शुक्रवार, 24 जून 2022

शिव सेना का अंतःस्फोट

 शिव सेना का अंतःस्फोट



शिव सेना का अंतःस्फोट अचानक पैदा नहीं हुआ है। ज्वालामुखी फटने से पहले धीरे-धीरे धरती के नीचे गर्मी बढ़ते-बढ़ते एक दिन विस्फोट करती है। 


अपने पूरे जीवन जिस विचारधारा और राजनीतिक संस्कृति का शिव सेना ने विरोध किया उसकी दो प्रमुख प्रतिनिधि पार्टियों के साथ हाथ मिला कर महाविकास आघाड़ी गठबंधन सरकार बनाना और चलाना शिव सेना के लिए दिसंबर, २०२१ से ही एक अस्वाभाविक और असहज अनुभव था। सामान्य शिव सैनिक बाल ठाकरे की स्वघोषित ‘ठोकशाही’ वाली शैली को पसंद करने वाले ज़मीनी कार्यकर्ता थे। उद्धव ठाकरे का अनाक्रामक, शांतिप्रिय स्वभाव और राजनीति की संभ्रांत शैली शिव सेना की संस्कति के अनुकूल नहीं थी। 


शासक और प्रशासक के रूप में नितांत अनुभवहीन उद्धव का मुख्यमंत्री के रूप में प्रदर्शन अच्छा रहा है। व्यक्ति के रूप में वह स्वयं और उनके मंत्री पुत्र आदित्य ठाकरे साफ-सुथरे उच्च मध्यवर्गीय तौर तरीकों के आदी रहे हैं। ज़मीन पर सामान्य मराठी समाज की मानसिकता, मनोवैग्यानिक ज़रूरतों और संघर्षों से उनका कोई सीधा प्रत्यक्ष अनुभव-आधारित संबंध नहीं रहा है। उनके साथ काम कर चुके वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं कि मुख्य मंत्री बनने के बाद भी उद्धव की रुचि और बातचीत का विषय उनका वन्य जीवन तथा उसकी फोटोग्राफी रहता था। आदित्य ठाकरे मराठी की बजाए अंग्रेज़ी में ज्यादा सहज थे। दोनों की वेषभूषा और आचार-विचार भी उस मराठी मानूस और उसके मानस से काफी दूर पड़ते थे जिसके हितों, शिकायतों और भावनाओं को अपनी लड़ाकू राजनीति का आधार बना कर शिव सेना को बाल ठाकरे ने राजनीतिक शक्ति के शिखर पर पहुँचाया था। 


अपने सामाजिक आधार से इस मनोवैग्यानिक दूरी ने उद्धव ठाकरे को सेना विधायकों, कार्यकर्ताओं तथा समाज से काट कर अपने एक निजी पारिवारिक परामर्श मंडल का कैदी बना दिया था। संजय राउत उनके सर्वशक्तिमान प्रतिनिधि बन गए थे जो मुख्य मंत्री और पार्टी विधायकों-कार्यकर्ताओं के बीच पुल और संवाद माध्यम का काम करते थे। इस स्थिति में पार्टी की आंतरिक निर्णय प्रक्रिया एक छोटे से गुट के हाथों में सिमट गई थी। एकनाथ शिंदे जैसे शक्तिशाली ज़मीनी नेता के लिए ऐसे में असहज और उपेक्षित महसूस करना स्वाभाविक था। 


पचपन में से लगभग ४० शिव सेना विधायकों का शिंदे के साथ चले जाना प्रमाण है कि उपेक्षित और अपने भविष्य के प्रति आशंकित-असुरक्षित महसूस करने वाले विधायकों की संख्या कितनी बड़ी थी। उसके साथ ही आघाड़ी की सहयोगी पार्टियों, विशेषकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, के मंत्रियों के व्यवहार से भी विधायक नाराज़ थे। लंबे समय से इस बारे में उनकी शिकायतों का कोई असर नहीं हुआ था। बहुतों को डर था कि महाराष्ट्र के सबसे कद्दावर नेता शरद पवार के नेतृत्व में राकांपा उनके चुनाव क्षेत्रों में उनके जीतने की संभावनाओं को गंभीर नुकसान पहुँचा रही थी। 


