शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

सामाजिक मीडिया और हिन्दी




सामाजिक मीडिया और हिन्दी

आजकल जब लगभग हर चीज को सामाजिक मीडिया में उसकी उपस्थिति से नापा जा रहा है, हर संस्था, व्यक्ति, सरकार, कंपनी, साहित्यकर्मी से समाजकर्मी  तक और नेता से अभिनेता तक को सामाजिक मीडिया में उसके वज़न, प्रभाव और लोकप्रियता की कसौटी पर तौला जा रहा है यह स्वाभाविक है कि इस नई तकनीकी-सामाजिक शक्ति और भाषा के संबंध को भी हम समझने की कोशिश करें।

कुछ बुनियादी बातें शुरु में। यह सामाजिक मीडिया भी अंततः और प्रमुखतः एक तकनीकी चीज है और हर तकनीकी आविष्कार की तरह तत्वतः मूल्य-निरपेक्ष है। यानी हर तरह के काम के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है चाहे वह अच्छा हो या बुरा। इसलिए हर तकनीकी आविष्कार की तरह इसके दुरुपयोग पर हमें ज्यादा आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हर वैज्ञानिक या तकनीकी आविष्कार, यदि वह एक व्यापक समाज के लिए रोचक या उपयोगी है, अपनी एक नई जगह बना लेता है। यह जगह पूरी तरह नई भी हो सकती है या पुरानी कुछ चीजों को हटा कर, घटा कर बनाई गई जगह भी। और जब यह नई तकनीक संवाद और संप्रेषण से जुड़ी हो तो स्वाभाविक है कि वह अपनी विशिष्टताओं के साथ  संवाद और संप्रेषण के पुराने, मौजूदा तरीकों, उपकरणों और तकनीकों को कुछ विस्थापित करके ही अपनी जगह बनाती है।

 जब प्रिंट आया तो वाचिक संवाद की सर्वव्याप्तता घटी। जब रेडियो आया तो उसने लिखित और मुद्रित माध्यम को थोड़ा खिसका कर अपनी जगह बनाई। जब टेलीविजन आया तो बहुत से लोगों ने मुद्रित माध्यम के अवसान की घोषणा कर दी। उसका अवसान तो नहीं हुआ लेकिन उसके विकास, प्रभाव, व्याप्तता और राजस्व पर सीधा प्रभाव पड़ा और आज भी पड़ता ही जा रहा है। इतना कि आज टीवी प्रिंट माध्यम से प्रसार और राजस्व दोनों में लगभग आगे निकल रहा है। अब सोशल मीडिया नाम के इस नए प्राणी ने संचार माध्यमों की दुनिया को फिर बड़े बुनियादी ढंग से बदल दिया है। यह प्रक्रिया जारी है और कहां जाकर स्थिर होगी, क्या समीकरण और अनुपात होंगे इन नए माध्यमों के बीच, और कौन से नए, अभी अदृश्य माध्यम क्षितिज पर उभर कर इन समीकरणो को भी उलट पुलट कर देंगे यह कोई नहीं जानता।

लेकिन इन नए संप्रेषण मंचों और पुरानों में एक बुनियादी अंतर है- अखबार, पुस्तकों, पत्रिकाओं, रेडियो और टीवी से अलग इस माध्यम की संवाद क्षमता इसे शायद इन सबसे ज्यादा निजी, आकर्षक, अंतरंग और इसलिए शक्तिशाली बनाती है। दूसरे माध्यम एकदिशात्मक थे। यह नया माध्यम अंतःक्रियात्मक है, आपसी संवाद संभव बनाता है, अपने उपभोक्ता को केवल संप्रेषण का प्राप्तकर्ता नहीं, संवादी और संप्रेषक भी बनाता है। और अब जब यह डेस्कटॉप कम्प्यूटरों, लैपटॉपों से निकल कर मोबाइल फोन पर आ गया है तो सर्वव्यापी, सर्वसमय, सर्वत्र और सर्वसुलभ हो गया है।  इसीलिए यह इतना सम्मोहक, इतना सोख लेने वाला बनता जा रहा है।
  
और हर नए, अपने समय के लिए आधुनिक और सशक्त संचार-संवाद माध्यम की तरह इस सामाजिक मीडिया ने भी मानवीय संबंधों, परिवारों और रिश्तों के आंतरिक समीकरणों, तौर तरीकों, संवाद शैलियों को प्रभावित किया है। इसने राजनीतिक रणनीतियों, विमर्श और चुनावी नतीजों में अपनी जगह बनाई है। कंपनियों और उनके उत्पादों- सेवाओं के प्रचार- प्रसार, उपभोग, मार्केटिंग और ग्राहकों तक पहुंचने, उन्हें छूने के तौर तरीकों को बदला है। व्हाट्सऐप, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, लिंक्डइन आदि ने एक ऐसी आभासी दुनिया बना दी है जिसमें 8-10 साल के बच्चों से लेकर 50-60 की गृहणियों को भी अपने चंगुल में ऐसा फाँस लिया है कि उनका अधिकांश मुक्त समय इसमें ही खपने लगा है। व्यापार, उद्योग, अभिशासन, मनोरंजन, राजनीति और मीडिया जगत के लोगों के लिए तो ये मंच महत्वपूर्ण हैं ही।

इसलिए अब हमारी- आपकी बोलने और लिखने की भाषा पर भी उसका असर दिखने और कई बार सिर चढ़ कर बोलने लगे तो क्या आश्चर्य? सारी भाषाओं में यह असर है पर हमारी हिन्दी पर कुछ ज्यादा ही।
भाषा के दो प्रमुख आयाम हैं। एक, उसका शुद्ध भाषिक आयाम जिसमे उसके शब्दों, वाक्य रचना, व्याकरण, शब्दकोश आदि पर ध्यान रहता है। दूसरा, भाषा का सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक संदर्भ जिसमें उसके इन संदर्भो में प्रयोग, परिवर्तनो, अर्थों, प्रभावों आदि पर ध्यान होता है।

लेकिन केवल भाषा पर सामाजिक मीडिया के प्रभाव और उनके अन्तर्सम्बन्ध पर बात करने से बेहतर होगा हम आज के समय में संवाद और संप्रेषण तथा भाषा के सम्बन्ध पर उसकी संपूर्णता में बात करें। वह इसलिए कि हम जानते हैं कि भाषा यानी शब्द किसी शून्य में नहीं वृहत्तर समाज की तमाम प्रवृत्तियों, रुझानों, सक्रियताओं, प्रक्रियाओं और चलन के बीचों बीच स्थित, सक्रिय और गतिमान रहते हैं।
आज संसार की लगभग हर भाषा पर सामाजिक मीडिया के प्रभाव को महसूस किया जा रहा है, उसे समझने की कोशिश हो रही है और विमर्श हो रहा है। इस नए माध्यम ने हर नए माध्यम की तरह हर भाषा के प्रयोग के तौर तरीकों, शब्दकोश, शैली, शुद्धता, व्याकरण और वाक्य रचना को प्रभावित किया है। यह असर लिखित ही नहीं बोलने वाली भाषा पर भी दिख रहा है। जब ईमेल आई तो कहा गया कि पत्र लिखना ही समाप्त हो जाएगा। वह तो नहीं हुआ लेकिन हाथ या टाइपराइटर से पत्र लिखना ज़रूर लगभग खत्म हो गई है। कम से कम उनमें जो कम्प्यूटर तक पहुंच गए हैं। पर बात यहीं तक नहीं है। अब एसएमएस, ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सऐप ने बहुत से लोगों के लिए ईमेल को भी अनावश्यक और अप्रासंगिक बना दिया है।

एसएमएस ने तो अंग्रेजी से शुरु करके हर भाषा में शब्दों के रूप रंग और वर्तनी को सिर के बल खड़ा कर दिया है। छोटे से फोन की स्क्रीन पर समय और श्रम बचाने के लिए शब्दों के संक्षिप्ततम रूपों के आविष्कार से लेकर एकदम नए शब्दों (उन्हें शब्दिकाएं कहें तो क्या ज्यादा सटीक न होगा...?) को गढ़ लिया गया है। आज जिस एलओएल (lol) का इस्तेमाल हिन्दी वाले भी धड़ल्ले से कर रहे हैं हिन्ग्लिश या रोमन हिन्दी में उसके आविष्कार को 25 साल हो चुके हैं। और बिना उसका असली रूप और अर्थ समझे उसका इस्तेमाल करने वाले बहुत से युवा ज्ञानी हिन्दी में उसे लोल्ज़ लिखने-बोलने लगे हैं।

