सोमवार, 23 मार्च 2020

कोरोना काल से करुणा काल की ओर


कोरोना शब्द की ध्वनि दो अन्य हिन्दी शब्दों की ध्वनियों से मिलती जुलती है - घृणा तथा करुणा।

भारत के इस कोरोना काल में घृणा संक्रमण का अनुभव भी देश को लगभग उसी समय, उतनी ही व्यापकता और गहराई से हुआ जितना कोरोना वाइरस के बढ़ते हुए वैश्विक प्रकोप और प्रसार का। इस घृणा विषाणु का दंश तो सबसे ज्यादा राजधानी दिल्ली ने झेला लेकिन उसकी आँच सारे देश ने महसूस की।

ध्वन्यात्मक निकटता का दूसरा शब्द करुणा भी घृणा विषाणु के संक्रमण के कुछ समय बाद ही दिखने लगा था। जहां एक ओर गहरी साम्प्रदायिक घृणा और षडयंत्रों से उत्पन्न हिंसा का अभूतपूर्व और अप्रत्याशित तांडव दिल्ली ने देखा वहीं जगह जगह सामान्य भारतीयों की, पड़ोसियों की करुणा भी दिखाई दी। दर्जनों हिन्दुओं और मुसलमानों ने धार्मिक उन्माद का शिकार बनने से इन्कार करते हुए अपने विधर्मी पड़ोसियों, अजनबियों को शरण दी, बचाया, सहायता दी।

और अब हम देख रहे हैं कि कोरोना के आतंक ने भारत में एक नई सामाजिक एकता को खड़ा कर दिया है जहां दो सप्तार पहले तक की आपसी शिकायतें, रंजिशें, राजनीतिक-सामाजिक-साम्प्रदायिक मतभेद अपने आप गौण हो गए हैं। भले ही यह आपदा-जन्य उत्तरजीविता का सहज मानवीय मनोविज्ञान हो लेकिन कोरोना प्रकरण ने हर दूसरी चीज़ और चर्चा को गौण और महत्वहीन कर दिया है।

अखबार, चैनल कोरोनामय हो गए हैं। संक्रमण जैसे जैसे बढ़ रहा है उसके बारे में चिन्ता, चर्चा और जिज्ञासाएं, आशंकाएं भी। स्वाभाविक है कि मीडिया भी अपनी कवरेज उसी अनुपात में बढ़ा रहा है। लेकिन इस भरपूर कवरेज का पूरा संदेश और चेतना अब भी सब जगह बराबर पहुंचे नहीं है। छोटे शहरों, कस्बों की क्या कहें राजधानी दिल्ली के आनंद विहार जैसे इलाकों में सड़कों, बाजारों, स्टेशनों के बाहर लगभग पहले जैसी भीड़ दिख रही है। एक के बाद एक राज्य सरकार लॉकडाउन कर रही है लेकिन टीवी तस्वीरें बताती हैं कि बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने घर से बाहर  न निकलने, मानवीय संपर्क न्यूनतम करने के बुनियादी संदेश को, सामाजिक-शारीरिक दूरी बनाए रखने की अावश्यक सावधानी को गंभीरता से नहीं लिया है। बिहार की राजधानी पटना में बसों की छतों पर बैठे ढेरों यात्रियों के दृश्य चिंताजनक हैं। जनता कर्फ्यू यों तो देश भर में लगभग सफल ही रहा लेकिन पांच बजे अपने अपने छज्जों, छतों पर स्वास्थकर्मियों का ताली-थाली बजा कर अभिनन्दन करने के उत्साह के बावजूद बड़ी, अमीर-उच्चवर्गीय  सोसाइटियों, मोहल्लों में भीड़ जमा कर उत्सव मनाने के दृ्श्य बताते हैं कि लोग अब भी अगंभीर हैं।

इससे सरकारों ने यदि सही सबक नहीं लिया तो सारे लॉकडाउन नाकाम हो जाएंगे। आज भी सारे चैनल और अखबार मिल कर प्रत्येक शहरी नागरिक तक नहीं पहुंत रहे हैं यह कहना तो शायद गलत होगा लेकिन इतनी बड़ी संख्या में नागरिक खबरों की गंभीरता को नहीं समझ रहे हैं, लगातार बताई जा रही सावधानियों, निर्देशों का पालन नहीं कर रहे हैं यह सामूहिक मनोविज्ञान और व्यवहार की गहरी समस्याओं की ओर इंगित करता है। स्पष्ट है कि केवल टीवी चैनलों, अखबारों से काम नहीं चलने वाला। सरकारों, राजनीतिक-सामाजिक-धार्मिक संगठनों को इस युद्ध में लगाना होगा। पुलिस, अर्धसैनिक बलों, स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या भी सीमित है, प्रभाविता भी। उनके लिए प्रत्येक नागरिक तक पहुंचना, लोगों को समझाना  असंभव है। इस अब तक असाध्य महामारी से बचाव की जिम्मेदारी अकेली सरकार की नहीं है। यह समय राज्य शक्ति के साथ साथ भारत की समाज शक्ति की सक्रिय भागीदारी का भी है। राज्य और समाज की सभी ईकाईयों को इसमें इस एक युद्ध समझ कर मैदान में उतरना होगा।

