जब 140 टेपों की पहली किश्त बाहर आई और लोगों ने भारतीय मीडिया के सबसे चमकदार नक्षत्रों में से दो – बरखा दत्त और वीर संघवी से सवाल पूछने शुरु किए तो इज्ज़त बचाने के कुछ कच्चे-पक्के तर्क दोनों ने ढूंढ लिए थे। बरखा ने तो माना कि नीयत भले ही ठीक रही हो पर कुछ विवेकहीनता उनसे हुई। संघवी ने चतुराई नहीं छोड़ी और अपने सूचना स्रोतों को टिकाए-टहलाए रखने के लिए नीरा की बातों को सोनिया गांधी और अहमद पटेल तक पहुंचाने के झूठे वादे करने का बचकाना तर्क गढ़ा। नए टेपों ने वह आड़ भी उनसे छीन ली है। नए टेप में वीर संघवी बालसुलभ ललक के साथ नीरा को यह बताते सुने जा सकते हैं कि उन्होंने कैसी चालाकी से अपने साप्ताहिक स्तंभ में नीरा के आसामी (क्लाइंट) मुकेश अंबानी के व्यावसायिक हित को राष्ट्रीय हित का चोला ओढ़ा कर प्रधानमंत्री के नाम अपील का रूप दे दिया है। अपने वीर मित्र की इस कुशल वफादारी से प्रसन्न नीरा मुदित भाव से संघवी को शाबाशी देती हैं।
रतन टाटा अकेले नहीं हैं यह बात उठाने वाले कि राडिया टेपों को लीक और मीडिया में जारी करना उन सभी के निजता के अधिकार का उल्लंघन है जो इन टेपों में हैं। कौन इन गोपनीय टेपों को लीक कर रहा है और किस नीयत से, यह एक वाजिब सवाल है। टाटा इस पर सुप्रीम कोर्ट में गए हैं और कोर्ट ने उनकी अपील को निराधार नहीं माना है। लेकिन चंद लोगों की निजता के उल्लंघन से सैकड़ों गुना बड़े वे सवाल हैं जो इन टेपों के भीतर जो है उससे रोज खड़े हो रहे हैं। ये सवाल हैं हमारे सत्ता-उद्योग-राजनीति और मीडिया तंत्र के असली चरित्र के, उनके आपसी संबंधों के। हमारे तमाम आदरणीयों की कथनी और करनी के अंतर के। मीडिया, खास तौर पर बड़े अंग्रेजी मीडिया महापुरूषों की रीढ़हीनता और दोमुँहेपन के।
इन टेपों को सुनना तकलीफ देता है। ऐसे बहुत से लोग जिन्हें आप तीस साल के पत्रकारीय अनुभव के बावजूद विश्वसनीय और खरा मानते रहे हों जब घोर धंधेबाजों के हाथों की कठपुतलियों जैसे सुनाई दें, उनके कहे पर लिखते, काम करते दिखाई दें तो जुगुप्सा होती है। यह सब जानते हैं कि खुले बाजार की इस विराट आर्थिक-राजनीतिक महामंडी में लगभग सभी या तो दुकानदार हैं या खरीदार या बिचौलिए। लेकिन कुछ कोने ऐसे होते हैं जहां आप विश्वास करना चाहते हैं। कुछ लोग, कुछ पद, कुछ काम ऐसे होते हैं जिनकी ईमानदारी और विश्वसनीयता में भरोसे के बगैर लोक की लोकतंत्र में आस्था नहीं टिक सकती। हम सबके मन में शायद एक कोना होता है जहां हम कुछ अच्छे भ्रमों को, कुछ छवियों को, कुछ नामों-चेहरों के बेदागपन को जिलाए रखना चाहते हैं। उन खुशफहमियों और छवियों का टूटना लोकमन को तोड़ता है। उदास, निराश और कमजोर करता है। राडिया टेपों से निकलता भारत को चलाने वाले तंत्र और लोगों का बदसूरत चेहरा भारत के लोकमन को कमजोर करने वाला है।
राजनीति और कॉर्पोरेट दुनिया के घनिष्ठ अंतर्संबधों के बारे में सब बरसों से जानते हैं। यह रिश्ता लगभग सार्वभौमिक और सार्वकालिक है। बिना बड़े पैसे के राजनीति नहीं होती। पैसा लेकर संसद में सवाल पूछने वाले सांसदों को देश देख चुका है। पैसा लेकर संसद और विधानसभाओं में अपनी निष्ठा और वोट बेचने वाले जनता के प्रतिनिधियों को भी देख चुका है। यह खबर पुरानी हो गई। नई खबर यह है कि औद्योगिक घरानों के दलाल अब केन्द्रीय मंत्रियों को बनवाने की हैसियत रखते हैं। अपने
असामियों के हितों को साधने के लिए बड़े पत्रकारों से मनचाहा लिखवाने, उनका प्रधानमंत्री और उनके सलाहकारों, सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों को संदेश भिजवाने और प्रभावित करवाने में इस्तेमाल करने की हैसियत रखते हैं। नया सच यह है कि अगर आप नीरा राडिया जैसे आक्रामक आकर्षण की प्रतिभा रखते हैं और मुनाफे के महाजाल में सबको फंसाने की कला जानते हैं तो सिर्फ आठ-नौ साल में 300-400 करोड़ का साम्राज्य खड़ा कर सकते हैं। बोलो दलाल स्ट्रीट जिन्दाबाद।
भारत के राजतंत्र का राडियाकरण अब भारत का नया सच है। और इस राडियाकरण के नए खलनायक हैं मीडिया के महापुरूष और महामहिलाएं। लेकिन हमारे लोकतंत्र और आजाद प्रेस की ही महिमा यह भी है कि आज ए. राजा गिरफ्तारी से कुछ ही दूर हैं। नीरा राडिया निरावृत, निरस्त्र और निर्कवच हैं। देश के औद्योगिक सम्मान की ऊंचाइयों पर विराजने वाले रतन टाटा एक दूसरे उद्योगपति-सांसद राजीव चंद्रशेखर के साथ काफी निचले स्तर की सार्वजनिक तू-तू-मैं-मैं में उलझ गए हैं। नैतिकता को अपने व्यावसायिक हितों से ऊपर रखने और व्यावसायिक सच्चरित्रता का अनुकरणीय आचरण करने का टाटा घराने का रिकार्ड धुंधला चुका है। डीएमके के करुणानिधि राजपरिवार की अंदरूनी पारिवारिक दुश्मनियां और खींचतान जगजाहिर हो चुकी है। यह सच भी नया है कि अब केन्द्रीय स्तर के राजनीतिक भ्रष्टाचार में पैसा हजार और लाख करोड़ में कमाया जाता है। दहाई और सैकड़े का भ्रष्टाचार करने वाले राजनीति के फुटकर व्यापारी हैं।
लेकिन शायद इस नए महाभारत का राडिया पर्व जो सबसे तकलीफदेह सच सामने लाया है वह हमारे मीडिया का सच है। सिर्फ एनडीटीवी की बरखा दत्त, हिन्दुस्तान टाइम्स के वीर संघवी और हाल तक इंडिया टुडे के प्रभु चावला ही नहीं देश के कई बहुत बड़े मीडिया घराने, कंपनियां, संपादक और संवाददाता नीरा राडिया और
उनके बहाने टाटा, अंबानी जैसे व्यापारिक घरानों के हितों के लिए सहर्ष काम करते दिखाई देते हैं। इनमें से किसी पर पैसे के लिए काम करने का आरोप हम नहीं लगा सकते। उसके कोई प्रमाण या संकेत भी अब तक जो राडिया टेप हमने सुने हैं उन में नहीं मिलते। इसलिए यह पत्रकारीय भ्रष्टाचार का मामला अभी तक नहीं बना है। लेकिन इससे जो सवाल निकल रहे हैं वे हमारे मीडिया के बुनियादी चरित्र के लिए, हमारी आत्मछवि के लिए जीवन मरण के सवाल होने चाहिए।
उनके बहाने टाटा, अंबानी जैसे व्यापारिक घरानों के हितों के लिए सहर्ष काम करते दिखाई देते हैं। इनमें से किसी पर पैसे के लिए काम करने का आरोप हम नहीं लगा सकते। उसके कोई प्रमाण या संकेत भी अब तक जो राडिया टेप हमने सुने हैं उन में नहीं मिलते। इसलिए यह पत्रकारीय भ्रष्टाचार का मामला अभी तक नहीं बना है। लेकिन इससे जो सवाल निकल रहे हैं वे हमारे मीडिया के बुनियादी चरित्र के लिए, हमारी आत्मछवि के लिए जीवन मरण के सवाल होने चाहिए।
एक निजी पूंजीवादी, बाजार की अर्थव्यवस्था के भीतर, उसी से अस्तित्व और विकास पाते हुए भी समाचार मीडिया से सभी वर्गों के उचित हित में, राष्ट्रीय हित में, लोकहित में काम करने की उम्मीद की जाती है। हमसे निष्पक्षता की, दूसरे सभी तरह के हितों के टकराव में तटस्थता की, पारदर्शिता की और अपने विचारों में ईमानदारी की उम्मीद की जाती है। इसी उम्मीद की वजह से हमारी इज्जत है। इसी उम्मीद से पैदा विश्वसनीयता में हमारी ताकत है। इसी से लोकमन में हमारे लिए थोड़ी बहुत आस्था बनी हुई है। लोकतंत्र को और लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाने में हमारी भूमिका के प्रति कुछ आशा बनी हुई है। हाल के महीनों में ही भारतीय मीडिया ने जिस तीखेपन के साथ, जिस मुस्तैदी के साथ कॉमनवेल्थ खेलों, टेलीकॉम घोटाले वगैरह को उजागर किया है वह हमारे लिए गौरव की बात है। लेकिन राडिया कांड ने हमारे एक बड़े और शक्तिशाली हिस्से के दोमुंहेपन और व्यावसायिक अनैतिकता को बहुत निर्मम ढंग से उघाड़ दिया है।
मीडिया के इस अंधेरे कोनों का रोशनी में आना हमें दुःखी और शर्मिन्दा तो करता है लेकिन इसे हम चाहें तो दवा भी बना सकते हैं। इस कांड ने समूचे मीडिया को एक नए आत्ममंथन के लिए बाध्य किया है। इन कुरूप सच्चाइयों से मुंह चुराना अब संभव नहीं। यह मौका है अपने मीडिया को फिर से साफ करने का। अपने आदर्शों, अपने आचरण और अपने दावों को फिर से एक पटरी पर लाने, उनके बीच की दूरी को मिटाने का। रोशनी गंदगी दिखाती तो है लेकिन अगर गंदगी अंधेरे में अदृश्य ही बनी रहे तो दूर कैसे होगी ?
क्या भारत का मीडिया इस दुखद लेकिन दुर्लभ मौके का फायदा उठाएगा?
(आज समाज में प्रकाशित लेख)
(आज समाज में प्रकाशित लेख)
२८ जनवरी को हंसराज कालेज, दिल्ली में हिन्दी के भविष्य पथ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी में एक सत्र की अध्यक्षता करते हुए उन्होने कहा था कि अगर उनका बस चले तो वे इन पारिभाषिक कोशों को खत्म कर दें। यह नाचीज उनसे पहले बोल चुका था और मेरी कही हुई नादान, मूर्खतापूर्ण बातों के बाद विषय पर ज्ञान का प्रकाश डालने के दौरान उन्होंने यह कहा। उनका कहना था कि मेरे जैसे, डा़ रघुवीर जैसे, कठिन और हास्यास्पद हिन्दी पारिभाषिक शब्दों को गढ़ने वाले शुद्धतावादियों ने हिन्दी का बहुत नुकसान किया है।
मेरा निश्चित मत है कि हिन्दी की दो बहुत महत्वपूर्ण सरकारी संस्थाओं के वरिष्ठतम पदाधिकारी की इस बात को गंभीरता से लेना चाहिए और हिन्दी समाज को इस पर व्यापक बहस चलाकर एक आम राय बनानी चाहिए ताकि हिन्दी के भविष्य पथ की ऐसी सभी रुकावटों को दूर किया जा सके।
आप सब मित्रों से गुजारिश है कि इस बहस को आगे बढ़ाएं, और मुझे बताते रहें।