प्रवक्ता, प्रमाद और विवाद
किसने सोचा होगा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के दर्जन भर प्रवक्ताओं में फकत एक प्रवक्ता और एक स्थानीय मीडिया प्रमुख की सिर्फ दो बातें पूरी पार्टी, उसकी सरकार और समूचे देश के लिए भारी पड़ सकते हैं? पर यह अनहोनी हो गई है।
स्वघोषित विश्वगुरु आज दुनिया के १५-१६ कुछ ऐसे मुस्लिम देशों से राजनयिक डाँट सुनने और उन्हें सफ़ाई देने के लिए बाध्य है जिन्हें, सऊदी अरब और ईरान को छोड़ कर, न तो विश्व शक्ति माना जाता है न विश्व के महत्वपूर्ण प्रमुख देशों में गिना जाता है।
दूसरी ओर देश के भीतर लगभग उतने ही शहरों में १० जून की जुम्मे की नमाज़ के बाद विरोध प्रदर्शनों, पथरावों, पुलिस से झड़पों, और आगज़नी की घटनाओं ने साम्प्रदायिक तापमान को असाधारण रूप से बढ़ा दिया है। सारा देश धार्मिक विद्वेष और प्रमाद की एक नई गर्म लहर से सुलगने लगा है।
चारों दिशाओं में इतने शहरों-कस्बों में जुम्मे की नमाज़ के बाद मस्जिदों से निकली भीड़ के ये प्रदर्शन और उपद्रव असंदिग्ध रूप से एक देशव्यापी योजना और तैयारी का परिणाम थे, विरोध के साथ-साथ शक्ति प्रदर्शन भी थे यह स्पष्ट है। कई जगह तो भीड़ जबर्दस्त पथराव और मामूली आगज़नी, पुलिस पर हमलों तक ही सीमित रही लेकिन राँची में दो-तीन जानें भी चली गई हैं। हज़ारों की संख्या में एफआईआर और दर्जनों गिरफ्तारियाँ हुई हैं।
पश्चिम एशिया के मुस्लिम देशों के विरोध और उसके प्रभावों को तो भारत की राजनयिक व्यवस्था सार्वजनिक और नेपथ्य के तरीकों से शांत करने में लगी है और कर भी लेगी। भले ही देश की अंतरराष्ट्रीय छवि को बहुत बड़ा झटका लगा है, अपने स्वभाव के विपरीत उसे विनम्र स्पष्टीकरण देने पर बाध्य होना पड़ा है, और वैश्विक मंच पर भारत की उज्ज्वल छवि तथा नैतिक कद को दूरगामी हानि हुई है लेकिन इतना हम तय मान सकते हैं कि इस नुकसान को तात्कालिक रूप से आगे बढ़ने से रोक लिया गया है।
लेकिन देश की आंतरिक दशा के बारे में ऐसे आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। हिंदू-मुस्लिम विभाजन और विद्वेष हमारे सामुदायिक जीवन का कई सौ साल से अविभाज्य भाग बना हुआ है। इस विद्वेष और उस पर आधारित राजनीति ने देश का विभाजन कराया है। १९४७ के बाद कई दशकों तक यह खाई बनी तो रही, हिंदू-मुस्लिम दंगे इधर-उधर होते तो रहे लेकिन समूचे राष्ट्रीय जीवन पर उस तरह से हावी नहीं हुए थे जैसे इधर के तीन-चार दशकों में। मई-जून की इन ताज़ा घटनाओं के साथ देश एक नए दौर में प्रवेश कर गया है जिसमें हमारे पूरे राष्ट्रीय-सामाजिक वातावरण, गतिविधियों, विमर्श, राजनीति और एकता-अखंडता को गहराई से विभाजित, विषाक्त और विस्फोटक बना देने की संभावनाएँ सामने दिखने लगी हैं।
हिंदू और मुस्लिम, दोनों कट्टरताएँ आमने-सामने खड़ी हो गई हैं। मुस्लिम समाज, विशेषकर युवाओं को, भड़काने के काम में विदेशी और देशी संगठन और शक्तियाँ तो कई दशकों से सक्रिय रही हैं लेकिन उनकी उपस्थिति दबी-छिपी और समय-समय पर छोटी या बड़ी आतंकवादी गतिविधियों में ही दिखती रही है। अब लगता है उनके प्रभाव ने एक महत्वपूर्ण सीमा पार कर ली है। अब वह सार्वजनिक, मुखर और प्रखर है।
इसमें अगर किसी ने उत्प्रेरक के रूप में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है तो वह पिछले तीन-चार दशकों से धीरे-धीरे उग्र और व्यापक होती रहने वाली हिंदू सांप्रदायिकता ने। मैं जानता हूँ इस पर तुरंत क्रुद्ध आवाज़ें उठने लगेंगी कि हिंदू कभी सांप्रदायिक हो ही नहीं सकता, हिंसक हो ही नहीं सकता। लेकिन सच यही है। यह एक ऐसा सतही मिथक है जिसे हर समूह अपनी एक उज्ज्वल आत्मछवि बनाने के लिए गढ़ लेता है। मिथक की विशेषता होती है कि अपने मानने वालों को वह स्वतः प्रमाणित सत्य लगता है और उस पर प्रश्न उठाना अनधिकार चेष्टा लेकिन वहीं दूसरों के ऐसे ही आत्म-निर्मित मिथकों को असत्य मानना, उनका उपहास करना विचित्र और विरोधाभासी नहीं लगता। ‘इस्लाम एक शांतिप्रिय धर्म है’ कहे जाने पर उग्र हिंदूवादी मज़ाक उड़ाते हैं लेकिन यह कहते हुए खुद वे कितने सांप्रदायिक, दुराग्रहों और द्वेष से भरे हुए, मानसिक-शाब्दिक हिंसा का व्यवहार करने वाले बन गए हैं यह उन्हें नहीं दिखता।