यह समय है कि एक करोड़ से अधिक सदस्यों के साथ विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा, और उसके साथ सारे राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ताओं को ज़मीन पर उतारें। हर सांसद, विधायक, पदाधिकारी आज उन सड़कों, मोहल्लों में दिखने चाहिए जहां जन सामान्य के व्यवहार में पर्याप्त गंभीरता और अन्तर नहीं दिख रहा है। प्रधानमंत्री सारे दलों के पदाधिकारियों की तत्काल बैठक बुला कर उनसे यह अपील करें कि वे अपनी कार्यकर्ताओं को इस काम पर लगाएं। लॉकडाउन को सफल और प्रभावी तभी बनाया जा सकता है जब स्वयं समाज और नागरिक इस काम में जुटें। एक मोहल्ले, एक सड़क, एक बाजार को पूरी तरह बंद करने के लिए भीड़ नहीं अनुशासित और समझदार, स्थानीय स्तर पर प्रामाणिक, सम्मानित और कोरोना संक्रमण के प्रभावी बचाव साधनों से सुसज्जित, प्रशिक्षित  लोगों की सुगठित टुकड़ियां काफी हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अनुशासित, सक्रिय और सुगठित स्वयेंसेवकों का संसार का सबसे बड़ा और अनूठा संगठन है। हर प्राकृतिक आपदा में, युद्ध में उसके स्वयंसेवक राहत और सहायता कार्य में अग्रणी रहते आए हैं। आशा करनी चाहिए कि यह सामाजिक बल हमें जल्दी ही इस नए राष्ट्रीय शत्रु से युद्ध में भी आगे दिखाई देगा।

सामाजिक सक्रियता और सहभाग की ज़रूरत केवल लॉकडाउन को संपूर्ण और सफल बनाने के लिए ही ज़रूरी नहीं है। करोडो़ं गरीबों, दिहाड़ी कमाने वालों, कामगारों, छोटे दूकानदारों पर इसकी भयानक मार पड़नी शुरु हो गई है। और ये महामारी के शुरुआती दिन ही हैं। चंद बड़ी कंपनियों की अपने हर तरह के स्थाई, अस्थाई कर्मियों को पूरा वेतन देने की घोषणाएं निश्चय ही स्वागतेय हैं लेकिन सभी व्यापारी, उद्योगपति ऐसा करेंगे यह आशा नादानी होगी। इतनी करुणा और परदुखकातर उदारता धनी वर्ग आम तौर पर बड़े स्तर पर नहीं दिखाता। लेकिन यह आम दौर नहीं है। यह आशा और उनसे अपील की जानी चाहिए कि इस असाधारण कठिन समय में वे अपने कर्माचारियों की पूरी सहायता करेंगे, यह सुनिश्चित करेंगे कि उनके लिए जीना ही दूभर न हो जाए। और केवल अपने कर्मचारियों को ही नहीं, कोरोना-पीड़ित और प्रभावित साधनहीन लोगों का भी सहारा बनेंगे।

पहले से चली आ रही आर्थिक मंदी के इस क्षण में जब समूचा व्यवसाय जगत, शेयर बाजार हाहाकार कर रहा है, रोजगार जा रहे हैं, गरीबों ओर अल्पआय वर्गों की स्थिति बेहद विकट होने वाली है। इसलिए अगर प्रत्येक समर्थ व्यक्ति और वर्ग ने इनकी मदद नहीं की, उदारता नहीं दिखाई तो यह विभीषिका स्वास्थ्य महामारी ही नहीं आर्थिक सहामारी बन कर ऐसा व्यापक विनाश करेगी कि देश और दुनिया को उबरने में बरसों लग जाएंगे। यह आर्थिक करुणा शक्ति के प्रकट होने का भी है।

इसलिए अब जब घृणा का वाइरस थमा है,  कोरोना संक्रमण धीरे धीरे अप्रतिहत गति से पूरे देश को कब्ज़े में ले रहा है यह समय है करुणा के संक्रमण का। यह सक्रिय करुणा संक्रमण ही कोरोना को हरा सकता है। 

रविवार, 26 जनवरी 2020

नागरिकता संशोधन अधिनियम पर संक्षिप्त वक्तव्य

नागरिकता संशोधन क़ानून पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, गुरुग्राम, के संपर्क विभाग द्वारा आयोजित कार्यक्रम में मंगलवार, २१ जनवरी, २०२० को दिया गया मेरा संक्षिप्त वक्तव्य। यह स्मृति पर आधारित है। इसमें निश्चय ही कई बातें छूटी हैं। जो याद रहा है प्रस्तुत है। यह मुख्य वक्ता के वक्तव्य से पहले दिया गया था। 

