इस दुर्लभ, पवित्र
क्षण में....
कम होता है जब करोड़ों ह्दय एक भाव से धड़कते हैं, करोडों दिमागों में
एक से विचार दौड़ते हैं, जब सारे देश में दुख-मिश्रित आक्रोश की एक लहर हिलोर लेती
है, जब राष्ट्रमानस किसी एक बिन्दु पर एकाग्र हो जाता है। कम होता है जब देश एक हो
जाता है। एक अज्ञातनाम बहादुर लड़की ने अपने बलिदान से यह दुर्लभ देशव्यापी
एकात्मता पैदा की है।
यह हमारे ऊपर है कि इस क्षण को हम एक निर्णायक मोड़, एक उपलब्धि, एक
राष्ट्रीय संकल्प बनाते हैं या केवल उबल कर ठंडा हो जाने के लिए अभिशप्त भावना-ज्वार।
यह क्षण है अपने राष्ट्रीय चरित्र को निर्मम होकर समझने का, एक राष्ट्रीय
आत्मसाक्षात्कार का, इस अनुभव से सीखने का, सबक लेने का, हाथ बढाने का, हाथ उठाने
का, कदम बढ़ाने का, जगने का, जगाने का, पूरी ताकत से बोलने का, ध्यान से सुनने का,
अपनी अपनी आत्मा में झांकने का और उन छिपे कोनों, इच्छाओं, वासनाओं, उदासीनताओं,
जड़ताओं, भयों, असुरक्षाओं को पहचान कर उनसे आंख मिला कर दोचार होने का जिन्होंने हमें
इस शर्मनाक मोड़ पर ला खड़ा किया है।
यह क्षण है अपने क्रोध, आक्रोश और दुख को थाम कर, इकट्ठा कर एक ठोस,
धारदार हथियार बनाने का। यह क्षण है अपने राजनीतिक, सामाजिक नेतृत्व की चरम असंवेदनशीलता,
आत्ममुग्धता, जड़ता, मूर्खता और हां, कायरता को भी पहचानने का और पहचान कर उन्हें
इस पहचान, इस समझ से परिचित कराने का भी। यह क्षण चेतावनी देने का भी है अपने
राजनीतिक, प्रशासनिक, पुलिस और न्यायिक तंत्र को कि हम उनसे निराश हैं, क्रुद्ध
हैं, कि हमारी सहनशक्ति चुक रही है, कि हम अब और चुपचाप नहीं सहेंगे, चुप और
निष्क्रिय नहीं रहेंगे।
यह क्षण यह जानने का भी है कि कितना ही बंटा, बिखरा हुआ, असंगठित हो
लेकिन कभी यह देश यह समाज शोक में ही सही एकजुट हो सकता है, मिलकर आवाज उठा सकता
है, सड़कों पर उतर कर माहौल और हालात को बदल सकता है। और क्षण यह पहचानने का भी कि
जिस युवा को हम आत्मकेन्द्रित, मनोरंजन और करियर-जीवी, सामाजिक सरोकारों से
उदासीन, उपभोगवादी आदि मानने के अभ्यस्त हो चले थे वह भारतीय युवा संवेदनशील,
जागरूक, मुखर और सक्रिय हो सकता है अगर उसकी अंतरात्मा जग जाए, हिल जाए।
क्षण यह समझने का कि बड़े, गहरे, व्यापक और दूरगामी बदलावों के बिना
यह समूची व्यवस्था , यह चरमराता ढांचा किसी दिन किसी जनविस्फोट के आगे ध्वस्त हो
जाएगा। ये बदलाव लाने हैं कानूनों में, पुलिस की मानसिकता और तौरतरीकों में,
अदालतो, न्यायाधीशों, वकीलों की सोच और कार्यशैली में, विधानसभाओं, संसद, राजनीतिक
संस्थाओं, पार्टियों और संगठनों के बुनियादी चरित्र में, सारी राजनीति के चरित्र
में, शिक्षा तंत्र के ढांचे और अंतर्वस्तु में। साथ ही बाजार के तौर तरीकों और
मीडिया के व्यवहार में।
क्षण इस देश की असंख्य बेटियों, बहनों, मांओं, गृहणियों, पत्नियों से
जिनके साथ जाने कितने बलात्कार, हिंसा और अपराध हुए हैं, क्षमा मांगने का। बिलखती जया भादुड़ी की तरह यह
स्वीकार करने का कि हमने इस अपराध के खिलाफ़ इससे पहले इस तरह आवाज नहीं उठाई। उठाते
तो कानून ज्यादा सख्त बन गए होते, पुलिस संवेदनशील हुई होती, राजनेता थोड़ा ज्यादा
सह्रदय हुए होते, न्याय व्यवस्था ज्यादा चुस्त और ईमानदार हुई होती। उठाते तो आज
