रविवार, 12 जून 2022

नरेंद्र कोहली का न होना

 नरेंद्र कोहली का न होना 


नरेन्द्र कोहली का न होना एक ऐसे जल स्रोत का सूख जाना है जो अपना पावन जल भारतीय संस्कृति के अजस्र भूगर्भ से प्राप्त करता था और इसलिए सदा नया, ताज़ा, पुष्टिकारी और ऊर्जावान बना रहता था। 


भारतीय सभ्यता के दो प्राचीनतम और सर्वाधिक शक्तिशाली महाआख्यानों- रामायण तथा महाभारत तथा उनके चिरंजीवी पात्रों के तटों के बीच ही हजारों साल से हमारी सभ्यता-संस्कृति की गंगा बहती आई है। ये दो आख्यान अपने भीतर तथा मध्य में समूची सनातन संस्कृति को परिभाषित और प्रस्तुत कर देते हैं। नरेंद्र कोहली ने इन्हीं दोनों महाकथानकों तथा उनके पात्रों को भी दो भिन्न पाटों के बीच खड़े होकर देखा और समकालीन हिंदी पाठकों के सामने प्रस्तुत किया। पहला पाट उनका है जो रामायण-महाभारत की शास्त्रीय व्याख्या की दृष्टि और तरीका अपनाते हैं। उनकी दृष्टि में आस्था का तत्व सबसे प्रधान है। वे समकालीनता और उसकी ज़रूरतों, संवेदनशीलताओँ तथा माँगों की चिंता नहीं करते, ज़ोर देते हैं कि इन शास्त्रों को उनके मूल संदर्भों में ही देखा-समझा, अपनाया और समझाया जाना चाहिए। दूसरा उनका जो मानते हैं कि सनातन को भी समकालीन बना कर नई पीढ़ियों के सामने लाना ज़रूरी है। पीढ़ियों के साथ भाषाएँ, अभिव्यक्तियाँ, संदर्भ, परिप्रेक्ष्य तथा समझ भी बदलते हैं। इसलिए अगर संस्कृति और इतिहास के सनातन माने जाने वाले तत्वों को भी समकालीन संदर्भों-परिप्रेक्ष्यों तथा समकालीन भाषा-मुहावरे में न रखा जाए तो वे शास्त्रों-ग्रंथों में ही कैद होकर जड़ हो जाएँगे। नई पीढ़ियाँ उनसे दूर चली जाएँगी और अपरिचित रह जाएँगी।


आधुनिकता, प्रगतिशीलता, वैग्यानिकता के नाम पर व्यक्ति और समाज की आंतरिक, मनोवैग्यानिक और सांस्कृतिक आत्मबोध की भूमिका और आवश्यकताओं की उपेक्षा भारत जैसे प्राचीन देश के लिए घातक सिद्ध होती है। अब तो नए राष्ट्रों को भी अपनी विरासत को गढ़ने की ज़रूरत महसूस हो रही है। वे राष्ट्र जिनके पास भारत जैसी हज़ारों वर्ष की असाधारण रूप से समृद्ध विरासत की धरोहर है उनके लिए तो यह अनिवार्य है कि अपने अतीत को देखने-समझने के लिए उनके पास एक दृष्टि हो जिससे हर पीढ़ी के उसके नागरिक अपने-आपको अपने अतीत की निरंतरता में देख सकें, अपनी सांस्कृतिक पहचान बना सकें और उससे अपने आत्मबोध को संपन्न बना सकें। यह तभी संभव है जब ऐसे विद्वान, व्याख्याकार और लेखक हर पीढ़ी में उपलब्ध हों जो अपने-अपने समय और समाज के लिए इस ऐतिहासिक-सांस्कतिक आवश्यकता को पूरा कर सकें। 


अपने अतीत और सभ्यता के विशिष्ट, स्थायी और सनातन तत्वों को हम तभी अपनी ऐतिहासिक-साभ्यतिक पूँजी की तरह पहचान कर उसका अपने वर्तमान और भविष्य के निर्माण में उपयोग कर सकते हैं जब अतीत और वर्तमान के बीच समझ के ऐसे पुल बनाने वाले उपस्थित हों।


नरेन्द्र कोहली ने भी आधुनिक भारत की इस बड़ी ज़रूरत को समझा, शास्त्र और लोक के बीच पुल बनाने की समय की माँग को देखा और अपनी समूची ऊर्जा, समय और सामर्थ्य लगाकर उसे अपनी रचनात्मकता से पूरा किया। आज तो बहुत से हिंदी लेखक आ गए हैं जो भारतीय संस्कृति के अनन्त कोष से एक-एक रत्न निकाल कर उन्हें समकालीन प्रासंगिकता देते हुए प्रस्तुत कर रहे हैं चाहें वे पौराणिक कथाएँ हों, चरित्र हों या घटनाएँ हों लेकिन जब कोहली जी ने यह बीड़ा उठाया था तो वह लगभग अकेले थे। 



