रविवार, 17 फ़रवरी 2013

इस दुर्लभ, पवित्र क्षण में.....निर्भया की मृत्यु पर


इस दुर्लभ, पवित्र क्षण में....


कम होता है जब करोड़ों ह्दय एक भाव से धड़कते हैं, करोडों दिमागों में एक से विचार दौड़ते हैं, जब सारे देश में दुख-मिश्रित आक्रोश की एक लहर हिलोर लेती है, जब राष्ट्रमानस किसी एक बिन्दु पर एकाग्र हो जाता है। कम होता है जब देश एक हो जाता है। एक अज्ञातनाम बहादुर लड़की ने अपने बलिदान से यह दुर्लभ देशव्यापी एकात्मता पैदा की है।

यह हमारे ऊपर है कि इस क्षण को हम एक निर्णायक मोड़, एक उपलब्धि, एक राष्ट्रीय संकल्प बनाते हैं या केवल उबल कर ठंडा हो जाने के लिए अभिशप्त भावना-ज्वार। यह क्षण है अपने राष्ट्रीय चरित्र को निर्मम होकर समझने का, एक राष्ट्रीय आत्मसाक्षात्कार का, इस अनुभव से सीखने का, सबक लेने का, हाथ बढाने का, हाथ उठाने का, कदम बढ़ाने का, जगने का, जगाने का, पूरी ताकत से बोलने का, ध्यान से सुनने का, अपनी अपनी आत्मा में झांकने का और उन छिपे कोनों, इच्छाओं, वासनाओं, उदासीनताओं, जड़ताओं, भयों, असुरक्षाओं को पहचान कर उनसे आंख मिला कर दोचार होने का जिन्होंने हमें इस शर्मनाक मोड़ पर ला खड़ा किया है।

यह क्षण है अपने क्रोध, आक्रोश और दुख को थाम कर, इकट्ठा कर एक ठोस, धारदार हथियार बनाने का। यह क्षण है अपने राजनीतिक, सामाजिक नेतृत्व की चरम असंवेदनशीलता, आत्ममुग्धता, जड़ता, मूर्खता और हां, कायरता को भी पहचानने का और पहचान कर उन्हें इस पहचान, इस समझ से परिचित कराने का भी। यह क्षण चेतावनी देने का भी है अपने राजनीतिक, प्रशासनिक, पुलिस और न्यायिक तंत्र को कि हम उनसे निराश हैं, क्रुद्ध हैं, कि हमारी सहनशक्ति चुक रही है, कि हम अब और चुपचाप नहीं सहेंगे, चुप और निष्क्रिय नहीं रहेंगे।

यह क्षण यह जानने का भी है कि कितना ही बंटा, बिखरा हुआ, असंगठित हो लेकिन कभी यह देश यह समाज शोक में ही सही एकजुट हो सकता है, मिलकर आवाज उठा सकता है, सड़कों पर उतर कर माहौल और हालात को बदल सकता है। और क्षण यह पहचानने का भी कि जिस युवा को हम आत्मकेन्द्रित, मनोरंजन और करियर-जीवी, सामाजिक सरोकारों से उदासीन, उपभोगवादी आदि मानने के अभ्यस्त हो चले थे वह भारतीय युवा संवेदनशील, जागरूक, मुखर और सक्रिय हो सकता है अगर उसकी अंतरात्मा जग जाए, हिल जाए।

क्षण यह समझने का कि बड़े, गहरे, व्यापक और दूरगामी बदलावों के बिना यह समूची व्यवस्था , यह चरमराता ढांचा किसी दिन किसी जनविस्फोट के आगे ध्वस्त हो जाएगा। ये बदलाव लाने हैं कानूनों में, पुलिस की मानसिकता और तौरतरीकों में, अदालतो, न्यायाधीशों, वकीलों की सोच और कार्यशैली में, विधानसभाओं, संसद, राजनीतिक संस्थाओं, पार्टियों और संगठनों के बुनियादी चरित्र में, सारी राजनीति के चरित्र में, शिक्षा तंत्र के ढांचे और अंतर्वस्तु में। साथ ही बाजार के तौर तरीकों और मीडिया के व्यवहार में।

क्षण इस देश की असंख्य बेटियों, बहनों, मांओं, गृहणियों, पत्नियों से जिनके साथ जाने कितने बलात्कार, हिंसा और अपराध हुए हैं,  क्षमा मांगने का। बिलखती जया भादुड़ी की तरह यह स्वीकार करने का कि हमने इस अपराध के खिलाफ़ इससे पहले इस तरह आवाज नहीं उठाई। उठाते तो कानून ज्यादा सख्त बन गए होते, पुलिस संवेदनशील हुई होती, राजनेता थोड़ा ज्यादा सह्रदय हुए होते, न्याय व्यवस्था ज्यादा चुस्त और ईमानदार हुई होती। उठाते तो आज हमारी शिक्षा व्यवस्था, हमारे विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय हमारे छात्रों और शिक्षकों को स्त्री का आदर करना, लैंगिक समानता, मनुष्य मात्र की गरिमा सिखा चुके होते। हमारी खाप पंचायतें और हमारी पुरुष-प्रधान पितृसत्तात्मक सामाजिक संस्थाएं अपनी सोच और व्यवहार में ज्यादा समतावादी, स्त्रीसमर्थक, विवेकशील और न्यायप्रिय हुई होतीं।