भाषा और शब्दों के सौन्दर्य, मर्यादा, गरिमा और स्वरूप की चिन्ता करने वाले सभी इस नई भाषा के प्रभाव और भविष्य पर तो चिन्तित हैं ही इस पर भी हैं कि इस खिचड़ी, विकृत, कई बार लंगड़ी भाषा की खुराक पर पल-बढ़ रही किशोर और युवा पीढ़ी वयस्क होने पर किसी भी एक भाषा में सशक्त और प्रभावी संप्रेषण के योग्य बचेगी या नहीं। यह खतरा इसलिए भी गंभीर होता जा रहा है कि ये नई पीढ़ियां पाठ्यपुस्तकों के अलावा कुछ भी गंभीर, स्वस्थ, विचारपूर्ण लेखन, साहित्य, वैचारिक पठन से लगातार दूर जा रही हैं। अच्छी, असरदार भाषा अच्छा पढ़ने से ही आती है। अच्छी भाषा के बिना गहरा, गंभीर विचार, विमर्श, चिंतन और ज्ञान-निर्माण संभव नहीं।

वे पीढियां जो विद्यालयों की मजबूरन पढ़ाई के बाहर केवल या अधिकांशतः यह खिचड़ी, लंगड़ी-लूली, भ्रष्ट भाषा ही पढ़ लिख रही हैं उसकी बौद्धिक क्षमताएं ठीक से विकसित होंगी कि नहीं? अगर गंभीर चिंतन और विमर्श में सक्षम ही नहीं होंगे हमारे भावी नागरिक तो उसका उनके विकास के अवसरों और व्यापक सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, बौद्धिक, राजनीतिक विकास पर कैसा असर पड़ेगा इस पर अभी हमारे बौद्धिक समाज, सरकार और नीतिनिर्माताओं का ध्यान बहुत कम गया है।

हिन्दी पर यह मार दोहरी है। स्वाभिमानी समाजों के विपरीत व्यापक हिन्दी समाज एक आत्मलज्जित समाज है। अंग्रेजी की शक्ति और प्रतिष्ठा से आक्रांत, स्वभाषा-गौरव से हीन, अंग्रेजी और अंग्रेजी वालों के सामने भीतर से दीन हो जाने वाला यह समाज अपनी सहज, सुपरिचित, सशक्त हिन्दी में अंग्रेजी के शब्द ठूंस कर अपना दैन्य ढंकने की कोशिश में इतना व्यस्त है कि उसे पता ही नहीं चल रहा कि वह किसी भी भाषा के घर और घाट से वंचित भाषिक अपाहिज बनता जा रहा है।

लेकिन सामाजिक मीडिया का असर सारा नकारात्मक ही नहीं है। ट्विटर और एसएमएस की शब्द सीमा ने, खास तौर पर ट्विटर की, अपनी बात को चुस्त, कम से कम शब्दों में, 140 मात्राओं के भीतर कहने के अभ्यास को संभव बनाया है। संक्षिप्त, चुस्त, चुटीले किन्तु प्रभावी संप्रेषण का यह अभ्यास हमारी लंबी चौड़ी, अनावश्यक लफ्फाजी की हमारी पुरानी आदतों के लिए अच्छी खुराक है।

सामाजिक मीडिया ने सार्वजनिक अभिव्यक्ति और एक बड़े समुदाय तक निडर और बिना रोक- टोक और नियन्त्रण के अपनी बात, अपनी सोच और अनुभव पहुंचाना संभव बना कर अरबों लोगो को एक नई ताकत, समाज और अभिशासन में, छोटी बड़ी बहसों मे भागीदारी का नया स्वाद और हिम्मत दी है। सामाजिक विमर्श की यह मुक्त लोकतांत्रिकता शुभ है। लोकतांत्रिक भावना और व्यवहार को व्यापक और गहरा और समावेशी बनाने वाली है। इस नई ताकत ने सरकारों, शासनों, शासकों को ज्यादा पारदर्शी, संवादमुखी और जवाबदेह बनाया है, जनता के मन और नब्ज़ को जानने का नया माध्यम दिया है।

सामाजिक मीडिया की ताकत ने शासनों को, पार्टियों को, नेताओं उनके फैसलों, नीतियों और व्यवहारों को बदलने पर भी मजबूर किया है। यह सब स्वागतयोग्य है।

पर क्या इस मीडिया ने लोक- विमर्श को ज्यादा गंभीर, गहरा, व्यापक, उदार बनाया है? क्या जब करोड़ों लोग एक साथ इतना लिख- बोल रहे हैं इन मंचों पर उससे सार्वजनिक विमर्श की गुणवत्ता बढ़ी है, स्तर बेहतर हुआ है?

इस पर दो टूक राय देना संभव नहीं क्योंकि संसार में कुछ भी एकांगी, एकदिशात्मक नहीं होता, जैसा हम शुरु में ही कह चुके हैं। विमर्श की व्यापकता, भागीदारी, समावेशी चरित्र और विशालता बढ़ी है। ऐसे अनन्त लेखक, विचारक, प्रबुद्ध, चिंतनशील नागरिक सामने आए हैं जो अब तक अखबारों, पत्रिकाओं, चैनलों से बाहर थे। उन्हें भी तमाम नामी, स्थापित लोगों के साथ सीधे संवाद करने और उसे समृद्ध बनाने का अवसर मिला है। लेकिन हर तस्वीर की तरह इसका दूसरा पहलू भी है।


भाषा की आंतरिक संरचना और बाह्य प्रयोग को प्रभावित, और कई बार विकृत भी, करने के साथ साथ इस मीडिया द्वारा प्रयोगकर्ताओं को दी गई अज्ञातता ने एक नए तरीके की प्रवृत्ति को जन्म दिया है। इस अज्ञातता का लाभ उठा कर बहुत से लोगों ने गाली गलौज, अश्लीलता, वाचिक हिंसा और बेहद आपत्तिजनक, हिंसक और अपमानजनक बातों की अभिव्यक्ति से पूरे विमर्श को दूषित किया है। यह इतना बढ गया है कि किसी भी मुद्दे पर फेसबुक या ट्विटर पर एक शालीन बहस या संवाद करना ही लगभग असंभव हो गया है।

इस सामाजिक मीडिया का असामाजिक, सभ्यता-विरोधी चेहरा भी सामने आया है। विचारहीन, कुत्सा, अज्ञान, क्रूरता, प्रतिहिंसा, घृणा से भरे, सच्चे- झूठे आक्रोशों, कुंठाओं, दुराग्रहों से तिलमिलाते, कुढ़ते दिमागों को अपनी गंदगी इन माध्यमों पर निकालने का भी मौका और मंच मिल गया है और वे पूरे जोश से इसका फायदा उठा रहे हैं। इस परिघटना को समानांतर रूप से समाज और राजनीति में बढ़ती खाइयों, दूरियों, दुराग्रहों और दुरभिसंधियों ने बढ़ाया और तीखा किया है। अंग्रेजी में ट्रौलिंग कहलाने वाली इस प्रवृत्ति ने गालियों, धमकियों, चरित्र हत्या का सहारा लेकर बहुत से क्षेत्रों के प्रमुख व्यक्तियों, नेताओं, पत्रकारों, चिंतकों, अभिनेताओं के निजी जीवन को प्रभावित किया है।

संवाद, संप्रेषण और उनकी भाषा की सारी मर्यादाओं और शालीनता का यह बढ़ता अतिक्रमण और प्रदूषण अंततः अगली पीढ़ियों की सहज संवाद शैली का स्थाई अंग और तरीका न बन जाए इसकी चिन्ता करना समाज के सभी प्रबुद्ध वर्गों के साथ साथ राज्य की संस्थाओं और उनके नियामकों की साझा जिम्मेदारी है।