हमारी शिक्षा व्यवस्था, हमारे विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय हमारे
छात्रों और शिक्षकों को स्त्री का आदर करना, लैंगिक समानता, मनुष्य मात्र की गरिमा
सिखा चुके होते। हमारी खाप पंचायतें और हमारी पुरुष-प्रधान पितृसत्तात्मक सामाजिक
संस्थाएं अपनी सोच और व्यवहार में ज्यादा समतावादी, स्त्रीसमर्थक, विवेकशील और
न्यायप्रिय हुई होतीं।
लेकिन अब जब यह क्षण हमारे बीच एक चुनौती बन उपस्थित हो गया तो यह
जरूरी है कि हम इसे व्यर्थ न जानें दें। यह तो तय है कि हमारे दर्द को, वेदना को,
आहत संवेदनाओं को यह राजनीतिक नेतृत्व अंधा बहरा बन कर कितना ही अनदेखा अनसुना करे
लेकिन देश भर में सड़कों पर उमड़ते मौन जुलूसों और मीडिया में गूंजते नारों, सतत
प्रसारित छवियों के दबाव की अनदेखी नहीं कर सकता। भले ही हम इस पर कितना आश्चर्य
जताएं कि पिछले 13 दिनों में दिल्ली में गैंगरेप की इस एक ह्रदयविदारक घटना और
उसकी शिकार लड़की के प्रति उमड़ी करुणा और आक्रोश के देश में एक सात्विक ज्वर की
तरह फैलने, न्याय की मांगों के बीच लगभग 800 सांसदों में से 13 भी लोगों के साथ
शामिल नहीं हो सके, तथाकथित युवा नेता और कांग्रेस के संवेदनशील युवराज राहुल
गांधी कहीं न दिखे न सुने गए सिवा अपने अभेद्य घर के सुरक्षा कवच में मां सोनिया
के साथ आंदोलनरत युवाओं के पांच अनाम प्रतिनिधियों से मिलने, उन्हें दिए गए कथित
आश्वासन के। उनकी अमूल्य उपस्थिति और उच्च
विचारों से देश वंचित ही रह गया। इस सरकार के युवा सितारे अपने मंत्रालयों, बंगलों
में देश चलाने का महान करने में इतना व्यस्त रहे कि सड़कों पर लाठी खाते, ठंड में
पानी की तेज बौछारें झेलते युवाओं को नहीं देख पाए, न उनका दुख साझा कर पाए।
अपने संघर्ष और अपने बलिदान से वह लड़की हम सब पर बड़ा उपकार कर गई
है। इस राष्ट्रीय शोक के अभूतपूर्व ज्वार में हम अपनी समूची व्यवस्था के
अंधे-बहरेपन को उसके नग्नतम रूप में देख पाए हैं। कानूनों, नियमों, राजकीय
संस्थाओं और उनकी प्रक्रियाओं के खोखलेपन को देख पाए हैं। अपने राजनीतिक नेताओं की
कायरता का साक्षात दर्शन कर सके हैं। साथ ही हम अपने साझा भविष्य के लिए आशा के
आसार भी पा सके हैं सड़कों पर उतरे इन किशोरों-युवाओं के जोश, उनके निस्वार्थ,
गरिमापूर्ण प्रतिरोध के रूप में। सबसे बड़ा उपकार उसका हम पर यह है कि राष्ट्रीय
भावनात्मक रेचन के इस अपूर्व क्षण में हम अपनी निजी और सामूहिक चेतना के पातालों
को छू सके हैं, उसके अंधेरे तहखानों में वासना और हिंसा के गंधाते गुर्राते पशुओं
का आभास पा सके हैं। शायद यह वह क्षण है जब हम इस दरिंदगी के पीछे की मानवीय चेतना
में मौजूद पशुता को पहचान कर परिवर्तन का ऐसा प्रारूप बनाएं जो केवल कानून बनाने,
व्यवस्था में सतही सुधार की कवायद के परे जाकर मनुष्य की चेतना के बुनियादी और
गहरे स्तर पर परिवर्तन और उसके विकास की भी चेष्टा करे।
हिंसा, काम-वासना, लोलुपता, पशुता और इनके अनंत विकृत रूपों के प्रमाण
हमें रोज खबरों में मिलते हैं। ये मनुष्य की चेतना के वे अविभाज्य हिस्से हैं
जिनसे इतने हजार सालों की सभ्यताएं, संस्कृतियां, धर्म, साहित्य, शिक्षा, कला आदि
मिल कर भी मुक्ति नहीं पा सके हैं। कोई देश, समाज, सभ्यता, धर्म, राज्य व्यवस्था
