बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

यूपी के सरकारी स्कूल भी होंगे इंग्लिश मीडियम

 ३ फरवरी, 2010, जागरण  की खबर।
पिछली जुलाई में मायावती सरकार ने सारे प्राथमिक स्कूलों में कक्षा १ से अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू करने के आदेश दे दिए थे। माध्यमिक विद्यालयों में अंग्रेजी को माध्यम बनाने के लिए अब दशकों पुरानी मान्यता नीति को बदला जाएगा।


उत्तर प्रदेश के नौनिहालों को बधाई दीजिए। उनके स्वर्णिम भविष्य का राजपथ तैयार करने के आदेश हो गए हैं। 


इस देश राज्य शिक्षा मंत्रियों, सचिवों, मुख्यमंत्रियों को कौन समझाएगा कि अपने देसी पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश में पले-बढ़े बच्चों पर एक अल्प परिचित, पराए परिवेश और संस्कार वाली भाषा लाद कर वह उनके बौद्धिक और शैक्षिक विकास को कुंठित कर रहे हैं। सारी दुनिया के शिक्षाविद इस पर एकमत हैं, युनेस्को भी। 



नई चीजों, विषयों को, नई भाषा को भी ठीक से समझने और सीखने का सबसे अच्छा माध्यम मातृभाषा ही है, यह ताजा स्नायुशास्त्रीय शोध यानी neuroscientific research भी बताती है। लेकिन अंग्रेजी के मूर्खतापूर्ण अंधे मोह में फंसा यह देश अपनी नई पीढ़ियों की बौद्धिक क्षमताओं के साथ खिलवाड़ करने में तो लगा ही है ऐसे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक विभाजनों को भी बढ़ा रहा है जिसका असर कुछ सालों में ही दिखने लगेगा उन्हें भी जिन्हें आज उसकी आहटें नहीं सुनाई देतीं।

कृपया देश के सबसे सम्मानित आर्थिक पत्रकार स्वामीनाथन एस ऐयर का लेख पढ़िए पिछले रविवार के टाइम्स ऑफ इंडिया में। उसका शीर्षक है - Don't teach your kids English in class 1.


Please please read it. It is available on the net.

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

हिन्दी के पारिभाषिक कोश बेकार की चीज़ हैं?


केन्द्रीय हिन्दी संस्थान और दिल्ली हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष अशोक चक्रधर का कहना है कि उनका बस चले तो हिन्दी के सारे पारिभाषिक कोषों को खत्म कर दें।


२८ जनवरी को हंसराज कालेज, दिल्ली में हिन्दी के भविष्य पथ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी में एक सत्र की अध्यक्षता करते हुए उन्होने कहा था कि अगर उनका बस चले तो वे इन पारिभाषिक कोशों को खत्म कर दें। यह नाचीज उनसे पहले बोल चुका था और मेरी कही हुई नादान, मूर्खतापूर्ण बातों के बाद विषय पर ज्ञान का प्रकाश डालने के दौरान उन्होंने यह कहा। उनका कहना था कि मेरे जैसे, डा़ रघुवीर जैसे, कठिन और हास्यास्पद हिन्दी पारिभाषिक शब्दों को गढ़ने वाले शुद्धतावादियों ने हिन्दी का बहुत नुकसान किया है।

मेरा निश्चित मत है कि हिन्दी की दो बहुत महत्वपूर्ण सरकारी संस्थाओं के वरिष्ठतम पदाधिकारी की इस बात को गंभीरता से लेना चाहिए और हिन्दी समाज को इस पर व्यापक बहस चलाकर एक आम राय बनानी चाहिए ताकि हिन्दी के भविष्य पथ की ऐसी सभी रुकावटों को दूर किया जा सके। 


आप सब मित्रों से गुजारिश है कि इस बहस को आगे बढ़ाएं, और मुझे बताते रहें।

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

चन्द भाषा संकेत



नीचे दिल्ली और गुड़गाँव के उच्च वर्गीय इलाकों में बदलते भाषा प्रयोग और बदलती भाषा सोच के कुछ नमूने हैं। साथ में शायद भविष्य के भाषा प्रयोग की दिशाएं भी झलक रही हैं। एक में जय माता दी लिखा है, पर अंग्रेजी में, हर चीज की तरह और दूसरे में जय माँ हिन्दी में और बाकी सूचना अंग्रेजी में। भाषा का धार्मिक भावों से मौजूदा और बदलते संबंधों दोनों का संकेत इसमें है।
इनके बीच दो अलग तरह के चित्र हैं। एक है प्रसिद्ध पत्रकार, लेखक सर मार्क टल्ली के नई दिल्ली, निज़ामुद्दीन के घर के नाम पट का। यह है एक अंग्रेज भारत प्रेमी के भारत और भारतीय भाषा प्रेम का उदाहरण। कितने ऐसे उदाहरण हम अपने आसपास पाते हैं?
दूसरी तस्वीर है सरवांटिस इंस्टीट्यूट यानी स्पेन के नई दिल्ली में सांस्कृतिक केन्द्र के निदेशक आॉस्कर पुजोल की। उनके सामने रखा कप एक विश्व पुस्तक मेले से उन्होने लिया था। अच्छे अच्छे प्रेरक या रोचक वाक्यों वाले अनन्त ऐसे कप बाज़ार में मिलते हैं। कितनों की इबारत हिन्दी या किसी भारतीय भाषा में होती है? बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्कृत में पीएचडी पुजोल भी घोर हिन्दी प्रेमी हैं।