राहुल देव
13.9.2016


जागरण के लिए लिखा गया।

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

पत्रकारिता की भाषा

पत्रकारिता की भाषा


ज्ञान और प्रयोग के विभिन्न क्षेत्रों की जरूरत के हिसाब से अलग अलग तरह की भाषा के अस्तित्व और आवश्यकता को सब स्वीकार करते हैं। किसी भी भाषाविद से, या विचारवान व्यक्ति से पूछ लीजिए वह इससे सहमत होगा। लेकिन हमारी हिन्दी पत्रकारिता के वरिष्ठ लोगों तक में वर्षों से यह वैचारिक चलन पनपता रहा है कि पत्रकारिता की भाषा चूंकि सरल, सहज, सुगम होनी चाहिए इसलिए उसे सड़क की या बाजारू, अर्धशिक्षित सी भाषा बनाने में कोई हर्ज नहीं अच्छाई ही है। यूं हिन्दी के रक्षकों ने ही उसे सहज, सरल बनाने के नाम पर आहत, अशक्त करने, अपाहिज बनाने का बीड़ा सा उठाया हुआ है। सब इसमें शामिल नहीं पर काफी प्रभावशाली लोग, अखबार और समाचार चैनल जोरशोर से इसमें लगे हुए हैं।
कुछ साल पहले प्रसिद्ध लेखक-चित्रकार प्रभु जोशी ने एक लेख श्रंखला लिखी थी। हिन्दी को मारने के अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय षडयंत्र और उनकी रणनीतियों पर ऐसा तीखा, मर्मस्पर्शी, अन्तर्दृष्टिपूर्ण लेखन हिन्दी में शायद अब तक नहीं हुआ था। उसमें पहली बार प्रभु जोशी ने हिन्दी के कई बड़े अखबारों पर सीधे सीधे हिन्दी की हत्या का आरोप लगाया था। यह भी कहा था कि वे जानबूझ कर अंग्रेजी के लिए नर्सरी तैयार कर रहे हैं।
मुझे हिन्दी के प्रति ऐसे किसी सुनियोजित राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय षडयंत्र होने की बातों पर संदेह रहा है, भले ही यह मेरा भोलापन हो। लेकिन एक सच तो यह है ही कि धीरे धीरे, जाने या अनजाने हिन्दी के समाचार चैनल, मनोरंजन चैनल और कई बड़े अखबार हिन्दी को रोज कमजोर करने में लगे हुए हैं।
नई पत्रकारिता में एक बड़ा अन्तर, जिसे पीढ़ियों का अन्तर कह सकते हैं, यह आया है कि संपादकों, पत्रकारों की यह नई पीढ़ी अपनी यह भूमिका स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि वह अपनी भाषा से अपने पाठकों, दर्शकों की भाषा का निर्माण और संस्कार करते हैं। पत्रकारिता की लोक शिक्षक की भूमिका निर्विवाद है। यह भूमिका स्वयं ही एक जिम्मेदारी भी निश्चित कर देती है। यह जिम्मेदारी मीडिया की सामाजिक जिम्मेदारी से पूरी तरह जुड़ी हुई तो है पर उससे अलग है, अतिरिक्त है।
मीडिया बिना वित्त के नहीं चलता। चल नहीं सकता। वह वित्त निर्माण यानी लाभ करे यह भी जरूरी है। लेकिन वह एक व्यावसायिक गतिविधि, एक उद्योग होने के साथ साथ समाज का चित्त निर्माण भी करता है। इस चित्त में शामिल है लगभग वह सबकुछ जो नागरिकों, और बच्चों की भी, चेतना में जाता है, रहता है, सक्रिय रहता है या असक्रिय रह कर भी बीज की तरह पड़ जाता है भविष्य़ में कभी उग कर बड़े बन जाने वाले पौधे की तरह। इस चेतना में नागरिकों की राजनीतिक चेतना, सामाजिक चेतना, जागरूकता, जानकारी, पूर्वाग्रह, पसन्द-नापसन्द, आकांक्षाएं, अभीप्साएं, वासनाएं, सामाजिक और निजी नैतिकता की परिवर्तनशील कसौटियां, आदर्श यानी रोल मॉडल, देश-विदेश के तमाम महत्वपूर्ण विषयों पर राय, विचार, उपभोग के रुझान, जीवनशैलियों की इच्छाएं....सूची अनन्त है।
इन सबके साथ मीडिया समाज की, अपने दर्शकों-पाठकों की भाषा और अभिव्यक्ति क्षमता का भी निर्माण करता है। जहां आपसी बातचीत की सामान्य, अनौपचारिक भाषा का निर्माण समाज और उसके विभिन्न वर्गों के सहज भाषा व्यवहार से, बाजार की बातचीत से होता है वहीं औपचारिक, उच्चस्तरीय, बौद्धिक, ज्ञान की परिष्कृत भाषा का निर्माण उसके साहित्य और जन माध्यमों यानी मीडिया से होता है। हर व्यक्ति और समाज को दोनों तरह की भाषा की जरूरत होती है- सामान्य लोकव्यवहार की अनौपचारिक हल्की फुल्की भाषा और गंभीर, महत्वपूर्ण ज्ञान प्राप्ति, विचार, विमर्श और ज्ञान निर्माण जैसे उच्चतर कामों के लिए एक औपचारिक, परिष्कृत, संस्कृत भाषा की। दूसरी भाषा स्वाभाविक ही पहली की तुलना में कठिन और यत्नसाध्य होती है। अनौपचारिक भाषा अपने आप आ जाती है। औपचारिक, गंभीर कामों-विचारों-अभिव्यकतियों वाली भाषा सीखनी पड़ती है, साधनी पड़ती है।
लेकिन पिछले कई सालों से नया चलन यह कहने, मानने और बरतने का चल गया है कि चूंकि मीडिया की भाषा को सहज, सरल, आम फहम होना चाहिए इसलिए उसे अनिवार्यतः बाजार की, गली मोहल्लों में बोली जाने वाली हिन्दी ही होना चाहिए। किसी भी गंभीर, औपचारिक, परिष्कृत और उच्चतर विमर्श में प्रयोग होने वाले शब्दों का प्रयोग करना हिन्दी को कठिन, दुरूह और बोझिल बनाना है। और चूंकि बाजार की हिन्दी में अंग्रेजी शब्द भर गए हैं, सामान्य सरल हिन्दी शब्दों को बाहर धकेल कर फादर, मदर, सिस्टर, रूम, चेयर, टीचर, स्टूडेंट आदि सैकड़ों शब्द उस तथाकथित हिन्दी के आम आदमी की जिन्दगी में आ गए हैं इसलिए मीडिया की हिन्दी को भी आम फहम बनाने के लिए उसमें इन शब्दों का यथावत प्रयोग अनिवार्य हो गया है, वांछनीय हो गया है। तो समीकरण यह बनता है- सहज, सरल हिन्दी यानी हिन्ग्लिश। हिन्दी हिन्दी बनी रह कर सहज नहीं रह सकती। हिन्गलिश ही अब हिन्दी है।
यह एक आश्चर्यजनक स्थापना है। दुनिया के दूसरे देशों के मीडिया और भाषा प्रयोग को तो छोडिए, अपने ही देश में अंग्रेजी अखबारों, चैनलों को देख लीजिए। क्या अंग्रेजी के पत्रकार, अखबार, पत्रिकाएं, चैनल अपनी अंग्रेजी में वैसी ही हिन्दी या दूसरी भाषाओं की मिलावट करते हैं जैसी हिन्दी वाले करते हैं? क्या अंग्रेजी मीडिया की अंग्रेजी सडकछाप अंग्रेजी है? क्या अंग्रेजी में कठिन, पारिभाषिक, जटिल शब्दों का प्रयोग नहीं होता? खूब होता है पर अंग्रेजीभाषी समाज में यह कभी बहस नहीं चलती कि अंग्रेजी मीडिया की अंग्रेजी कठिन है, उसे सरल बनाना चाहिए।
मैं अक्सर हिन्दी के एंकरों, संवाददाताओं से सीधे पूछता हूं- क्या अंग्रेजी के एंकर, संवाददाता अपनी अंग्रेजी से वैसी छूट लेते हैं जैसी आप लेते हैं? नहीं न, तो क्या आपमें क्षमता कम है, बुद्धि कम है, क्या आपमें आत्मसम्मान कम है या भाषा-स्वाभिमान कम है, क्या भीतर कहीं हीनता महसूस करते हैं जिसे भरने के लिए अंग्रेजी के शब्द ढूंसते है, क्या आप उनसे हीन हैं जो ऐसा करते हैं? दूसरी बात उनके सामने रखता हूं- आप अपनी यह भूमिका या प्रभाव स्वीकार करें न करें लेकिन बच्चों, किशोरों, वयस्कों की एक बहुत बड़ी संख्या आपको देख कर, सुन कर जाने और अनजाने दोनों तरीकों से भाषा सीखती है। शब्द सीखती है, उनका इस्तेमाल और अभिव्यक्ति सीखती है। अधिकांश दर्शकों के लिए एंकरों, संवाददाता की भाषा अनजाने में भाषा-मानक गढ़ने का काम करती है। वे जिन शब्दों, अभिव्यक्तियों, शैली का प्रयोग करते हैं वह लोगों के लिए मानक, स्वीकार्य और अनुकरणीय बन जाते हैं। यह प्रक्रिया अवचेतन और चेतन दोनों स्तरों पर घटती है। 
टीवी की भाषा का सबसे सीधा, प्रत्यक्ष प्रभाव अगर देखना हो तो उन बच्चों की हिन्दी में देखा जा सकता है जो नियमित हिन्दी के कार्टून चैनल देखते हैं। बहुत से बच्चे इन चैनलों की नकली, किताबी लेकिन खासी खालिस हिन्दी बोलने लगे हैं, उसके शब्दों, अभिव्यक्तियों और अदा के साथ।  जाहिर है वयस्कों पर टीवी का असर इतना सीधा नहीं होता, पर होता जरूर है। सामान्य लोग चैनलों में सुनाई देने वाली और अखबारों में दिखने वाली भाषा को अनजाने में ही अपनाने और बरतने लगते हैं। जब इन जगहों पर भी सड़क पर बोली जाने वाली भ्रष्ट, सस्ती, खिचड़ी, अनावश्यक अंग्रेजी-लदी भाषा सुनते-देखते हैं तो उनकी अपनी भ्रष्ट भाषा को वैधता, अनुमोदन और शक्ति मिलती है।
