रविवार, 26 जनवरी 2020

नागरिकता संशोधन अधिनियम पर संक्षिप्त वक्तव्य

नागरिकता संशोधन क़ानून पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, गुरुग्राम, के संपर्क विभाग द्वारा आयोजित कार्यक्रम में मंगलवार, २१ जनवरी, २०२० को दिया गया मेरा संक्षिप्त वक्तव्य। यह स्मृति पर आधारित है। इसमें निश्चय ही कई बातें छूटी हैं। जो याद रहा है प्रस्तुत है। यह मुख्य वक्ता के वक्तव्य से पहले दिया गया था। 

"अभी पूर्व वक्ता ने बहुत विस्तार से इस नागरिकता संशोधन एक्ट के बारे में बात की है और मेरे बाद मुख्य वक्ता बोलने वाले हैं इसलिए मैं यहां इस कानून के गुण दोष में नहीं जाऊंगा। इसलिए संक्षेप में कुछ बातें आपके सामने रखूंगा।

मेरा मानना है कि किसी भी चीज़ को चाहे वह क़ानून ही हो उसके व्यापक संदर्भ से काटकर केवल अपने आप में नहीं देखा जा सकता। क़ानून वेदवाक्य नहीं होता और सरकार ईश्वर नहीं होती। इस क़ानून को भी आज के भारत में जो चल रहा है उसके संदर्भ में रखकर ही देखा और परखा जाना चाहिए। हम जानते हैं कि जीवन में और संसार में कुछ भी एकपक्षीय या एकआयामी नहीं होता। हर चीज़ के कई पक्ष होते हैं कई आयाम होते हैं। मैं पत्रकार हूँ और यह मेरा धर्म है कि जिस पर भी बोलूँ या लिखूँ या सोचूँ तो यथासंभव उसके सभी पहलुओं पर ध्यान दूं। 

सबसे पहले मैं आपको बताना चाहता हूँ इस ख़बर के बारे में जो मैंने आज ही पढ़ी यानी वह कल या परसों की घटना है जो बंगलोर में घटी है। वहाँ की एक झील के किनारे क़रीब 3०० परिवारों की एक झुग्गी झोपड़ी बस्ती थी। उसमें वही लोग रहते थे जो हमारे आपके घरों, दूकानों, सड़कों पर छोटे काम करते हैं। कल सुबह बंगलोर नगर पालिका के अधिकारियों और कर्मियों का एक दल वहाँ पहुँचा और उसने पूरी बस्ती पर बुलडोजर चलाकर तीन सौ घरों को ध्वस्त कर दिया।  तीन सौ परिवार बेघर हो गए। कारण यह था कि यह अफ़वाह फैल गई थी कि यह बांग्लादेशियों की बस्ती है। नगरपालिका के लोगों ने अपनी ओर से कोई जांच नहीं की और आकर सब पर बुलडोज़र चला दिया। अब आप देखिए कि जहाँ संदेह और डर होता है तो वहाँ सरकारी अधिकारी भी किस तरह बिना जाँच किए, बिना सूचना की पुष्टि के कैसे काम कर देते हैं। उस बस्ती में एक भी बांग्लादेशी नहीं मिला। उसके आधे निवासी कर्नाटक के ही, बेंगलोर से बाहर के ज़िलों से आए हुए लोग थे और आधे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश आदि से वहाँ काम के लिए गए हुए लोग थे। यह है इस क़ानून का एक सीधा परिणाम। 

इसलिए मैं कहना चाहता हूँ कि इसको एक ही दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। कहा गया कि पैसा देकर लोग बुलाए जा रहे हैं विरोध करने के लिए। मैं मानता हूं इसका विरोध करने वालों में तीन तरह के लोग हैं। विरोध राजनीतिक भी है, प्रायोजित भी है और स्वतःस्फूर्त भी है। सबको एक ही लाठी से हाँकना मैं ठीक नहीं समझता। 

अपने देश में हिंदू मुस्लिम समस्या बहुत पुरानी है। स्वतंत्रता आंदोलन के पहले से चली रही है। स्वतंत्रता के बाद ये दूरियां, खाईयां, भय और संदेह कम नहीं हुए। धीरे धीरे बढ़ते गए हैं।  विभाजन काफ़ी तीखे हो चुके हैं। कई बार लगता है कि विभाजन के समय जिस तरह का आपसी भय-संदेह और द्वेष था कुछ वैसा ही माहौल फिर बन रहा है। ऐसे माहौल में इस तरह के क़ानून के आने से कैसी अप्रत्याशित दुर्घटना घट सकती है यह बंगलोर की घटना बताती है। मैं मानता हूं कि इसे लाने से पहले सभी पक्षों से सरकार को संवाद करना चाहिए था। ख़ासतौर पर मुसलमानों से क्योंकि सबसे ज़्यादा आशंकाएं उन्हें है। 

मैं मानता हूँ कि हर समय हर बात का हल केवल टकराव से, केवल विरोध से नहीं हो सकता। यह हम सब का अनुभव है कि मोहल्ले में भी दो पक्षों में अगर लड़ाई होती है तो अंततः उसका समाधान बातचीत से ही निकलता है। मुझे लगता है सरकार को थोड़ी मुलायमियत से, थोड़ी विनम्रता से उन सभी से बात करनी चाहिए जिनके मन में डर और शक हैं। 

