जो दिखता है वही ध्यान में आता है, रहता है। जो है लेकिन आँख से दिखता नहीं, सिर्फ सुना या महसूस किया जा सकता है, सूक्ष्म है, वह ध्यान में कम या देऱ से आता है। सारी दुनिया में, सारे मीडिया में, सारे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर क्लाइमेट चेंज की अनंत चर्चा है। जैव विविधता पर खतरे की, पर्यावरण की चिंता अब सुपरिचित और लोकप्रिय वैश्विक सरोकार हैं। लेकिन जिसे विद्वान जैव विविधता पर खतरे से भी ज्यादा गंभीर खतरा और आसन्न विनाश मानते हैं उस पर चिंता और चर्चा अभी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विमर्श में ठीक से शुरू भी नहीं हुई है। यह खतरा है भाषा के लोप का, हमारी भाषाओं के हमारे भविष्य में स्थान, महत्व, भूमिका और विकास के लोप का।
लेकिन ज्यादातर लोगों को यह दिखता नहीं क्योंकि हमने भाषा के बारे में ध्यान से सोचना छोड़ दिया है। और दिन रात हम जिस का साँस लेने की तरह ही अनायास, सहज, सर्वत्र प्रयोग करते हैं उसके प्रति असावधान भी हो जाते हैं। भारतीय भाषाओं पर जिस तरह का खतरा है उसकी ओर ध्यान खींचने के लिए मैं साल 2050 का इस्तेमाल करता हूँ। कल्पना कीजिए 2050 के भारत की, याने आज से 41 साल बाद। सन् 2050 इसलिए कि देश के विकास के कई संदर्भों में इसका जिक्र किया जाता है एक डेडलाइन के रूप में। तो आइए चलें अपनी कल्पना में। हम मान सकते हैं कि तब तक भारत से चरम गरीबी और निरक्षरता लगभग मिट या बहुत हद तक सिमट चुके होंगे। हमारे गाँवों का विकास, शहरीकरण के रूप में काफी हो चुका होगा, वे पिछड़ेपन के वैसे प्रतीक नहीं होंगे जैसे आज दिखते हैं। आज के पिछड़े, गरीब प्रदेश भी काफी विकसित हो चुके होंगे। शहरी और गाँव की आबादी का प्रतिशत लगभग 50-50 % हो चुका होगा। भारत दुनिया की महाशक्तियों के क्लब में शामिल हो चुका होगा। औद्योगीकरण का प्रसार दूर दूर तक हो चुका होगा।
अब सोचिए – सन् 2050 के उस भारत के 95% भारतीय अपनी ज़िन्दगी के सारे गंभीर कामों में बोलने, पढ़ने और लिखने के लिए किस भाषा का इस्तेमाल कर रहे होंगे ? हिंदी में? मराठी में ? बांगला में? तमिल में? पंजाबी में? गुजराती में ? तेलुगू में? उर्दू में ? जवाब हम जानते हैं।
आज भारत के एक एक गाँव के लोग अपने बच्चों के लिए किस भाषा के माध्यम के स्कूलों, कालेजों, किताबों की माँग कर रहे हैं? किस भाषा को हफ्तों, महीनों में सिखाने की दुकानें हर शहर, कस्बे में खुल रही हैं और लोग हजारों रुपए देकर वहाँ भरती हो रहे हैं? पूरे देश में ऐसी ही दुकानों-संस्थानों पर कम्प्यूटर सीख रहे लाखों युवा, और करोड़ों की संख्या में दिन-रात मोबाइल फोन की नित नई होती, फैलती सम्मोहक दुनिया में रोज घंटों बिता रहे बच्चे, किशोर, युवा और वयस्क किस भाषा के कीबोर्ड के सहज अभ्यस्त होते जा रहे हैं, उसके साथ ही बड़े हो रहे हैं? उनमें से कितने अपनी अपनी प्रादेशिक भाषाओं के कीबोर्ड का उतना ही अभ्यास या इस्तेमाल करते हैं? देश के ‘बड़े’ लोगों, शहरों, वर्गों, कामों, व्यवसायों की भाषा कौऩ सी है? इस देश के ‘छोटे’ लोगों, शहरों, गाँवों, वर्गों, कामों वगैरह के सपनों की, महत्वाकांक्षा की भाषा कौन सी है? भारत हो या इंडिया एक आम भारतीय के गर्व की भाषा कौन सी है, अगर्व की कौन सी?
