शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

हिंदी का होना, हिंदी का रोना, हिंदी का ढोना

 हिंदी का होना, हिंदी का रोना, हिंदी का ढोना

 

 

-राहुल देव

 

 

सितंबर जा रहा है। भारत के केंद्रीय सरकारी विभागों, कार्यालयों, बैंकों, विश्वविद्यालयों में सितंबर एक खास सितम का महीना है। एक संवैधानिक कर्तव्य निभाने की कठिन मजबूरी का महीना है। इस कठिन काल में जय-हिंदी का जाप संवैधानिक मजबूरी का ताप शांत करता है। हिंदी का होना या हिंदी का रोना या हिंदी का ढोना, भीतरी भाव कुछ भी हो अनुष्ठान आवश्यक है। 

 

इस अनुष्ठान के पुरोहित एक ऐसी शासकीय श्रेणी के सदस्य हैं जो शायद ही किसी दूसरे देश के प्रशासन में अस्तित्व रखती हो। ये हैं केंद्र सरकार के लगभग अनगिनत कार्यालयों, निगमों, संस्थानों, सरकारी बैंकों, विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में काम करने वाले राजभाषा अधिकारी। सरकारी सेवा की भाषा में यह एक संवर्ग है। इनकी कुल संख्या का एक अनुमान नौ से दस हज़ार तक है। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के हिंदी विभाग तथा शिक्षक भी राजभाषा अधिकारी न होते हुए भी हिंदी से जुड़े होने के कारण इस पुरोहित वर्ग में आते हैं। सैकड़ों गैर-सरकारी, हिंदी सेवी, साहित्यिक संस्थाएँ हैं जो राजभाषा दिवस के हिंदी दिवस के रूप में मनाती हैं। कुल मिला कर सितंबर में कई हज़ार कार्यक्रम होते हैं।

 

हिंदी के नाम पर हो या राजभाषा के, अधिकतर उत्सव और समारोह-माह-पखवाड़े-दिवस कवि सम्मेलनों, कवियों-लेखकों से भरे रहते हैं। अधिकांश लोगों के लिए भाषा का मतलब उसका साहित्य और हिंदी का मतलब कविता-कहानी-उपन्यास है। हिंदी लेखकों को भी साहित्य और अपनी रचनाओँ-रचना प्रक्रिया आदि से थोड़ा हट कर जीवन-कर्म-चिंतन-ज्ञान-विज्ञान-व्यवसाय-शिक्षा की भाषा के रूप में हिंदी को देखने-समझने का अभ्यास नहीं है। दूसरे भाषाई समाजों की तुलना में हिंदी समाज में अपनी भाषा को समग्रता में देखने में रुचि और गति पीड़ाजनक रूप से कम है। 

 

हिंदी का यह शोर, समारोह, उत्सव, केंद्रीय गृह मंत्री के भाषण, हिंदी के महत्व, ऐतिहासिक भूमिका आदि पर ऊँची-ऊँची बातें दूसरी भाषाओं के लोगों को चुभती हैं। सामाजिक माध्यमों में आलोचना, टिप्पणियाँ शुरू हो जाते हैं। दक्षिणी राज्यों, विशेषतः तमिल नाडु, कर्नाटक के हिंदी द्वेषी लोग सक्रिय हो जाते हैं। हिंदी लादे जाने के खिलाफ अभियान (स्टॉप हिंदी इंपोज़ीशन) चलने लगते हैं। किसी और भारतीय भाषा को ऐसा सरकारी समर्थन और प्रोत्साहन नहीं मिलता इसलिए अधिकतर हिंदीतर भाषाओँ के लोग जो संविधान, संविधान सभा की बहसों, फैसले और संविधान के भाषा संबंधी अनुच्छेदों (३४३ से ३५१) के अस्तित्व तथा पृष्ठभूमि से परिचित नहीं होते उन्हें यह सब अपनी भाषा की उपेक्षा के रूप में दिखता है, हिंदी को उनकी भाषाओं से ज्यादा शक्तिशाली और वर्चस्वशाली बनाने के प्रयासों के रूप में दिखता है, हिंदी थोपने की केंद्रीय योजना लगता है। युवा पीढ़ी तो संविधान और उसकी ऐतिहासिक राजनीतिक-भाषिक परिस्थितियों, पृष्ठभूमि तथा संदर्भों से बहुत अधिक अपरिचित है। इसलिए इन भाषाओं की युवा पीढ़ी में हिंदी के प्रति तल्ख़ी और विरोध ज्यादा मुखर है। 

 

लेकिन इसके एक उलट धारा भी मौजूद है। वह हिंदी-विरोधी धारा से ज्यादा बड़ी है लेकिन उतनी मुखर नहीं है। दक्षिणी राज्यों में ऐसे युवाओं-छात्रों की संख्या बढ़ रही है जो अपनी आगे की ज़िन्दगी में हिंदी की ज़रूरत महसूस करते हैं, उसे सीखना चाहते हैं। जो भी युवा तमिलनाडु या केरल के बाहर जाकर देश के दूसरे हिस्सों में पढ़ने या काम करने की इच्छा रखता है वह समझता है कि उस स्थिति में हिंदी के बिना काम नहीं चलेगा। दक्षिण भारत राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की कक्षाओं में लगभग चार लाख तमिल हिंदी पढ़ रहे हैं, उसकी परीक्षाएँ दे रहे हैं। तमिल नाडु सरकार और तमिल राजनीतिक दलों का पारंपरिक हिंदी-संस्कृत-उत्तर भारत विरोध तो रस्मी तौर पर कायम है लेकिन समाज, विशेषतः व्यापारी और युवा, द्रविड़ नाडु के पुराने सम्मोहन से आगे निकल आए हैं। वे उच्च शिक्षा और नौकरियों के लिए अंग्रेज़ी की और देश के दूसरे हिस्सों से संपर्क के लिए हिंदी की उपयोगिता समझते हैं। हिंदी फिल्मों, टीवी धारावाहिकों की लोकप्रियता बनी हुई है। बोली के रूप में हिंदी का विस्तार हो रहा है। 

 

लेकिन हिंदीतर प्रदेशों में एक नई प्रवृत्ति भी बढ़ती हुई दिख रही है पढ़े लिखे लोगों का एक वर्ग ऐसा है जो अपने प्रदेश के भीतर जीवन के लिए प्रादेशिक भाषा और बाकी देश और दुनिया से संपर्क के लिए अंग्रेजी को पर्याप्त मानता है,  जिसकी प्रथम भाषा या उच्च शिक्षा और काम की प्रथम भाषा अंग्रेजी हो गई है। अंग्रेजी के वृत्त से बाहर रहने और जीने वाले भारतीयों, निम्न मध्यम और निर्धन-वंचित-अल्पशिक्षित वर्ग से जुड़ने- उसको समझने और उसके साथ किसी सघन सम्बन्ध-संवाद-व्यवहार की कोई ज़रूरत महसूस नहीं होती। इसलिए इन वर्गों से संवाद के लिए उसे किसी दूसरी भारतीय भाषा की जरूरत भी महसूस नहीं होती। ऐसे लोगों के लिए संपर्क भाषा के रूप में भी हिन्दी अब उपयोगी नहीं रही है। कई दशकों से बहुत तेजी से बढ़ रही और अब लगभग अनिवार्य हो चली अंग्रेजी माध्यम शिक्षा ने इस वर्ग की संख्या में जबरदस्त वृद्धि की है। डर यह है कि जैसे-जैसे लगभग सारा देश ही अंग्रेजी माध्यम शिक्षा की ओर बढ़ रहा है, उसे अपना रहा है यह मानसिकता और संवादहीनता भी वैसे-वैसे ही व्यापक होती जाएगी। और जनसामान्य की राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में भी हिंदी का दायरा सिकुड़ता जाएगा भले ही अभी यह परिघटना साफ साफ दिख नहीं रही हो।

