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शनिवार, 11 सितंबर 2021

भारतीय भाषाएँ किधर जा रही हैं?

 नवनीत की आवरण कथा के लिए, सितंबर अंक में प्रकाशित।

भारतीय भाषाएँ किधर जा रही हैं?

 

भारतीय भाषाएँ किधर जा रही हैं? कैसे भविष्य की ओर अग्रसर हैं? अगले २५-५०-१०० साल बाद वे किस हाल में होंगी? 

इसका जवाब कोविड की शब्दावली और सबके ताज़े अनुभव के मुहावरे में देता हूँ।  अभी वे अंग्रेज़ी वाइरस-संक्रमण की दूसरी अवस्था में हैं।सबको कुछ-कुछ भाषिक हरारत, बदन दर्द, हल्की खाँसी जैसे लक्षण महसूस होने लगे हैं।

२५ साल बाद यानी हमारी स्वतंत्रता के १०० साल होने के समय तक ये भाषाएँ अस्पताल में पहुँच चुकी होंगी। 

५० साल में वे सघन चिकित्सा ईकाई यानी आईसीयू में होंगी।

१०० साल में वेंटीलेटर में होंगी और उन्हें कृत्रिम तरीकों से किसी तरह नाममात्र के लिए जीवित रखा जा रहा होगा। 

सारी छोटी भाषाएँ जैसे जनजातीय भाषाएँ कब की भाषा संग्रहालयों में पहुँच चुकी होंगी। उनके जीवाष्मों को कुछ सिरफिरे भाषा-प्रेमी टूटे दिलों के साथ शोध आदि करके उनकी स्मृति को जीवित रखने के प्रयास कर रहे होंगे।

वे जनपदीय भाषाएँ जिन्हें आज कई लोग गलती से बोलियाँ कहते हैं और जिनके पास बोलने 

वालों की विशाल संख्या होने के बावजूद प्रभावी राज्य संरक्षण और सांस्थानिक-सामाजिक 

समर्थन नहीं है या घट रहा है वे शायद बूढ़ों की स्मृतियों में, गीत-संगीत-साहित्य की रिकार्डिंग में 

कम से कम सुनी जा सकेंगी। लेकिन वे आज की तरह जीवन्त, धड़कती हुई जिंदा जुबानें नहीं होंगी।

इसके आगे के अनुमान लगाना व्यर्थ है। 

भाषाओं की उम्र मनुष्य की उम्र की तुलना में सैकड़ों-हज़ारों गुना लंबी होती है। इसलिए २०० साल से उनके भीतर घुसा हुआ अंग्रेज़ी का विषाणु धीमे-धीमे बढ़ता हुआ अब महसूस होने वाले लक्षण दिखाने लगा है। इस बीच उसने विकास के कई चरण पार किए हैं। 

चीन की वूहान प्रयोगशाला कोविड का उद्गम है कि नहीं इस पर तो अभी विवाद और संशय है लेकिन भारत तथा पश्चिमी उपनिेवेशवाद-साम्राज्यवाद के शिकार पूर्व-गुलाम देशों-समाजों में अंग्रेज़ी और दूसरी औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी भाषाओं की तरह इस भाषा कोविड वाइरस के उद्गम के बारे में कोई शंका नहीं है। सारा संसार जानता है। 

सवाल होगा- शरीर के कोविड की तरह क्या इसका कोई टीका तब तक नहीं आ चुका होगा? क्या पूरा इलाज करके वाइरस को मार देने या पूरी तरह बेअसर  कर देने वाली दवा तब तक ईजाद न हो चुकी होगी? 