जैसे आज सारी दुनिया में, वैज्ञानिकों में वैश्विक गर्मी (ग्लोबल वार्मिंग), मौसम परिवर्तन, पर्यावरण और जैव विविधता को बचाने की जरूरतों के बारे में निरपवाद सर्वानुमति है, जैसे अच्छे स्वास्थय के लिए संतुलित भोजन और व्यायाम की ज़रूरत के बारे में सारी दुनिया में सर्वानुमति है वैसी ही वैश्विक सर्वानुमति संसार भर के शिक्षाविदों में इस बात पर है कि पाँचवी या आठवीं कक्षा तक बच्चों के बौद्धिक और शैक्षिक विकास का सर्वश्रेष्ठ माध्यम मातृभाषा या स्थानीय भाषा है। युनेस्को से लेकर भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति तक की इस बारे में साफ, दो टूक राय और सिफारिशें हैं, नीतियां हैं। इस वैश्विक और राष्ट्रीय सर्वानुमति के बावजूद भारत की लगभग 20 राज्य सरकारें अपने सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में कक्षा 1 से अंग्रेजी की पढ़ाई शुरु कर चुकी हैं। और एकाध साल में ही हम पाएंगे कि इस सरकारी स्कूलों में, शहरी और ग्रामीण दोनों, कक्षा 1 से पढ़ाई का माध्यम भी अंग्रेजी हो जाएगा। दूसरे विषयों की पढ़ाई कक्षा 3 या 5 या 6 से अंग्रेजी में करने की शुरूआत तो हो ही चुकी है।
निजी स्कूलों में तो वर्षों से पढ़ाई और बातचीत का माध्यम अंग्रेजी ही है। निजी स्कूलों से भारतीय भाषाओं की बेइज्जत बेदखली तो सालों पहले की जा चुकी है। उनमें पढ़ कर निकले हम जैसों के बच्चे जब लड़खड़ाती, अटकती हिन्दी बोलते-पढ़ते हैं तो इस पर सच्ची और सक्रिय शर्म करना भी हम बरसों पहले भूल चुके हैं।
जिन्हें इस बारे में सरकारी सोच और कर्म की दिशा देखनी हो वे राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की भाषा संबंधी सिफारिशों को आयोग की वेबसाइट पर ज़रूर पढ़ें। बारह से 17 साल में पूरे भारत को अंग्रेजी-दक्ष बनाने की पूरी रणनीति तैयार की है आयोग ने और प्रधानमंत्री को भेजी है।
आज अंग्रेजी के खिलाफ एक शब्द भी बोलना अपने को पिछड़ा, पुरातनपंथी, अतीतजीवी, एक हद तक बेवकूफ और अंग्रेजी की सर्वविदित, सर्वस्वीकृत उपयोगिता के प्रति अंधे होने के आरोप के लिए प्रस्तुत करने जैसा है। इस जोखिम के बावजूद यह सवाल तेजी से इंडिया बनते भारत के सामने रखना ज़रूरी है कि जो भारत अपने किसी भी ज़रूरी, अहम काम के लिए अपनी किसी भी भाषा का इस्तेमाल नहीं करेगा 2050 और उससे पहले ही, वह कैसा भारत होगा? कितना भारत होगा?