आज के माहौल को देखते हुए यह संवाद बेहद ज़रूरी है। मैं संघ की इस पहल का स्वागत करता हूं और आशा करता हूं कि इस संवाद को और विस्तृत बनाया जाएगा। और इनमें उन्हें भी शामिल किया जाएगा जिनके मन में डर और शक गहरे बैठे हुए हैं।"


साहित्य अकादमी व्याख्यान



रविवार, 18 अगस्त 2019

भारतीय भाषाएँ : दशा, दिशा और भविष्य

भारतीय भाषाएं: दशा, दिशा और भविष्य

(नवनीत के लिए अगस्त, २०१९ में लिखित, सितंबर अंक में प्रकाशित)

सारी भारतीय भाषाएं अपने जीवन के सबसे गंभीर संकट के मुहाने पर खड़ी हैं। यह संकट अस्तित्व का है, महत्व का है, भविष्य का है। कुछ दर्जन या सौ लोगों द्वारा बोली जाने वाली छोटी आदिवासी भाषाओं से लेकर 45-50 करोड़ भारतीयों की विराट भाषा हिंदी तक इस संकट के सामने अलग-अलग अंशों में लेकिन लगभग अटल और अपरिहार्य दिखते लोप के सामने निरुपाय खड़ी दिखती हैं। 

भाषाओं का यह संकट अपने दीर्घावधि निहितार्थों और बहुआयामी प्रभावों में भारतीय सभ्यता का संकट बन जाता है। कारण सीधा है। भाषा और संस्कृति,राष्ट्र, राष्ट्बोध और राष्ट्रीयता का गर्भनाल जैसा संबंध है। भाषा इनकी गर्भनाल है। भाषा के बिना किसी समाज/समूह की संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती। संस्कृति की सबसे बड़ी, सबसे प्रभावी और शक्तिशाली वाहिका भाषा ही होती है। भाषा में ही संस्कृति के सबसे महत्वपूर्ण उपादान, उसकी चिन्तन-आध्यात्मिक-ज्ञान-साहित्य-शास्त्रीय-लोक संपदा निर्मित, संचारित और प्रवाहित होती है। संस्कृति के अन्य रूप- साहित्य, ललित कलाएं, गीत संगीत, स्थापत्य, वेशभूषा, खानपान, पर्व त्यौहार, सामाजिक रीतियां, परंपराएं, लोकाचार आदि मुख्यतः भाषा के कारण और माध्यम से ही प्रकट होते हैं।



100 साल पहले 1918 में चेन्नई में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति स्थापित करने वाले महात्मा गांधी और उसके 40 साल बाद भारत के संविधान निर्माताओं ने भाषा संबंधी प्रावधान बनाते समय इसकी दूर-दूर तक कल्पना नहीं की थी कि जिन महान उद्देश्यों, राष्ट्रनिर्माण के जिन सपनों को सामने रखकर उन्होंने यह पुरुषार्थ किए थे, भारतीय राष्ट्र और उसके भविष्य का जो चित्र उन्होंने अपने सामने रखा था उसका साकार रूप 70 साल में ही इतना अलग, इतना विकृत हो जाएगा।  लेकिन हमारी आंखों के सामने आज जो दृश्य है और निकट भविष्य में आकार लेता दिखाई दे रहा है वह इतना विकराल है, गहरे संस्कृतिमूलक आयामों में राष्ट्र निर्माताओं की कल्पना के इतना विपरीत है कि विश्वास नहीं होता। 

ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दासता से मुक्त अपनी मौलिक अंतःप्रेरणा और साभ्यतिक आभा के आलोक में भारत एक बार फिर चमचमाकर खड़ा होगा, अपना नवनिर्माण करेगा वह सपना आज अंग्रेज़ी के ऐसे भाषायी साम्राज्यवाद की जकड़ में है जो दिनोंदिन मज़बूत होती जा रही है। १५० वर्षों के प्रयासों के बाद भी १५% भारतीयों की कार्यभाषा बन सकी, अपने भक्तों के सम्मोहन से प्राण वायु पाती अंग्रेज़ी इस देश की ८५% प्रतिभा, उद्यमिता के उच्चतम विकास के आगे पत्थर की दीवार की तरह खड़ी है। अंग्रेजी़ न जानने के कारण उच्च शिक्षा, ऊंचे अवसरों, रोज़गारों से वंचित करोड़ों युवा प्रतिभाएं आज रोज़ कुंठित, अपमानित होने, अपने आत्मसम्मान, आत्मविश्वास को तिल तिल कर मरते देखने, पिछड़ जाने के लिए अभिशप्त हैं। अंग्रेज़ी से वंचित होना दोयम दर्जे का भारतीय होना है। केवल किसी भारतीय भाषा में जीने-काम करने वाला व्यक्ति अंग्रेज़ी वालों के सामने दीन हो जाता है। इस आत्मदैन्य को अपनी बातचीत में अधिक से अधिक अंग्रेज़ी शब्दों, अभिव्यक्तियों को ढूंसता हिन्दुस्तानी ही आज प्रतिनिधि हिन्दुस्तानी है। 