भारतीय भाषाएं – एक विस्मृत विनाश



जो दिखता है वही ध्यान में आता है, रहता है। जो है लेकिन आँख से दिखता नहीं, सिर्फ सुना या महसूस किया जा सकता है, सूक्ष्म है, वह ध्यान में कम या देऱ से आता है। सारी दुनिया में, सारे मीडिया में, सारे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर क्लाइमेट चेंज की अनंत चर्चा है। जैव विविधता पर खतरे की, पर्यावरण की चिंता अब सुपरिचित और लोकप्रिय वैश्विक सरोकार हैं। लेकिन जिसे विद्वान जैव विविधता पर खतरे से भी ज्यादा गंभीर खतरा और आसन्न विनाश मानते हैं उस पर चिंता और चर्चा अभी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विमर्श में ठीक से शुरू भी नहीं हुई है। यह खतरा है भाषा के लोप का, हमारी भाषाओं के हमारे भविष्य में स्थान, महत्व, भूमिका और विकास के लोप का


लेकिन ज्यादातर लोगों को यह दिखता नहीं क्योंकि हमने भाषा के बारे में ध्यान से सोचना छोड़ दिया है। और दिन रात हम जिस का साँस लेने की तरह ही अनायास, सहज, सर्वत्र प्रयोग करते हैं उसके प्रति असावधान भी हो जाते हैं। भारतीय भाषाओं पर जिस तरह का खतरा है उसकी ओर ध्यान खींचने के लिए मैं साल 2050 का इस्तेमाल करता हूँ। कल्पना कीजिए 2050 के भारत की, याने आज से 41 साल बाद। सन् 2050 इसलिए कि देश के विकास के कई संदर्भों में इसका जिक्र किया जाता है एक डेडलाइन के रूप में। तो आइए चलें अपनी कल्पना में। हम मान सकते हैं कि तब तक भारत से चरम गरीबी और निरक्षरता लगभग मिट या बहुत हद तक सिमट चुके होंगे। हमारे गाँवों का विकास, शहरीकरण के रूप में काफी हो चुका होगा, वे पिछड़ेपन के वैसे प्रतीक नहीं होंगे जैसे आज दिखते हैं। आज के पिछड़े, गरीब प्रदेश भी काफी विकसित हो चुके होंगे। शहरी और गाँव की आबादी का प्रतिशत लगभग 50-50 % हो चुका होगा। भारत दुनिया की महाशक्तियों के क्लब में शामिल हो चुका होगा। औद्योगीकरण का प्रसार दूर दूर तक हो चुका होगा।


अब सोचिए सन् 2050 के उस भारत के 95% भारतीय अपनी ज़िन्दगी के सारे गंभीर कामों में बोलने, पढ़ने और लिखने के लिए किस भाषा का इस्तेमाल कर रहे होंगे ? हिंदी में? मराठी में ? बांगला में? तमिल में? पंजाबी में? गुजराती में ? तेलुगू में? उर्दू में ? जवाब हम जानते हैं।


आज भारत के एक एक गाँव के लोग अपने बच्चों के लिए किस भाषा के माध्यम के स्कूलों, कालेजों, किताबों की माँग कर रहे हैं? किस भाषा को हफ्तों, महीनों में सिखाने की दुकानें हर शहर, कस्बे में खुल रही हैं और लोग हजारों रुपए देकर वहाँ भरती हो रहे हैं? पूरे देश में ऐसी ही दुकानों-संस्थानों पर कम्प्यूटर सीख रहे लाखों युवा, और करोड़ों की संख्या में दिन-रात मोबाइल फोन की नित नई होती, फैलती सम्मोहक दुनिया में रोज घंटों बिता रहे बच्चे, किशोर, युवा और वयस्क किस भाषा के कीबोर्ड के सहज अभ्यस्त होते जा रहे हैं, उसके साथ ही बड़े हो रहे हैं? उनमें से कितने अपनी अपनी प्रादेशिक भाषाओं के कीबोर्ड का उतना ही अभ्यास या इस्तेमाल करते हैं? देश के बड़ेलोगों, शहरों, वर्गों, कामों, व्यवसायों की भाषा कौऩ सी है? इस देश के छोटेलोगों, शहरों, गाँवों, वर्गों, कामों वगैरह के सपनों की, महत्वाकांक्षा की भाषा कौन सी है? भारत हो या इंडिया एक आम भारतीय के गर्व की भाषा कौन सी है, अगर्व की कौन सी?