इस भाषा के हिमायती, मीडिया में अपसंस्कृति, अपराध, सनसनीखेज चीजों जैसी दूसरी आपत्तिजनक बातों की सफाई की तरह, यह पुरानी दलील देते हैं कि जो आम लोग बोलते हैं हम वही बोलते-लिखते हैं। यह मुर्गी और अंडे जैसा तर्क लग सकता है पर दरअसल है नहीं। यह आलसी, विचारहीन, भाषाहीन, गैरजिम्मेदार या केवल मालिक का हुक्म बजाने को तत्पर, मजबूर, कमजोर, रीढ़हीन लोगों का तर्क है जिसके लिए भाषा बहता नीर की ढाल का भी सहारा लिया जाता है।
यह ऐसे लोगों का तर्क है जो या तो जानते नहीं या शुतुर्मुर्ग की तरह देखना नहीं चाहते कि लगभग हर देश और भाषा की पत्रकारिता ने अपनी अपनी भाषा को अपने अभिनव, रचनात्मक प्रयोगों से समृद्ध किया है, उसे नए शब्द, नई अभिव्यक्तियां, शैलियां दी हैं। अपनी हिन्दी के पुराने, अनगढ़ रूप को भी परिष्कृत, समृद्ध और आधुनिक समय की जरूरतों और विषयों के अनुरूप समर्थ बनाने का काम बहुत बड़ी मात्रा में बड़े संपादकों ने ही अपने अखबारों, पत्रिकाओं के जरिए किया था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, अम्बिका प्रसाद बाजपेई, माधव सप्रे, बाबूराव विष्णु पड़ारकर, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि ने हिन्दी को राष्ट्रपति, संसद जैसे शब्द दिए, अर्थशास्त्र, विज्ञान, दर्शन, समाजशास्त्र, अन्तरराष्ट्रीय संबंधों जैसे नए विषयों में गंभीर लेखन योग्य बनाया।
कहा जाता है वह समय गया जब पुरानी पीढ़ी के लोग अखबार पढ़कर अपनी भाषा संवारने, सुधारने और सीखने का काम करते थे। यह भी गलत है। आज भले ही नई पीढ़ी अखबार, पत्रिकाएं कम पढ़ती है, और यह प्रवृत्ति बढती जा रही है, तब भी वह अपनी भाषा, नई अभिव्यक्तियां, भाषा प्रयोग के नए तौर-तरीके अधिकांशतः मीडिया से ही प्राप्त करती है भले ही मीडिया के उनके मंच अखबार न होकर इंटरनेट और मोबाइल फोन हों।
मंच बदलते रह सकते हैं, अब ईमेल, संदेश और समाचार हाथघड़ी पर पढ़ने का भी समय आ चुका है, पर एक बात कभी नहीं बदलेगी मनुष्य के जीवन में- वह है भाषा की केन्द्रीयता, भूमिका और महत्ता। और तकनीक इतनी लचीली और समर्थ होती है कि वह जटिल से जटिल भाषा की जरूरतों के अनुरूप ढल जाती है। आखिर दुनिया के सबसे आईटी-सक्षम, इंटरनेट-दक्ष और डिजिटलजीवी लोग- चीनी, जापानी, कोरियाई, रूसी, इजराइली- आधुनिक से आधुनिक तकनीकों, उत्पादों, कम्प्यूटरों, मोबाइलों का प्रयोग अपनी अपनी भाषा और लिपि में ही करते हैं। उन भाषाओं में जो सबसे कठिन और जटिल कही जाती हैं। भाषा और तकनीक में कोई विरोध, कोई असामन्जस्य नहीं है।
इन सारी बातों के बावजूद हम पाते हैं कि हिन्दी चैनलों और अखबारों में हिन्ग्लिश लगातार बढ़ती जा रही है। इसके कारण कई है। पहला तो इस आत्मलज्जित, स्वाभिमानहीन, घटिया समाज में अंग्रेजी का ऐसा ऐतिहासिक आतंक है कि आम हिन्दी वाला अंग्रेजी और अंग्रेजी वालों के सामने हीन, दीन और दुर्बल महसूस करता है। इस आत्महीनता, दीनता की कमी वह अपनी हिन्दी में अधिक से अधिक अंग्रेजी ढूंस कर करता है। यह बात और है कि इससे वह अंग्रेजीदां लोगों के बीच अपने को हास्यास्पद ही बनाता है। इस हीनता ग्रंथि से हिन्दी के बड़े बड़े दिग्गज संपादक, पत्रकार, लेखक, शिक्षक भी ग्रस्त पाए जाते हैं। विश्वविद्यालय के हिन्दी प्रोफेसर भी कक्षा के बाहर सामान्य बातचीत में यह ग्रंथि प्रदर्शित करते हैं, यह जताने की कोशिश में रहते हैं कि वे अंग्रेजी में भी निष्णात हैं। निन्यान्नबे प्रतिशत को तो दरअसल केवल हिन्दी बोलने का अभ्यास ही नहीं रह गया है। यह इसलिए भी है कि घटिया हिन्ग्लिश बोलने पर कोई टोकता नहीं, उनको गलती और शर्म का अहसास नहीं कराता। नतीजा यह है कि हिन्दी से अनुराग रखने वाले, उसकी रोटी खाने वाले लोग भी धीरे धीरे कुछ इस व्यापक स्वभाषा-संकोच, कुछ अपनी असावधानी और अचेत भाषा व्यवहार के कारण सहज ही हिन्ग्लिश भाषी हो गए हैं। उनके मुंह से आदतन यह अंग्रेजी-मिश्रित हिन्दी ही निकलती है। एंकरिंग में, टीवी पर संवाद देते हुए या मंचों पर।
अच्छी हिन्दी अब केवल हिन्दी की साहित्यिक गोष्ठियों, पुस्तकों, अखबारों के संपादकीय पन्नों, साहित्यिक-बौद्धिक पत्रिकाओं में ही पाई जाती है। अच्छी, प्रांजल हिन्दी सुनना अब एक दुर्लभ सुख है।
जीवन को आगे बढ़ाने, अच्छे अवसर, नौकरियां और इज्ज़त पाने में अंग्रेजी की अनिवार्यता को पूरे भारत ने इस कदर आत्मसात कर लिया है कि अपनी भाषा बोझ लगने लगी है, शर्म और मजबूरी की वस्तु लगनी लगी है जिसे जितनी जल्दी उतार कर फेंका जा सके उतना अच्छा है। लेकिन इस भाव का असर जितना हिन्दी समाज पर पड़ा है उतना मराठी, बंगला, तमिल, मलयालम आदि पर नहीं। अंग्रेजी का आकर्षण, उस पर अधिकार और प्रयोग वहां भी है, शायद हमसे ज्यादा ही, पर इस कदर आत्मदैन्य, अपनी भाषा पर शर्म के साथ नहीं। इसके सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक-आर्थिक कारणों के विश्लेषण का यहां समय नहीं है पर हिन्दी पट्टी के साफ दिखने वाले सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक पिछड़ेपन को सीधे इस आत्मलज्जा से जोड़ा जा सकता है।
दुर्भाग्य से हमारी पत्रकारिता भी इसके प्रभाव में आ गई है। एक समय था जब यह पत्रकारिता भाषा सहित तमाम क्षेत्रों में समाज का नेतृत्व करती थी, आगे चलती थी और उसे समृद्ध करती थी। आज कम से कम भाषा और कथ्य में वह समाज का अनुसरण कर रही है। यह समाज के लिए भी घातक है, पत्रकारिता के लिए भी और भाषा के लिए भी। अगर एक जिम्मेदार, जनसरोकारी, सोद्देश्य, मूल्य-आधारित, मूल्य-वर्धी पत्रकारिता के हम हिमायती हैं, चाहते हैं कि अपनी तमाम समकालीन चुनौतियों का सामना करते हुए भी भी कुछ आदर्शों, सामाजिक अपेक्षाओं और अपने उच्चतर दायित्वों के प्रति जवाबदेह और प्रतिबद्ध बनी रहे तो विचार, ज्ञान, लोकतांत्रिकता आदि का संवर्धन करने के साथ साथ भाषा के लिए भी ऐसी ही निर्माणकारी भूमिका और उत्तरदायित्व को स्वीकार करना होगा।
एक तरह से हिन्दी सहित सारी भारतीय भाषाओं को बचाने का काम पत्रकारिता से बेहतर शायद कोई नहीं कर सकता। क्योंकि भाषाओं को बचाने, बढ़ाने और उनके माध्यम से भारतीयतामात्र को बचाए रखने और बढ़ाने के लिए तमाम विरोधी राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय शक्तियों का मुकाबला करने के लिए जो शक्तिशाली जनमत चाहिए उसे पत्रकारिता यानी मीडिया ही तैयार कर सकता है। यह तब हो सकेगा जब मीडिया और हर स्तर पर उसमें कार्यरत लोग यह समझेंगे कि हमारी सारी भाषाओं पर बहुत गहरा, विराट, अस्तित्वमूलक संकट है। अगर उससे निपटा नहीं गया तो वह समूची भारतीय सभ्यता को लील सकता है। इस संकट की प्रकृति को समझ कर समाज, सरकार, न्यायपालिका, संसद-विधानसभाओं, संस्थाओं, शैक्षिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठान को सचेत, सक्रिय करने का काम मीडिया ही कर सकता है। पर यह तो वह तभी कर पाएगा जब खुद अपनी भाषा को बचा पाएगा, और उसके सही, सगर्व, सम्यक्, सामूहिक प्रयोग से उसे संवर्धित भी करेगा।