वर्तमान से अब ज़रा भविष्य में चलते हैं। सन २०५० की कल्पना कीजिए। तब तक हमारा भारत विश्व की एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन चुका होगा। भारतीय प्रतिभा, उद्यमशीलता और हमारी बुनियादी लोकतांत्रिकता विश्वमंच पर भारत का अटल उदय सुनिश्चित कर चुके हैं। चरम गरीबी, कुपोषण, भुखमरी, शैक्षिक-आर्थिक पिछड़ापन बड़ी हद तक मिट चुके होंगे। आम भारतीयों का जीवन स्तर, सुविधाएं काफी ऊपर आ चुके होंगे। देश के ५०-६०% भाग का शहरीकरण हो चुका होगा। आधुनिक सुख सुविधाएं, तकनीकें यंत्र, साधन गांव-गांव तक पहुंच चुके होंगे। सारा देश डिजिटल जीवन पद्धति को बहुत बड़ी हद तक अपना चुका होगा। ब्रॉडबैंड और उसके माध्यम से मिलने वाली अनंत सेवाएं आम हो चुके होंगे।

 अब कल्पना के घोड़े दौड़ाइए और सोचिए - उस भारत के अधिकतर नागरिक अपने जीवन के सारे प्रमुख काम किस भाषा में कर रहे होंगे? पूरे देश में शिक्षा, प्रशासन, व्यापार, शोध, पत्रकारिता, स्वास्थ्य, न्याय जैसे हर बड़े क्षेत्र में किस भाषा का प्रमुखता से उपयोग हो रहा होगा? वह देश भारत होगा, भिंडिया या सिर्फ़ इंडिया? 

 उस इंडिया में संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हमारी बड़ी 22 और 16 सौ से अधिक छोटी भाषाओं-बोलियों की स्थिति क्या होगी? कहां होंगी वे? होंगी भी कि नहीं? 

 मेरा अपना आकलन है कि रहेंगी तो जरूर लेकिन गरीबों की गरीब भाषाएं बनकर। हाशियों की भाषा बन कर। गालियों की भाषा बन कर। गीत-संगीत, मनोरंजन, फिल्में ये भाषाओं में बचे रहेंगे हालांकि इनमें भी तब तक आधी से ज्यादा अंग्रेजी प्रवेश कर चुकी होगी। आज बनने वाली हिंदी फिल्मों में आधी से ज्यादा के शीर्षक अब अंग्रेजी के होते हैं। उनके संवादों में हिंदी नहीं हिंग्लिश ज्यादा होती है। पूरी तरह अंग्रेजी में बनने वाली  फिल्में और नेटफ्लिक्स जैसे आधुनिक मंचों पर भारतीय अंग्रेजी धारावाहिक आम हो चले हैं। यह प्रक्रिया बढ़ती ही जाएगी।

 भाषाई अखबारों, फिल्मों और धारावाहिकों का विस्तार हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैचों का आंखों देखा विवरण भी अब हिंदी व भाषाओं में होने लगा है। इस विस्तार पर मुग्ध भाषायी मीडिया और साहित्यकार  अपनी भाषाओं पर किसी तरह के संकट की बात को अरण्य रोदन कह देते हैं। यह दूरदृष्टिहीनता है। भविष्य देखना है तो बच्चों की ओर देखना चाहिए। बच्चों की जो पीढ़ियां अधिकाधिक अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर बड़ी होंगी वे क्या भाषाई अखबारों, साहित्य, पुस्तकों, टीवी समाचारों की पाठक- दर्शक होंगी? हिंदी के कितने लेखकों, पत्रकारों, राजभाषा अधिकारियों के बच्चे हिंदी माध्यम में पढ़ते हैं? इसलिए आज यह जो विस्तार दिख रहा है अगले 20-25 साल का खेल है। उसके बाद ऊपर से नीचे तक अंग्रेजी का ही वर्चस्व हर क्षेत्र में दिखेगा।

 संसार में लगभग 6000 भाषाओं के होने का अनुमान है। भाषा शास्त्रियों की भविष्यवाणी है कि 21वीं सदी के अंत तक इनमें केवल 200 भाषाएं जीवित बचेंगी।  इनमें भारत की सैकड़ों भाषाएं होंगी। भारत की आदिवासी भाषाओं में 196 तो अभी यूनेस्को के अनुसार ही गंभीर संकटग्रस्त भाषाएं हैं। संकटग्रस्त भाषाओं की इस वैश्विक सूची में भारत सबसे ऊपर है। यूनेस्को का भाषा एटलस 6000 में से 2500 भाषाओं को संकटग्रस्त बताता है। यूनेस्को के पूर्व महानिदेशक कोचिरो मत्सूरा ने  कहा था "एक भाषा की मृत्यु उसे बोलने वाले समुदाय की अमूर्त विरासत, परंपराओं और वाचिक अभिव्यक्तियों का नष्ट हो जाना है।" 

भारत की अनुमानित 1957 में कम से कम 1416 लिपिहीन मातृभाषाएं हैं। ये सब आसन्न संकट में हैं। पर भारत के प्रभु और बुद्धिजीवी वर्ग तथा सामान्य जन को इन छोटी भाषाओं की तो क्या अपनी बड़ी भाषाओं की भी चिन्ता और उनके संकट को देखने समझने, बचाने में कोई रुचि नहीं है।

ये वे विशाल, १० लाख से ज्यादा जनसंख्या वाली भाषाएँ हैं जिन्हें भारत के 90% लोग बोलते बरतते हैं। 