जैसे आज सारी दुनिया में, वैज्ञानिकों में वैश्विक गर्मी (ग्लोबल वार्मिंग), मौसम परिवर्तन, पर्यावरण और जैव विविधता को बचाने की जरूरतों के बारे में निरपवाद सर्वानुमति है, जैसे अच्छे स्वास्थय के लिए संतुलित भोजन और व्यायाम की ज़रूरत के बारे में सारी दुनिया में सर्वानुमति है वैसी ही वैश्विक सर्वानुमति संसार भर के शिक्षाविदों में इस बात पर है कि पाँचवी या आठवीं कक्षा तक बच्चों के बौद्धिक और शैक्षिक विकास का सर्वश्रेष्ठ माध्यम मातृभाषा या स्थानीय भाषा है। युनेस्को से लेकर भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति तक की इस बारे में साफ, दो टूक राय और सिफारिशें हैं, नीतियां हैं। इस वैश्विक और राष्ट्रीय सर्वानुमति के बावजूद भारत की लगभग 20 राज्य सरकारें अपने सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में कक्षा 1 से अंग्रेजी की पढ़ाई शुरु कर चुकी हैं। और एकाध साल में ही हम पाएंगे कि इस सरकारी स्कूलों में, शहरी और ग्रामीण दोनों, कक्षा 1 से पढ़ाई का माध्यम भी अंग्रेजी हो जाएगा। दूसरे विषयों की पढ़ाई कक्षा 3 या 5 या 6 से अंग्रेजी में करने की शुरूआत तो हो ही चुकी है।


निजी स्कूलों में तो वर्षों से पढ़ाई और बातचीत का माध्यम अंग्रेजी ही है। निजी स्कूलों से भारतीय भाषाओं की बेइज्जत बेदखली तो सालों पहले की जा चुकी है। उनमें पढ़ कर निकले हम जैसों के बच्चे जब लड़खड़ाती, अटकती हिन्दी बोलते-पढ़ते हैं तो इस पर सच्ची और सक्रिय शर्म करना भी हम बरसों पहले भूल चुके हैं।


जिन्हें इस बारे में सरकारी सोच और कर्म की दिशा देखनी हो वे राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की भाषा संबंधी सिफारिशों को आयोग की वेबसाइट पर ज़रूर पढ़ें। बारह से 17 साल में पूरे भारत को अंग्रेजी-दक्ष बनाने की पूरी रणनीति तैयार की है आयोग ने और प्रधानमंत्री को भेजी है।


आज अंग्रेजी के खिलाफ एक शब्द भी बोलना अपने को पिछड़ा, पुरातनपंथी, अतीतजीवी, एक हद तक बेवकूफ और अंग्रेजी की सर्वविदित, सर्वस्वीकृत उपयोगिता के प्रति अंधे होने के आरोप के लिए प्रस्तुत करने जैसा है। इस जोखिम के बावजूद यह सवाल तेजी से इंडिया बनते भारत के सामने रखना ज़रूरी है कि जो भारत अपने किसी भी ज़रूरी, अहम काम के लिए अपनी किसी भी भाषा का इस्तेमाल नहीं करेगा 2050 और उससे पहले ही, वह कैसा भारत होगा? कितना भारत होगा?


भारतीय भाषाओं के अखबारों, हिन्दी फिल्मों, सीरियलों और समाचार चैनलों के विस्तार में हमारे बहुत से मित्र भारतीय भाषाओं के भविष्य के बारे में किसी भी नादान, भावुक शंका का स्वाभाविक जवाब पाते हैं। उनसे केवल दो निवेदन। क्या आप बोली के विस्तार को भाषा का विस्तार मानते हैं? क्या आज वो सब जो हिन्दी फिल्में और सीरियल देख समझ रहे हैं हिन्दी में पढ़-लिख भी ज्यादा रहे हैं? किसी बड़े शहर के बाजार से गुजर जाइए, कितने बोर्ड, विज्ञापन, दुकानों, इमारतों, उत्पादों, कंपनियों के नाम स्थानीय भारतीय भाषा में और लिपि में मिलते हैं? हिन्दी के विज्ञापनों की भाषा बन जाने में हिन्दी का विस्तार और उज्ज्वल भविष्य देखने वालों को सारे सार्वजनिक और व्यावसायिक संप्रेषण में देवनागरी लिपि का लोप कैसे नहीं दिखता?


गांवों से लेकर शहरों तक हमारे नाती पोतों की पीढ़ियाँ जब कक्षा 1 से अंग्रेजी में पढ़-पल कर बड़ी होंगी तब वह भारतीय भाषाओं से कितना लगाव, उनपर कितना गर्व, उनकी कितनी समझ, उनमें कितनी दक्षता रखेंगी? अंग्रेजी-दक्ष, अंग्रेजियत-संपन्न इंडिया का आत्मबोध, अपने स्व की समझ, अपनी विशिष्ट अस्मिता का गौरव कैसा होगा? वे पीढ़ियां किस भाषा के अखबार, पत्रिकाएं, किताबें, समाचार चैनल , इंटरनेट साइटें ज्यादा देखेंगी? याद रखिए बात 2050 की हो रही है। साहित्य-संस्कृति तो छोड़िए अपनी सैंकड़ों भाषाओं-बोलियों के माध्यम से इस देश का जो अपार वानस्पतिक, खनिज, खेती, जानवर, मनुष्य शरीर, आयुर्वेद, धातुविज्ञान, मौसम, मिट्टी, जल प्रबंधन वगैरह का पारंपरिक ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी मिलता रहा है उसका लोप क्या सिर्फ भाषा का लोप है? मुझे भारतीय भाषाओं के इस आसन्न क्षरण में भारतीयता-मात्र का क्षरण, क्रमिक लोप दिखता है।


क्या वैश्वीकृत होते, महाशक्ति बनते, 9-10% विकास दर की ओर लपकते-ललकते भारत की आज की चिंता का यह भी एक विषय होना चाहिए ?


राहुल देव


(दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण, में प्रकाशित लेख)

बुधवार, 20 जनवरी 2010

राष्ट्रीय भाषा

मित्रों क्यों न अंग्रेजी को देश की राष्ट्रीय भाषा बना दिया जाए?