लेकिन अब जब यह क्षण हमारे बीच एक चुनौती बन उपस्थित हो गया तो यह जरूरी है कि हम इसे व्यर्थ न जानें दें। यह तो तय है कि हमारे दर्द को, वेदना को, आहत संवेदनाओं को यह राजनीतिक नेतृत्व अंधा बहरा बन कर कितना ही अनदेखा अनसुना करे लेकिन देश भर में सड़कों पर उमड़ते मौन जुलूसों और मीडिया में गूंजते नारों, सतत प्रसारित छवियों के दबाव की अनदेखी नहीं कर सकता। भले ही हम इस पर कितना आश्चर्य जताएं कि पिछले 13 दिनों में दिल्ली में गैंगरेप की इस एक ह्रदयविदारक घटना और उसकी शिकार लड़की के प्रति उमड़ी करुणा और आक्रोश के देश में एक सात्विक ज्वर की तरह फैलने, न्याय की मांगों के बीच लगभग 800 सांसदों में से 13 भी लोगों के साथ शामिल नहीं हो सके, तथाकथित युवा नेता और कांग्रेस के संवेदनशील युवराज राहुल गांधी कहीं न दिखे न सुने गए सिवा अपने अभेद्य घर के सुरक्षा कवच में मां सोनिया के साथ आंदोलनरत युवाओं के पांच अनाम प्रतिनिधियों से मिलने, उन्हें दिए गए कथित आश्वासन के।  उनकी अमूल्य उपस्थिति और उच्च विचारों से देश वंचित ही रह गया। इस सरकार के युवा सितारे अपने मंत्रालयों, बंगलों में देश चलाने का महान करने में इतना व्यस्त रहे कि सड़कों पर लाठी खाते, ठंड में पानी की तेज बौछारें झेलते युवाओं को नहीं देख पाए, न उनका दुख साझा कर पाए।

अपने संघर्ष और अपने बलिदान से वह लड़की हम सब पर बड़ा उपकार कर गई है। इस राष्ट्रीय शोक के अभूतपूर्व ज्वार में हम अपनी समूची व्यवस्था के अंधे-बहरेपन को उसके नग्नतम रूप में देख पाए हैं। कानूनों, नियमों, राजकीय संस्थाओं और उनकी प्रक्रियाओं के खोखलेपन को देख पाए हैं। अपने राजनीतिक नेताओं की कायरता का साक्षात दर्शन कर सके हैं। साथ ही हम अपने साझा भविष्य के लिए आशा के आसार भी पा सके हैं सड़कों पर उतरे इन किशोरों-युवाओं के जोश, उनके निस्वार्थ, गरिमापूर्ण प्रतिरोध के रूप में। सबसे बड़ा उपकार उसका हम पर यह है कि राष्ट्रीय भावनात्मक रेचन के इस अपूर्व क्षण में हम अपनी निजी और सामूहिक चेतना के पातालों को छू सके हैं, उसके अंधेरे तहखानों में वासना और हिंसा के गंधाते गुर्राते पशुओं का आभास पा सके हैं। शायद यह वह क्षण है जब हम इस दरिंदगी के पीछे की मानवीय चेतना में मौजूद पशुता को पहचान कर परिवर्तन का ऐसा प्रारूप बनाएं जो केवल कानून बनाने, व्यवस्था में सतही सुधार की कवायद के परे जाकर मनुष्य की चेतना के बुनियादी और गहरे स्तर पर परिवर्तन और उसके विकास की भी चेष्टा करे।

हिंसा, काम-वासना, लोलुपता, पशुता और इनके अनंत विकृत रूपों के प्रमाण हमें रोज खबरों में मिलते हैं। ये मनुष्य की चेतना के वे अविभाज्य हिस्से हैं जिनसे इतने हजार सालों की सभ्यताएं, संस्कृतियां, धर्म, साहित्य, शिक्षा, कला आदि मिल कर भी मुक्ति नहीं पा सके हैं। कोई देश, समाज, सभ्यता, धर्म, राज्य व्यवस्था ऐसी नहीं जहां ये प्रवृत्तियां दिखती न हों। जिस समय और समाज में पिता नादान, नाबालिग बेटियों को अपनी पशुता में नहीं छोड़ते वहां कड़े कानून क्या करेंगे ? जब आंकड़े बताते हैं कि 90 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में बलात्कार परिचितों-रिश्तेदारों द्वारा किए जाते हैं तब पुलिस की कड़ी से कडी गश्त और मुस्तैदी स्त्री को कैसे सुरक्षित बनाएगी ? तुरंत और कड़ी सजा का डर एक प्रभावी तत्व है बलात्कार और अपराधों को रोकने का। लेकिन घरों की दीवारों के भीतर करीबी रिश्तेदारों, भाइयों, पिताओं, चाचाओं की कामोन्मत्त पशुता के आगे शायद ये भी उतने कारगर नहीं रहते।

बलात्कार और स्त्री-उत्पीड़न के अधिकांश अभियुक्तों, दोषिओं में एक बात काफी समान दिखती है – ज्यादातर अशिक्षित या अल्पशिक्षित हैं। यह समाधान की एक दिशा भी दिखाता है और यह भी बताता है कि बचपन से बारहवीं या स्नातक तक की शिक्षा मनुष्य को कुछ तो बदलती है। उसे सभ्य बनाने, उसकी पशुता को नियंत्रित करने में एक निश्चित महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह हमें बताता है कि अच्छी शिक्षा मानवीय चेतना के नकारात्मक पक्षों, उसको संचालित करने वाली शक्तिशाली प्रवृत्तियों को संयमित, संतुलित और नियंत्रित रखने में निर्णायक भूमिका निभाती है। इस शिक्षा के बगैर केवल कडे कानून बनाने से काम नहीं चलेगा।

और अंत में हमारे लिए यह देखना भी जरूरी है कि बाजार को भगवान मानने वाली जिस अर्थव्यवस्था को हमने सर्वोत्तम मान खुली बाहों अपना लिया है उसने हर चीज और सेवा को बेचने के लिए सेक्स को विज्ञापनों, लेबलों, छवियों, प्रतीकों, सेलिब्रिटी-संस्कृति के माध्यम से सर्वव्यापी बना दिया है। शराब पीने को दबे छुपे करने की चीज से आम सामाजिक चाल चलन की, आधुनिकता की शर्त बना कर घर घर में पहुंचा दिया है। जो घर, परिवार, स्कूल और वर्ग जितना संपन्न, जितना आधुनिक है उतना ही उसके बच्चे, किशोर नशे के सेवन में लग्न पाए जाएंगे। सेक्स की इस सर्वव्यापी, सर्वभक्षी उपस्थिति और नशे की खुली उपलब्धता और सामाजिक स्वीकार्यता ने हमारे बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के दिलो दिमाग को सेक्स की अदम्य क्षुधाओं से भर दिया है। इस क्षुधाओं में जब शहरी अकेलेपन की कुंठा, आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ेपन की कुंठाजन्य प्रतिहिंसा जुड़ जाती है तो नृशंसता के नए नए रूप सामने आते हैं।

दामिनी, निर्भया, अमानत – उसको कोई भी नाम दें - उस 23 साल की, अदम्य जिजीविषा वाली लड़की ने अपनी शहादत से हमारे भीतर और बाहर की  इन सारी नंगी सच्चाइयों को हमारे आगे कुछ यूं उघाड़ के खड़ा कर दिया है कि अब हम उनसे आंख नहीं मोड़ सकते। उसके प्रति सही श्रद्धांजलि और भारत की बेटियों, बहनों, मांओं को एक सुरक्षित, गरिमापूर्ण जीवन देने की शर्त यही होगी कि हम सरल सतही समाधानों की मरीचिका से बच कर अपनी और राष्ट्र की व्यथित, जागृत अंतरात्मा की गहराइयों में उतर कर गहरे और दूरगामी, गंभीर समाधानों को संभव बनाएं।

राहुल देव
30 दिसंबर 2012

(यह लेख अब पुराना लगेगा। टीवी चैनल लाइव इंडिया की इसी नाम की नई पत्रिका के पहले अंक के लिए संपादक प्रवीण तिवारी के निमंत्रण पर लिखा था। फिर भी उन असाधारण दिनों की याद शायद फिर ताजा हो जाए।)

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011

राजभाषा विभाग का परिपत्र और हिन्दी का भविष्य

अमेरिका से भाषावैज्ञानिक डा. सुरेन्द्र गंभीर की टिप्पणी ------


मान्यवर प्रभु जोशी जी और राहुलदेव जी ने एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर हमारा ध्यान खींचा है।  

भारत में हिन्दी की और न्यूनाधिक दूसरी भारतीय भाषाओं की स्थिति गिरावट के रास्ते पर है। ऐसी आशा थी कि समाज के नायक भारतीय भाषाओं को विकसित करने के लिए स्वतंत्र भारत में  क्रान्तिकारी कदम उठाएंगे परंतु जो देखने में आ रहा है वह ठीक इसके विपरीत है। यह षढ़यंत्र है या अनभिज्ञता इसका फ़ैसला समय ही करेगा।

भाषा के सरलीकरण की प्रक्रिया स्वाभाविक है परंतु वह अपनी ही भाषा की सीमा में होनी चाहिए। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज अंग्रेज़ी और उर्दू के बहुत से शब्द ऐसे हैं जिसके बिना हिन्दी में हमारा काम सहज रूप से नहीं चल सकता। ऐसे शब्दों का हिन्दी में प्रयोग सहज और स्वाभाविक होने की सीमा तक पहच चुका है और ऐसे शब्दों के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के लिए किसी को कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। यह भी ठीक है कि हिन्दी में भी कई बातों को अपेक्षाकृत सरल तरीके से कहा जा सकता है। परंतु यह सब व्यक्तिगत या प्रयोग-शैली का हिस्सा है। विभिन्न शैलियों का समावेश ही भाषा के कलेवर को बढ़ाता है और उसमें सर्जनात्मकता को प्रोत्साहित करता है।

भाषाओं का क्रमशः विकास कैसे होता है और इसके विपरीत भाषाओं का ह्रास कैसे होता है यह अनेकानेक भाषाओं के अध्ययन से हमारे सामने स्पष्ट होकर आया है। भारत में हिन्दी और शायद अन्य भारतीय भाषाओं के साथ जिस प्रकार का व्यवहार होता आ रहा है वह हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की ह्रास-प्रक्रिया को ही सशक्त करके बड़ी स्पष्टता से हमारे सामने ला रहा है। इस ह्रास-प्रक्रिया के बारे में विस्तार से लिखे जाने की आवश्यकता है। 

हम सबको मालूम है कि अंग्रेज़ी का प्रयोग भारत में केवल भाषागत आवश्यकता के लिए ही नहीं होता अपितु समाज में अपने आपको समाज में अपना ऊंचा स्थान स्थापित करने के लिए भी होता है। इसलिेए प्रयोग की खुली छुट्टी  मिलने पर अंग्रेज़ी शब्दों का आवश्यकता से अधिक मात्रा में प्रयोग होगा। दुनिया में बहुत सी भाषाएं लुप्त हुई हैं और अब भी हो रही हैं। उनके विश्लेषण से पता लगता है कि उनके कुछ भाषा-प्रयोग-क्षेत्रों (domians) पर कोई दूसरी भाषा आ के स्थानापन्न हो जाती है और फिर अपने शब्दों के स्थान पर दूसरी भाषा के शब्दों का प्रयोग उस भाषा के कलेवर को क्षीण बनाने लगता है। इस प्रकार विभिन्न विषयों में विचारों की अभिव्यक्ति के लिए वह भाषा धीर धीर इतनी कमज़ोर हो जाती है कि वह प्रयोग के लायक नहीं रह जाती या नहीं समझी जाती । क्षीणता के कारण उसके अध्ययन के प्रति उसके अपने ही लोग उसको अनपढ़ों की भाषा के रूप में देखने लगते हैं और उसकी उपेक्ष करने लगते हैं। यह स्थिति न्यूनाधिक मात्रा में भारत में आ चुकी है।

फिर कठिन क्या और सरल क्या इसका फ़ैसला कौन करेगा। हिन्दी के स्थान पर जिन अंग्रेज़ी शब्दों को प्रयोग  होगा उसको लिखने वाला शायद समझता होगा परंतु इसकी  क्या गारंटी है कि भारत के अधिकांश लोग उस  अंग्रेज़ी प्रयोग को समझेंगे। भाषा-विकास की दृष्टि से यह सुझाव बुरा नहीं है कि हिन्दी शब्दों का प्रयोग अधिकाधिक हो और जहां हिन्दी के कम प्रचलित शब्द लाएं वहां ब्रैकट में उसका प्रचलित अंग्रेज़ी पर्याय दे दें। जब हिन्दी का प्रयोग चल पड़े तो धीरे धीर अंग्रेज़ी के पर्याय को बाहर खींच लें। 

भाषा के समाज में विकसित करने के लिए भाषा में औपचारिक प्रशिक्षण अनिवार्य है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जो बात हम अपनी भाषा में अलग अलग ढंग से और जिस बारीकी से कह सकते हैं वह अंग्रेज़ी में अधिकांश लोग नहीं कह सकते। इसलिए शिक्षा के माध्यम से अपनी भाषा को विकसित करना समाज में लोगों के व्यक्तित्व को सशक्त करने वाला एक शक्तिशाली  कदम है।

भाषा के प्रयोग और विकास के लिए एक  कटिबद्धता और एक सुनियोजित दीर्घकालीन योजना की आवश्यकता है परंतु ये दोनों बातें ही आज देखने को नहीं मिलतीं। दूसरी बात - जिस अंग्रेज़ी के बलबूते पर हम नाच रहे हैं उसमें भाषिक प्रवीणता की स्थिति का मूल्यांकन होना चाहिए। अंग्रेज़ी की स्थिति  जितनी चमकीली ऊपर  से दिखाई देती है वह पूरे भारत के संदर्भ में उतनी आकर्षक नहीं है। लोग जैसे तैसे एक खिचड़ी भाषा से अपना काम चला रहे हैं। हिन्दी की खिचड़ी शैली को एक आधिकारिक मान्यता प्रदान करके हम उसके विकास के लिए नहीं अपितु उसके ह्रास के लिए कदम उठा रहे हैं। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं का विकास तब होगा जब उसके अधिकाधिक शब्द औपचारिक व अनौपचारिक प्रयोग में आएंगे और विभिन्न भाषा-प्रयोग-क्षेत्रों में उसका प्रयोग, मान और वर्चस्व बढ़ेगा। 

सुरेन्द्र गंभीर



2011/10/17 Rahul Dev <rdev56@gmail.com>  

                                                            हिन्दी का ताबूत

हिन्दी के ताबूत में हिन्दी के ही लोगों ने हिन्दी के ही नाम पर अब तक की सबसे बड़ी सरकारी कील ठोंक दी है। हिन्दी पखवाड़े के अंत में, 26 सितंबर 2011 को तत्कालीन राजभाषा सचिव वीणा ने अपनी सेवानिवृत्ति से चार दिन पहले एक परिपत्र (सर्कुलर) जारी कर के हिन्दी की हत्या की मुहिम की आधिकारिक घोषणा कर दी है। यह हिन्दी को सहज और सुगम बनाने के नाम पर किया गया है। परिपत्र कहता है कि सरकारी कामकाज की हिन्दी बहुत कठिन और दुरूह हो गई है। इसलिए उसमें अंग्रेजी के प्रचलित और लोकप्रिय शब्दों को डाल कर सरल करना बहुत जरूरी है। इस महान फैसले के समर्थन में वीणा जी ने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली केन्द्रीय हिन्दी समिति से लेकर गृहराज्य मंत्री की मंत्रालयी बैठकों और राजभाषा विभाग द्वारा समय समय पर जारी निर्देशों का सहारा लिया है। यह परिपत्र केन्द्र सरकार के सारे कार्यालयों, निगमों को भेजा गया है इसे अमल में लाने के लिए। यानी कुछ दिनों में हम सरकारी दफ्तरों, कामकाज, पत्राचार की भाषा में इसका प्रभाव देखना शुरु कर देंगे। शायद केन्द्रीय मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों के उनके सहायकों और राजभाषा अधिकारियों द्वारा लिखे जाने वाले सरकारी भाषणों में भी हमें यह नई सहज, सरल हिन्दी सुनाई पड़ने लगेगी। फिर यह पाठ्यपुस्तकों में, दूसरी पुस्तकों में, अखबारों, पत्रिकाओं में और कुछ साहित्यिक रचनाओं में भी दिखने लगेगी।
सारे अंग्रेजी अखबारों ने इस हिन्दी को हिन्ग्लिश कहा है। वीणा उपाध्याय के पत्र में इस शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। उसमें इसे हिन्दी को सुबोध और सुगम बनाना कहा गया है। अंग्रेजी और कई हिन्दी अखबारों ने इस ऐतिहासिक पहल का बड़ा स्वागत किया है। इसे शुद्ध, संस्कृतनिष्ठ, कठिन शब्दों की कैद से हिन्दी की मुक्ति कहा है। तो कैसी है यह नई आजाद सरकारी हिन्दी ? यह ऐसी हिन्दी है जिसमें छात्र, विद्यार्थी, प्रधानाचार्य, विद्यालय, विश्वविद्यालय, यंत्र, अनुच्छेद, मध्यान्ह भोजन, व्यंजन, भंडार, प्रकल्प, चेतना, नियमित, परिसर, छात्रवृत्ति, उच्च शिक्षा जैसे शब्द सरकारी कामकाज की हिन्दी से बाहर कर दिए गए हैं क्योंकि ये राजभाषा विभाग को कठिन और अगम लगते हैं। यह केवल उदाहरण है। परिपत्र में हिन्दी और भारतीय भाषाओं में प्रचलित हो गए अंग्रेजी, अरबी, फारसी और तुर्की शब्दों की बाकायदा सूची दी गई है जैसे टिकट, सिग्नल, स्टेशन, रेल, अदालत, कानून, फौज वगैरह।
परिपत्र ने अपनी नई समझ के आधार के रूप में किन्ही अनाम हिन्दी पत्रिकाओं में आज कल प्रचलित हिन्दी व्यवहार के कई नमूने भी उद्धृत किए हैं। उन्हें कहा है - हिंदी भाषा की आधुनिक शैली के कुछ उदाहरण। इनमें शामिल हैं प्रोजेक्ट, अवेयरनेस, कैम्पस, एरिया, कालेज, रेगुलर, स्टूडेन्ट, प्रोफेशनल सिंगिंग, इंटरनेशनल बिजनेस, स्ट्रीम, कोर्स, एप्लाई, हायर एजूकेशन, प्रतिभाशाली भारतीय स्टूडेन्ट्स वगैरह। तो ये हैं नई सरकारी हिन्दी की आदर्श आधुनिक शैली। 
परिपत्र अपनी वैचारिक भूमिका भी साफ करता है। वह कहता है कि किसी भी भाषा के दो रूप होते हैं – साहित्यिक और कामकाज की भाषा। कामकाज की भाषा में साहित्यिक शब्दों के इस्तेमाल से उस भाषा की ओर आम आदमी का रुझान कम हो जाता है और उसके प्रति मानसिक विरोध बढ़ता है। इसलिए हिन्दी की शालीनता और मर्यादा को सुरक्षित रखते हुए उसे सुबोध और सुगम बनाना आज के समय की मांग है।
हमारे कई हिन्दी प्रेमी मित्रों को इसमें वैश्वीकरण और अंग्रेजी की पोषक शक्तियों का एक सुविचारित षडयंत्र दिखता है। कई पश्चिमी विद्वानों ने वैश्वीकरण के नाम पर अमेरिका के सांस्कृतिक नवउपनिवेशवाद को बढ़ाने वाली शक्तियों के उन षडयंत्रों के बारे में सविस्तार लिखा है जिसमें प्राचीन और समृद्ध समाजों से धीरे धीरे उनकी भाषाएं छीन कर उसकी जगह अंग्रेजी को स्थापित किया जाता है। और यों उन समाजों को एक स्मृतिहीन, संस्कारहीन, सांस्कृतिक अनाथ और पराई संस्कृति पर आश्रित समाज बना कर अपना उपनिवेश बना लिया जाता है। अफ्रीकी देशों में यह व्यापक स्तर पर हो चुका है।
मुझे इसमें यह वैश्विक षडयंत्र नहीं सरकार और प्रशासन में बैठे लोगों का मानसिक दिवालियापन, निर्बुद्धिपन और भाषा की समझ और अपनी हिन्दी से लगाव दोनों का भयानक अभाव दिखता है। यह भी साफ दिखता है कि राजभाषा विभाग के मंत्री और शीर्षस्थ अधिकारी भी न तो देश की राजभाषा की अहमियत और व्यवहार की बारीकियां समझते हैं न ही भाषा जैसे बेहद गंभीर, जटिल और महत्वपूर्ण विषय की कोई गहरी और सटीक समझ उनमें है। भाषा और राजभाषा, साहित्यिक और कामकाजी भाषा के बीच एक नकली और मूर्खतापूर्ण विभाजन भी उन्होंने कर दिया है।  अभी हम यह नहीं जानते कि किसके आदेश से, किन महान हिन्दी भाषाविदों और विद्वानों से चर्चा करके, किस वैचारिक प्रक्रिया के बाद यह परिपत्र जारी किया गया। अभी तो हम इतना ही जानते हैं कि इस सरकारी मूर्खता का तत्काल व्यापक विरोध करके इसे वापस कराया जाना जरूरी है। यह सारे हिन्दी जगत और देश की हर भाषा के समाज के लिए एक चुनौती है।
राहुल देव

पुनश्च - यह एक संक्षिप्त, फौरी प्रतिक्रिया है। इसका विस्तार करूंगा जल्द।

रविवार, 12 दिसंबर 2010

लोकतंत्र का राडियाकरण

भी तो 5800 में से हजार भी बाहर नहीं आए हैं। नीरा राडिया से देश की कई छोटी-बड़ी हस्तियों से फोन वार्ताओं के टेप ऐसे ही आते रहे तो अंत आने तक राजनीति, सरकार, नौकरशाही, उद्योग, मीडिया के जाने कितने आदरणीयों, स्वनामधन्यों, शक्तियों और सितारों के उजले चेहरों पर कालिख पुत चुकी होगी। भारत में नीरा राडिया और दुनिया में विकीलीक्स के लगभग दैनिक सूचना रिसाव से सत्ता और समृद्धि के मर्मस्थानों में एक बेआवाज़ हाहाकार मचा हुआ है। अभी राडिया के 140 टेपों से उठा गुबार बैठा भी नहीं है और 800 नए टेप सार्वजनिक हो गए हैं।

जब 140 टेपों की पहली किश्त बाहर आई और लोगों ने भारतीय मीडिया के सबसे चमकदार नक्षत्रों में से दो बरखा दत्त और वीर संघवी से सवाल पूछने शुरु किए तो इज्ज़त बचाने के कुछ कच्चे-पक्के तर्क दोनों ने ढूंढ लिए थे। बरखा ने तो माना कि नीयत भले ही ठीक रही हो पर कुछ विवेकहीनता उनसे हुई।  संघवी ने चतुराई नहीं छोड़ी और अपने सूचना स्रोतों को टिकाए-टहलाए रखने के लिए नीरा की बातों को सोनिया गांधी और अहमद पटेल तक पहुंचाने के झूठे वादे करने का बचकाना तर्क गढ़ा। नए टेपों ने वह आड़ भी उनसे छीन ली है। नए टेप में वीर संघवी बालसुलभ ललक के साथ नीरा को यह बताते सुने जा सकते हैं कि उन्होंने कैसी चालाकी से अपने साप्ताहिक स्तंभ में नीरा के आसामी (क्लाइंट) मुकेश अंबानी के व्यावसायिक हित को राष्ट्रीय हित का चोला ओढ़ा कर प्रधानमंत्री के नाम अपील का रूप दे दिया है। अपने वीर मित्र की इस कुशल वफादारी से प्रसन्न नीरा मुदित भाव से संघवी को शाबाशी देती हैं।

रतन टाटा अकेले नहीं हैं यह बात उठाने वाले कि राडिया टेपों को लीक और मीडिया में जारी करना उन सभी के निजता के अधिकार का उल्लंघन है जो इन टेपों में हैं। कौन इन गोपनीय टेपों को लीक कर रहा है और किस नीयत से, यह एक वाजिब सवाल है। टाटा इस पर सुप्रीम कोर्ट में गए हैं और कोर्ट ने उनकी अपील को निराधार नहीं माना है। लेकिन चंद लोगों की निजता के उल्लंघन से सैकड़ों गुना बड़े वे सवाल हैं जो इन टेपों के भीतर जो है उससे रोज खड़े हो रहे हैं। ये सवाल हैं हमारे सत्ता-उद्योग-राजनीति और मीडिया तंत्र के असली चरित्र के, उनके आपसी संबंधों के। हमारे तमाम आदरणीयों की  कथनी और करनी के अंतर के। मीडिया, खास तौर पर बड़े अंग्रेजी मीडिया महापुरूषों की रीढ़हीनता और दोमुँहेपन के।

इन टेपों को सुनना तकलीफ देता है। ऐसे बहुत से लोग जिन्हें आप तीस साल के पत्रकारीय अनुभव के बावजूद विश्वसनीय और खरा मानते रहे हों जब घोर धंधेबाजों के हाथों की कठपुतलियों जैसे सुनाई दें, उनके कहे पर लिखते, काम करते दिखाई दें तो जुगुप्सा होती है। यह सब जानते हैं कि खुले बाजार की इस विराट आर्थिक-राजनीतिक महामंडी में लगभग सभी या तो दुकानदार हैं या खरीदार या बिचौलिए। लेकिन कुछ कोने ऐसे होते हैं जहां आप विश्वास करना चाहते हैं। कुछ लोग, कुछ पद, कुछ काम ऐसे होते हैं जिनकी ईमानदारी और विश्वसनीयता में भरोसे के बगैर लोक की लोकतंत्र में आस्था नहीं टिक सकती। हम सबके मन में शायद एक कोना होता है जहां हम कुछ अच्छे भ्रमों को, कुछ छवियों को, कुछ नामों-चेहरों के बेदागपन को जिलाए रखना चाहते हैं। उन खुशफहमियों और छवियों का टूटना लोकमन को तोड़ता है। उदास, निराश और कमजोर करता है। राडिया टेपों से निकलता भारत को चलाने वाले तंत्र और लोगों का बदसूरत चेहरा भारत के लोकमन को कमजोर करने वाला है।