किसी भी समाज में भाषा के नियामक-निर्णायक तत्व क्या हैं? भाषा और समावेशी, समतामूलक, लोकतांत्रिक विकास का क्या संबंध है? भाषा और शिक्षा का क्या संबंध है? भाषा का राष्ट्र, राष्ट्र भाव और राष्ट्र निर्माण से क्या संबंध है? राष्ट्र बोध के केंद्रीय महत्व के इन बिंदुओं पर स्वतंत्रता के बाद भारत में सिर्फ एक बार 1967 में उच्चतम स्तर पर समग्रता से विचार मंथन हुआ था राष्ट्रीय उच्चतर अध्ययन संस्थान, शिमला में। उसके बाद उस तरह का कोई विचार कुंभ भाषाओं की बदलती स्थितियों, चुनौतियों और भविष्य पर हुआ हो ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है।

 इसलिए कोई आश्चर्य नहीं है कि विरल भाषिक समृद्धि और विविधताओं के भारत के पास 70 साल में भी अपनी कोई भाषा नीति नहीं है,  न ही उसको बनाने का कोई गंभीर प्रयास किया गया है। अब भी अगर वह नहीं बनाई गई तो अपनी इस अमूल्य और आधारभूत सांस्कृतिक संप्रभुता से दो-तीन पीढ़ियों में ही वंचित होकर हम पश्चिम, मुख्यतः अमेरिका के सांस्कृतिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक उपनिवेश बन जाएंगे।

 भाषा मनुष्य की श्रेष्ठतम संपदा है। सारी मानवीय सभ्यताएं भाषा के माध्यम से ही विकसित हुई हैं। आदिम समाज तो हो सकते हैं लेकिन आदिम भाषाएं नहीं होतीं। संचार के वाचिक और लिखित माध्यम रूप में यह एक समाज के भावनात्मक जीवन और संस्कृति का सर्वोत्तम उद्घोष है। एक सांस्कृतिक संस्थान होने के कारण यह अपने बोलने बरतने वालों को एक जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में पहचान और अद्वितीयता देती है। जातीयता का एक प्रबल कारक होती है। समाज के सभी क्षेत्रों में- प्रबंधन, प्रशासन, वैज्ञानिक सूचनाओं, शिक्षा और शोध का माध्यम हो या ज्ञान निर्माण का, भाषा विकास का सबसे शक्तिशाली उपकरण है।

 भाषा के विकास को हम उन भूमिकाओं से परिभाषित कर सकते हैं जिन्हें वह अपने समुदाय में निभाती है और  जिन क्षेत्रों में वह प्रमुखता से इस्तेमाल की जाती है। किसी समुदाय में कोई भाषा कितनी प्रतिष्ठा पाती है यह सीधा इस बात पर निर्भर करता है कि वह भाषा अपने समुदाय की कितनी तरह की अभिव्यक्ति-आवश्यकताओं को पूरा करती है - जैसे व्यापार, अर्थतंत्र, तकनीकी, नवाचार, शोध, मौलिक वैज्ञानिक चिंतन,  उद्यमिता, प्रबंधकीय निर्णय आदि। एक बहुभाषी और बहुजातीय समाज में उसकी आधिकारिक भाषा/भाषाएँ सभी सभी वर्गों को तभी स्वीकार्य होती हैं जब वे शिक्षा, आजीविका, व्यवसाय, शोध, तकनीक, नवाचार, विकास और प्रशासनात्मक, प्रबंधकीय निर्णय प्रक्रियाओं की प्रमुख भाषा होती है। 

भाषाओं के संकट से भी बड़ा संकट है उसको न देख पाना।  कमोबेश यह समस्या सारे भाषा समूहों के साथ है। लेकिन हिंदी वालों के साथ तो रोग की हद तक है। बड़े-बड़े हिंदी के विद्वान और पत्रकार प्रतिप्रश्न करते हैं कि जब हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ रही है, हिंदी में सबसे ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, हिंदी फिल्म और टीवी उद्योग बढ़ रहा है तब हिंदी के सामने संकट कैसे हो सकता है? 

संक्षिप्त उत्तर यह है। अब हम वाचिक युग में नहीं लिखित और डिजिटल युग में हैं। इसलिए भाषा का बोली रूप उसे बनाए रखने और बढ़ाने के लिए अपर्याप्त है। यह देखने की बजाय कि हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं को समझने-बोलने वालों की संख्या कितनी बढ़ रही है जो हमें देखना चाहिए वह यह है कि उस भाषा को अपनी इच्छा से पढ़ने-लिखने और सभी गंभीर कार्य क्षेत्रों में व्यवहार करने वाले लोग बढ़ रहे हैं या घट रहे हैं? उस भाषा माध्यम के विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या घट रही है या बढ़ रही है? ज्ञान ग्रहण, ज्ञान निर्माण, भविष्य निर्माण, न्याय,विज्ञान, प्रशासन, व्यापार, प्रबंधन, शोध आदि जीवन के निर्णायक क्षेत्रों में उस भाषा का प्रयोग घट रहा है या बढ़ रहा है?