"अभी पूर्व वक्ता ने बहुत विस्तार से इस नागरिकता संशोधन एक्ट के बारे में बात की है और मेरे बाद मुख्य वक्ता बोलने वाले हैं इसलिए मैं यहां इस कानून के गुण दोष में नहीं जाऊंगा। इसलिए संक्षेप में कुछ बातें आपके सामने रखूंगा।

मेरा मानना है कि किसी भी चीज़ को चाहे वह क़ानून ही हो उसके व्यापक संदर्भ से काटकर केवल अपने आप में नहीं देखा जा सकता। क़ानून वेदवाक्य नहीं होता और सरकार ईश्वर नहीं होती। इस क़ानून को भी आज के भारत में जो चल रहा है उसके संदर्भ में रखकर ही देखा और परखा जाना चाहिए। हम जानते हैं कि जीवन में और संसार में कुछ भी एकपक्षीय या एकआयामी नहीं होता। हर चीज़ के कई पक्ष होते हैं कई आयाम होते हैं। मैं पत्रकार हूँ और यह मेरा धर्म है कि जिस पर भी बोलूँ या लिखूँ या सोचूँ तो यथासंभव उसके सभी पहलुओं पर ध्यान दूं। 

सबसे पहले मैं आपको बताना चाहता हूँ इस ख़बर के बारे में जो मैंने आज ही पढ़ी यानी वह कल या परसों की घटना है जो बंगलोर में घटी है। वहाँ की एक झील के किनारे क़रीब 3०० परिवारों की एक झुग्गी झोपड़ी बस्ती थी। उसमें वही लोग रहते थे जो हमारे आपके घरों, दूकानों, सड़कों पर छोटे काम करते हैं। कल सुबह बंगलोर नगर पालिका के अधिकारियों और कर्मियों का एक दल वहाँ पहुँचा और उसने पूरी बस्ती पर बुलडोजर चलाकर तीन सौ घरों को ध्वस्त कर दिया।  तीन सौ परिवार बेघर हो गए। कारण यह था कि यह अफ़वाह फैल गई थी कि यह बांग्लादेशियों की बस्ती है। नगरपालिका के लोगों ने अपनी ओर से कोई जांच नहीं की और आकर सब पर बुलडोज़र चला दिया। अब आप देखिए कि जहाँ संदेह और डर होता है तो वहाँ सरकारी अधिकारी भी किस तरह बिना जाँच किए, बिना सूचना की पुष्टि के कैसे काम कर देते हैं। उस बस्ती में एक भी बांग्लादेशी नहीं मिला। उसके आधे निवासी कर्नाटक के ही, बेंगलोर से बाहर के ज़िलों से आए हुए लोग थे और आधे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश आदि से वहाँ काम के लिए गए हुए लोग थे। यह है इस क़ानून का एक सीधा परिणाम। 

इसलिए मैं कहना चाहता हूँ कि इसको एक ही दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। कहा गया कि पैसा देकर लोग बुलाए जा रहे हैं विरोध करने के लिए। मैं मानता हूं इसका विरोध करने वालों में तीन तरह के लोग हैं। विरोध राजनीतिक भी है, प्रायोजित भी है और स्वतःस्फूर्त भी है। सबको एक ही लाठी से हाँकना मैं ठीक नहीं समझता। 

अपने देश में हिंदू मुस्लिम समस्या बहुत पुरानी है। स्वतंत्रता आंदोलन के पहले से चली रही है। स्वतंत्रता के बाद ये दूरियां, खाईयां, भय और संदेह कम नहीं हुए। धीरे धीरे बढ़ते गए हैं।  विभाजन काफ़ी तीखे हो चुके हैं। कई बार लगता है कि विभाजन के समय जिस तरह का आपसी भय-संदेह और द्वेष था कुछ वैसा ही माहौल फिर बन रहा है। ऐसे माहौल में इस तरह के क़ानून के आने से कैसी अप्रत्याशित दुर्घटना घट सकती है यह बंगलोर की घटना बताती है। मैं मानता हूं कि इसे लाने से पहले सभी पक्षों से सरकार को संवाद करना चाहिए था। ख़ासतौर पर मुसलमानों से क्योंकि सबसे ज़्यादा आशंकाएं उन्हें है। 

मैं मानता हूँ कि हर समय हर बात का हल केवल टकराव से, केवल विरोध से नहीं हो सकता। यह हम सब का अनुभव है कि मोहल्ले में भी दो पक्षों में अगर लड़ाई होती है तो अंततः उसका समाधान बातचीत से ही निकलता है। मुझे लगता है सरकार को थोड़ी मुलायमियत से, थोड़ी विनम्रता से उन सभी से बात करनी चाहिए जिनके मन में डर और शक हैं। 

आज के माहौल को देखते हुए यह संवाद बेहद ज़रूरी है। मैं संघ की इस पहल का स्वागत करता हूं और आशा करता हूं कि इस संवाद को और विस्तृत बनाया जाएगा। और इनमें उन्हें भी शामिल किया जाएगा जिनके मन में डर और शक गहरे बैठे हुए हैं।"