राहुल देव


10 जुलाई, 2015

(साहित्य अमृत पत्रिका के पत्रकारिता विशेषांक में प्रकाशित)

शनिवार, 26 जुलाई 2014

सीसैट और भाषा-माध्यम प्रतियोगी

सीसैट और भारतीय भाषा माध्यम प्रतियोगी


संघ लोकसेवा आयोग की प्रारम्भिक परीक्षा में सीसैट के सवाल पर उद्वेलित, आंदोलित छात्रों का आक्रोश जायज है। यह समूचे भारतीय उच्च शिक्षा जगत, और उससे निकलने वाले युवाओं के भविष्य के संदर्भ में केन्द्रीय महत्व का ऐसा मुद्दा है जिसे मौन और उपेक्षा  के एक लगभग अखिल भारतीय अनौपचारिक षडयंत्र के तहत अब तक किसी तरह दबा-छिपा कर रखा गया था।  आज यह इस आंदोलन के रूप में विस्फोट के साथ बाहर आ गया है। अब इसे राष्ट्रीय चिन्ताओं के हाशियों पर रखना कठिन होगा।

मूल प्रश्न है कि इस सहित हर परीक्षा के प्रतिभागियों को स्वस्थ प्रतियोगिता के लिए एक अनिवार्यतः समतल, समतापूर्ण मंच या मैदान मिलना चाहिए कि नहीं, वह जिसे अंग्रेजी में लेवल प्लेयिंग फील्ड कहते हैं।  अगर हम इस बुनियादी सत्य को मानते हैं कि प्रकृति मानव प्रतिभा का वितरण समान भाव से करती है और सबको अपने विकास के समान अवसर मिलने चाहिए तो नौकरियां हों या स्व-रोजगार, व्यवसाय हो, निजी क्षेत्र हो या सरकारी, उनमें प्रवेश की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो प्रतिभा/योग्यता को जांचे, पुरस्कृत करे लेकिन भाषा/वर्ग/पृष्ठभूमि-निरपेक्ष हो। यह सबको सच्ची समान शिक्षा देने वाले तंत्र से ही संभव है। लेकिन दुर्भाग्य और हमारे प्रभुवर्ग के आपराधिक षडयंत्र से यह भारत में लगभग असंभव बना दिया गया है। 

सन 2011 से संघ लोकसेवा आयोग ने जो बदलाव किए उनसे किसी को फायदा हुआ हो या नहीं, लेकिन हिन्दी सहित सारे भारतीय भाषा-माध्यम प्रतियोगियों के लिए इस परीक्षा में पार होना दुरूह बनाकर देश के उच्चतम प्रशासनिक वर्ग को और ज्यादा असमतापूर्ण, अन्यायपूर्ण, वर्गवादी, अभिजनवादी, अंग्रेजीपरस्त और भारतीय भाषा/मनीषा विरोधी बनाने का रास्ता साफ किया है। पिछले तीन सालों में इस परीक्षा में सफल होने वाले भारतीय भाषा-माध्यम प्रतियोगियों की तेजी से घटी संख्या इस बात का प्रमाण है कि इस सीसैट पर्चे ने अंग्रेजी-माध्यम शिक्षित, शहरी, संपन्न और इंजीनियरिंग/विज्ञान/प्रबन्धन/वाणिज्य धाराओं के छात्रों को अनुचित बढ़ावा दिया है, भारतीय भाषा-माध्यम के, ग्रामीण, निम्न मध्यवर्गीय और निर्धन तथा मानविकी छात्रों को नुकसान पहुंचाया है। 

यह समूची हिन्दी पट्टी के युवाओं के लिए एक दोहरा आघात है क्योंकि निजी उद्योगों, उद्यमिता, नए तकनीक-आधारित रोजगारों/नौकरियों से मिलने वाले विकास अवसरों से वंचित इस युवा शक्ति के सामने सरकारी नौकरी ही सबसे बड़ा और लगभग एकमात्र अवसर बचा है। संघ लोकसेवा आयोग के माध्यम से उच्चतम प्रशासनिक पदों को पाना इस आधे भारत के प्रतिभाशाली युवाओं के लिए अपनी महत्वाकांक्षांओं को साकार करने का सर्वोत्तम और सुलभ साधन बचा है। अंग्रेजी की छननी का इस्तेमाल करके उनकी शुरुआती दौर में ही ऐसी छंटनी कर देना एक क्रूर और अक्षम्य अपराध है। 