 

यही वह अभिजन, प्रभुवर्ग है जो मीडिया में, राजनीतिक मंचों पर और सोशल मीडिया पर स्टॉप हिन्दी इंपोजिशन  अभियान चलाता है। बहुत आक्रामकता के साथ हिन्दी और हिंदी भाषी प्रदेशों पर अशिक्षित, गरीब और पिछड़े होने के आरोप लगाकर उन्हें ख़ारिज करता है। यह मुखर वर्ग हिन्दी और उत्तर के हिंदी वालों पर, भाजपा पर, वर्तमान केंद्र सरकार पर उनकी अपनी भाषाओं को दबाने का आरोप लगाता है। हिन्दी को उपनिवेशवादी भाषा कहता है। 

 

एक हास्यास्पद विडंबना यह है कि इस वर्ग को हिंदी का काल्पनिक उपनिवेशवाद तो दिखता है लेकिन पिछले 100 वर्ष से चलते और बढ़ते जा रहे अंग्रेजी के उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी वर्चस्व से कोई समस्या नहीं होती। ऐसे कई महापुरुष तो अपनी तमिल- कन्नड़- तेलुगू से अंग्रेजी की नजदीकी ज्यादा देखते हैं। हिंदी उन्हें ज्यादा कठिन और पराई लगती है। भाषिक और बौद्धिक औपनिवेशिकता का यह स्पष्ट लक्षण है कि उसे अपरिचित, दूर तथा वर्चस्वशाली पराए अपनों से ज्यादा परिचित और करीबी लगते हैं। 

 

हिंदी दिवस पर जिनके पेट में मरोड़ उठते हैं वे केवल हिंदीतर प्रदेशों के इस अंग्रेजी-अंग्रेजियत भरे उच्चवर्गीय दिमागों तक ही नहीं है हिंदी प्रदेशों में भी एक वर्ग है जो इन उत्सवों से चिढ़ता भले ही उतना खुलकर व्यक्त न करता हो। हिंदी की 50 से ऊपर की सह-भाषाओं के बोलने वालों का एक वर्ग हिंदी पर ऐसी ही एक उपनिवेशवादी भाषा होने और उनकी भाषाओं के विकास को अवरूद्ध करने का आरोप लगाता है। इनमें सबसे प्रमुख है भोजपुरी, राजस्थानी तथा छत्तीसगढ़ी बोलनेवालों एक मुखर, महत्वाकांक्षी वर्ग। यह वर्ग कई दशकों से अपनी भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के प्रयासों में लगा है।

 

चुनावों के समय इन्हें ऐसे राजनेता और सांसद मिल जाते हैं जो इन आकांक्षाओं को संसद और विधानसभाओं में स्वर देते हैं। हर बार केंद्र सरकार के कुछ मंत्री, मुख्यतः गृहमंत्री, संसद में आश्वासन देते हैं कि इन भाषाओं के दावे पर सरकार सहानुभूतिपूर्वक विचार कर रखी है, उनकी उपेक्षा नहीं की जाएगी। दो तीन बार तो तत्कालीन गृह मंत्रियों ने सदन में इन भाषाओं को अनुसूची में शामिल करने का ठोस आश्वासन भी दिया है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि तमाम आश्वासनों के बावजूद इन्हें सूची में शामिल करने के लिए किसी भी सरकार ने कोई गंभीर कदम नहीं उठाए हैं।

 

कारण स्पष्ट है, और उचित है। आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की इन भाषाओं की अपनी आंतरिक योग्यताओं और पात्रताओँ को छोड़ भी दें तो भी एक ही बात इस कारण को स्पष्ट कर देती है। देश के लगभग हर हिस्से से ३८-४० भाषाओं को अनुसूची में शामिल किए जाने के  मांग पत्र गृहमंत्रालय की फ़ाइलों में दर्ज हैं। 

 

भाषा एक बहुत भावनात्मक और संवेदनशील मुद्दा है। यह एक सार्वभौमिक तथ्य है। एक बहुत गहरे स्तर पर भाषा एक व्यक्ति या वर्ग की पहचान, आत्म-बोध तथा संस्कृति से जुड़ी होती है।  सारी सरकारे ये समझती आई है कि इतने सारे दावों में से कुछ को मान लेना और कुछ को छोड़ देना एक बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा काम होगा। इससे विभिन्न भाषाओं में आपस में ही संघर्ष शुरू हो जाएँगे। देश की एकता और अखंडता को चुनौती देने वाली शक्तियां और समस्याएँ देश के विभिन्न हिस्सों में पहले ही सक्रिय हैं। उनमें अगर भाषाओं की आपसी लड़ाईयां भी शामिल हो गईं तो समाज में इतने तनाव और पारस्परिक विरोधी आंदोलन शुरू हो जाएंगे कि संभालना कठिन होगा। 60 के दशक में देश भाषाई विद्वेष को हिंसक आंदोलनों में बदलते कई बार देख चुका है। कई बार भाषाएँ पहचान की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति के रूप में अलगाववाद को भड़काने में का भी माध्यम बनाई जा चुकी हैं। तमिल अलगाववाद इसका सबसे प्रमुख उदाहरण है। इन बातों को देखते हुए फिलहाल ऐसी कोई संभावना दूर-दूर तक नहीं दिखती कि देशहित की इच्छुक कोई भी सरकार कुछ नई भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करके नए भाषाई तनावों और आंदोलनों को हवा देगी।

 

लगभग हर बड़ी बात की तरह भारतीय भाषाओँ का सवाल भी विडंबनाओँ, विरोधाभासों और जटिलताओँ से भरा हुआ है। एक ओर  प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद से शिक्षा मंत्रालय तथा अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद इंजीनियरिंग के उच्च शिक्षा संस्थानों- आईआईटी, एनआईटी तथा निजी संस्थानों में भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की शिक्षा शुरू करने की तैयारियों में गंभीरता से लगे हैं दूसरी ओर राज्य सरकारें प्राथमिक ही नहीं माध्यमिक और उच्च शिक्षा में भी अपनी अपनी प्रादेशिक भाषाओं को हटाकर अंग्रेजी को अनिवार्य माध्यम भाषा बनाने की ओर बढ़ रही हैं। जगन रेड्डी की आंध्र प्रदेश सरकार ने नीचे से ऊपर तक समूची शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम को अनिवार्य बना दिया है तेलुगू वहाँ अब केवल एक विषय के रूप में पढ़ाई जाएगी। यह कदम तेलुगू भाषा के दूरगामी भविष्य के लिए मृत्युदंड सिद्ध होगा लेकिन अंग्रेजी के मोह में अंधी हुई सरकार और नागरिको-अभिभावकों किसी को भी न तो यह दिखता है और न तेलुगू के लुप्त होने से होने वाली सांस्कृतिक-सामाजिक अपूरणीय क्षति की कोई चिन्ता और समझ उनमें दिखाई देती है।

 