 सबसे बड़ा प्रश्न जिसे पूछते ही आपके सामने अपनी भाषा का भविष्य साकार खड़ा हो जाएगा यह है - आपकी भाषा की मांग कितनी है? है कि नहीं? घट रही है या बढ़ रही है? इस कसौटी पर हिंदी सहित सारी भारतीय भाषाओं को कसें तो उत्तर बिल्कुल साफ है। आज देश के छोटे से छोटे गांव में गरीब से गरीब व्यक्ति अपने बच्चों के लिए सिर्फ एक भाषा मांग रहा है - अंग्रेजी। किसी भी भारतीय भाषा की मांग नहीं है भारत में। इस बाजार युग में जिस चीज की मांग नहीं है वह कैसे चलेगी, कैसे बचेगी? 

 अभी देश के 30 से 40% बच्चे अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में पढ़ रहे हैं। भले ही कितनी अधकचरी अंग्रेजी वहां पढ़ाई जाती हो, खुद शिक्षकों को ठीक से आती हो या नहीं, यह निर्विवाद रूप से सबका अनुभव है कि जो बच्चा बचपन से एक बार अंग्रेजी माध्यम में पढ़़ गया वह कभी अपने परिवार और परिवेश की, विरासत की भाषा का नहीं होता। उसमें अपनी मातृभाषा/परिवेश भाषा से प्रेम,  लगाव, गर्व की जगह एक हेयभाव और नापसंदगी पैदा होती जाती है जो आयु के साथ बढ़ती ही रहती है। अपनी भाषा से यह दूरी उसे भाषा से परिचित तो बनाए रखती है लेकिन उसमें कुछ भी गंभीर पढ़ने वाला और काम करने वाला नहीं रहने देती। भारत के हर मध्यवर्गीय परिवार की यही स्थिति है।

 10 साल पहले के एक सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार भारत की सभी भाषा-माध्यम विद्यालयों में प्रवेश दर हर साल घट रही थी। सिर्फ दो भाषाएं अपवाद थीं- अंग्रेजी और हिंदी। अंग्रेजी में यह वार्षिक वृद्धि दर 250% से अधिक थी। हिंदी में लगभग 35%। अब जब हिंदीभाषी राज्यों में भी सरकारें हिंदी-माध्यम विद्यालय बंद या बदल कर उन्हें अंग्रेजी-माध्यम करती जा रही है तो हिंदी का भविष्य स्पष्ट है। ठीक यही चीज़ हर प्रदेश में हो रही है।

यूनेस्को के कहने पर विश्व के श्रेष्ठ भाषाविदों ने किसी भी भाषा की जीवंतता और संकटग्रस्तता नापने के लिए 9 कसौटियां निर्धारित की हैं। पहली है, एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी के बीच उस भाषा का अंतरण, जाना कितना हो रहा है? दूसरी कसौटियों में प्रमुख हैं ज्ञान विज्ञान के आधुनिक क्षेत्रों में उस भाषा में काम हो रहा है या नहीं,  घट रहा है या बढ़ रहा है? वह भाषा नई तकनीक और आधुनिक माध्यमों को कितना अपना रही है? उस भाषा के विविध रूपों का दस्तावेजीकरण कितना और किस स्तर का है? उस समाज की महत्वपूर्ण राजकीय/अराजकीय संस्थाओं की उस भाषा के बारे में नीतियां और रुख़ कैसे हैं? अंतिम लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण कसौटी है उस भाषा समुदाय का अपनी भाषा के प्रति रुख़ क्या है, भाव क्या है?

 इनमें से किसी भी कसौटी पर किसी भी भारतीय भाषा को तोल लीजिए तुरंत समझ में आ जाएगा कि भविष्य के संकेत संकट की ओर इशारा करते हैं या विकास-विस्तार की ओर।

एक बार फिर २०५० पर चलते हैं। उस वैश्विक महाशक्ति, आधुनिक, वैश्वीकृत, संपन्न-सबल इंडिया में जब हर नागरिक अपने जीवन का हर महत्वपूर्ण काम सिर्फ अंग्रेजी में कर रहा होगा, उसमें भारत, भारतीयता और भारतीय सभ्यता ने ५०००-६००० वर्ष की अपनी अविच्छिन्न यात्रा में जो समूची साहित्यिक-सांस्कृतिक-ज्ञान-लौकिक-आध्यात्मिक संपदा अर्जित की है वह इस संपदा की निर्मात्री भाषाओं के बिना कैसे जीवंत और जीवित रहेगी, अगली पीढ़ियों तक कैसे पहुंचेगी? क्या अंग्रेज़ी यह कर सकती है? 

रंगरूप में भारतीय लेकिन दिलो-दिमाग, जीवन शैली, सोच-संस्कार से अमेरिका के उन नकलची नागरिकों का भारत-बोध, अपनी साभ्यतिक ऊंचाईयों-विरासत की स्मृति, सांस्कृतिक संप्रभुता का अहसास कैसा होगा? 