मंगलवार, 3 जून 2008

भारतीय भाषाओं के भविष्य पर संगोष्ठियाँ

भारतीय भाषाओं का भविष्य - इस शीर्षक के तहत संगोष्ठियों की एक श्रंखला सम्यक् न्यास ने आरंभ की है। पहली संगोष्ठी दिल्ली में 17 मई, 2008 को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हुई। दूसरी 24 मई, 2008 को मुंबई में इंडियन मर्चेन्ट्स चैंबर में हुई। इनकी विस्तृत रिपोर्ट हम जल्दी ही यहां प्रस्तुत करेंगे।

मुंबई की संगोष्ठी पर हिन्दी मीडिया पोर्टल हिन्दी मीडिया में प्रकाशित दो रिपोर्टें हम साभार दे रहे हैं।

राहुल देव

फिल्मी सितारों का हिन्दी नहीं बोलना अपनी माँ को गिरवी रखने जैसा

अपनी बात

रमता जोगी
Tuesday, 27 May 2008
फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट के व्यक्तित्व में कई विरोधाभास हैं और अलग-अलग मंचों पर उनके व्यक्तित्व के अलग-अलग रूप भी सामने आते हैं, और कई बार तो वे एक मंच से कही गई अपनी एक बात का दूसरे मंच पर खंडन करते नजर आते हैं। लेकिन इसके बावजूद इस बात को मानना पडे़गा कि जो भी कहते हैं उसकी पूरी जिम्मेदारी भी अपने ऊपर लेते हैं। महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादेमी द्वारा मुंबई में भारतीय भाषाओं के भविष्य पर आयोजित परिसंवाद में महेश भट्ट भी आए थे और कार्यक्रम के सूत्रधार जाने माने पत्रकार और चिंतक और हिन्दी के प्रति समर्पित श्री राहुल देव ने महेश भट्ट से जब कहा कि वे हिन्दी फिल्म उद्योग के लोगों द्वारा हिन्दी फिल्मों की रोटी खाने के बावजूद हर जगह अपनी बात अंग्रेजी में कहने को लेकर कुछ कहें, तो इस पर महेश भट्ट ने जो कुछ कहा वह चौंकाने वाला था। और यह भी मानना पड़ेगा कि फिल्म उद्योग में ऐसी बात कहने की गुस्ताखी महेश भट्ट जैसी व्यक्ति ही कर सकता है। महेश भट्ट ने कहा कि ग्लोबलाईज़ेशन के इस दौर में इस बात को समझना जरुरी है कि हम गुलाम बनने की एक ऐसी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं जो हमारे अंदर अपनी माँ को भी गिरवी रखने का सोच पैदा करती है। उन्होंने कहा कि हमारा सिनेमा जड़हीन होता जा रहा है, इसकी कोई जड़ें नहीं है, और न कोई गहराई है। उन्होंने कहा कि फिल्मी और टीवी दुनिया से जुड़ा हर सितारा न्यूयॉर्क टाईम्स में अपनी खबर और फोटो देखना चाहता है जबकि उसको नाम और पैसा हिन्दी के दर्शकों से मिलता है। आज हर सितारा अपनी शख्सियत और अपनी पहचान अंग्रेजी में बनाना चाहता है, आज फिल्म उद्योग में हिन्दी न जानना और गलत हिन्दी बोलना सम्मान की बात हो गई है। महेश भट्ट ने कहा कि इस अंग्रेजी मानसिकता से पूरा देश आज एक बार फिर गुलाम होता जा रहा है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि एक छोटे से देश आईसलैंड ने माईक्रोसॉप्ट जैसी कंपनी के कंप्यूटर ऑप्रेटिंग सिस्टम को इसलिए स्वीकार नहीं किया कि वह उनकी भाषा में नहीं था और माईक्रोसॉफ्ट को कुछ ही महीनों में उस देश के लिए उनकी भाषा में ऑप्रेटिंग सिस्टम बनाना पड़ा। हमारे देश भारत में आज तक किसी ने इस बात पर गौर नहीं किया कि कंप्यूटर पर हिन्दी में कामकाज की सुविधा क्यों नहीं मिल पाई। महेश भट्ट ने कहा कि हिंदी फिल्मों के जिन सितारों की निगाहें लास एंजिलिस लगी रहती हैं वे हिंदी कैसे बोल सकते हैं? प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट ने कहा कि आज की स्थिति बहुत ही खतरनाक है। हर काम अंग्रेज़ी में हो रहा है। हम अंग्रेज़ी बोलने में गर्व महसूस करते हैं। लेकिन भाषा की सांस्कृतिक गहराई को नहीं समझ पा रहे हैं। भाषा हमारी माँ है और प्रगति के लिए आज हमें अपनी माँ को ही गिरवी रखना पड़ रहा है। चीन ने अगर अपनी भाषा में तरक्की की है और आइसलैंड जैसे देश ने अपनी भाषा के लिए माइक्रोसाफ्ट के अंगरेज़ी साफ्टवेयर को खरीदने से मना कर दिया तो क्या हम ऐसा नहीं कर सकते। हमें अपनी भाषा की रक्षा हर कीमत पर करनी चाहिये, क्योंकि यह हमारी अस्मिता, हमारे वजूद से जुड़ा सवाल है।श्री राहुल देव के आग्रह पर श्री भट्ट ने कहा कि वे इस सम्मेलन में मौजूद सभी विद्वानों और विचारकों की बात फिल्मी दुनिया के सितारों, निर्माताओं और निर्देशकों तक पहुँचाएंगे।