संघ लोकसेवा आयोग इस पूरे विवाद में सबसे ज्यादा जवाबदेह होना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनकी ओर से कोई स्पष्टीकरण और आश्वासन देश को अभी तक नहीं मिला है। आशा करें कि इतने प्रतियोगियों को लगी चोटें, उन्हें मिली जेल आयोग के नियन्ताओं की संवेदना को कुछ सक्रिय करेंगे। 

राहुल देव 


(कल्पवृक्ष टाइम्स, आगरा के लिए लिखी टिप्पणी) 

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

भारतीय भाषाओं का भविष्य






भारतीय भाषाओं का भविष्य

हम एक भाषिक-सांस्कृतिक अनर्थ की ओर बढ़ रहे हैं। मैं तो इसे एक प्रलयंकारी संभाव्यता मानता हूँ। यह भी मानता हूँ कि खतरों को देखना, समझना और डरना बचने के लिए ज़रूरी हैं। भय एक उपयोगी भाव है बशर्ते हम उसका उपयोग करके बचाव का उद्यम कर सकें। जिन्हें अदूरदर्शिता या अति विश्वास या अज्ञान में खतरा दिखता ही नहीं वे मारे जाते हैं।

भाषाओं को केवल साहित्य और बातचीत का माध्यम मान लिया गया है। लेकिन वे हमारी समूची सांस्कृतिक, सामाजिक चेतना और पारंपरिक, ऐतिहासिक ज्ञान संपदा की वाहक हैं। हमारी पूरी विरासत, हमारे राष्ट्रीय बोध का माध्यम हैं, निर्माता हैं।

यह दुर्भाग्य की बात है कि भाषाओं को बोली के रूप में ही देखा सोचा जा रहा है। बोलियों के रूप में उनका उपयोग बना हुआ है और मीडिया तथा मनोरंजन की दुनिया में उनके बोली-रूप के विस्तार को भाषा विस्तार माना जा रहा है। यह खतरनाक भ्रम है।
वही भाषा है जिसमें लोग पढ़ना, लिखना और बोलना तीनों करते हैं। इस दृष्टि से देखें तो कम या ज्यादा तेज़ी से लगभग सभी भाषाओं का प्रयोग जीवन के सभी गंभीर कामों में घट रहा है, खास तौर पर शिक्षित युवा पीढ़ी में।
इसके दूरगामी नतीजे बेहद चिंताजनक हैं। इसमें दो बातों का विचार ज़रूरी है। एक, भारतीय भाषाओं की यह गति अभी तक लगभग अपने आप ही, समाज द्वारा ही अंग्रेज़ी को ज्यादा महत्व देने के कारण हुई है। अब स्वयं सरकार ज्ञान आयोग की सिफारिशों के माध्यम से भारतीय भाषाओं को फाँसी देने का काम करने जा रही है।

दुःख यह है कि इतने बड़े, अपने असर में भयानक परिवर्तन पर देश में कोई व्यापक चर्चा नहीं है। छोटे समूहों, निजी स्तर पर काफी लोग इस परिवर्तन को महसूस कर रहे हैं लेकिन इसे बदला जा सकता है यह आत्म विश्वास अपने अकेले के भीतर नहीं पाते। इसे अटल मान लिया गया है।

मेरी हिन्दी के अलावा मराठी, मलयालम, कन्नड़, बाँगला, गुरुमुखी, गुजराती भाषा समुदायों के प्रमुख, प्रबुद्ध लोगों से बातचीत हुई है। सभी शुरुआती संदेह के बाद सहमत हो जाते हैं कि एक से दो पीढ़ी के बाद इन सभी भाषाओं का सिर्फ गरीबों, पिछड़ों, घोर वंचितों की भाषा भर रह जाना निश्चितप्राय है।

ऐसा नहीं कि लोगों में अपनी भाषाओं से प्रेम मर गया है। सिर्फ़ यह है कि भाषा की समझ, भाषा की भूमिका और भाषा की ज़रूरत की समझ घट गई है या सक्रिय विचार से बाहर हो गई है साहित्य की छोटी सी दुनिया को छोड़ कर।

सरकारों से, राज्य के समूचे विराट ढाँचे से इन सूक्ष्म परिवर्तनों को समझने, उनके बारे में कुछ सम्यक् करने की उम्मीद करना नादानी है।

मैं केन्द्रीय हिन्दी समिति का तीन-चार साल से सदस्य हू प्रधानमंत्री उसके अध्यक्ष हैं। छह मुख्यमंत्री, छह केन्द्रीय मंत्री, मंत्रालय सचिव, हिन्दी के कई मूर्धन्य सदस्य हैं। लेकिन दो-तीन बैठकों के बाद मेरा अनुभव है कि हिन्दी के प्रसार, प्रभाव, प्रतिष्ठा और प्रयोग को बढ़ाने में समिति का योगदान नगण्य है। पैंतालीस साल से राजभाषा के रूप में हिन्दी के लिए केन्द्रीय, प्रादेशिक, सरकारी-गैरसरकारी स्तरों पर अरबों रुपए खर्च हुए हैं। लगभग आधा दर्जन केन्द्रीय संस्थाएं केवल हिन्दी के लिए ही काम कर रही हैं। हर क्षेत्रीय भाषा के लिए राज्य स्तर पर कई सरकारी, अर्धसरकारी, गैरसरकारी संस्थाएं काम कर रही हैं। क्या हिन्दी उनके कारण बढ़ी है? क्या दूसरी भाषाएं मज़बूत हुई हैं? पहले से बेहतर स्थिति में हैं?

स्वयं दिल्ली में चार या पाँच भाषाओं के लिए अकादमियां हैं। उन्होंने बहुत से अच्छे काम किए हैं। पुस्तकें छापी हैं। कार्यक्रम किए हैं। लेखकों को सम्मानित, पुरस्कृत किया है। क्या दिल्ली में इन सभी भाषाओं और उनका तीनों रूपों में प्रयोग करने वालों की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, तकनीकी, बौद्धिक, अकादमिक शक्ति, प्रयोग, प्रतिष्ठा और नई पीढ़ी में उनके प्रति लगाव और आकर्षण बढ़े हैं?

राज्य की प्रकृति, अपनी राजनीति की शैली और नौकरशाही का चरित्र समझ कर हमें राज्य की संस्थाओं से अकेले भाषाओं और संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन की अपेक्षा शायद नहीं करनी चाहिए।

यह संकट भाषाओं पर नहीं भारतीयता पर है। भाषाओं और भारत, भारतीयता का यह रिश्ता समझना ज़रूरी है।

भाषा-लोप सांस्कृतिक प्रलय है।

भाषा पानी, धरती, जंगल, वनस्पति, प्रकृति की तरह स्वयंभू, स्वनिर्भर नहीं। एक स्वतंत्र अस्तित्व वाली वस्तु नहीं। वह मनुष्यों पर निर्भर करती है। प्रयोग पर निर्भर करती है। प्रयोग से ज़िन्दा रहती है, निष्प्रयोग से मर जाती है। नए और ज्यादा क्षेत्रों, स्थितियों में प्रयोग से बढ़ती है। या घटती है।

राष्ट्रीय ज्ञान आयोग एक महत्वपूर्ण संस्था है। उसने प्राथमिक शिक्षा के बारे में, भाषाओं के बारे में जो प्रधानमंत्री को सिफारिशें की हैं वे हम यहां आपके सामने रख रहे हैं। हम उन्हें ख़तरनाक मानते हैं। इन कारणों से-
सारे समाज में अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं के बीच शक्ति और प्रतिष्ठा का जो संतुलन है उसे देखते हुए अगर पहली कक्षा से छात्रों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाया गया तो क्या वे अपनी भाषाओं को वैसी ही इज्ज़त दे पाएंगे.. आज ही शुरू से अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ने जीने वाले बच्चे भारतीय भाषाओं का कैसा प्रयोग करते हैं, कितना महत्व देते हैं, अपनी परंपराओं, विरासत, सांस्कृतिक जड़ों से कितना जुड़े हैं यह सबके सामने है।
अगर फिर भी सारा देश अगर अपनी भाषाओं को छोड़ कर वैश्वीकृत होने, महाशक्ति बनने, आर्थिक प्रगति के एकमात्र माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी को अपनाने के लिए तैयार है तो एक जनमतसंग्रह करा लिया जाय और अगर बहुमत अंग्रेज़ी के पक्ष में हो तो उसे ही राष्ट्रभाषा, राजभाषा, शिक्षा का प्रथम माध्यम बना दिया जाय।
ज्ञान आयोग स्वयं मानता है कि अंग्रेजी का प्रथम भाषा के रूप में प्रयोग करने वाले 1 प्रतिशत हैं। बाकी 99 प्रतिशत को अंग्रेज़ी दक्ष बनाने में कितना धन लगेगा... क्या यह संभव है जबकि 1 प्रतिशत की भाषा बनने में अंग्रेज़ी को 175 साल लग गए...