उत्तर यह है कि टीका अस्तित्व में आ चुका है। वैसे तो वह कभी भी अनुपस्थित नहीं था। लेकिन बीमारी जब ऐसी हो जो दशकों तक बिना ऊपरी लक्षणों के रह सकती हो या जिसके लक्षण तो मौजूद हों लेकिन घर वालों और चिकित्सकों को उदासीनता, असंवेदनशीलता और अज्ञान के कारण दिखें ही नहीं तो टीकों-इलाज का होना बेमानी हो जाता है। 

दूसरे, इस विषाणु के संक्रमण की विशेषता यह है कि यह संक्रमितों को भीतर से धीरे-धीरे कमज़ोर करते हुए बाहर से सुख, आनन्द और शक्ति-सामर्थ्य का ऐसा मादक नशा देता है जैसे शराब, अफीम और उसके तमाम भाईबंद। कईयों का नशा जीवन भर नहीं उतरता, गहराता जाता है। सामूहिक नशे की इसी अवस्था के लिए मुहावरा बना है कुएँ में भाँग पड़ना। भारत दशकों से इसी नशे के कुएँ का पानी पी रहा है। उसके तलबगारों की संख्या बढ़ती ही जाती है। आखिर ज्यादातर चिकित्सक भी तो उसी का पानी पी रहे हैं। 

पहले लक्षणों को समझ लेते हैं। फिर टीके और दवा की बात समझना आसान होगा। 

वह समाज की कोई परंपरा-व्यवहार हो या बाजार का कोई उत्पाद या सेवा, कोई फसल हो या कपड़ा,  किसी भी वस्तु के अस्तित्व में बने रहने और बढ़ने के लिए दो में से कम से कम कोई एक शर्त अनिवार्य है - आवश्यकता/उपयोगिता और माँग। आवश्यकता या उपयोगिता स्वयंसिद्ध बाते हैं। माँग सच्ची भी हो सकती है और विज्ञापन-फैशन-चलन-ग्लैमर जैसे मनोवैज्ञानिक तत्वों से पैदा की हुई हो सकती है। समूचा विज्ञापन और मार्केटिंग उद्योग ज़रूरी या गैर-ज़रूरी चीज़ों को आकर्षक और वांछनीय बना कर बेचने की रणनीतियों पर ही चलता है।  यह सिद्धाँत भाषाओं पर भी लागू होता है। 

आज भारत में किन भाषाओं की माँग है? कितनी है? कौन सी ऐसी भाषा/भाषाएँ हैं जिन्हें आज का भारत माँग रहा है? 

किस भाषा की कितनी माँग है और कहाँ है यह विज्ञापनों से काफ़ी सहजता से दिख जाता है। देश के लगभग हर कस्बे में आज अंग्रेज़ी सिखाने- ‘स्पीकने’ की दूकानें या विज्ञापन मिल जाते हैं। हर भाषाई अखबार में इन संस्थानों के विज्ञापन छपते हैं? क्या हम कहीं भी कोई भारतीय भाषा सिखाने के संस्थान, विज्ञापन पाते हैं? उत्तर हम सब जानते हैं। भारत के भाषा बाज़ार में एक ही भाषा की माँग है- अंग्रेज़ी की।

देश का ग़रीब से ग़रीब अभिभावक यह समझ गया है कि उसके बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए और कुछ हो न हो अंग्रेज़ी बिलकुल अनिवार्य है। इस देश-व्यापी विराट माँग का सीधा असर प्राथमिक शिक्षा के ताज़ा आँकड़ों और कई राज्य सरकारों के निर्णयों पर दिख रहा है। प्रत्येक राज्य के आँकड़े बता रहे हैं कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में प्रवेश दर लगातार गिर रही है। विद्यालय हैं, इमारतें, बुनियादी सुविधाएँ हैं, शिक्षक हैं, शुल्क नगण्य है, पाठ्यपुस्तकें, शिक्षा सामग्री मुफ्त हैं लेकिन ग़रीब अभिभावक भी बच्चों को उनमें नहीं भेज रहे। बाकी सारे खर्चों में कटौती करके कई लाख ऐसे मान्यता-प्राप्त या मान्यता-हीन निजी विद्यालयों में ऊँचे शुल्क देकर बच्चों को भेज रहे हैं जिनके बोर्ड में अंग्रेज़ी-माध्यम लिखा होता है और प्रबंधन-शिक्षक उन्हें अपनी अंग्रज़ी माध्यम शिक्षा के बारे में प्रभावित कर लेते हैं। 