सच यह है कि अपनी कमियों को देखने-मानने से बचना और दूसरे की कमियों को बढ़ा-चढ़ा कर देखना-बताना एक सार्वभौमिक मानवीय मनोविज्ञान है। गंभीर और विचारवान व्यक्ति और समूह इससे बच कर ही कुछ श्रेष्ठ सोच और कर पाते हैं।
अस्सी के दशक से धर्म, हिंदुत्व और संस्कृति की एक संकीर्ण परिभाषा की नींव पर हिंदू समाज का जो एकत्रीकरण तीव्र हुआ था वह अब खुले मुस्लिम-इस्लाम विद्वेष में बदल गया है। मुगलों के हिंदू-विरोधी कामों, मंदिरों के ध्वंस, अत्याचारों को ही पिछले १००० साल के भारतीय इतिहास का मुख्य आख्यान बना कर आज के भारतीय मुसलमानों को कटघरे में खड़ा करना धीरे-धीरे देश का सबसे बड़ा विमर्श बना दिया गया है। अतीत को नए सिरे से परिभाषित करने, इतिहास को नए सिरे से गढ़ने का बौद्धिक उद्योग इतना सर पर चढ़ गया है कि आज के नागरिक इतिहास के खलनायक बनाए जा रहे हैं।
हमारी चुनौती इतिहास का पुनर्निर्माण नहीं भविष्य का नवनिर्माण है। अतीत के विवादों को वर्तमान के संघर्ष बनाना अविवेकपूर्ण और आत्मघाती काम है। कुछ समय के लिए कुछ लोगों को ये संघर्ष विजेता होने का दंभ दे सकते हैं लेकिन अंततः इससे सारा देश आहत, दुर्बल और असुरक्षित होता है। लेकिन यह देखने के लिए जो प्रज्ञा चाहिए वह भारतीय संस्कृति की महानता का खोखला उद्घोष करने वाले आज के छद्मनायकों की पहुँच से बाहर दिखती है।
खुले और उच्चस्तरीय राजनीतिक प्रश्रय में फैलते इस मुस्लिम-इस्लाम विद्वेष ने मुसलमानों के शिक्षित और समझदार हिस्सों को भी चुप और युवाओं को उग्र बनाया है। ढाई सौ साल से पनपती हुई मुस्लिम सांप्रदायिकता, अलगाववाद और कट्टरता मज़बूत हुए हैं। यह होना ही था। अपने घर के बच्चे को भी अगर दिन-रात कोसा जाए, अपराधी कहा जाए, उसके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाई जाए तो वह एक दिन माँ-बाप के सामने ही तन कर खड़ा हो जाता है, आक्रामक हो जाता है।
मुसलमानों का बड़ा हिस्सा तो अपने समाज पर मुल्ला-मौलवियों की संकीर्ण व्याख्याओं और अपने नेताओं की विवेकहीन राजनीति के कुप्रभाव के कारण पहले से ही भारतीय समाज में उस तरह कभी समरस नहीं हो पाया जिस तरह अधिकांश दूसरे धर्म जो भारत में आ कर घुल-मिल गए। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता है कि उदार, समझदार, समन्वयवादी मुस्लिम नेतृत्व अपवादों को छोड़ कर कभी इतना प्रबल नहीं हो पाया कि पूरे समाज को सही दिशा में ले जा सके। उनके नेतृत्व ने अपनी विशिष्टताओं और हिंदू समाज से भिन्नताओं को पृथकताओं और पहचान की लड़ाइयों में बदल कर भुनाया।
दोनों ओर की अदूरदर्शिताओं ने आज दोनों समुदायों को आमने-सामने खड़ा कर दिया है। देश एक बेहद नाज़ुक मोड़ पर आ गया है। यह समय दोनों समुदायों के धार्मिक-सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व के लिए चुनौती का है। यह परिस्थिति अपराधियों के साथ विधि-सम्मत सख्ती और बाकी के साथ संतुलन, संयम तथा संवेदनशीलता के साथ संवाद की माँग करती है।
हमें याद रखना होगा कि निर्बाध, अनियंत्रित धार्मिक विद्वेष देश के विभाजन तक चले जाते हैं यह हम एक बार देख चुके हैं।
राहुल देव
११ जून २०२२
TV9Hindi में १२ जून, २०२२ को प्रकाशित
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें