस्त १९९० में  आयोग को लागू करने का मंत्रपूरित बाण छोड़ दिया। भारतीय राजनीति का वह सबसे निर्णायक और बड़ा मोड़ था।

मंडल की काट के लिए कमंडल के ब्रह्मास्त्र का सफल प्रयोग करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने अंततः दोनों को जोड़ दिया। इस महामंत्र से उसे अपार और अप्रत्याशित लाभ हुआ है। जाति बनाम धर्म के पुराने अंतर्विरोधोँ को चुनावी राजनीति के वोट गणित ने पाट दिया है। १० अगस्त को पक्ष-विपक्ष की एकता और सर्वानुमति के एक ऐतिहासिक प्रदर्शन में भारत की लोक सभा ने १२७वाँ संविधान संशोधन विधेयक सर्वसम्मति से पारित करके न केवल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई ५०% आरक्षण की बाधा के भी भावी उल्लंघन का मार्ग साफ कर दिया है बल्कि भारतीय राजनीति में जाति ही परम सत्य है इस सिद्धाँत को लगभग अजर-अमर बना दिया है। राम और जाति राजनीति में एकाकार हो गए हैं। 

इसका असर क्या होगा? किस पार्टी को कितना फायदा होगा? इसका केंद्र-राज्य संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? 

उत्तर जटिल और अभी काफी अस्पष्ट हैं। पहले एक सत्य को स्वीकार कर लें।  स्वतंत्रता  प्राप्ति के तुरंत बाद की राष्ट्रीय आकाँक्षाएँ, पूर्वानुमान और संवैधानिक मन्तव्य ये थे कि लोकतंत्र और आधुनिकता मिल कर भारत को जाति और वर्ग के प्राचीन भेदों-भेदभावों-असमानताओं-अन्यायों से मुक्त करेंगे। पिछले ७४ वर्ष का अनुभव इन्हें निरस्त करता है। तकनीकी-सामाजिक परिवर्तनों और सतही शहरी आधुनिकताओं ने एक तरह का सामाजिक सपाटीकरण तो किया है लेकिन वर्ग-जाति चेतना की जकड़ लगभग यथावत है। लोकतंत्र के सबसे शक्तिशाली तत्व राजनीति में तो वह अब ब्रह्म की तरह सर्वव्याप्त, सर्वशक्तिवान है।

पहली स्पष्ट संभावना तो यह है कि प्रत्येक राज्य में सत्तारूढ़ दलों को अगले चुनाव में सीधा लाभ होगा। सब अपने प्रांत में पिछड़ी जातियों-उपजातियों की सूचियाँ बनाएँगे। फिर उन्हें आरक्षण का लाभ देने के कानूनी तरीके खोजेंगे या न्यायपालिका की चिन्ता किए बिना लागू करने की घोषणाएँ कर देंगे। बाद में न्यायालय अगर इन निर्णयों को रद्द भी कर देंगे तो सरकारें अपनी ओर से इन निर्णयों-घोषणाओँ का राजनीतिक कर्मफल अवश्य प्राप्त करेंगी।

सबसे पहले होगा उत्तर प्रदेश। यह सब जानते हैं कि इस विधेयक के पीछे भाजपा की सबसे प्रमुख प्रेरणा तो अगले साल का विधान सभा चुनाव जीतना ही है। वह अब उसने लगभग सुनिश्चित कर लिया है। नरेंद्र मोदी-अमित शाह जोड़ी ने अपने उदय के बाद जिस तरह सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक वर्गों और पार्टियों का एक सर्वथा नया गणित साधा है, जिस तरह अलग-अलग प्रदेशों में स्थानीय जातीय समीकरणों की नई ‘सामाजिक इंजीनियरिंग’ की है उसने पार्टी को अभूतपूर्व और अप्रत्याशित चुनावी सफलताएँ दी हैं। यह उसने किया है जहाँ-जहाँ इसकी गुंजाइश थी वहाँ उन छोटी जातियों-उपजातियों-वर्गों के इंद्रधनुष बना करा है जिन्हें अब तक अपनी छोटी संख्या और सीमित राजनीतिक-आर्थिक प्रभाव के कारण बड़ी और दबंग जातियाँ-वर्ग उपेक्षित और हाशिए पर रखते आए थे। नीतीश कुमार ने अति पिछड़ों-अति दलितों के ऐसे समीकरण बिहार में बनाए और भुनाए। 

उत्तर प्रदेश सरकार ने पहले ही ३९ छोटी पिछड़ी उपजातियों की सूची तैयार कर रखी है  जिन्हें वह आरक्षण देने का फैसला कर चुकी है। दो दर्जन दूसरी उपजातियों को शामिल करने की उसकी तैयारी है। ऐसा लगभग हर प्रदेश सरकार कर रही है। अब जब महाराष्ट्र सरकार द्वारा मराठा आरक्षण की घोषणा के खिलाफ अपील में सर्वोच्च न्यायालय ने मई २०२१ में इस आरक्षण पर ५०% वाली सीमा की रोक लगा देने के बाद संसद ने इस विधेयक द्वारा क पिछड़ी जातियों की सूची बनाने का अधिकार केंद्र से लेकर राज्यों को सौंप दिया है तो राज्यों का अगला कदम ५० % की सीमा को कानूनी चुनौती देने का ही होगा। जो सर्वोच्च न्यायालय १९९२ से अब तक इंदिरा साहनी मामले में अपने ऐतिहासिक फैसले के तरत इस सीमा को बढ़ाने से इंकार करता आया है वह अब क्या निर्णय करेगा यह अभी नहीं कहा जा सकता। अभी तो सिर्फ इतना ही तय है कि उसे नई चुनौतियाँ मिलेंगी और यह कानूनी लड़ाई लंबी चलेगी। एक आध दशक भी चल सकती है। 

इस विधेयक के बाद अब देश में जातीय उथल-पुथल की नई लहर शुरू होगी। जब तक सर्वोच्च न्यायालय की ५०% की सीमा लागू है नई पिछड़ी जातियों-उपजातियों और पहले से आरक्षण का लाभ उठा रही शक्तिशाली जातियों के बीच खींचतान और तनाव होंगे। सरकारी नौकरियों का हलुआ पहले ही लगातार छोटा होता जा रहा है। अब उसी के नए दावेदार आएँगे। स्थापित जातियों से एक मज़बूत विरोध की अपेक्षा की जा सकती है। यह उथल-पुथल क्या रूप धारण करती है, उसके क्या दूरगामी परिणाम होंगे यह भविष्य बताएगा।  

 

इतना तय है कि मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने का बाद जैसे भारतीय राजनीत निर्णायक रूप से रूपांतरित हो गई थी वैसे ही रूपांतरण की संभावना अब सामने खड़ी है। पिछड़ी-अति पिछड़ी जातियों की आकाँक्षाएँ गगनचुंबी होंगी। पिछड़ेपन की नई योग्यताएँ स्थापित होंगी। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पटेल, कर्नाटक में लिंगायत - आरक्षण की माँग को लेकर उग्रतापूर्ण रूप से आंदोलनरत ये जातियाँ अपने अपने प्रांतों में आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक रूप से भरपूर समर्थ और शक्तिशाली जातियाँ हैं। अध्ययन बताते हैं कि ये जातियाँ भूसंपत्ति में, मँहगी उपभोक्ता सामग्रियों के स्वामित्व में, निजी पक्के मकानों में या तो अगड़ी, सवर्ण जातियों के बराबर हैं या कुछ मामलों में आगे हैं। अपनी समग्रता में वे अपने ही जाति परिवारों की छोटी उपजातियों से कहीं ज्यादा ‘अगड़ी’ और समर्थ हैं जितनी तथाकथित अगड़ी जातियाँ। 

गैर-यादव पिछड़ी और गैर-जाटव दलित उपजातियों को अपनी ओर करके ही भाजपा ने उप्र में बसपा और सपा को हराया है। अब इस राजनीति के रासायनिक फार्मूले में नए तत्व शामिल होने के लिए तैयार होंगे। अंतर-ओबीसी स्पर्धा बढ़ेगी, तीखी होगी। एक महत्वपूर्ण तत्व यह है कि इन नई आरक्षित जातियों की आरक्षण का लाभ उठाने की क्षमता कितनी है। 

अब तक का अनुभव बताता है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर अनुसूचित जातियों और जनजातियों को भी आरक्षण का पूरा फायदा नहीं मिल पाया है। बड़ी संख्या में केंद्रीय और प्रदेश सरकरों में आरक्षित पद खाली पड़े रहते हैं। प्रतियोगिताओं में इतने अभ्यर्थी नहीं होते जो जगहों, सीटों को भर सकें। इसका मतलब है कि ७२-७३ सालों के बाद भी कई पिछड़े वर्गों-जातियों में आरक्षण का पूरा फायदा उठाने के लिए ज़रूरी शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक क्षमताएँ विकसित नहीं हुई हैं। उन्हें विकसित करना होगा। सबसे ज्यादा हाशिए पर खड़ी जातियों के लिए यह बड़ी चुनौती होगी। इसके लिए एक प्रज्ञावान, प्रगतिशील, सुशिक्षित नेतृत्व चाहिए। किस जाति में कितना है यह देखना है। 

अगर विभिन्न राज्यों ने कम या ज्यादा हद तक इन नई जातियों को आरक्षण देने में सफलता हासिल कर ली, ५०% की सीमा को बढ़ा लिया तो सवर्ण और पिछड़ों के नए स्थानीय संघर्ष जन्म ले सकते हैं। लेकिन भारतीय लोकतंत्र ने सभी वर्गों, जातियों को सामाजिक न्याय, समानता, समृद्धि और शक्ति के राजकीय ढाँचों में भागीदारी की जिन आकाँक्षाओं को जगा दिया है वे अब अपने पुराने हाशियों में लौटने वाली नहीं है। १२७वें संविधान संशोधन पर सारे देश के सभी राजनीतिक दलों की दुर्लभ एकता और सर्वानुमति ने यह सुनिश्चित कर दिया है।

राहुल देव

१३ अगस्त, २०२१

टीवी९भारतवर्ष ऑनलाइन के लिए लिखा गया लेख