राजनीति और कॉर्पोरेट दुनिया के घनिष्ठ अंतर्संबधों के बारे में सब बरसों से जानते हैं। यह रिश्ता लगभग सार्वभौमिक और सार्वकालिक है। बिना बड़े पैसे के राजनीति नहीं होती। पैसा लेकर संसद में सवाल पूछने वाले सांसदों को देश देख चुका है। पैसा लेकर संसद और विधानसभाओं में अपनी निष्ठा और वोट बेचने वाले जनता के प्रतिनिधियों को भी देख चुका है। यह खबर पुरानी हो गई। नई खबर यह है कि औद्योगिक घरानों के दलाल अब केन्द्रीय मंत्रियों को बनवाने की हैसियत रखते हैं। अपने
असामियों के हितों को साधने के लिए बड़े पत्रकारों से मनचाहा लिखवाने, उनका प्रधानमंत्री और उनके सलाहकारों, सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों को संदेश भिजवाने और प्रभावित करवाने में इस्तेमाल करने की हैसियत रखते हैं। नया सच यह है कि अगर आप नीरा राडिया जैसे आक्रामक आकर्षण की प्रतिभा रखते हैं और मुनाफे के महाजाल में सबको फंसाने की कला जानते हैं तो सिर्फ आठ-नौ साल में 300-400 करोड़ का साम्राज्य खड़ा कर सकते हैं। बोलो दलाल स्ट्रीट जिन्दाबाद।

भारत के राजतंत्र का राडियाकरण अब भारत का नया सच है। और इस राडियाकरण के नए खलनायक हैं मीडिया के महापुरूष और महामहिलाएं। लेकिन हमारे लोकतंत्र और आजाद प्रेस की ही महिमा यह भी है कि आज ए. राजा गिरफ्तारी से कुछ ही दूर हैं। नीरा राडिया निरावृत, निरस्त्र और निर्कवच हैं। देश के औद्योगिक सम्मान की ऊंचाइयों पर विराजने वाले रतन टाटा एक दूसरे उद्योगपति-सांसद राजीव चंद्रशेखर के साथ काफी निचले स्तर की सार्वजनिक तू-तू-मैं-मैं में उलझ गए हैं। नैतिकता को अपने व्यावसायिक हितों से ऊपर रखने और व्यावसायिक सच्चरित्रता का अनुकरणीय आचरण करने का टाटा घराने का रिकार्ड धुंधला चुका है। डीएमके के करुणानिधि राजपरिवार की अंदरूनी पारिवारिक दुश्मनियां और खींचतान जगजाहिर हो चुकी है। यह सच भी नया है कि अब केन्द्रीय स्तर के राजनीतिक भ्रष्टाचार में पैसा हजार और लाख करोड़ में कमाया जाता है। दहाई और सैकड़े का भ्रष्टाचार करने वाले राजनीति के फुटकर व्यापारी हैं।

लेकिन शायद इस नए महाभारत का राडिया पर्व जो सबसे तकलीफदेह सच सामने लाया है वह हमारे मीडिया का सच है। सिर्फ एनडीटीवी की बरखा दत्त, हिन्दुस्तान टाइम्स के वीर संघवी और हाल तक इंडिया टुडे के प्रभु चावला ही नहीं देश के कई बहुत बड़े मीडिया घराने, कंपनियां, संपादक और संवाददाता नीरा राडिया और
उनके बहाने टाटा, अंबानी जैसे व्यापारिक घरानों के हितों के लिए सहर्ष काम करते दिखाई देते हैं। इनमें से किसी पर पैसे के लिए काम करने का आरोप हम नहीं लगा सकते। उसके कोई प्रमाण या संकेत भी अब तक जो राडिया टेप हमने सुने हैं उन में नहीं मिलते। इसलिए यह पत्रकारीय भ्रष्टाचार का मामला अभी तक नहीं बना है। लेकिन इससे जो सवाल निकल रहे हैं वे हमारे मीडिया के बुनियादी चरित्र के लिए, हमारी आत्मछवि के लिए जीवन मरण के सवाल होने चाहिए।

एक निजी पूंजीवादी, बाजार की अर्थव्यवस्था के भीतर, उसी से अस्तित्व और विकास पाते हुए भी समाचार मीडिया से सभी वर्गों के उचित हित में, राष्ट्रीय हित में, लोकहित में काम करने की उम्मीद की जाती है। हमसे निष्पक्षता की, दूसरे सभी तरह के हितों के टकराव में तटस्थता की, पारदर्शिता की और अपने विचारों में ईमानदारी की उम्मीद की जाती है। इसी उम्मीद की वजह से हमारी इज्जत है। इसी उम्मीद से पैदा विश्वसनीयता में हमारी ताकत है। इसी से लोकमन में हमारे लिए थोड़ी बहुत आस्था बनी हुई है। लोकतंत्र को और लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाने में हमारी भूमिका के प्रति कुछ आशा बनी हुई है। हाल के महीनों में ही भारतीय मीडिया ने जिस तीखेपन के साथ, जिस मुस्तैदी के साथ कॉमनवेल्थ खेलों, टेलीकॉम घोटाले वगैरह को उजागर किया है वह हमारे लिए गौरव की बात है। लेकिन राडिया कांड ने हमारे एक बड़े और शक्तिशाली हिस्से के दोमुंहेपन और व्यावसायिक अनैतिकता को बहुत निर्मम ढंग से उघाड़ दिया है।
  