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इसलिए इज़राईल ने 18 नोबुल पुरस्कार हासिल किए

रवि शर्मा
Tuesday, 27 May 2008
मुंबई के इंडियन मर्चेट्स चैंबर में आयोजित परिसंवाद में देश की कई भाषाओं के विद्वानों ने अक्टूबर में होनेवाले सम्मेलन के लिए अपने सुझाव दिए। परिसंवाद में इस बात पर चिंता जाहिर की गई कि अनेक राज्यों में प्रारंभिक कक्षाओं से ही अंग्रेजी की शिक्षा दिए जाने से कुछ वर्षो बाद उन राज्यों की मूल भाषाओं का अस्तित्व भी संकट में पड़ सकता है। महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के कार्याध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल के अनुसार अक्टूबर के पहले सप्ताह में तीन दिन चलनेवाले इस सम्मेलन में स्वतंत्र भारत में अब तक हुए भारतीय भाषाओं के विकास की समीक्षा की जाएगी। इस परिसंवाद का आयोजन महाराष्ट्र हिन्दी अकादेमी के कार्याध्यक्ष और मुंबई में हिन्दी भाषा के लिए संघर्षरत वरिष्ठ पत्रकार श्री नदकिशोर नौटियाल की पहल पर किया गया था। परिसंवाद में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के मूर्धन्य विद्वानों ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए। दीप प्रज्वलन के तुरंत बाद विषय प्रवर्तन किया सम्यक न्यास, दिल्ली के राहुल देव ने। उन्होंने कहा कि आज हिंदुस्तान का हर गाँव अंग्रेज़ी मांग रहा है। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने प्राथमिक स्तर की शिक्षा अंग्रेज़ी माध्यम से देने की सिफारिश की है। अगर ऐसा होता है तो ५ साल बाद सभी सरकारी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंगरेज़ी होगा। सोचिये २५ साल बाद स्थिति क्या होगी? क्या हम अपनी मूल संस्कृति से कट नहीं जायेंगे? उन्होंने कहा कि हमें भाषा को केवल साहित्य और संस्कृति का ही वाहक नहीं मान लेना चाहिये। भाषा की भूमिका व्यापार और लोकतांत्रिक प्रणाली की उन्नति में भी है।चर्चा को आगे बढ़ाते हुए पेनिसिल्वेनिया, अमरीका से आए हिंदी विद्वान प्रो. सुरेंद्र गंभीर ने कहा कि हमें अपनी भाषा की रक्षा करनी चाहिये। जिस तरह जापान, चीन और फ्राँस जैसे कई देश अंग्रेज़ी के साथ-साथ अपनी भाषा की रक्षा हर कीमत पर करते हैं ठीक उसी तरह हमें अपनी भाषाओं की रक्षा करनी चाहिये।वरिष्ठ लेखक डॉ. सोहन शर्मा ने भारतीय भाषाओं की वर्तमान स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि पिछले ३० वर्षों में भारत को विज्ञान के क्षेत्र में कोई नोबेल पुरस्कार नहीं मिला है, जबकि इस्राइल विज्ञान में अबतक १८ नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर चुका है, क्योंकि उसकी शिक्षा का माध्यम उसकी मूल भाषा है। सांस्कृतिक उत्पादन के क्षेत्र में हमारी भाषाओं का स्थान नगण्य होता जा रहा है। यह एक गंभीर समस्या है। सभी जानते हैं कि औपनिवेशिक व्यवस्था हमेशा जनभाषा की विरोधी होती है। हमारा शैक्षिक नीति निर्धारक मंच नहीं चाहता कि हमारी शिक्षा हमारी भाषा में हो। हमें शिक्षा के राष्ट्रीयकरण पर बल देना चाहिये।भारतीय भाषाओं के अस्तित्व पर मंडराते खतरे की गंभीरता को महसूस करते हुए महाराष्ट्र राज्य उर्दू साहित्य अकादमी के कार्याध्यक्ष डॉ. अब्दुस सत्तार दलवी ने कहा कि - भाषा का सवाल हमारे वजूद का, हमारी पहचान का सवाल है। हमारी संस्कृति और सांस्कृतिक पहचान शेक्सपियर से कालिदास, संत ज्ञानेश्वर कबीर, तुलसी और ग़ालिब से है। भारतीय ज़ुबानें एक दूसरे की ताक़त हैं। हमें इस ताक़त को बरकरार रखना है।गुजराती भाषा की प्रगति के लिए उठाए जा रहे क़दमों का उल्लेख करते हुए राज्य गुजराती साहित्य अकादमी के कार्याध्यक्ष हेमराज शाह ने कहा कि मुंबई में करीब ३५ लाख गुजराती रहते हैं। हमने सभी गुजराती परिवारों को संदेश दिया है कि प्रत्येक परिवार प्रतिदिन एक गुजराती दैनिक मंगवाये। हमने अपने घरों में बच्चों के लिए गुजराती में बात करना अनिवार्य कर दिया है। उन्होंने कहा कि हमारे बच्चों को कम से कम चार भाषाएं सीखनी चाहिये - मातृभाषा, प्रादेशिक भाषा, राष्ट्र भाषा हिंदी और अंग्रेज़ी। इससे हम अपनी भाषा, अपनी संस्कृति का अस्तित्व भी बचाये रख पायेंगे और प्रगति की राह पर भी आगे बढ़ते जायेंगे। उन्होंने कहा कि गुजराती परिवारों के लोग कई लायब्रेरियों को गुजराती पुस्तकें मंगवाने के लिए अनुदान देते हैं।जर्मनी से पधारे बर्नार्ड हेंसली ने भारतीय भाषाओं की तारीफ करते हुए कहा कि हिंदुस्तान की भाषाएं बहुत समृद्ध हैं और उनमें इतनी क्षमता है कि वे खुद को बचाये रख सकती हैं। उनकी जड़ें बहुत गहरी है क्योंकि दुनिया की सभ्यता और सास्कृतिक अतीत को अगर जानना हो तो वह भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही जाना जा सकता है।हिंदी के विद्वान डॉ नंदलाल पाठक ने कहा कि हमें अंग्रेज़ी का विरोध नहीं करना चाहिये। हमें सभी दूसरी भाषाओं का सम्मान करना चाहिये। अपनी भाषा की प्रगति के लिए दूसरी भाषा का विरोध करना उचित नहीं है।कार्यक्रम के अंत में हिंदी के विद्वान डॉ. रामजी तिवारी ने परिसंवाद का निचोड़ रखते हुए कहा कि अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रभुत्व से भारतीय भाषाओं पर खतरा मंडरा रहा है। अपनी भाषाओं को बचाने का हमें कोई कारगर तरीका खोजना होगा। भारतीय संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीति की सही समझ पाने के लिए हमें अपनी भाषा में चिंतन करने की ज़रूरत है। हमें तटस्थ भाव से काम करना होगा। असल में यह जातीय अस्मिता को बचाने का प्रश्न है। संगोष्ठी में इस बारे में तरह तरह के मत व्यक्त किये गये हैं। इससे यही संकेत मिलता है कि इस विषय में शोध की भारी आवश्यकता है।परिसंवाद की अध्यक्षता कर रहे महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के कार्याध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल ने कहा कि भाषाओं के भविष्य का सवाल महत्वपूर्ण है और इस पर देशभर में समय-समय पर चर्चा होती रहनी चाहिये। उन्होंने बताया कि आगामी ३,४, तथा ५ अक्टूबर को मुंबई में महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी भारत की सभी भाषाओं का सम्मेलन आयोजित करने जा रही है।संगोष्ठी में आए विद्वानों का आभार प्रकट करते हुए एसएनडीटी विश्वविद्यालय की निदेशक डॉ माधुरी छेड़ा ने कहा कि भारतीय भाषाओंं के भविष्य पर बुलाये गये इस परिसंवाद में विभिन्न भारतीय भाषाओं के विद्वानों का एक ही जगह पर इकट्ठा होकर इस तरह सोच-विचार करना एक महत्वपूर्ण घटना है। परिसंवाद का संचालन अकादमी के सदस्य सचिव अनुराग त्रिपाठी ने किया। संगोष्ठी में जयंत सालगांवकर, डॉ. राजम नटराजन, मारिया हेंसली, डॉ. शोभनाथ यादव, अजित रानडे, सिराज मिर्ज़ा, आलोक भट्टाचार्य, गोपाल शर्मा, अशोक निगम, दीपक कुमार पाचपोर, संजीव दुबे, अभय नारायण मिश्र, रमेश यादव, इंद्र कुमार जैन आदि ने भाग लिया।