आयोग की सिफारिशें सिर्फ यही नहीं कि अंग्रेजी को पहली कक्षा से पढ़ाया जाय और तीसरी से दूसरे विषयों की पढ़ाई का माध्यम बनाया जाय। वह यह भी कहता है कि कक्षा और विद्यालय के बाहर भी अंग्रेज़ी सीखने के लिए प्रेरक, उपयुक्त माहौल बनाया जाय, हर कक्षा में इसके लिए पुस्तकें, मल्टीमीडिया उपकरण रखे जायें, अंग्रेजी क्लब बनाये जायें। देश के 40 लाख शिक्षकों को अंग्रेज़ी दक्ष बनाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएं। 6 लाख नए अंग्रेजी शिक्षक तैयार किए जाएं।

यह सब होने पर आयोग का आकलन है कि 12 से 17 साल के भीतर भारत दुनिया की महाशक्ति बनने के लिए तैयार हो जाएगा।

क्या हम इससे सहमत हैं...क्या देश ने इस पर विचार कर लिया है...क्या 17-20 साल बाद केवल अंग्रेज़ी पढ़ने-लिखने-बोलने वाला भारत हमें स्वीकार है...

इसके राजनीति पर, समतामूलक विकास, सामाजिक न्याय पर असर पर विचार कर लिया गया है क्या?

यह स्थिति बदली जा सकती है। पलटी जा सकती है। देश के व्यापक, वृहत्तर मानस को, हर क्षेत्र में ऊपर बैठे, प्रभावशाली लोगों को भाषाओं के प्रति जगा कर, भाषा-लोप की कीमत समझा कर एक नए भाषा संतुलन को स्थापित किया जा सकता है। राजनीतिक दलों को, जनप्रतिनिधियों को, उद्योगपतियों को, शिक्षाविदों को, प्रोफेशनलों को, तकनीकी नेताओं को इस विमर्श में शामिल करके यह बदलाव लाया जा सकता है।

इस महत् कार्य में शामिल होने के लिए हम आपका आह्वान करते हैं।

राहुल देव
17 मई 2008

रविवार, 17 फ़रवरी 2013

इस दुर्लभ, पवित्र क्षण में.....निर्भया की मृत्यु पर


इस दुर्लभ, पवित्र क्षण में....


कम होता है जब करोड़ों ह्दय एक भाव से धड़कते हैं, करोडों दिमागों में एक से विचार दौड़ते हैं, जब सारे देश में दुख-मिश्रित आक्रोश की एक लहर हिलोर लेती है, जब राष्ट्रमानस किसी एक बिन्दु पर एकाग्र हो जाता है। कम होता है जब देश एक हो जाता है। एक अज्ञातनाम बहादुर लड़की ने अपने बलिदान से यह दुर्लभ देशव्यापी एकात्मता पैदा की है।

यह हमारे ऊपर है कि इस क्षण को हम एक निर्णायक मोड़, एक उपलब्धि, एक राष्ट्रीय संकल्प बनाते हैं या केवल उबल कर ठंडा हो जाने के लिए अभिशप्त भावना-ज्वार। यह क्षण है अपने राष्ट्रीय चरित्र को निर्मम होकर समझने का, एक राष्ट्रीय आत्मसाक्षात्कार का, इस अनुभव से सीखने का, सबक लेने का, हाथ बढाने का, हाथ उठाने का, कदम बढ़ाने का, जगने का, जगाने का, पूरी ताकत से बोलने का, ध्यान से सुनने का, अपनी अपनी आत्मा में झांकने का और उन छिपे कोनों, इच्छाओं, वासनाओं, उदासीनताओं, जड़ताओं, भयों, असुरक्षाओं को पहचान कर उनसे आंख मिला कर दोचार होने का जिन्होंने हमें इस शर्मनाक मोड़ पर ला खड़ा किया है।

यह क्षण है अपने क्रोध, आक्रोश और दुख को थाम कर, इकट्ठा कर एक ठोस, धारदार हथियार बनाने का। यह क्षण है अपने राजनीतिक, सामाजिक नेतृत्व की चरम असंवेदनशीलता, आत्ममुग्धता, जड़ता, मूर्खता और हां, कायरता को भी पहचानने का और पहचान कर उन्हें इस पहचान, इस समझ से परिचित कराने का भी। यह क्षण चेतावनी देने का भी है अपने राजनीतिक, प्रशासनिक, पुलिस और न्यायिक तंत्र को कि हम उनसे निराश हैं, क्रुद्ध हैं, कि हमारी सहनशक्ति चुक रही है, कि हम अब और चुपचाप नहीं सहेंगे, चुप और निष्क्रिय नहीं रहेंगे।

यह क्षण यह जानने का भी है कि कितना ही बंटा, बिखरा हुआ, असंगठित हो लेकिन कभी यह देश यह समाज शोक में ही सही एकजुट हो सकता है, मिलकर आवाज उठा सकता है, सड़कों पर उतर कर माहौल और हालात को बदल सकता है। और क्षण यह पहचानने का भी कि जिस युवा को हम आत्मकेन्द्रित, मनोरंजन और करियर-जीवी, सामाजिक सरोकारों से उदासीन, उपभोगवादी आदि मानने के अभ्यस्त हो चले थे वह भारतीय युवा संवेदनशील, जागरूक, मुखर और सक्रिय हो सकता है अगर उसकी अंतरात्मा जग जाए, हिल जाए।

क्षण यह समझने का कि बड़े, गहरे, व्यापक और दूरगामी बदलावों के बिना यह समूची व्यवस्था , यह चरमराता ढांचा किसी दिन किसी जनविस्फोट के आगे ध्वस्त हो जाएगा। ये बदलाव लाने हैं कानूनों में, पुलिस की मानसिकता और तौरतरीकों में, अदालतो, न्यायाधीशों, वकीलों की सोच और कार्यशैली में, विधानसभाओं, संसद, राजनीतिक संस्थाओं, पार्टियों और संगठनों के बुनियादी चरित्र में, सारी राजनीति के चरित्र में, शिक्षा तंत्र के ढांचे और अंतर्वस्तु में। साथ ही बाजार के तौर तरीकों और मीडिया के व्यवहार में।

क्षण इस देश की असंख्य बेटियों, बहनों, मांओं, गृहणियों, पत्नियों से जिनके साथ जाने कितने बलात्कार, हिंसा और अपराध हुए हैं,  क्षमा मांगने का। बिलखती जया भादुड़ी की तरह यह स्वीकार करने का कि हमने इस अपराध के खिलाफ़ इससे पहले इस तरह आवाज नहीं उठाई। उठाते तो कानून ज्यादा सख्त बन गए होते, पुलिस संवेदनशील हुई होती, राजनेता थोड़ा ज्यादा सह्रदय हुए होते, न्याय व्यवस्था ज्यादा चुस्त और ईमानदार हुई होती। उठाते तो आज हमारी शिक्षा व्यवस्था, हमारे विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय हमारे छात्रों और शिक्षकों को स्त्री का आदर करना, लैंगिक समानता, मनुष्य मात्र की गरिमा सिखा चुके होते। हमारी खाप पंचायतें और हमारी पुरुष-प्रधान पितृसत्तात्मक सामाजिक संस्थाएं अपनी सोच और व्यवहार में ज्यादा समतावादी, स्त्रीसमर्थक, विवेकशील और न्यायप्रिय हुई होतीं।