 कम से कम मुझे स्पष्ट दिखता है कि समूची भारतीय सभ्यता लोप, विस्मृति और भयानक हाशियाकरण की कगार पर खड़ी है। उसके पास शायद सिर्फ दो पीढ़ियों का समय है बचने के लिए। यानि हमारी और हमारे बच्चों की पीढ़ी आज अगर चाहे, राजसत्ता को बुद्धि आ जाए, समूचा राष्ट्र संकल्पबद्ध हो, राष्ट्रीय और निजी महत्व के हर क्षेत्र में भारतीय भाषाओं को स्थापित करने में जुटे तो इस प्रक्रिया को हम रोककर उलट सकते हैं। वरना शैशव से ही अंग्रेजी/अंग्रेज़ियत में पली, पढ़ी और बढ़ी पीढ़ियां चाहेंगी भी तो इस संपदा और सभ्यता को पुनर्जीवित करना उनके लिए असंभव नहीं तो असंभव जैसा जरूर होगा।

 यहां महत्वपूर्ण हो जाती है प्रत्येक भाषा में काम करने,, लिखने वाले साहित्यकारों-लेखकों-विद्वानों- बुद्धिजीवियों-शिक्षाविदों, मीडिया, पत्रकारों और संपूर्ण नागर समाज की भूमिका। यही वे वर्ग हैं जो अपने अपने क्षेत्रों में, अपने भाषा समाज में एक विमर्श उत्पन्न करते हैं, चिंतन को आगे बढ़ाते हैं, महत्वपूर्ण चिंताओं,संकटों और सरोकारों के प्रति समाज को जागरूक करते हैं।

कमाल यह है कि ऐसे अभूतपूर्व प्राणांतक संकट से देश का लगभग समूचा नियंता प्रभु वर्ग, नीति निर्माता, बुद्धिजीवी, शिक्षाविद, राजनीतिक दल, संसद, विधानसभाएं, सरकारें, मीडिया और व्यापक नागर समाज अनभिज्ञ और इसलिए उदासीन दिखते हैं।  इस विराट सभ्यतामूलक संकट का मुख्य कारण, उस का सबसे बड़ा स्रोत सीधा और स्पष्ट है - अंग्रेज़ी । और उसके प्रति हमारा शर्मनाक दासतापूर्ण और शर्मनाक सम्मोहन। 


 भारतीय चरित्र इजराइली चरित्र जैसा नहीं है जिसने 2000 साल से मृत पड़ी हिब्रू को आज वैज्ञानिक शोध, नवाचार और आधुनिक ज्ञान निर्माण की श्रेष्ठतम वैश्विक भाषाओं में एक बना दिया है। जिसके बल पर 40 लाख की जनसंख्या वाला इजरायल एक दर्जन से ज्यादा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार जीत चुका है। सारे इस्लामी देशों की शत्रुता के बावजूद अपनी पूरी अस्मिता, धमक और शक्ति के साथ अजेय बना विश्व पटल पर विराजमान है। विश्व गुरु बनने के सपने देखता भारत चाहे तो इजराइल से प्रेरणा ले सकता है।