बुधवार, 28 मई 2008

भारतीय भाषाओं का भविष्य - एक निमन्त्रण

भारतीय भाषाओं का भविष्य

भारत के वर्तमान और भविष्य से जुड़ा एक बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा जो जितना महत्वपूर्ण है उतना ही उपेक्षित भी।

भारत, कम से कम शिक्षित, शहरी भारत, संसार की एक महाशक्ति बनने के सपने देख रहा है। दुनिया भी अब मानने लगी है कि भारत में महाशक्ति बनने की इच्छा, क्षमता और संभावनाएं तीनों मौजूद हैं। यह परिदृश्य हर भारतीय के मन में एक नई आशा, उत्साह और आत्मविश्वास का संचार करता है। हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, योजना आयोग, ज्ञान आयोग, देशी विदेशी विद्वान, अर्थशास्त्री, लेखक, चिंतक, उद्योगपति आदि सब ज्ञान युग में भारत की बौद्धिक शक्ति और उद्यमशीलता की संयुक्त संभावनाओं के ही आधार पर यह कल्पना साकार होती देखते हैं।

इस बौद्धिक शक्ति का साक्षात हमारी शिक्षा करेगी इस पर भी सब सहमत हैं। शिक्षा व्यवस्था को संसाधनों, गुणवत्ता और सुलभता से संपन्न बनाने की बड़ी बड़ी योजनाएं बन रही हैं। ज्ञान आयोग ने शिक्षा संबंधी जो कई सिफारिशें प्रधानमंत्री से की हैं उनमें एक यह भी है कि पूरे देश में अंग्रेजी को पहली कक्षा से पढ़ाना शुरू किया जाय। पूरे देश में बच्चों को बढ़िया अंग्रेज़ी शिक्षा मिल सके उसके लिए अंग्रेज़ी शिक्षकों को प्रशिक्षित करने और 6 लाख नए अंग्रेज़ी शिक्षक तैयार करने की भी उन्होंने सिफारिश की है।