लेकिन आंध्रप्रदेश पहला जरूर है अंतिम नहीं रहेगा। लगभग सभी राज्य सरकारे इसी दिशा में बढ़ रही हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि के शिक्षा विभाग अपने यहाँ सैकड़ों की संख्या में आदर्श मॉडल स्कूल बनाने की घोषणा कर चुके हैं। ये मॉडल सरकारी स्कूल सभी आधुनिक संसाधनों, सुविधाओं और तकनीक से संपन्न होंगे। इनमें शिक्षा का माध्यम केवल अंग्रेजी होगी। जिन प्रदेशों में अच्छी हिंदी सिखाने वाले शिक्षकों का ही जबरदस्त अभाव है वहाँ इतनी बड़ी संख्या में अच्छी अंग्रेजी सिखाने में सक्षम शिक्षक कहाँ से आयेंगे इस व्यावहारिक समस्या को छोड़ भी दें तो यह बात समझ से परे है कि ये सरकारें अपने ही भाषा माध्यम विद्यालयों और शिक्षकों को स्वयं घटिया और अनुत्कृष्ट सिद्ध कर करने पर तुली हैं। जब हर जिले में एक मॉडल विद्यालय होगा तब कौन अभिभावक अपने बच्चों को उन पुराने सुविधा-संसाधनहीन, जीर्ण सरकारी स्कूलों में भेजना चाहेगा जहाँ प्रदेश भाषा माध्यम भाषा है?

 

अब तक भारत में शैक्षिक असमानता सरकारी और निजी शिक्षा की थी, आर्थिक थी, अब सरकारी शिक्षा व्यवस्था के भीतर ही भाषा-आधारित असमानता को स्थापित किया जा रहा है। 

 

इन सरकारों के शिक्षा विभागों में बैठे अधिकारी-शिक्षाविद इस  सार्वभौमिक, सर्व-स्वीकृत तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि बच्चों के आरंभिक संवेगात्मक-ज्ञानात्मक विकास के लिए मातृभाषा ही सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। एक बच्चे को अपने घर की भाषा के माहौल से एक घोर पराई, अपरिचित भाषा के माहौल में भेजना उसके मानसिक विकास के साथ घोर हिंसा करता है, उसे कुंठित करता है। वे यह भी समझते होंगे कि अपनी मातृभाषा माध्यम में पड़ा हुआ बच्चा दूसरी भाषाओं और विषयों को बेहतर ग्रहण करता है, उसका अधिगम बेहतर होता है। लेकिन सब जगह अंग्रेजी शिक्षा की विराट मांग के दबाव के चलते और मुख्य मंत्रियों, शिक्षा मंत्रियों, विधायकों, सासंदों और नेताओं में शैक्षिक समझ के अभाव और उथलेपन के कारण अंग्रेजी माध्यम शिक्षा की यह महामारी बढ़ते-बढ़ते असाध्य होती जा रही है। 

 

हिंदी या राजभाषा दिवस को अगर भारतीय भाषा दिवस बना दिया जाए तो केवल हिंदी वालों का ही नहीं सभी २२ प्रमुख भाषाओं की वर्तमान स्थिति, चुनौतियों और आसन्न साझे संकट पर पूरे देश का ध्यान केंद्रित किया जा सकता है। आठवीं अनुसूची से बाहर की सैकड़ों भाषाओं को भी इस राष्ट्रीय विमर्श और चिंता में शामिल किया जा सकता है। अंग्रेज़ी की उपयोगिता-आवश्यकता को बनाए रखते हुए भारतीय भाषाओं की वृहत्तर भूमिका को लोगों के दिलों-दिमागों में पुनर्प्रतिष्ठित किया जा सकता है। भारतीय देशज प्रतिभा की मौलिक सृजनशीलता को अंग्रेज़ी की दासता से मुक्त करके सच्चे भारतीय पुनर्जागरण को संभव बनाया जा सकता है। 

 

राहुल देव

२९ सितंबर, २०२१

  

 

 

 

 

 

  

शनिवार, 11 सितंबर 2021

जात सुमिर, जात सुमिर, एही तेरो काज है...

 जात सुमिर, जात सुमिर, एही  तेरो काज है...

 

लगभग ५०० साल पहले गुरु नानक देव ने हमसे राम सुमिर, राम सुमिर...कहा था। लेकिन यह राम भवसागर से पार कराने वाला है। भारतीय लोकतंत्र के राजनीतिक भवसागर से पार कराने वाला यह तत्व जाति है यह गुरुमंत्र संभवतः भारत के सर्वश्रेष्ठ समाजशास्त्री और नृतत्वशास्त्री एम एन श्रीनिवास ने १९५७ में दिया था।यह देश के दूसरे लोक सभा चुनाव से कुछ ही दिन पहले हुए भारतीय विज्ञान सम्मेलन में कहा गया था। 

उसके बाद के राजनीतिक इतिहास ने इस गुरुमंत्र की सच्चाई और उपयोगिता को न सिर्फ बार-बार प्रमाणित किया है बल्कि उसकी निरंतर बढ़ती हुई प्रासंगिकता अब भारतीय समाज और राजनीति का एक स्थापित, सनातन और निर्विवाद सत्य स्वीकार कर लिया गया है। 

श्रीनिवास ने कहा था, “मैं आपके सामने प्रमाण रख रहा हूँ कि पिछले १०० वर्षों में ब्रिटिश-पूर्व काल की तुलना में जाति कहीँ ज्यादा शक्तिशाली हुई है। हमारे संविधान में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार और पिछड़े समुदायों को दी गई सुरक्षाओं ने जाति को दृश्य रूप से मज़बूत किया है। जाति की यह नई सुदृढ़ता ‘एक जातिविहीन और वर्गविहीन समाज’ बनाने के कांग्रेस और  अधिकांश राजनीतिक दलों के घोषित उद्देश्य के विपरीत है।” यही मंशा और उद्देश्य संविधान का भी था।  

आपातकाल के बाद बनी पहले जनता पार्टी सरकार ने १९७८ में इस सत्य को पहचान कर बीपी मंडल की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग नियुक्त किया। आयोग ने १९८० में रिपोर्ट दी। तब तक कांग्रेस सत्ता में लौट चुकी थी। बीपी मंडल द्वारा दी गई रिपोर्ट को जारी और क्रियान्वित करने की उसकी हिम्मत न हुई। रिपोर्ट १० साल दबी रही। भारतीय राजनीति के उस समय के चमचमाते उद्धारक, सार्वजनिक ईमानदारी और भ्रष्टाचार के विरुद्ध महाभारत के स्वयंभू अर्जुन नवगठित राष्टीय मोर्चा सरकार के प्रधान मंत्री  विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस  मंत्र का स्मरण किया और अगस्त १९९० में  आयोग को लागू करने का मंत्रपूरित बाण छोड़ दिया। भारतीय राजनीति का वह सबसे निर्णायक और बड़ा मोड़ था।

मंडल की काट के लिए कमंडल के ब्रह्मास्त्र का सफल प्रयोग करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने अंततः दोनों को जोड़ दिया। इस महामंत्र से उसे अपार और अप्रत्याशित लाभ हुआ है। जाति बनाम धर्म के पुराने अंतर्विरोधोँ को चुनावी राजनीति के वोट गणित ने पाट दिया है। १० अगस्त को पक्ष-विपक्ष की एकता और सर्वानुमति के एक ऐतिहासिक प्रदर्शन में भारत की लोक सभा ने १२७वाँ संविधान संशोधन विधेयक सर्वसम्मति से पारित करके न केवल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई ५०% आरक्षण की बाधा के भी भावी उल्लंघन का मार्ग साफ कर दिया है बल्कि भारतीय राजनीति में जाति ही परम सत्य है इस सिद्धाँत को लगभग अजर-अमर बना दिया है। राम और जाति राजनीति में एकाकार हो गए हैं। 

इसका असर क्या होगा? किस पार्टी को कितना फायदा होगा? इसका केंद्र-राज्य संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? 