ऐसी नहीं जहां ये प्रवृत्तियां दिखती न हों। जिस समय और समाज में पिता नादान,
नाबालिग बेटियों को अपनी पशुता में नहीं छोड़ते वहां कड़े कानून क्या करेंगे
? जब आंकड़े बताते हैं
कि 90 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में बलात्कार परिचितों-रिश्तेदारों द्वारा किए
जाते हैं तब पुलिस की कड़ी से कडी गश्त और मुस्तैदी स्त्री को कैसे सुरक्षित
बनाएगी ? तुरंत
और कड़ी सजा का डर एक प्रभावी तत्व है बलात्कार और अपराधों को रोकने का। लेकिन
घरों की दीवारों के भीतर करीबी रिश्तेदारों, भाइयों, पिताओं, चाचाओं की कामोन्मत्त
पशुता के आगे शायद ये भी उतने कारगर नहीं रहते।
बलात्कार और स्त्री-उत्पीड़न के अधिकांश अभियुक्तों, दोषिओं में एक
बात काफी समान दिखती है – ज्यादातर अशिक्षित या अल्पशिक्षित हैं। यह समाधान की एक
दिशा भी दिखाता है और यह भी बताता है कि बचपन से बारहवीं या स्नातक तक की शिक्षा
मनुष्य को कुछ तो बदलती है। उसे सभ्य बनाने, उसकी पशुता को नियंत्रित करने में एक
निश्चित महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह हमें बताता है कि अच्छी शिक्षा मानवीय
चेतना के नकारात्मक पक्षों, उसको संचालित करने वाली शक्तिशाली प्रवृत्तियों को
संयमित, संतुलित और नियंत्रित रखने में निर्णायक भूमिका निभाती है। इस शिक्षा के
बगैर केवल कडे कानून बनाने से काम नहीं चलेगा।
और अंत में हमारे लिए यह देखना भी जरूरी है कि बाजार को भगवान मानने
वाली जिस अर्थव्यवस्था को हमने सर्वोत्तम मान खुली बाहों अपना लिया है उसने हर चीज
और सेवा को बेचने के लिए सेक्स को विज्ञापनों, लेबलों, छवियों, प्रतीकों,
सेलिब्रिटी-संस्कृति के माध्यम से सर्वव्यापी बना दिया है। शराब पीने को दबे छुपे
करने की चीज से आम सामाजिक चाल चलन की, आधुनिकता की शर्त बना कर घर घर में पहुंचा
दिया है। जो घर, परिवार, स्कूल और वर्ग जितना संपन्न, जितना आधुनिक है उतना ही
उसके बच्चे, किशोर नशे के सेवन में लग्न पाए जाएंगे। सेक्स की इस सर्वव्यापी,
सर्वभक्षी उपस्थिति और नशे की खुली उपलब्धता और सामाजिक स्वीकार्यता ने हमारे
बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के दिलो दिमाग को सेक्स की अदम्य क्षुधाओं से भर दिया
है। इस क्षुधाओं में जब शहरी अकेलेपन की कुंठा, आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ेपन
की कुंठाजन्य प्रतिहिंसा जुड़ जाती है तो नृशंसता के नए नए रूप सामने आते हैं।
दामिनी, निर्भया, अमानत – उसको कोई भी नाम दें - उस 23 साल की, अदम्य
जिजीविषा वाली लड़की ने अपनी शहादत से हमारे भीतर और बाहर की इन सारी नंगी सच्चाइयों को हमारे आगे कुछ यूं
उघाड़ के खड़ा कर दिया है कि अब हम उनसे आंख नहीं मोड़ सकते। उसके प्रति सही
श्रद्धांजलि और भारत की बेटियों, बहनों, मांओं को एक सुरक्षित, गरिमापूर्ण जीवन
देने की शर्त यही होगी कि हम सरल सतही समाधानों की मरीचिका से बच कर अपनी और
राष्ट्र की व्यथित, जागृत अंतरात्मा की गहराइयों में उतर कर गहरे और दूरगामी,
गंभीर समाधानों को संभव बनाएं।
राहुल देव
30 दिसंबर 2012
(यह लेख अब पुराना लगेगा। टीवी चैनल लाइव इंडिया की इसी नाम की नई पत्रिका के पहले अंक के लिए संपादक प्रवीण तिवारी के निमंत्रण पर लिखा था। फिर भी उन असाधारण दिनों की याद शायद फिर ताजा हो जाए।)