आज देश का हर गाँव, ज़रा भी शिक्षा का महत्व जानने वाला ग़रीब से ग़रीब नागरिक अपने बच्चों के लिए अंग्रेज़ी शिक्षा माँग रहा है। राज्य सरकारों पर ज़बर्दस्त दबाव है कि सरकारी स्कूलों में भी अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी माध्यम की पढ़ाई जल्दी से जल्दी शुरू की जाय। कई राज्य यह कर चुके हैं। बाकी भी करेंगे। सब चाहते हैं कि प्रगति और वैश्वीकरण की इस भाषा से कोई वंचित न रहे। सबने मान लिया है कि भारत के महाशक्ति बनने में अंग्रेज़ी सबसे बड़ा साधन है और होगी।

अंग्रेज़ी-माहात्म्य की इस जयजयकार के नक्कारखाने में हम एक तूती की आवाज़ उठाना चाहते हैं।
अगर यह ऐसे ही चलता रहा तो दो पीढ़ियों के बाद भारत की सारी भाषाओं की स्थिति क्या होगी?
उनमें पढ़ने, लिखने और बोलने वाले कौन होंगे?
क्या ये सभी भाषाएं सिर्फ़ बोलियाँ बन जाएंगी?
या भरी-पूरी, अपने बेहद समृद्ध अतीत की तरह अपने-अपने समाजों की रचनात्मक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक, साहित्यिक अभिव्यक्ति और संवाद की सहज भाषाएं बनी रहेंगी?
क्या आज से दो पीढ़ियों बाद के शिक्षित भारतीय इन भाषाओं में वह सब करेंगे जो आज करते हैं, अब तक करते रहे हैं?
नहीं?
तो क्या आपको भी हमारी तरह यह दिखता है कि 20-30 साल आगे का शिक्षित भारत ज्यादातर हर गंभीर, महत्वपूर्ण काम अंग्रेज़ी में करेगा या करने की जीतोड़ कोशिश में लगा होगा?
अगर हाँ, तो तब इन सारी भाषाओं की स्थिति, व्यवहार के तरीके और क्षेत्र, प्रभाव, शक्ति, प्रतिष्ठा आदि क्या होंगे?
उनकी देश के व्यापक शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, बौद्धिक, साहित्यिक, कलात्मक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक आदि सभी ज्ञानात्मक क्षेत्रों में जगह क्या होगी?

जब लगभग हर शिक्षित भारतीय पढ़ने, लिखने और गंभीर बातचीत में सिर्फ़ अंग्रेज़ी का प्रयोग करेगा, ये सारे काम अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं या पारंपरिक मातृभाषाओं में सहजता से करने में असमर्थ होगा, वैसे ही जैसे आज भी केवल अंग्रेज़ी माध्यम घरों-स्कूलों से निकले बच्चे असमर्थ होते जा रहे हैं, तब कैसा होगा वह भारत?
कैसे होंगे वे भारतीय?
कितने और किस तरह के भारतीय होंगे वे?
इन सारी भाषाओं में जो अमूल्य धरोहर, संवेदनाएं, संस्कार, ज्ञान, जातीय स्मृतियाँ संचित हैं और अब तक हर भारतीय को मातृभाषा के माध्यम से सहज ही मिलती रही हैं उनका क्या होगा?
सिर्फ या ज्यादातर अंग्रेज़ी पढ़ने, लिखने, बोलने वाले महाशक्ति भारत के इन निर्माताओं की सोच, संस्कार, जीवन शैली, सपने, मनोरंजन के तरीके, शौक, महत्वाकांक्षाएं, पहनावा, खानपान, मूल्यबोध, एक भारतीय होने का आत्मबोध – ये सब कैसे होंगे?
भाषा व्यवहार, स्थितियों और भाषाओं के आपसी रिश्तों में यह जो देशव्यापी, विराट और गहरा परिवर्तन लगभग अलक्षित ही घट रहा है क्या देश ने इस पर इसी गहराई से विचार भी करना शुरू किया है?
क्या हमें यह प्रक्रिया दिख भी रही है?
क्या यह विचार-योग्य है?
क्या इन भाषाओं के आसन्न भविष्य के बारे में कुछ करने की ज़रूरत है?
अगर है तो क्या किया जा सकता है?
आपकी हमारी भूमिका इसमें क्या हो सकती है?

हम कुछ मित्र इन प्रश्नों पर चिंतित हैं।

इसे समूची भारतीयता पर घिरता संकट मानते हैं।

काश हम और हमारे ये भय ग़लत और निराधार साबित हों। लेकिन हम इन सवालों पर मिल कर विचार करना चाहते हैं। इस परिवर्तन और इसके निहितार्थों, इससे निकलती संभावनाओं को समझना चाहते हैं।

हम देश के हर प्रमुख भाषाभाषी समाज के साथ यह विचार मंथन और विमर्श करना चाहते हैं। क्योंकि हमें लगता है कि ये सिर्फ़ हिन्दी नहीं हर भारतीय भाषा के सामने खड़े प्रश्न हैं। शायद जीवन-मरण के, अस्तित्व की शर्तों और स्थितियों को बदलने वाले प्रश्न हैं।