राज्य सरकारें मजबूर होकर या तो भाषा-माध्यम विद्यालय बंद कर रही हैं या उन्हें अंग्रेज़ी-माध्यम में बदल कर छात्रों को आकर्षित करने की कोशिश कर रही हैं। प्राथमिक शिक्षा के सबसे ताज़ा आँकड़े आज की स्थिति और भविष्य के रुझानों को साफ दिखाते हैं। ये आँकड़े शिक्षा मंत्रालय के तहत ‘एकीकृत जिला शिक्षा सूचना तंत्र' (यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफर्मेशन सिस्टम फॉर एजूकेशन) से प्रति वर्ष इकट्ठा किए जाते हैं। 

वर्ष २०१९-२०२० के आँकड़े ये हैं। 

देश के एक चौथाई से अधिक छात्र अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ रहे हैं- २६%। सबसे बड़ा माध्यम अब भी हिंदी है, ४२ % लेकिन सबसे तेज़ी से बढ़ती हुई माध्यम भाषा अंग्रेज़ी है। वर्ष २००३ से २०११ के आठ सालों में अंग्रेज़ी माध्यम में २७४% की वृद्धि हुई। हिंदी अकेली भाषा थी सभी भारतीय भाषाओं में जिसमें वार्षिक वृद्धि दर २००८-२०१३ के बीच २५% थी। इन्हीं पाँच सालों में अंग्रज़ी माध्यम की वृद्धि दर हिंदी की दोगुनी थी। बाकी सारी भाषाओं में प्राथमिक शिक्षा में प्रवेश दर में लगातार कमी आ रही थी। 

उत्तर के तीन राज्यों- हरियाणा, पंजाब और दिल्ली में अब अंग्रेज़ी माध्यम छात्र ५० % से अधिक हो गए हैं। दिल्ली में यह प्रतिशत ६० है। सबसे ऊँची छलांग लगाई है हरियाणा ने जहाँ पाँच साल में यह प्रतिशत २७.५% बढ़ कर ५० से ऊपर हो गया है। पंजाब, हिमाचल और उत्तराखंड में भी यह प्रतिशल लगातार बढ़ रहा है।  

दक्षिण के पाँच में से चार- आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में अंग्रेज़ी माध्यम का प्रतिशत आधे से कहीँ अधिक है। तेलंगाना में यह ७३.८% है, आंध्र प्रदेश लगभग ७०%, तमिलनाडु में ५७.६% और केरल में ६५%। केवल कर्नाटक ऐसा दक्षिणी राज्य है जहाँ कन्नड़ माध्यम में अब भी ५३.५% छात्र बचे हैं हालाँकि वहाँ भी उनमें तेज़ी से कमी आ रही है।

सबसे कम अंग्रेज़ी माध्यम वाले प्रदेश हैं-  प.  बंगाल (५.३%), ओडिशा (९.५%), महाराष्ट्र (५.६% ) और बिहार (१०% )। सबसे बड़े हिंदी राज्य उत्तर प्रदेश के आँकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं। 

संकेत साफ हैं। यह २०२० तक की स्थिति है। अगले १०-१५ और २० सालों में अंग्रेज़ी माध्यम का प्रतिशत और वृद्धि दर और तेज़ी से बढ़ने ही वाली है। इसलिए मान सकते हैं कि स्वतंत्रता की शताब्दी मनाते भारत में उसके कम से कम ९५% बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ रहे होंगे।