उत्तर जटिल और अभी काफी अस्पष्ट हैं। पहले एक सत्य को स्वीकार कर लें।  स्वतंत्रता  प्राप्ति के तुरंत बाद की राष्ट्रीय आकाँक्षाएँ, पूर्वानुमान और संवैधानिक मन्तव्य ये थे कि लोकतंत्र और आधुनिकता मिल कर भारत को जाति और वर्ग के प्राचीन भेदों-भेदभावों-असमानताओं-अन्यायों से मुक्त करेंगे। पिछले ७४ वर्ष का अनुभव इन्हें निरस्त करता है। तकनीकी-सामाजिक परिवर्तनों और सतही शहरी आधुनिकताओं ने एक तरह का सामाजिक सपाटीकरण तो किया है लेकिन वर्ग-जाति चेतना की जकड़ लगभग यथावत है। लोकतंत्र के सबसे शक्तिशाली तत्व राजनीति में तो वह अब ब्रह्म की तरह सर्वव्याप्त, सर्वशक्तिवान है।

पहली स्पष्ट संभावना तो यह है कि प्रत्येक राज्य में सत्तारूढ़ दलों को अगले चुनाव में सीधा लाभ होगा। सब अपने प्रांत में पिछड़ी जातियों-उपजातियों की सूचियाँ बनाएँगे। फिर उन्हें आरक्षण का लाभ देने के कानूनी तरीके खोजेंगे या न्यायपालिका की चिन्ता किए बिना लागू करने की घोषणाएँ कर देंगे। बाद में न्यायालय अगर इन निर्णयों को रद्द भी कर देंगे तो सरकारें अपनी ओर से इन निर्णयों-घोषणाओँ का राजनीतिक कर्मफल अवश्य प्राप्त करेंगी।

सबसे पहले होगा उत्तर प्रदेश। यह सब जानते हैं कि इस विधेयक के पीछे भाजपा की सबसे प्रमुख प्रेरणा तो अगले साल का विधान सभा चुनाव जीतना ही है। वह अब उसने लगभग सुनिश्चित कर लिया है। नरेंद्र मोदी-अमित शाह जोड़ी ने अपने उदय के बाद जिस तरह सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक वर्गों और पार्टियों का एक सर्वथा नया गणित साधा है, जिस तरह अलग-अलग प्रदेशों में स्थानीय जातीय समीकरणों की नई ‘सामाजिक इंजीनियरिंग’ की है उसने पार्टी को अभूतपूर्व और अप्रत्याशित चुनावी सफलताएँ दी हैं। यह उसने किया है जहाँ-जहाँ इसकी गुंजाइश थी वहाँ उन छोटी जातियों-उपजातियों-वर्गों के इंद्रधनुष बना करा है जिन्हें अब तक अपनी छोटी संख्या और सीमित राजनीतिक-आर्थिक प्रभाव के कारण बड़ी और दबंग जातियाँ-वर्ग उपेक्षित और हाशिए पर रखते आए थे। नीतीश कुमार ने अति पिछड़ों-अति दलितों के ऐसे समीकरण बिहार में बनाए और भुनाए। 

उत्तर प्रदेश सरकार ने पहले ही ३९ छोटी पिछड़ी उपजातियों की सूची तैयार कर रखी है  जिन्हें वह आरक्षण देने का फैसला कर चुकी है। दो दर्जन दूसरी उपजातियों को शामिल करने की उसकी तैयारी है। ऐसा लगभग हर प्रदेश सरकार कर रही है। अब जब महाराष्ट्र सरकार द्वारा मराठा आरक्षण की घोषणा के खिलाफ अपील में सर्वोच्च न्यायालय ने मई २०२१ में इस आरक्षण पर ५०% वाली सीमा की रोक लगा देने के बाद संसद ने इस विधेयक द्वारा क पिछड़ी जातियों की सूची बनाने का अधिकार केंद्र से लेकर राज्यों को सौंप दिया है तो राज्यों का अगला कदम ५० % की सीमा को कानूनी चुनौती देने का ही होगा। जो सर्वोच्च न्यायालय १९९२ से अब तक इंदिरा साहनी मामले में अपने ऐतिहासिक फैसले के तरत इस सीमा को बढ़ाने से इंकार करता आया है वह अब क्या निर्णय करेगा यह अभी नहीं कहा जा सकता। अभी तो सिर्फ इतना ही तय है कि उसे नई चुनौतियाँ मिलेंगी और यह कानूनी लड़ाई लंबी चलेगी। एक आध दशक भी चल सकती है। 

इस विधेयक के बाद अब देश में जातीय उथल-पुथल की नई लहर शुरू होगी। जब तक सर्वोच्च न्यायालय की ५०% की सीमा लागू है नई पिछड़ी जातियों-उपजातियों और पहले से आरक्षण का लाभ उठा रही शक्तिशाली जातियों के बीच खींचतान और तनाव होंगे। सरकारी नौकरियों का हलुआ पहले ही लगातार छोटा होता जा रहा है। अब उसी के नए दावेदार आएँगे। स्थापित जातियों से एक मज़बूत विरोध की अपेक्षा की जा सकती है। यह उथल-पुथल क्या रूप धारण करती है, उसके क्या दूरगामी परिणाम होंगे यह भविष्य बताएगा।  

 

इतना तय है कि मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने का बाद जैसे भारतीय राजनीत निर्णायक रूप से रूपांतरित हो गई थी वैसे ही रूपांतरण की संभावना अब सामने खड़ी है। पिछड़ी-अति पिछड़ी जातियों की आकाँक्षाएँ गगनचुंबी होंगी। पिछड़ेपन की नई योग्यताएँ स्थापित होंगी। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पटेल, कर्नाटक में लिंगायत - आरक्षण की माँग को लेकर उग्रतापूर्ण रूप से आंदोलनरत ये जातियाँ अपने अपने प्रांतों में आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक रूप से भरपूर समर्थ और शक्तिशाली जातियाँ हैं। अध्ययन बताते हैं कि ये जातियाँ भूसंपत्ति में, मँहगी उपभोक्ता सामग्रियों के स्वामित्व में, निजी पक्के मकानों में या तो अगड़ी, सवर्ण जातियों के बराबर हैं या कुछ मामलों में आगे हैं। अपनी समग्रता में वे अपने ही जाति परिवारों की छोटी उपजातियों से कहीं ज्यादा ‘अगड़ी’ और समर्थ हैं जितनी तथाकथित अगड़ी जातियाँ। 

गैर-यादव पिछड़ी और गैर-जाटव दलित उपजातियों को अपनी ओर करके ही भाजपा ने उप्र में बसपा और सपा को हराया है। अब इस राजनीति के रासायनिक फार्मूले में नए तत्व शामिल होने के लिए तैयार होंगे। अंतर-ओबीसी स्पर्धा बढ़ेगी, तीखी होगी। एक महत्वपूर्ण तत्व यह है कि इन नई आरक्षित जातियों की आरक्षण का लाभ उठाने की क्षमता कितनी है। 