लेकिन अब जब यह क्षण हमारे बीच एक चुनौती बन उपस्थित हो गया तो यह जरूरी है कि हम इसे व्यर्थ न जानें दें। यह तो तय है कि हमारे दर्द को, वेदना को, आहत संवेदनाओं को यह राजनीतिक नेतृत्व अंधा बहरा बन कर कितना ही अनदेखा अनसुना करे लेकिन देश भर में सड़कों पर उमड़ते मौन जुलूसों और मीडिया में गूंजते नारों, सतत प्रसारित छवियों के दबाव की अनदेखी नहीं कर सकता। भले ही हम इस पर कितना आश्चर्य जताएं कि पिछले 13 दिनों में दिल्ली में गैंगरेप की इस एक ह्रदयविदारक घटना और उसकी शिकार लड़की के प्रति उमड़ी करुणा और आक्रोश के देश में एक सात्विक ज्वर की तरह फैलने, न्याय की मांगों के बीच लगभग 800 सांसदों में से 13 भी लोगों के साथ शामिल नहीं हो सके, तथाकथित युवा नेता और कांग्रेस के संवेदनशील युवराज राहुल गांधी कहीं न दिखे न सुने गए सिवा अपने अभेद्य घर के सुरक्षा कवच में मां सोनिया के साथ आंदोलनरत युवाओं के पांच अनाम प्रतिनिधियों से मिलने, उन्हें दिए गए कथित आश्वासन के।  उनकी अमूल्य उपस्थिति और उच्च विचारों से देश वंचित ही रह गया। इस सरकार के युवा सितारे अपने मंत्रालयों, बंगलों में देश चलाने का महान करने में इतना व्यस्त रहे कि सड़कों पर लाठी खाते, ठंड में पानी की तेज बौछारें झेलते युवाओं को नहीं देख पाए, न उनका दुख साझा कर पाए।

अपने संघर्ष और अपने बलिदान से वह लड़की हम सब पर बड़ा उपकार कर गई है। इस राष्ट्रीय शोक के अभूतपूर्व ज्वार में हम अपनी समूची व्यवस्था के अंधे-बहरेपन को उसके नग्नतम रूप में देख पाए हैं। कानूनों, नियमों, राजकीय संस्थाओं और उनकी प्रक्रियाओं के खोखलेपन को देख पाए हैं। अपने राजनीतिक नेताओं की कायरता का साक्षात दर्शन कर सके हैं। साथ ही हम अपने साझा भविष्य के लिए आशा के आसार भी पा सके हैं सड़कों पर उतरे इन किशोरों-युवाओं के जोश, उनके निस्वार्थ, गरिमापूर्ण प्रतिरोध के रूप में। सबसे बड़ा उपकार उसका हम पर यह है कि राष्ट्रीय भावनात्मक रेचन के इस अपूर्व क्षण में हम अपनी निजी और सामूहिक चेतना के पातालों को छू सके हैं, उसके अंधेरे तहखानों में वासना और हिंसा के गंधाते गुर्राते पशुओं का आभास पा सके हैं। शायद यह वह क्षण है जब हम इस दरिंदगी के पीछे की मानवीय चेतना में मौजूद पशुता को पहचान कर परिवर्तन का ऐसा प्रारूप बनाएं जो केवल कानून बनाने, व्यवस्था में सतही सुधार की कवायद के परे जाकर मनुष्य की चेतना के बुनियादी और गहरे स्तर पर परिवर्तन और उसके विकास की भी चेष्टा करे।

हिंसा, काम-वासना, लोलुपता, पशुता और इनके अनंत विकृत रूपों के प्रमाण हमें रोज खबरों में मिलते हैं। ये मनुष्य की चेतना के वे अविभाज्य हिस्से हैं जिनसे इतने हजार सालों की सभ्यताएं, संस्कृतियां, धर्म, साहित्य, शिक्षा, कला आदि मिल कर भी मुक्ति नहीं पा सके हैं। कोई देश, समाज, सभ्यता, धर्म, राज्य व्यवस्था ऐसी नहीं जहां ये प्रवृत्तियां दिखती न हों। जिस समय और समाज में पिता नादान, नाबालिग बेटियों को अपनी पशुता में नहीं छोड़ते वहां कड़े कानून क्या करेंगे ? जब आंकड़े बताते हैं कि 90 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में बलात्कार परिचितों-रिश्तेदारों द्वारा किए जाते हैं तब पुलिस की कड़ी से कडी गश्त और मुस्तैदी स्त्री को कैसे सुरक्षित बनाएगी ? तुरंत और कड़ी सजा का डर एक प्रभावी तत्व है बलात्कार और अपराधों को रोकने का। लेकिन घरों की दीवारों के भीतर करीबी रिश्तेदारों, भाइयों, पिताओं, चाचाओं की कामोन्मत्त पशुता के आगे शायद ये भी उतने कारगर नहीं रहते।

बलात्कार और स्त्री-उत्पीड़न के अधिकांश अभियुक्तों, दोषिओं में एक बात काफी समान दिखती है – ज्यादातर अशिक्षित या अल्पशिक्षित हैं। यह समाधान की एक दिशा भी दिखाता है और यह भी बताता है कि बचपन से बारहवीं या स्नातक तक की शिक्षा मनुष्य को कुछ तो बदलती है। उसे सभ्य बनाने, उसकी पशुता को नियंत्रित करने में एक निश्चित महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह हमें बताता है कि अच्छी शिक्षा मानवीय चेतना के नकारात्मक पक्षों, उसको संचालित करने वाली शक्तिशाली प्रवृत्तियों को संयमित, संतुलित और नियंत्रित रखने में निर्णायक भूमिका निभाती है। इस शिक्षा के बगैर केवल कडे कानून बनाने से काम नहीं चलेगा।

और अंत में हमारे लिए यह देखना भी जरूरी है कि बाजार को भगवान मानने वाली जिस अर्थव्यवस्था को हमने सर्वोत्तम मान खुली बाहों अपना लिया है उसने हर चीज और सेवा को बेचने के लिए सेक्स को विज्ञापनों, लेबलों, छवियों, प्रतीकों, सेलिब्रिटी-संस्कृति के माध्यम से सर्वव्यापी बना दिया है। शराब पीने को दबे छुपे करने की चीज से आम सामाजिक चाल चलन की, आधुनिकता की शर्त बना कर घर घर में पहुंचा दिया है। जो घर, परिवार, स्कूल और वर्ग जितना संपन्न, जितना आधुनिक है उतना ही उसके बच्चे, किशोर नशे के सेवन में लग्न पाए जाएंगे। सेक्स की इस सर्वव्यापी, सर्वभक्षी उपस्थिति और नशे की खुली उपलब्धता और सामाजिक स्वीकार्यता ने हमारे बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के दिलो दिमाग को सेक्स की अदम्य क्षुधाओं से भर दिया है। इस क्षुधाओं में जब शहरी अकेलेपन की कुंठा, आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ेपन की कुंठाजन्य प्रतिहिंसा जुड़ जाती है तो नृशंसता के नए नए रूप सामने आते हैं।

दामिनी, निर्भया, अमानत – उसको कोई भी नाम दें - उस 23 साल की, अदम्य जिजीविषा वाली लड़की ने अपनी शहादत से हमारे भीतर और बाहर की  इन सारी नंगी सच्चाइयों को हमारे आगे कुछ यूं उघाड़ के खड़ा कर दिया है कि अब हम उनसे आंख नहीं मोड़ सकते। उसके प्रति सही श्रद्धांजलि और भारत की बेटियों, बहनों, मांओं को एक सुरक्षित, गरिमापूर्ण जीवन देने की शर्त यही होगी कि हम सरल सतही समाधानों की मरीचिका से बच कर अपनी और राष्ट्र की व्यथित, जागृत अंतरात्मा की गहराइयों में उतर कर गहरे और दूरगामी, गंभीर समाधानों को संभव बनाएं।

राहुल देव
30 दिसंबर 2012

(यह लेख अब पुराना लगेगा। टीवी चैनल लाइव इंडिया की इसी नाम की नई पत्रिका के पहले अंक के लिए संपादक प्रवीण तिवारी के निमंत्रण पर लिखा था। फिर भी उन असाधारण दिनों की याद शायद फिर ताजा हो जाए।)