भारतीय भाषाओं के अखबारों, हिन्दी फिल्मों, सीरियलों और समाचार चैनलों के विस्तार में हमारे बहुत से मित्र भारतीय भाषाओं के भविष्य के बारे में किसी भी नादान, भावुक शंका का स्वाभाविक जवाब पाते हैं। उनसे केवल दो निवेदन। क्या आप बोली के विस्तार को भाषा का विस्तार मानते हैं? क्या आज वो सब जो हिन्दी फिल्में और सीरियल देख समझ रहे हैं हिन्दी में पढ़-लिख भी ज्यादा रहे हैं? किसी बड़े शहर के बाजार से गुजर जाइए, कितने बोर्ड, विज्ञापन, दुकानों, इमारतों, उत्पादों, कंपनियों के नाम स्थानीय भारतीय भाषा में और लिपि में मिलते हैं? हिन्दी के विज्ञापनों की भाषा बन जाने में हिन्दी का विस्तार और उज्ज्वल भविष्य देखने वालों को सारे सार्वजनिक और व्यावसायिक संप्रेषण में देवनागरी लिपि का लोप कैसे नहीं दिखता?
गांवों से लेकर शहरों तक हमारे नाती पोतों की पीढ़ियाँ जब कक्षा 1 से अंग्रेजी में पढ़-पल कर बड़ी होंगी तब वह भारतीय भाषाओं से कितना लगाव, उनपर कितना गर्व, उनकी कितनी समझ, उनमें कितनी दक्षता रखेंगी? अंग्रेजी-दक्ष, अंग्रेजियत-संपन्न इंडिया का आत्मबोध, अपने स्व की समझ, अपनी विशिष्ट अस्मिता का गौरव कैसा होगा? वे पीढ़ियां किस भाषा के अखबार, पत्रिकाएं, किताबें, समाचार चैनल , इंटरनेट साइटें ज्यादा देखेंगी? याद रखिए बात 2050 की हो रही है। साहित्य-संस्कृति तो छोड़िए अपनी सैंकड़ों भाषाओं-बोलियों के माध्यम से इस देश का जो अपार वानस्पतिक, खनिज, खेती, जानवर, मनुष्य शरीर, आयुर्वेद, धातुविज्ञान, मौसम, मिट्टी, जल प्रबंधन वगैरह का पारंपरिक ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी मिलता रहा है उसका लोप क्या सिर्फ भाषा का लोप है? मुझे भारतीय भाषाओं के इस आसन्न क्षरण में भारतीयता-मात्र का क्षरण, क्रमिक लोप दिखता है।
क्या वैश्वीकृत होते, महाशक्ति बनते, 9-10% विकास दर की ओर लपकते-ललकते भारत की आज की चिंता का यह भी एक विषय होना चाहिए ?
राहुल देव
(दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण, में प्रकाशित लेख)
२८ जनवरी को हंसराज कालेज, दिल्ली में हिन्दी के भविष्य पथ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी में एक सत्र की अध्यक्षता करते हुए उन्होने कहा था कि अगर उनका बस चले तो वे इन पारिभाषिक कोशों को खत्म कर दें। यह नाचीज उनसे पहले बोल चुका था और मेरी कही हुई नादान, मूर्खतापूर्ण बातों के बाद विषय पर ज्ञान का प्रकाश डालने के दौरान उन्होंने यह कहा। उनका कहना था कि मेरे जैसे, डा़ रघुवीर जैसे, कठिन और हास्यास्पद हिन्दी पारिभाषिक शब्दों को गढ़ने वाले शुद्धतावादियों ने हिन्दी का बहुत नुकसान किया है।
मेरा निश्चित मत है कि हिन्दी की दो बहुत महत्वपूर्ण सरकारी संस्थाओं के वरिष्ठतम पदाधिकारी की इस बात को गंभीरता से लेना चाहिए और हिन्दी समाज को इस पर व्यापक बहस चलाकर एक आम राय बनानी चाहिए ताकि हिन्दी के भविष्य पथ की ऐसी सभी रुकावटों को दूर किया जा सके।
आप सब मित्रों से गुजारिश है कि इस बहस को आगे बढ़ाएं, और मुझे बताते रहें।