मीडिया के इस अंधेरे कोनों का रोशनी में आना हमें दुःखी और शर्मिन्दा तो करता है लेकिन इसे हम चाहें तो दवा भी बना सकते हैं। इस कांड ने समूचे मीडिया को एक नए आत्ममंथन के लिए बाध्य किया है। इन कुरूप सच्चाइयों से मुंह चुराना अब संभव नहीं। यह मौका है अपने मीडिया को फिर से साफ करने का। अपने आदर्शों, अपने आचरण और अपने दावों को फिर से एक पटरी पर लाने, उनके बीच की दूरी को मिटाने का। रोशनी गंदगी दिखाती तो है लेकिन अगर गंदगी अंधेरे में अदृश्य ही बनी रहे तो दूर कैसे होगी ?

क्या भारत का मीडिया इस दुखद लेकिन दुर्लभ मौके का फायदा उठाएगा?

(आज समाज में प्रकाशित लेख)







मंगलवार, 16 नवंबर 2010

भारतीय भाषाओं का भविष्य - सम्यक् गोष्ठी - दिल्ली - 19 मई, 2008





Posted by Picasaइंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित गोष्ठी के कुछ चित्र।
उद्घाटन किया दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने। विशेष  अतिथि थे ललित कला अकादमी अध्यक्ष और लेखक अशोक वाजपेयी और अमरीका के पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के हिन्दी प्रोफेसर डा. सुरेन्द्र गंभीर।
सहभागी थे राजधानी के वरिष्ठ लेखक, पत्रकार, अर्थशास्त्री और भाषा प्रेमी।

भारतीय भाषाओं का भविष्य - मुंबई गोष्ठी, मई, २००८


मुंबई में मई 2008 में - भारतीय भाषाओं के भविष्य पर महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी और सम्यक न्यास का संयुक्त परिसंवाद।
स्थान - इंडियन मर्चेंट्स चैंबर, चर्चगेट।
नीचे के सभी चित्र परिसंवाद के।
वक्ताओं में शामिल थे महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष नंद किशोर नौटियाल, मंत्री अनुराग त्रिपाठी, सम्यक न्यास के राहुल देव, अमरीका से आए पेनसिल्वेनिया के हिन्दी प्रोफेसर डा. सुरेन्द्र गंभीर, फिल्मकार महेश भट्ट, स्विस लेखक और पत्रकार बर्नार्ड इमहेस्ली, मनोवैज्ञानिक और लेखिका रशना इमहेस्ली, मुंबई गुजराती समाज के अध्यक्ष, महाराष्ट्र उर्दू अकादमी के उपाध्यक्ष,  कालनिर्णय के प्रकाशक-संपादक जयराज सलगाँवकर, हिन्दी, मराठी, गुजराती, तमिल के लेखक, पत्रकार, विज्ञापनकर्मी और तमाम भाषा प्रेमी। 

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

Learning Hindi is good for your brain


Learning Hindi has an advantage over English-it exercises more areas of the brain compared to the Queen's language.
In a first-of-its-kind study in the country, scientists have discovered that reading Hindi involves more areas of human brain than English.
Scientists at the Manesar-based National Brain Research Centre (NBRC) have for the first time studied the processing of an Indian script-Devanagari-in the human brain using functional Magnetic Resonance Imaging (fMRI).
In Devanagari, consonants are written in a linear left-to-right order and vowel signs are positioned above, below or on either side of the consonants.
As a result, the vowel precedes the consonant in writing certain words but follows it in speech making it a unique script.
"Our results suggest bilateral activation-participation from both left and right hemispheres of the brain-for reading phrases in Devanagari," said Nandini Chatterjee Singh, who led the multi-disciplinary team of researchers.
The human brain does not have dedicated neurological circuits specifically meant for reading.
Therefore, reading involves restructuring of the existing neural architecture or activation of certain areas of the brain depending on the script one is reading.
English, which uses the Roman script, is alphabetic. That is, it has vowels and consonants that are written linearly from left to right. Reading English-and other alphabetic languages-involves activation of areas in the left hemisphere of the brain.
In contrast, Devanagari has the properties of both alphabetic and syllabic scripts. Scientists have found reading the language involves activation of the left and right hemisphere.
The result of the study has recently appeared in journal Current Science. Researchers used the fMRI technique to record images of a working brain while reading Hindi. The study was conducted with individuals who primarily read Devanagari.
"While it is difficult to find in India a population that reads only Hindi and no English, we could manage to find individuals who primarily read Hindi and have been doing so for the last 20 years," Singh said.
In India, she said, children usually learn to read two scripts (often English and a regional language) almost simultaneously in school.
"If this is the best way to teach our children still remains to be determined. What the implications of this are for dyslexia is also something we are investigating. The practical implications of our studies will hopefully emerge in the next few years," Singh added.
(Learning Sanskrit would be even better!
Actually, the title of the report is misleading - it should've been "Learning Devanagari is good for your brain", though presumably the research findings would apply to any Brahmi script.)
 ---------------------