अनुभवी और वरिष्ठ शिक्षाविद बताते हैं कि बड़े शहरों के बड़े निजी विद्यालयों को छोड़ कर अधिकतर अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों के साथ ‘तथाकथित’ लगा लेना चाहिए। क्योंकि सच्चाई यह है कि इनमें सारा वातावरण, स्वयं शिक्षक और अधिकांश पढ़ाई स्थानीय भाषा में ही होती है। केवल पाठ्यपुस्तकें आदि अंग्रेज़ी की होती हैं। निम्न तथा निम्न मध्यवर्गीय घरों से आने वाले इन लगभग सारे बच्चों के लिए अंग्रेज़ी एक बेहद कठिन और अजनबी भाषा होती है। स्वयं शिक्षकों की अपनी शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि भी अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत की नहीं स्थानीय भाषा-संस्कृति की होती है। 

परिणाम यह होता है कि दोनों का ज़ोर पाठों की रटने-रटाने पर होता है। विभिन्न विषयों की बच्चों की समझ का संवेगात्मक विकास अवरुद्ध हो जाता है, समझ कच्ची और सतही रहती है। वे न अपनी परिचित घर की भाषा के रहते हैं न अंग्रेज़ी के। अध्ययनों ने बताया है कि बचपन की यह शैक्षिक-संवेगात्मक कमी सारा जीवन बनी रहती है। बिरले ही छात्र इससे निकल पाते हैं। इसका प्रभाव न केवल उनकी शैक्षिक उपलब्धि और अधिगम पर पड़ता है बल्कि आत्म-छवि, आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास पर भी गहरा पड़ता है।

दिल्ली विवि में शिक्षा की प्रोफेसर अनीता रामपाल कहती हैं कि समस्या माध्यम की नहीं शिक्षण के तरीकों की है। ठीक से पढ़ाया जाए तो अंग्रेज़ी को केवल एक विषय के रूप में पढ़ने वाले बच्चे उसमें दक्षता प्राप्त कर लेते हैं। “हमने दिल्ली में एक अध्ययन मेें पाया कि एक ऐसे विद्यालय में जहाँ भाषाएँ अच्छे तरीके से सिखायी जाती थीं,  पहले पाँच साल हिंदी माध्यम में  पढ़ने वाले बच्चों ने बाद में स्वतंत्र-मौलिक चिंतन और हिंदी तथा अंग्रज़ी दोनों में रचनात्मक लेखन की बेहतर क्षमता दिखाई। 

इस तरह के प्रयोग और अध्ययन पूरे भारत और संसार भर में हुए हैं। तीन दशकों से वैश्विक अध्ययनों और अनुभव के आधार पर यूनेस्को और शिक्षाविद प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा-स्थानीय भाषा की निर्विवाद श्रेष्ठता को प्रमाणित कर रहे हैं, उसे प्रोत्साहित कर रहे हैं। अनुभव और अध्ययन सिर्फ यही नहीं बताते। भारत के हर शिक्षित घर में हर अभिभावक जानता है कि एक बार पराई लेकिन सामाजिक-शैक्षिक-आर्थिक वर्चस्वशाली वाली अंग्रेज़ी में शुरू से पढ़ लेने के बाद, चाहे वह पढ़ाई कितनी ही घटिया हो, कोई बच्चा अपनी भाषा का नहीं रहता। अपनी भाषा और उसके संसार, उसके बरतने वालों से उसका मनोवैज्ञानिक-भावात्मक रिश्ता बहुत गहरे ढंग से बदल जाता है, बिगड़ जाता है। यह अनुभव भी वैश्विक है। सारे पूर्व-उपनिवेश देशों-समाजों में पाया जाता है। 