अब तक का अनुभव बताता है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर अनुसूचित जातियों और जनजातियों को भी आरक्षण का पूरा फायदा नहीं मिल पाया है। बड़ी संख्या में केंद्रीय और प्रदेश सरकरों में आरक्षित पद खाली पड़े रहते हैं। प्रतियोगिताओं में इतने अभ्यर्थी नहीं होते जो जगहों, सीटों को भर सकें। इसका मतलब है कि ७२-७३ सालों के बाद भी कई पिछड़े वर्गों-जातियों में आरक्षण का पूरा फायदा उठाने के लिए ज़रूरी शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक क्षमताएँ विकसित नहीं हुई हैं। उन्हें विकसित करना होगा। सबसे ज्यादा हाशिए पर खड़ी जातियों के लिए यह बड़ी चुनौती होगी। इसके लिए एक प्रज्ञावान, प्रगतिशील, सुशिक्षित नेतृत्व चाहिए। किस जाति में कितना है यह देखना है। 

अगर विभिन्न राज्यों ने कम या ज्यादा हद तक इन नई जातियों को आरक्षण देने में सफलता हासिल कर ली, ५०% की सीमा को बढ़ा लिया तो सवर्ण और पिछड़ों के नए स्थानीय संघर्ष जन्म ले सकते हैं। लेकिन भारतीय लोकतंत्र ने सभी वर्गों, जातियों को सामाजिक न्याय, समानता, समृद्धि और शक्ति के राजकीय ढाँचों में भागीदारी की जिन आकाँक्षाओं को जगा दिया है वे अब अपने पुराने हाशियों में लौटने वाली नहीं है। १२७वें संविधान संशोधन पर सारे देश के सभी राजनीतिक दलों की दुर्लभ एकता और सर्वानुमति ने यह सुनिश्चित कर दिया है।

राहुल देव

१३ अगस्त, २०२१

टीवी९भारतवर्ष ऑनलाइन के लिए लिखा गया लेख

नीरज चोपड़ा और मलिश्का-सेठी के सवाल

नीरज चोपड़ा और मलिश्का-सेठी के सवाल


नीरज चोपड़ा लगातार चर्चा में हैं। नीरज ने १३ साल बाद देश को ओलंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीतने का गौरव दिया है इसलिए यह बहुत स्वाभाविक है। लगभग रोज ही कहीं न कहीं उनका ऑनलाइन सत्कार-संवाद-साक्षात्कार दिखते रहते हैं। टोक्यो ओलंपिक खेलों के बाद पैरालिंपिक खेलों में १९ भारतीय खिलाड़ियों के ऐतिहासिक प्रदर्शन ने देश को एक अभूतपूर्व उत्साह और सकारात्मकता से भरा है। यह बहुत स्वागत योग्य है। इसके कारण देश के अनगिनत किशोरों-युवाओं को खेलों में खुद भी कुछ बड़ा कर दिखाने का की प्रेरणा और आत्मविश्वास मिले हैं। पूरे देश में खेलों और खिलाड़ियों के प्रति एक नई स्वीकार्यता और आदर का भाव जगा है। 


लेकिन इस जीत में कई दूसरे आयाम भी सामने आए हैं। सबसे पहली बात नीरज की ही करते हैं। नीरज के साथ सम्मानों- संवादों और साक्षात्कारों की झड़ी में दो ऐसी घटनाएं खूब चर्चित हुई हैं। उन पर थोड़ा गहराई से विचार करना जरूरी है। इन घटनाओं से वे दो अलग संसार हमारे सामने आते हैं जिनमें यह समाज बटा हुआ है लेकिन वे अक्सर हमें दिखाई नहीं देते।


सबसे चर्चित घटना घटी 20 अगस्त को। मुंबई की रेड एफएम रेडियो जॉकी मलिश्का मेंडोसा ने नीरज चोपड़ा को आभासी बातचीत के लिए बुलाया। वह पूरी बातचीत तो कम ही लोगों ने सुनी होगी लेकिन उस बातचीत के सिलसिले में दो वीडियो ने जो स्वयं मलिश्का ने जारी किए सोशल मीडिया पर हंगामा मचा दिया। एक वीडियो में मलिश्का नीरज से कहती हैं कि वह उनकी एक जादू की झप्पी लेने जा रही हैं और उसके बाद वह आगे झुक कर नीरज का एक आभासी चुंबन लेते हुए दिखती हैं। नीरज बहुत शालीनता से हाथ जोड़ते हैं और कहते हैं, “नहीं जी दूर से ही ठीक है”। दूसरा वीडियो जो बड़ी खुशी और गर्व के साथ मलिश्का ने जारी किया उसमें रेड एफएम के स्टूडियो में मलिश्का और उनकी चार सहयोगी लड़कियां एक पुराने लोकप्रिय फिल्मी गाने “ उड़े जब जब ज़ुल्फ़ें तेरी कुँवारियों का दिल मचले…” की धुन पर नाचती हुई दिख रही हैं और सामने लैपटॉप में यह सब निहारते हुए नीरज चोपड़ा अपनी परिचित शर्मीली मुस्कान के साथ चुपचाप बैठे दिखते हैं।


दूसरी घटना 4 या 5 सितंबर की है। एक अंग्रेज़ी अखबार के एक पत्रकार के साथ ऑनलाइन चर्चा में देश के प्रसिद्ध सौंदर्यशास्त्री और कला इतिहासकार राजीव सेठी शामिल हुए। एक गाड़ी में कहीं जाते हुए राजीव सेठी ने नीरज से बातचीत की शुरुआत इस टिप्पणी से की, “नीरज कितने सुंदर नौजवान हैं आप” और इसके बाद उन्होंने जो सवाल पूछे उन्होंने नीरज को बहुत असहज कर दिया। उन्होंने कहा,” मैं आपसे जानना चाहता हूं कि आप अपनी एथलेटिक्स की जिंदगी और सेक्स जिंदगी को कैसे संतुलित रखते हैं... मैं जानता हूं कि यह एक बेहूदा सवाल है लेकिन यकीन मानिए इसके पीछे एक गंभीर बात भी है।” पर्दे पर देखने से ही असहज लग रहे नीरज ने इस सवाल का जवाब देने से मना कर दिया और कहा, “सर मैंने पहले ही सॉरी कह दिया है।” राजीव इससे विरत नहीं हुए। उन्होंने दोबारा सवाल का जवाब मांगा तो नीरज ने ऐसा जवाब दिया जो इन दो अलग संस्कारों-संसारों और संस्कृति में विभाजित भारत की सच्चाई को बड़े तीखे तरीके से सामने लाता है। नीरज ने कहा, “प्लीज सर आपके सवाल से मेरा मन भर गया है।”


नीरज की उपलब्धि को देखकर उनसे बातचीत में किसी का भी अतिरिक्त उत्साहित होना समझ में आता है। इस असली युवा सितारे की ज़िंदगी के विविध पहलुओं के  बारे में सब कुछ जानने की जिज्ञासा समझ में आती है। लेकिन मीडिया जैसे सार्वजनिक मंच पर हर बातचीत और प्रश्न-उत्तर की एक मर्यादा होती है, कुछ स्वयं स्वीकृत सीमाएं और लक्ष्मण रेखाएं होती हैं। यहां पर इन दोनों घटनाओं में इस मर्यादा और सीमा का उल्लंघन हुआ। सार्वजनिक जिज्ञासा के नाम पर किसी भी व्यक्ति या सितारे की निजता में हस्तक्षेप करने की पत्रकारों को इजाजत नहीं होती। मलिश्का और उनकी पूरी टीम का आचरण पत्रकारिता की व्यावसायिक आचार संहिता और सामान्य भारतीय शिष्टाचार का साफ उल्लंघन था।