दूसरी ओर उग्र हिंदुत्व की खुराक पर पले शिव सैनिकों के लिए सेकुलर कांग्रेस और राकांपा के साथ विचारधारात्मक तथा व्यावहारिक तालमेल बिठाना बहुत कठिन हो रहा था। उनकी स्वाभाविक संगति और पिछले ५० साल का अनुभव भाजपा के सौम्य हिंदुत्व के अधिक अनुकूल था। दोनों मिल कर सफलतापूर्वक सरकार चला चुके थे। आशंका थी कि अगर वे इस सेकुलर गठबंधन में ज्यादा दिन रहे तो उनका प्रखर-मुखर हिंदुत्ववादी सामाजिक-वैचारिक आधार बिखर कर भाजपा और राज ठाकरे की मनसे में बँट जाएगा। इन सुलगते हुए मुद्दों को ज़मीन और समाज से गहराई से जुड़े हुए, अपने संघर्ष और पुरुषार्थ के साथ ऑटो चालक से दूसरे सबसे वरिष्ठ मंत्री बने जन्मजात नेता एकनाथ शिंदे ने पहचाना, पकड़ा और अपनी महत्वाकांक्षा का हथियार बना लिया। 


दो साल से उनके घनिष्ठ मित्र बने हुए भाजपा के पूर्व मुख्य मंत्री देवेंद्र फड़णवीस इस पूरे घटनाक्रम को नेपथ्य से प्रभावित और संचालित कर रहे थे। हाल के राज्य सभा चुनाव हों या विधान परिषद चुनाव भाजपा को एक-एक अतिरिक्त सीट जितवा कर फड़णवीस भाजपा के युवा चाणक्य की तरह उभरे हैं। शरद पवार तक ने उनका लोहा मान लिया है। उनकी इस नए घटनाक्रम में क्या भूमिका रही यह जल्दी ही सामने आएगा।


यह सारी हलचल लगभग दो महीने से नेपथ्य में चल रही थी। लेकिन उद्धव ठाकरे की राजनीतिक अपरिपक्वता, असतर्कता और प्रशासनिक ढिलाई का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि उनके दो दर्जन विधायक एक साथ एक उड़ान से शिंदे के साथ सूरत चले गए और उनको कोई खबर नहीं मिली। 


यह लिखे जाने तक की ताज़ा खबर यह थी कि संजय राउत ने कहा है कि पार्टी महाविकास आघाड़ी से बाहर आने यानी कांग्रेज-राकांपा का साथ छोड़ने के लिए तैयार है। यानी दोनों हिंदुत्ववादी दलों के फिर से एक साथ आने और सरकार बनाने के संभावनाएँ एकाएक क्षितिज पर आ गई हैं। इस पूरे घटनाक्रम में शरद पवार और कांग्रेस नेतृत्व का आश्चर्यजनक रूप से उदासीन रवैया तथा निष्क्रियता संकेत देते हैं कि दोनों दलों ने लगभग यह मान लिया है कि गठबंधन सरकार अपनी उम्र पूरी कर चुकी है। कांग्रेस ने गठबंधन से शिव सेना के अलग होने के लिए तैयार होने की बात भी कह दी है। अगले कुछ घंटे और दिन रोचक और रोमांचक होंगे। 


अब राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी और विधान सभा अध्यक्ष का काम देख रहे उपाध्यक्ष की भूमिकाएँ निर्णायक होंगी। अगर दोनों दल साथ आ जाते हैं तो शायद ज़रूरत न पड़े अन्यथा मामला पहले अदालत जाएगा और पूरी संभावना है कि लौट कर सदन में बहुमत साबित करने के संवैधानिक तरीके और परिपाटी पर टिक जाएगा। 


तीन लोगों के लिए ये दिन उनके जीवन के बेहद महत्वपूर्ण दिन होने वाले हैं- उद्धव ठाकरे, एकनाथ शिंदे और देवेंद्र फड़णवीस। राजमुकुट किसके सिर का वरण करेगा यह जल्दी पता चल जाएगा। 


राहुल देव

२३ जून, २०२२। 


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