आधुनिक बड़ी भारतीय भाषाओं पर पिछले लगभग दो हज़ार सालों में तीन तरह के प्रभाव पड़े हैं- संस्कृतीकरण, फिर फ़ारसीकरण और अंत में अंग्रेज़ीकरण। संस्कृत के प्रभाव ने उन्हें समृद्ध किया, दूसरे यानी मुगल प्रभाव ने  पहले “तलवार के जरिए अपनी इस्लामी विजयों और धर्मपरिवर्तन के माध्यम से फारसी-अरबी पद्य और गद्य को फैलाया लेकिन वे यहीं बस गए और घुल-मिल गए। उन्होंने मूल भारतीय भाषाओं के प्रभावित तो किया लेकिन नष्ट नहीं किया, राज्य फारसी-अरबी में किया लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में उन्हें विस्थापित न कर सके। भारतीय पारंपरिक शिक्षा से छेड़छाड़ नहीं की। १००० साल में भारत ने एक विशिष्ट भाषिक सहअस्तित्व को साध लिया। उसकी आधारभूत सांस्कृतिक-सामाजिक निरंतरता बनी रही।

लेकिन हम जानते हैं अंग्रेज़ीकरण की तीसरी प्रक्रिया के तहत अंग्रज़ों ने सोच समझ कर, खूब विमर्श करते हुए २०० से ज्यादा सालों में जैसे गहरे, आधारभूत सामूहिक चेतना के स्तर पर भारतीय मानस और आत्म-बोध को आहत किया है, उसे पराया बनाया है वह भारत के आकार, इतिहास, साभ्यतिक संपदा और उपलब्धियों की ऊँचाई को देखते हुए विश्व इतिहास में अद्वितीय है। अंग्रेज़ी भी पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार और फिर ब्रिटिश राज के सहारे आई थी और दोनों संदर्भों में उसके साथ-साथ ‘अज्ञान, अंधविश्वास और असभ्यता में डूबे भारतीयों को ईसाईयत के प्रकाश, नैतिक-धार्मिक शिक्षा तथा पश्चिमी ज्ञान के सहारे सभ्य बनाने' का मिशन लंबे समय तक चलता रहा। 

हर औपनिवेशिक, साम्राज्यवादी शक्ति ने अपने तरीके से विजित देशों के इतिहास, परंपराओं, समाजों, भाषाओं, व्यवस्थाओं को प्रभावित, विकृत किया है। लेकिन विचित्र बात यह है कि औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के बाद भी बहुत से देश-समाज पुराने शासकों द्वारा थोपे गए व्यवहारों, चिंतन पद्धतियों और व्यवस्थाओं से खुद को पूरी तरह मुक्त नहीं करते, उन्हें ढोते रहते हैं। लंबा औपनिवेशिक अनुभव उनका ऐसा मनोवैज्ञानिक अनुकूलन कर देता है कि वे अपने मूल स्वरूप, चरित्र, आत्मबोध और चिंतन सरणियों पर लौट नहीं पाते, अपना पुनराविष्कार नहीं कर पाते। 

भारत के साथ भाषा, शिक्षा, राज्य व्यवस्थाओं के मामले में यह मनोविज्ञान आज भी पूरी तरह जारी दिखता है। नतीजन, संसार भर के शैक्षिक-भाषिक अनुभव और सर्वानुमति के बावजूद, संविधान के भाषा संबंधी प्रावधानों के बुनियादी अभिप्राय के बावजूद अंग्रेज़ी राष्ट्रीय जीवन के हर अंग पर न केवल हावी बनी हुई है बल्कि उसकी हमारे मानस तथा व्यवस्थाओं पर जकड़ और मज़बूत होती जाती है। 

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का दस्तावेज बताता है कि भारतीय राज्य अब इस खतरे के प्रति जागरूक हुआ है। यह नीति भारत को भारत बनाए रखते हुए विश्व में अग्रणी और समर्थ बनाने, सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में हर स्तर और विषय की उत्कृष्ट शिक्षा को संभव बनाने का लक्ष्य सामने रख कर बनाई गई है। शिक्षा में भाषाओं की केंद्रिकता और हमारी सभी भाषाओं के माध्यम से उच्चतर शिक्षा ग्रहण करने का अवसर हर विद्यार्थी को देने की इच्छा रखती है। 

इस शिक्षा नीति का निरपवाद, संपूर्ण और ईमानदार क्रियान्वयन हुआ तो न केवल भारतीय भाषाओं को हम बचा सकेंगे बल्कि केवल १०% अंग्रेज़ी संपन्न लोगों के लिए ही नहीं भारतीय भाषाएँ बोलने-जीने वाले ९०% भारतीय युवाओं के लिए उन्नति और रोज़गार के द्वार खोल सकेंगे। हर विकसित देश ने अपना सारा विकास अपनी भाषाओं में ही किया है। हम भी कर सकते हैं। यही अंग्रेज़ी-मोह के वाइरस का टीका है। इसे देश ने अपनाया और आगे बढ़ाया तो पूरा इलाज भी हो जाएगा, हम पहले से कहीं अधिक स्वस्थ, शक्तिशाली, आत्मविश्वासपूर्ण और भारतीय होने के सच्चे आत्मबोध के साथ विश्व नागरिक बन सकेंगे। 

इसमें भाषाओं की अपनी अपनी राजनीति और राजनीतिक शक्तियों द्वारा उनका संकीर्ण स्वार्थों के लिए इस्तेमाल किए जाने ने उन्हें अपने आप में और सामूहिक रूप से कमज़ोर बनाया है। स्वतंत्रता के बाद ६० के दशक से ही विभिन्न भागों में भाषा संबंधी विवाद-संघर्ष और दंगे होने लगे थे। शुरू में तो भाषा के आधार पर राज्यों के विभाजन और निर्माण ने हालात को शांत किया लेकिन इससे भारत की पारंपरिक बहुभाषिकता तथा विभिन्न भाषाओं के बीच एकता, समन्वय, बंधुता और आदान-प्रदान रुक गया। वे निरंतर एक दूसरे से दूर और प्रतिस्पर्धी होती गईँ। उनमें एक साथ मिल कर अपने साझा संकट को समझने, अंग्रेज़ी की चुनौती की गंभीरता, प्रकृति को समझ कर साथ आने, साझा मोर्चा बनाने का काम नहीं हो सका। 

इस साझा समझ और साझा मोर्चे की ज़रूरत आज पहले की अपेक्षा कई गुना अधिक है। आज यह बिलकुल स्पष्ट है कि अगर सारी भाषाओं ने प्रभाव, वर्चस्व, प्रतिष्ठा, शक्ति और प्रयोग के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों से अपने आप को अंग्रेज़ी के हाथों विस्थापित कर दिए जाने से नहीं रोका तो अगली दो से तीन पीढ़ियों में वे सब की सब हाशिए पर, अप्रासंगिक, महत्वहीन, गरीब और गरीबों की भाषाएं बन कर जिंदा रहने के लिए बाध्य होंगी। 

ऐसे लगातार कमज़ोर होते-होते कब तक ज़िंदा रह पाएँगी? भाषाएँ अशक्त और प्रयोग-प्रतिष्ठा वंचित होंगी तो ५०००-६००० वर्षों से उनमें निहित और प्रवाहित होती आई भारतीय संस्कृति, भारत बोध, भारतीयता कैसे और कितने बचेंगे? 

अपनी स्वतंत्रता के १०० वर्ष मनाता हुआ देश भारत होगा या सिर्फ इंडिया? उसके नागरिक उसकी बहुभाषी सांस्कृतिक विविधता, सुंदरता, समृद्धि के प्रतीक होंगे या मुख्यतः केवल अंग्रेज़ी पढ़ने-लिखने-बोलने-समझने और उसी में सोचने-सपने देखने वाले रूप रंग से भारतीय लेकिन, मैकॉले के प्रसिद्ध शब्दों में, “ रुचियों, विचारों, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज़”?

 

 

राहुल देव

७ अगस्त, २०२१