नरेन्द्र कोहली ये पुल बनाने वाले आरंभिक निर्माताओं में अग्रणी और वरेण्य थे लेकिन पहले नहीं। उनसे पहले भी गुरुदत्त, आचार्य चतुरसेन, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी आदि कुछ प्रमुख नाम इस राह पर चल कर नाम कमा चुके थे। लेकिन अपने पौराणिक लेखन, रामायण और महाभारत पर पुस्तकों की लंबी श्रंखलाएँ लिख कर इतना बड़ा पाठक वर्ग बनाने और पुस्तकों की बिक्री के रिकॉर्ड बनाने वाले केवल लेखन के जरिए जीवन जीने वाले सफलतम लेखक शायद कोहली जी ही माने जाएँगे। 



आज साहित्य में ऐसे लेखन को स्थान और महत्व दिया जाने लगा है। लेकिन उनके समय हिंदी साहित्य जगत में जो तथाकथित आधुनिकता और प्रगतिशीलता हावी थी उसने दशकों तक कोहली जी के इस भगीरथ जैसे अध्यवसाय को उपेक्षित किया। यह कोहली जी की इच्छा शक्ति और संकल्प की दृढ़ता थी जिसने उन्हें अपनी एकांत साधना को बिना रुके, बिना थके और बिना हतोत्साहित हुए जारी रखने की सामर्थ्य दी। 


वामपंथ-प्रभावित लेखकों, आलोचकों के बड़े और शक्तिशाली वर्ग ने उन्हें जितना उपेक्षित, कई बार तो अपमानित भी, किया उतना ही उनके पाठकों और प्रकाशकों ने उन्हें हाथों हाथ लिया। लेकिन अगर कोहली जी आलोचकों और हिंदी साहित्य के स्वयंभू मठाधीशों-न्यायाधीशों की उपेक्षा-आलोचना के दंश से अप्रभावित-अप्रतिहत रह कर अपनी स्वाभाविक मस्ती और ठसके के साथ निरंतर एक के बाद एक लोकप्रिय पुस्तकें देते रह सके तो इसके पीछे उनके पाठकों का जबर्दस्त पाठकीय समर्थन तो था ही, उनकी अपनी स्वभावगत जिद और अदम्य आत्मविश्वास भी था। वह बने ही ऐसी मिट्टी के थे कि जो उन्हें ठीक लगे उसके लिए दुनिया को ठेंगे पर रखना उनके लिए सहज हो जाता था। ज़रूरत से ज्यादा किसी की परवाह करना उनकी बनावट में नहीं था। 


यह प्रकृति कई बार अप्रिय स्थितियाँ भी बना देती थी। लोग उन्हें रूखा, अभिमानी और बहुत सख्त मान लेते थे, कहते थे। कोहली जी को भी शायद लोगों को चौंकाने, अपने दो-टूकपन से विचलित कर देने में मज़ा आता था। कुल मिला कर मामला कुछ ऐसा बन गया था कि कई लोगों को उनसे बात करने के लिए हिम्मत जुटानी पड़ती थी। लेकिन एक बार उनके सतही रूखेपन को भेद पाने में सफल होने वाले को उनके भीतर बहती चिन्तन और सह्रदयता की धारा का रस पाने में समस्या नहीं होती थी।  


उनके दोटूकपन की धार से एकाध बार मुझे भी खरोंच लगी। लेकिन कुछ समय बाद समझ आ गया कि यह उनका स्वभाव था, दुर्भावना या अहंकार नहीं। लेकिन कई बार इसके कारण उनसे मुक्त संवाद कठिन भी हो जाता था। लगता था अपने कहे-किए-लिखे पर पुनर्विचार की उनकी आदत नहीं थी। 


किंतु नरेन्द्र कोहली इन बातों के लिए याद नहीं किए जाएँगे। उनकी कमी इसलिए नहीं महसूस होगी। इसलिए होगी कि उनके जैसा तपस्वी जैसे लेखकीय अनुशासन में अपने को बाँध कर लगातार इतने उत्कृष्ट और प्रचुर लेखन की सौगात हिंदी समाज को देते रहने वाला आधुनिक व्यास अब दोबारा नहीं आएगा। हमारे विराट सांस्कृतिक अतीत और आख्यानों के कालजयी पात्रों, कथानकों, परिस्थितियों को आज के आधुनिक पाठकों की कई पीढ़ियों को रोचकता, सरलता, सहजता और समझ के साथ ग्राह्य, स्वीकार्य, परिचित, मानवीय, विश्वसनीय और अनुकरणीय बनाने वाला व्याख्याकार आसानी से नहीं मिलेगा। 


संस्कृति की समझ के ऐसे सरस स्रोत न रहें तो समय और समाज आत्मबोध संपन्न नहीं रह पाते। 


राहुल देव

१६ दिसंबर, २०२१


प्रेम जनमेजय द्वारा संपादित पुस्तक में प्रकाशित लेख।

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