अथ खान मार्केट कथा

यह कहना कठिन है कि उनके मन में खान प्रमुख था, मार्केट या फिर खान मार्केट नाम की भौगोलिक ईकाई, एक इलाका। तीनों शब्दों से अलग अलग निहितार्थ निकलते हैं, खास तौर पर तब जब उनके साथ गैंग यानी गिरोह जोड़ दिया जाए। 
आज स्थिति यह है कि खान मार्केट गैंग एक खास, खासा रंगीन और साथ ही गंभीर राजनीतिक मुहावरा बन गया है। शुद्ध राजनीतिक रणनीति के एक प्रबल वाकशस्त्र के रूप में यह लाजवाब रचनात्मक और मौलिक आविष्कार है। इसका पहला अवतार लुटियंस गैंग के नाम से जाना जाता था। लुटियन का टीला, लुटियंन की दिल्ली - ये शब्द प्रयोग भी लगभग दो दशक चलते रहे। लेकिन वे सीमित रहे। उनका न तो ऐसा व्यापक प्रभाव हुआ जैसा इस बार हुआ और न ही देश की जनता लुटियंन शब्द का अर्थ और संदर्भ समझती थ। खुद दिल्ली वालों में भी कम ही जानते हैं कि नई दिल्ली, विशेषतः राष्ट्रपति भवन, संसद भवन सहित कई महत्वपूर्ण इमारतें ब्रिटिश स्थापत्यकार एडविन  ल्यूटियेन्स की देन हैं। लेकिन यह ताजा मुहावरा ज्यादा व्यापक, ज्यादा प्रभावी, ज्यादा मूर्त और मारक सिद्ध हुआ है। 
खान मार्केट दक्षिण दिल्ली के संभ्रांततम इलाकों में वह बाजार है जो सीमान्त गांधी खान अब्दुल गफ्फार के भाई और स्वतंत्रता सेनानी जब्बार खान के नाम पर बना था। मूलतः यह विभाजन के बाद आए विस्थापित परिवारों के लिए बनाया गया रिफ्यूजी इलाका था जिसमें नीचे दुकानें थीं, ऊपर घर। धीरे धीरे अपने चारों ओर उग आई वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों की कालोनियों, विदेशी राजनयिकों के घरों और विभाजन के बाद पनपे दिल्ली के बड़े नवधनाढ्यों के वैभवशाली घरों से घिर कर पंजाबी शरणार्थियों की यह खान मार्केट आज भारत के सबसे महंगे दामों वाला बाजार बन गया है। अब यह पर्यायवाची है अंग्रेजीभाषी, महानगरीय, अमीर, वैश्विक जीवनशैलियों वाले फैशनपरस्त अभिजनों की पसंदीदा जगह का। 
लेकिन नरेन्द्र मोदी की 2019 की अप्रत्याशित रूप से बड़ी, ऐतिहासिक विजय के अगर दो प्रमुख कारणों को चुनना हो तो उनमें इस एक पते से राजनीतिक हथियार बन गए मुहावरे को चुनना पडेगा। दूसरा कारण हिन्दू मानस है जिसने इस बार जाति, क्षेत्र आदि की पारंपरिक राजनीतिक दीवारों को ढहा दिया। लेकिन वह अपने आपमें एक अलग विवेचन का विषय है। 
तो क्या है यह खान मार्केट गैंग?
यह एक ऐसे अखिल भारतीय वर्ग का प्रतीक है जो मोदी के शब्दों में भारत पर दशकों से राज कर रहा था। संभ्रांत, अमीर, कुलीन, अंग्रेजी जुबान, दिलो-दिमाग और तौर तरीकों वाले नई दिल्ली के चार-पांच वर्ग किमी में रहने, घूमने फिरने वाले इस छोटे से क्वब के सदस्य हैं खानदानी अंग्रेजीदां रईस, बड़े सरकारी अधिकारी, अंग्रेजी अखबारों, चैनलों के संपादक-स्तंभकार, बुद्धिजीवी, कुछ चुनिंदा अमीर और युवा राजनीतिक राजकुमार और राजकुमारियां, ऊंचे नीति निर्माता, जीवनशैली से रईस लेकिन विचारधारा से वामपंथी या वाम रूझान के केन्द्रवादी यानी कांग्रेस संस्कृति में रचे बसे, पुष्पित पल्लवित सांस्कृतिक, बौद्धिक, अकादमिक मठाधीश। 
यह वह क्वब है जो अब तक अधिकतर सरकारी नीतियां तय करता था, देश के बौद्धिक-सांस्कृतिक-कला-राजनीतिक-मीडिया विमर्श को संचालित और नियंत्रित करता था। इसमें  कुछ क्षेत्रीय कुलीन और विशिष्ट लोग भी शामिल हैं लेकिन मुख्यतः ये दिल्ली के लुटियन ज़ोन में रहने वाले लोग हैें। इनकी प्रमुख भाषा और बौद्धिक संसार एक है- अंग्रेजी। इनकी पसन्द-नापसन्द आधुनिक पश्चिमी ढंग की राजसी अभिरुचियों वाली है। इनके संपर्कसूत्र देश और विदेश के आर्थिक शक्ति केन्द्रों, बहुराष्ट्रीय संस्थाओं, वैश्विक स्वयंसेवी संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, थिंक टैंकों में फैले हुए हैं। 
विचारधारा और दृष्टिकोण में यह वर्ग वाम/केन्द्रवाद प्रभावित उदारवादी है। इसके नैतिक मानदंड पश्चिमी उदारवाद निर्मित हैं। सामाजिक संवेदनशीलताएं अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी जीवनशैली से प्रभावित और आधुनिक-वैश्विक ढंग-ढर्रे वाली हैं। धार्मिक कर्मकांड, पारंपरिक संगठित हिन्दू निम्न और मध्यवर्ग के तौर तरीके, तीज त्योहार, संवेदनशीलताएं, पौराणिक मान्यताएं और आस्थाओं को यह वर्ग कभी हिकारत, कभी संग्रहालयी नमूनों की तरह विरक्त कौतूहल और उदासीनता या अधिक से अधिक एक तटस्थ अकादमिक जिज्ञासा से देखता है। उसके आध्यात्मिक शौक अंग्रेजीभाषी आधुनिक धर्मगुरुओं से मिलने जुलने, सुनने पढ़ने से पूरे होते हैं। उसके प्रिय आध्यात्मिक गुरु हैं श्री श्री रविशंकर, जग्गी वासुदेव जो अब सिर्फ सद्गुरु नाम से लोकप्रिय हैं। उनसे पहले स्वामी चिन्मयानन्द, अमरीका वासी दीपक चोपड़ा आदि रहे हैं। 
इस वर्ग के प्रांतीय अध्याय भी हैं। ये प्रदेशों की राजधानियों, व्यावसायिक शहरों में केन्द्रित हैं। इनमें वह नवधनाढ्य युवा भी शामिल है जो अपनी  मंहगी कारों, घरों, प्रदर्शनीय वैभव से अपने अपने प्रदेशों-शहरों में रईसी शानोशौकत के द्वीपों जैसे रहते विचरते हैं स्थानीय अंग्रेजी-परस्त बुद्धिजीवियों के साथ। 
अब तक इस वर्ग की चमक, धमक, ताकत, ग्लैमर, प्रतिष्ठा, वैभव को इन सबसे वंचित वह अपार जनसमूह, विशेषतः युवा, देखता रहा है जो टीवी और स्मार्टफोन की कृपा से इस स्वप्नवत संसार और नवकुबेरों के अस्तित्व और हैसियत का परिचयय तो पा चुका है लेकिन उनके क्वब में प्रवेश की सोच भी नहीं सकता ।  इस जनसमूह का अपना जीवन अभाव, संघर्ष, रोज़ रोजी-रोटी की आत्महीन, गरिमाहीन कश्मकश भरी लड़ाई, झुग्गियों, संकरी गलियों में घनी बसी गंदी, नीमअंधेरी, अराजक बस्तियों मोहल्लों, छोटी नौकरियों, स्वरोजगारों, सस्ते मनोरंजन, फिल्मी सितारों की भोंडी नकल करते सस्ते फैशन वाले कपड़ों, भीड़ भरी बसों, टेम्पो, साइकिलों, शहरी सस्ते ढाबों के भोजन से बनता है। 
भारत की भीषण, और बढ़ती हुई आर्थिक, सामाजिक असमानता ने इस वंचित भारत को इंडिया के वैभव और शक्ति के प्रति ईर्ष्या, उसकी अप्राप्यता से उत्पन्न कुंठा और सतह के नीचे कुलबुलाते आक्रोश, एक दबी हुई घृणा तथा प्रतिहिंसा की आहटों से धीरे धीरे भर दिया है। उसकी अपनी भाषा तक उसे इस अंग्रेजीदां वर्ग से सीधा सादा गरिमापूर्ण मानवीय संवाद तक बना पाने में असमर्थ बनाती है। एक हीनताबोध और दैन्य से भरती है। इस वर्ग की अपनी भाषाएं- हिन्दी, मराठी, पंजाबी, हरियाणवी, भोजपुरी, बुंदेली, मराठी आदि अपने अपने क्षेत्रों में राजनीतिक रूप से सर्वशक्तिशाली हैं लेकिन वह राजनीतिक ताकत संसद और विधानसभाओं, राजनीतिक रैलियों और देशी नेताओं में संवाद में कुछ भागीदारी का संतोष तो देती है पर असली शक्ति के इस अंग्रेजीमय लघु संसार में प्रवेश का अधिकार और साहस नहीं देती। 
नरेन्द्र मोदी इसी वर्ग से उठ कर आए हैं। अपनी असाधारण प्रतिभा, जिज्ञासा, मौलिकता, तकनीकप्रियता और आश्चर्यजनक ढंग के अपने लक्ष्य-केन्द्रित पुरुषार्थ के बल पर वह आज ऐसी जगह पहुंचे हैं जहां ये सारे कुलीन, अमीर, अंग्रेजीदां अभिजात लोग अचानक अप्रासंगिक और बौने हो गए हैं। इन दोनों वर्गों के मनोविज्ञान की विस्मयकारी, नैसर्गिक पकड़ मोदी ने दिखाई है। दोनों की नब्ज़ वह जानते हैं। अपने 12 वर्षों के गुजरात के मुख्यमंत्रित्व में उन्होंने इन धनीधोरियों को खूब ठीक से समझा परखा है और उन्हें अपने हितों के लिए साधने में महारत हासिल की है। लेकिन यह वर्ग वोट नहीं दिलाता। वोट दिलाने वाले उस वंचित, विषमताजनित गरीब और निम्न-मध्यवर्गीय वर्ग का मन वह स्वयं अपने जिए हुए अनुभव से जानते हैं। 
वंचितों और वैभवशालियों के इस अंतर को जितनी चतुराई और प्रभावी ढंग से नरेंद्र मोदी ने अपने समर्थन के लिए साधा है वैसा आज तक कोई नहीं कर पाया था।  'कामदार' और 'नामदार' शब्दों का लगातार प्रभावी इस्तेमाल करके उन्होंने अपने को अपने काम के बल पर ऊपर उठने वाले और अपना जीवन बनाने वाले वंचित वर्ग से जुड़ा और राहुल गांधी जैसे पैतृक शक्ति और वैभव पाने वाले अभिजात लोगों को 'खान मार्केट' के रूपक का इस्तेमाल करके एक कटघरे में खड़ा कर दिया। 
 2014 की उनकी जीत ही यह प्रमाणित कर चुकी थी कि अपने सारे बौद्धिक और सामाजिक श्रेष्ठता के दावों और आत्म छवि के बावजूद यह समूचा वामपंथी अंग्रेजी भाषी बौद्धिक वर्ग देश के बहुसंख्यक जनमानस, मुख्यतः हिन्दू मानस, की नब्ज़ को पकड़ने में घोर असफल रहा है। राष्ट्रवाद बनाम आतंकवाद की बहस को देश के हर मुद्दे के ऊपर रखने में और उस के बल पर जीत हासिल करने में उन्होंने एक बार फिर से इस वर्ग की बौद्धिक अक्षमताओं, पूर्वप्रतिज्ञाओं, मान्यताओं और अहंकार को धूल चटाई है। इसके साथ ही यह तो कहना ही पड़ेगा कि इस जीत की नींव हिंदू राष्ट्रवाद के भाव को हर दूसरी भावना और विचार से ज्यादा प्रबल और शक्तिशाली बनाकर रखी गई है। जब चुनावी रणभूमि को इस ढंग से निरूपित किया जाए तो एक तरफ वंशवाद की विरासतवादी, अभिदात राजनीति के प्रतीक राहुल गांधी, उनकी पार्टी तथा उनके सहयोगी तथा दूसरी ओर देश के श्रमशील, अपने संघर्ष के बल पर विकसित होने और ऊपर उठने के लिए छटपटाते  वंचित भारतीयों के बीच कोई मुकाबला रह ही नहीं सकता था।

 और अब इस 'खान मार्केट गिरोह'  के सामने बड़ी चुनौती यह खड़ी है कि वह अगले 5 साल यह समझने में गुजारे कि उनकी सारी समझ, आकलन के तौर तरीके, जन मन को समझने की क्षमता इतने दशक तक भारत के बौद्धिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, प्रशासनिक क्षेत्रों में लगभग एकछत्र साम्राज्य के पैरों तले की जमीन खिसक कर कहां चली गई और कैसे।

बीबीसी हिन्दी के लिए लिखा लेख।