स्त्री देह सदियों से पुरुष के आकर्षण और जिज्ञासा का केंद्र रही है। आधुनिकता और बाजारकी विज्ञापन-आधारित व्यवस्था ने दशकों से स्त्री देह को उघाड़ कर, उसे लोभ और उपभोग की वस्तु बना कर उसका दुरुपयोग किया है। अब जब स्त्री की आधुनिकता को उसकी स्वाभाविक पुरुष-आकर्षण और इच्छा को उसके यौन अधिकारों तथा मुक्ति के साथ जोड़ दिया गया है इस संस्कृति और विज्ञापन-विद्वानों ने पुरुष देह को भी आकर्षण और प्रदर्शन की वस्तु बना दिया है। लेकिन यहां बात फिल्म-विज्ञापन जगत में स्त्री/पुरुष देह-प्रदर्शन और देह-उपयोग की नहीं समाचार माध्यमों में व्यावसायिक आधुनिकता के नाम पर पैठ चुकी प्रवृत्ति की है।


अब सोचिए अगर ये ही प्रश्न और प्रदर्शन किसी उसी आधुनिक शहरी दुनिया से आने वाले खिलाड़ी या सितारे से पूछा गया होता जिससे प्रश्नकर्ता आते हैं तो उसका जवाब क्या नीरज जैसा होता। नहीं। क्योंकि उस पृष्ठभूमि और मानसिकता में ये प्रश्न परम सहज हैं। वह बिना झेंपे, सुकुचाए-शर्माए ऐसे स्वागत और सवालों का आनंद लेते हुए जवाब देता। उसकी प्रतिक्रिया नीरज के लगभग उलटी होती। क्या है यह अंतर? क्यों है?


अंतर भाषा और उससे बने संसार का है,संस्कार का है, संवेदनशीलताओं का है, संस्कृति का है। र्अंग्रेजी चैनलों पर या अंग्रेजी फिल्मों-धारावाहिकों में लोगों के सेक्स जीवन को लेकर जैसी खुली बातचीत-संवाद-मजाक और व्यवहार सहज सुनने-देखने को मिलते हैं  वह भाषाई चैनलों, फिल्मों और धारावाहिकों में नहीं। अंग्रेजी की दुनिया भाषा की दुनिया से बिल्कुल अलग है। वहां जो सहज है वह भाषा की दुनिया में चौंकाने वाला और अमर्यादित हो सकता है। अंग्रेजी के टॉक शो में करण जौहर फिल्मी सितारों से जिस सहजता से उनके अंतरंग सेक्स जीवन के बारे में सवाल पूछ लेते हैं, उनकी जैसी ही २४ घंटे अमीरी, अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत में जीने वाले पिता-पुत्री या भाई-बहन या माँ-बेटे ऐसे विषयों पर बिंदास बात कर लेते हैं वह किसी हिंदी या मराठी या बांग्ला टॉक शो में असंभव है। अंग्रेजी की इसी आधुनिकता को अंग्रेजी समाचार माध्यमों और उसके पत्रकारों ने भी अपना लिया है। इसलिए नविका कुमार जैसी वरिष्ठ चैनल संपादक नीरज चोपड़ा से उनके सेक्स जीवन और गर्लफ्रेंड के बारे में आराम से पूछ सकती हैं। 


इसके विपरीत नीरज का व्यवहार देखिए। नीरज की पारिवारिक-सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि देखिए। हरियाणा के एक गाँव से आने वाला, किसान पिता का बेटा जो सिर्फ़ हिंदी में सहज है। उसकी मानसिक दुनिया में उसका गाँव, माँ-बाप, दोस्त-रिश्तेदार और ग्राम्य संस्कारों से बसी है। वह शरीर से कहीँ भी हो मन से उसी दुनिया में रहता है। वह एक युवा, आकर्षक, अत्यंत सफल खिलाड़ी और अब अंतरराष्ट्रीय सितारा है। ऐसा नहीं कि वह नीरज यौवन और इन सब तत्वों के सम्मिलित प्रभाव से मुक्त होगा। वह ब्रह्मचर्य में दीक्षित कोई सन्यासी नहीं है। विपरीत लिंग के लिए उसके मन में कोई आकर्षण नहीं होगा यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन उसके संस्कार और व्यवहार सुंदरियों से घिरे रह कर या उनके द्वारा खुलेआम एक सेक्स प्रतीक के रूप में देखे जाने से बदलते नहीं। वह हर ऐसे सवाल को अपनी सहज शर्मीली मुस्कान के साथ, बिना क्रुद्ध या उग्र हुए टाल देता है।


एक नौजवान, सुंदर और बलिष्ठ खेल सितारे के लिए जैसा उन्मुक्त आचरण और इच्छा मलिश्का ने दिखाई वह सबको अखरा। उस वर्ग के लोगों और स्त्रियों को भी जिससे वह आती हैं। उनका और उनके साथियों का वह नाच गाना केवल एक ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता के स्वागत का उत्साह नहीं था। उसमें एक सेक्स प्रतीक के रूप में उनको देखने की मलिश्का और उनकी सहयोगियों की वर्गीय मनोवृत्ति थी। ये कन्याएं जिस भाषिक-सामाजिक और सांस्कृतिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की दिख रही थीं उसमें यौनिकता की जो जगह और सहज स्वीकार तथा प्रदर्शन है वह अंग्रेजी और अंग्रेजियत के संस्कारों से आता है। ये संस्कार और व्यवहार सीधे-सीधे उस पश्चिम की नकल है जिसकी मीडिया और मनोरंजन संस्कृति, जीवनशैली, मानसिकता, सामाजिक व्यवहार और मूल्यों  को हमारा आधुनिक युवा वर्ग परम काम्य मानकर आत्मसात कर चुका है। उसके लिए पारंपरिक भारतीय शालीनता और मर्यादा पिछड़ेपन की निशानी हैं, अनाधुनिक हैं और उस भारत की चीज़ें हैं जिनका कोई प्रवेश उनके जीवन और आंतरिक संसार में नहीं है। वे उसके आंतरिक संसार से बाहर जा चुके हैं। इनके साथ-साथ शायद कुछ नया, कुछ हंगामेदार करने की वह इच्छा भी रही होगी जो एफएम रेडियो चैनलों, फिल्म और मनोरंजन के दूसरे मंचों पर चलने वाली गलाकाटू होड़ का एक स्वाभाविक परिणाम है।


राजीव सेठी के सवाल को थोड़ा सा अलग दृष्टि से देखना होगा। नहीं जानता कि यह लिखना चाहिए कि नहीं लेकिन उनका पहला वाक्य, “कितने सुंदर नौजवान हैं आप” उनकी निजी यौनिकता की सहज अभिव्यक्ति ही दिखता है अन्यथा सामान्यतः पुरुष दूसरे पुरुषों से इस तरह बातचीत शुरू नहीं करते। लेकिन अपने खिलाड़ी जीवन और सेक्स जीवन के बीच संतुलन साधने को लेकर नीरज से पूछा गया उनका प्रश्न केवल सेठी की विशिष्ट यौनिकता से ही नहीं उपजा था हालांकि हम जानते हैं कि वैकल्पिक यौनिकताओं वाले व्यक्तियों के लिए सेक्स अतिरिक्त रूप से महत्वपूर्ण और प्रबल रूचि की चीज़ होती है। वह सवाल उसी अंग्रेजी पोषित आधुनिक मनुष्य की मानसिकता और जिज्ञासा को दर्शाता है जिसके दर्शन हमें मलिश्का के व्यवहार में होते हैं। 