हम अंग्रेज़ी के कतई ख़िलाफ़ नहीं। उसमें दक्षता को उपयोगी मानते हैं। लेकिन अपनी भारतीय भाषाओं की केन्द्रीयता, प्रतिष्ठा, शक्ति, गरिमा, व्यवहार और विकास पर आँच नहीं आने देना चाहते। भारत में एक नए भाषायी संतुलन को साधना चाहते हैं जिसमें एक भाषा दूसरी की कीमत पर न बढ़े, हावी न हो।

हम चिंतित हैं निराश नहीं। कुछ अस्पष्ट रणनीतियाँ, कुछ विचार हमारे मन में हैं। उन्हें मित्रों के सामने रख कर, उनसे समझ, सुझाव और सामर्थ्य प्राप्त करना चाहते हैं।

इस विमर्श की शुरूआत हमने शनिवार, 17 मई, 2008 को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक संगोष्ठी से की है। इस चर्चा का उद्घाटन दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने किया। अध्यक्षता हिन्दी के प्रख्यात लेखक, आलोचक और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष अशोक वाजपेयी ने की।

संगोष्ठी में शामिल थे योजना आयोग, विदेश मंत्रालय, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम, अंतरराष्ट्रीय और भारतीय विकास एजेंसियों के प्रतिनिधि, दैनिक भास्कर के समूह संपादक श्रवण गर्ग, आज तक और आईबीएन 7 समाचार चैनलों के प्रमुख कमर वहीद नक़वी और आशुतोष, मानुषी की संपादक और प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता, चिंतक मधु किश्वर, हिन्दी में नए मीडिया विशेषज्ञ बालेन्दु दधीच सहित जाने माने अर्थशास्त्री, लेखक, पत्रकार, हिन्दीसेवी विद्वान।

इसकी दूसरी कड़ी का आयोजन मुंबई में 24 मई को सम्यक् ,न्यास दिल्ली और महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में हुआ। इंडियन मर्चेन्ट्स चैंबर में आयोजित इस गोलमेज़ चर्चा में आशा से अधिक लोग आए। प्रमुख लोगों में शामिल हैं महाराष्ट्र राज्य उर्दू अकादमी के अध्यक्ष, बृहन्मुंबई गुजराती समाज के अध्यक्ष, फिल्मकार महेश भट्ट, पेन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय से पिछले महीने सेवानिवृत्त हुए प्रोफेसर सुरेन्द्र गंभीर, मराठी, हिन्दी, अंग्रेजी, स्विस भाषाओं के वरिष्ठ पत्रकार, मलयालम, बांगला, तमिल भाषाओं में काम करने वाले लोग, उद्योगपति आदि। इसकी विस्तृत रिपोर्ट जल्दी इस ब्लॉग पर चढ़ाई जाएगी।

इसके बाद हम इसे देश की हर प्रमुख राजधानी और शहर में ले जाना चाहते हैं ताकि हर भाषा के मुख्य चिंतकों, कर्णधारों से बात कर सकें, और सारी प्रमुख भारतीय भाषाओं में इस बारे में साझा चिंतन शुरू हो जाए।

इसके बाद हम देश के जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों, विषयों और वर्गों पर केन्द्रित गोष्ठियाँ और कार्यशालाएं आयोजित करना चाहते हैं। ये विषय हैं – भाषा और प्राथमिक शिक्षा, भाषा और उच्च शिक्षा, विज्ञान और तकनीकी शिक्षा, प्रशासन, न्याय व्यवस्था, राजनीति, साहित्य, संस्कृति, अर्थशास्त्र, व्यापार, विकास, ग्रामीण विकास, कृषि, सूचना टेक्नालाजी, मीडिया, मनोरंजन जगत, व्यापार प्रबंधन, विज्ञापन जगत, नीति निर्माण, स्वास्थ्य, धर्म-अध्यात्म, पर्यावरण आदि।

इस मुहिम का तीसरा चरण एक विशाल बहुभाषा राष्ट्रीय सम्मेलन और चौथा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होगा।

इन कार्यक्रमों के साथ ही एक उच्च स्तरीय शोध संस्थान भी हम स्थापित करना चाहते हैं जिसमें भाषाओं और ऊपर लिखे सभी क्षेत्रों के अंतरसंबंधों के महत्वपूर्ण पहलुओं पर ठोस शोध और अध्ययन हो।

हम इस विमर्श में केवल उन्हें ही नहीं जोड़ना चाहते जो भारतीय भाषाओं को बचाने के लिए पहले से जागरूक और सक्रिय हैं। हम हर क्षेत्र और क्षमता के उन विशिष्ट लोगों को भी जोड़ना चाहते हैं जिनकी हमारी भाषाओं को ज़रूरत है भले ही स्वयं उन्हें अभी भाषाओं की ज़रूरत यूँ महसूस न होती हो, जो अभी इस घिरते संकट को देख नहीं रहे हैं।

इस विमर्श में शामिल होने का हम आपको निमंत्रण देते हैं। आपसे सहयोग की भी प्रार्थना करते हैं। इस विमर्श में बहुत सारे लोग, शक्ति और संसाधन लगेंगे। आप इसमें धन, समय और अपनी विशिष्ट दक्षता/क्षमता का योगदान दे सकते हैं।

आपकी प्रतिक्रिया का हम इंतज़ार करेंगे।

राहुल देव, सुरेन्द्र गंभीर, विजय कुमार मल्होत्रा