दिलचस्प बात यह है कि जिस मूल काम की वजह से नीरज आज राष्ट्रीय गर्व बने हैं उस जैवलिन के खेल के बारे में, उनकी तपस्या, तकनीक, संघर्षों और अनुभवों के बारे में इन विभूतियों की जिज्ञासा नहीं थी। उनके लिए नीरज प्रथमतः एक कामना-योग्य पुरुष थे। यह भी कहा गया है कि अगर ऐसा ही आचरण किसी पुरुष ने किसी स्त्री खिलाड़ी के साथ किया होता, ऐसे प्रश्न पूछे होते तो उसका जीना हराम कर दिया गया होता। पहले तो शायद यह पूछने की हिम्मत ही नहीं होती। और भाषाओं के संसार में जीने वालों के लिए तो इस तरह की जिज्ञासाओँ को सार्वजनिक रूप से उठाना और ऐसा व्यवहार करना अकल्पनीय ही है।


मूल बात है वह सामाजिक परिघटना जिसमें हर संभव व्यक्ति और वस्तु का यौनिकीकरण लगातार व्यापक, गहरा और सामान्य के रूप में स्वीकृत होता जा रहा है। कपड़ों, फैशन, विज्ञापन, फिल्मों आदि में तो यह लगभग अनिवार्य अंग था ही अब अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी के नकलची मीडिया की दुनिया में भी प्रचलित हो चला है। लेकिन शायद इतनी ही विशाव, व्यापक और गहरी परिघटना हमारे देश में एक साथ रह रहे इन दो सामाजिक-सांस्कृतिक संसारों के बने हुए और बढ़ते जा रहे विभाजन की है जो एक औपनिवेशिक भाषा के बने रहने के कारण निर्मित हुआ है। भारत और इंडिया का यह विभाजन अगले ५०-१०० वर्षों में कैसा देश और समाज बनाएगा अभी यह कहना कठिन है।  


राहुल देव


९ सितंबर, २०२१

टीवी९भारतवर्ष में प्रकाशित लेख।




भारतीय भाषाएँ किधर जा रही हैं?

 नवनीत की आवरण कथा के लिए, सितंबर अंक में प्रकाशित।

भारतीय भाषाएँ किधर जा रही हैं?

 

भारतीय भाषाएँ किधर जा रही हैं? कैसे भविष्य की ओर अग्रसर हैं? अगले २५-५०-१०० साल बाद वे किस हाल में होंगी? 

इसका जवाब कोविड की शब्दावली और सबके ताज़े अनुभव के मुहावरे में देता हूँ।  अभी वे अंग्रेज़ी वाइरस-संक्रमण की दूसरी अवस्था में हैं।सबको कुछ-कुछ भाषिक हरारत, बदन दर्द, हल्की खाँसी जैसे लक्षण महसूस होने लगे हैं।

२५ साल बाद यानी हमारी स्वतंत्रता के १०० साल होने के समय तक ये भाषाएँ अस्पताल में पहुँच चुकी होंगी। 

५० साल में वे सघन चिकित्सा ईकाई यानी आईसीयू में होंगी।

१०० साल में वेंटीलेटर में होंगी और उन्हें कृत्रिम तरीकों से किसी तरह नाममात्र के लिए जीवित रखा जा रहा होगा। 

सारी छोटी भाषाएँ जैसे जनजातीय भाषाएँ कब की भाषा संग्रहालयों में पहुँच चुकी होंगी। उनके जीवाष्मों को कुछ सिरफिरे भाषा-प्रेमी टूटे दिलों के साथ शोध आदि करके उनकी स्मृति को जीवित रखने के प्रयास कर रहे होंगे।

वे जनपदीय भाषाएँ जिन्हें आज कई लोग गलती से बोलियाँ कहते हैं और जिनके पास बोलने 

वालों की विशाल संख्या होने के बावजूद प्रभावी राज्य संरक्षण और सांस्थानिक-सामाजिक 

समर्थन नहीं है या घट रहा है वे शायद बूढ़ों की स्मृतियों में, गीत-संगीत-साहित्य की रिकार्डिंग में 

कम से कम सुनी जा सकेंगी। लेकिन वे आज की तरह जीवन्त, धड़कती हुई जिंदा जुबानें नहीं होंगी।

इसके आगे के अनुमान लगाना व्यर्थ है। 

भाषाओं की उम्र मनुष्य की उम्र की तुलना में सैकड़ों-हज़ारों गुना लंबी होती है। इसलिए २०० साल से उनके भीतर घुसा हुआ अंग्रेज़ी का विषाणु धीमे-धीमे बढ़ता हुआ अब महसूस होने वाले लक्षण दिखाने लगा है। इस बीच उसने विकास के कई चरण पार किए हैं। 

चीन की वूहान प्रयोगशाला कोविड का उद्गम है कि नहीं इस पर तो अभी विवाद और संशय है लेकिन भारत तथा पश्चिमी उपनिेवेशवाद-साम्राज्यवाद के शिकार पूर्व-गुलाम देशों-समाजों में अंग्रेज़ी और दूसरी औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी भाषाओं की तरह इस भाषा कोविड वाइरस के उद्गम के बारे में कोई शंका नहीं है। सारा संसार जानता है। 

सवाल होगा- शरीर के कोविड की तरह क्या इसका कोई टीका तब तक नहीं आ चुका होगा? क्या पूरा इलाज करके वाइरस को मार देने या पूरी तरह बेअसर  कर देने वाली दवा तब तक ईजाद न हो चुकी होगी? 

उत्तर यह है कि टीका अस्तित्व में आ चुका है। वैसे तो वह कभी भी अनुपस्थित नहीं था। लेकिन बीमारी जब ऐसी हो जो दशकों तक बिना ऊपरी लक्षणों के रह सकती हो या जिसके लक्षण तो मौजूद हों लेकिन घर वालों और चिकित्सकों को उदासीनता, असंवेदनशीलता और अज्ञान के कारण दिखें ही नहीं तो टीकों-इलाज का होना बेमानी हो जाता है। 

दूसरे, इस विषाणु के संक्रमण की विशेषता यह है कि यह संक्रमितों को भीतर से धीरे-धीरे कमज़ोर करते हुए बाहर से सुख, आनन्द और शक्ति-सामर्थ्य का ऐसा मादक नशा देता है जैसे शराब, अफीम और उसके तमाम भाईबंद। कईयों का नशा जीवन भर नहीं उतरता, गहराता जाता है। सामूहिक नशे की इसी अवस्था के लिए मुहावरा बना है कुएँ में भाँग पड़ना। भारत दशकों से इसी नशे के कुएँ का पानी पी रहा है। उसके तलबगारों की संख्या बढ़ती ही जाती है। आखिर ज्यादातर चिकित्सक भी तो उसी का पानी पी रहे हैं। 

पहले लक्षणों को समझ लेते हैं। फिर टीके और दवा की बात समझना आसान होगा। 

वह समाज की कोई परंपरा-व्यवहार हो या बाजार का कोई उत्पाद या सेवा, कोई फसल हो या कपड़ा,  किसी भी वस्तु के अस्तित्व में बने रहने और बढ़ने के लिए दो में से कम से कम कोई एक शर्त अनिवार्य है - आवश्यकता/उपयोगिता और माँग। आवश्यकता या उपयोगिता स्वयंसिद्ध बाते हैं। माँग सच्ची भी हो सकती है और विज्ञापन-फैशन-चलन-ग्लैमर जैसे मनोवैज्ञानिक तत्वों से पैदा की हुई हो सकती है। समूचा विज्ञापन और मार्केटिंग उद्योग ज़रूरी या गैर-ज़रूरी चीज़ों को आकर्षक और वांछनीय बना कर बेचने की रणनीतियों पर ही चलता है।  यह सिद्धाँत भाषाओं पर भी लागू होता है। 

आज भारत में किन भाषाओं की माँग है? कितनी है? कौन सी ऐसी भाषा/भाषाएँ हैं जिन्हें आज का भारत माँग रहा है? 

किस भाषा की कितनी माँग है और कहाँ है यह विज्ञापनों से काफ़ी सहजता से दिख जाता है। देश के लगभग हर कस्बे में आज अंग्रेज़ी सिखाने- ‘स्पीकने’ की दूकानें या विज्ञापन मिल जाते हैं। हर भाषाई अखबार में इन संस्थानों के विज्ञापन छपते हैं? क्या हम कहीं भी कोई भारतीय भाषा सिखाने के संस्थान, विज्ञापन पाते हैं? उत्तर हम सब जानते हैं। भारत के भाषा बाज़ार में एक ही भाषा की माँग है- अंग्रेज़ी की।

देश का ग़रीब से ग़रीब अभिभावक यह समझ गया है कि उसके बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए और कुछ हो न हो अंग्रेज़ी बिलकुल अनिवार्य है। इस देश-व्यापी विराट माँग का सीधा असर प्राथमिक शिक्षा के ताज़ा आँकड़ों और कई राज्य सरकारों के निर्णयों पर दिख रहा है। प्रत्येक राज्य के आँकड़े बता रहे हैं कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में प्रवेश दर लगातार गिर रही है। विद्यालय हैं, इमारतें, बुनियादी सुविधाएँ हैं, शिक्षक हैं, शुल्क नगण्य है, पाठ्यपुस्तकें, शिक्षा सामग्री मुफ्त हैं लेकिन ग़रीब अभिभावक भी बच्चों को उनमें नहीं भेज रहे। बाकी सारे खर्चों में कटौती करके कई लाख ऐसे मान्यता-प्राप्त या मान्यता-हीन निजी विद्यालयों में ऊँचे शुल्क देकर बच्चों को भेज रहे हैं जिनके बोर्ड में अंग्रेज़ी-माध्यम लिखा होता है और प्रबंधन-शिक्षक उन्हें अपनी अंग्रज़ी माध्यम शिक्षा के बारे में प्रभावित कर लेते हैं। 

राज्य सरकारें मजबूर होकर या तो भाषा-माध्यम विद्यालय बंद कर रही हैं या उन्हें अंग्रेज़ी-माध्यम में बदल कर छात्रों को आकर्षित करने की कोशिश कर रही हैं। प्राथमिक शिक्षा के सबसे ताज़ा आँकड़े आज की स्थिति और भविष्य के रुझानों को साफ दिखाते हैं। ये आँकड़े शिक्षा मंत्रालय के तहत ‘एकीकृत जिला शिक्षा सूचना तंत्र' (यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफर्मेशन सिस्टम फॉर एजूकेशन) से प्रति वर्ष इकट्ठा किए जाते हैं। 

वर्ष २०१९-२०२० के आँकड़े ये हैं। 

देश के एक चौथाई से अधिक छात्र अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ रहे हैं- २६%। सबसे बड़ा माध्यम अब भी हिंदी है, ४२ % लेकिन सबसे तेज़ी से बढ़ती हुई माध्यम भाषा अंग्रेज़ी है। वर्ष २००३ से २०११ के आठ सालों में अंग्रेज़ी माध्यम में २७४% की वृद्धि हुई। हिंदी अकेली भाषा थी सभी भारतीय भाषाओं में जिसमें वार्षिक वृद्धि दर २००८-२०१३ के बीच २५% थी। इन्हीं पाँच सालों में अंग्रज़ी माध्यम की वृद्धि दर हिंदी की दोगुनी थी। बाकी सारी भाषाओं में प्राथमिक शिक्षा में प्रवेश दर में लगातार कमी आ रही थी। 

उत्तर के तीन राज्यों- हरियाणा, पंजाब और दिल्ली में अब अंग्रेज़ी माध्यम छात्र ५० % से अधिक हो गए हैं। दिल्ली में यह प्रतिशत ६० है। सबसे ऊँची छलांग लगाई है हरियाणा ने जहाँ पाँच साल में यह प्रतिशत २७.५% बढ़ कर ५० से ऊपर हो गया है। पंजाब, हिमाचल और उत्तराखंड में भी यह प्रतिशल लगातार बढ़ रहा है।  

दक्षिण के पाँच में से चार- आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में अंग्रेज़ी माध्यम का प्रतिशत आधे से कहीँ अधिक है। तेलंगाना में यह ७३.८% है, आंध्र प्रदेश लगभग ७०%, तमिलनाडु में ५७.६% और केरल में ६५%। केवल कर्नाटक ऐसा दक्षिणी राज्य है जहाँ कन्नड़ माध्यम में अब भी ५३.५% छात्र बचे हैं हालाँकि वहाँ भी उनमें तेज़ी से कमी आ रही है।

सबसे कम अंग्रेज़ी माध्यम वाले प्रदेश हैं-  प.  बंगाल (५.३%), ओडिशा (९.५%), महाराष्ट्र (५.६% ) और बिहार (१०% )। सबसे बड़े हिंदी राज्य उत्तर प्रदेश के आँकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं। 

संकेत साफ हैं। यह २०२० तक की स्थिति है। अगले १०-१५ और २० सालों में अंग्रेज़ी माध्यम का प्रतिशत और वृद्धि दर और तेज़ी से बढ़ने ही वाली है। इसलिए मान सकते हैं कि स्वतंत्रता की शताब्दी मनाते भारत में उसके कम से कम ९५% बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ रहे होंगे।

अनुभवी और वरिष्ठ शिक्षाविद बताते हैं कि बड़े शहरों के बड़े निजी विद्यालयों को छोड़ कर अधिकतर अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों के साथ ‘तथाकथित’ लगा लेना चाहिए। क्योंकि सच्चाई यह है कि इनमें सारा वातावरण, स्वयं शिक्षक और अधिकांश पढ़ाई स्थानीय भाषा में ही होती है। केवल पाठ्यपुस्तकें आदि अंग्रेज़ी की होती हैं। निम्न तथा निम्न मध्यवर्गीय घरों से आने वाले इन लगभग सारे बच्चों के लिए अंग्रेज़ी एक बेहद कठिन और अजनबी भाषा होती है। स्वयं शिक्षकों की अपनी शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि भी अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत की नहीं स्थानीय भाषा-संस्कृति की होती है। 

परिणाम यह होता है कि दोनों का ज़ोर पाठों की रटने-रटाने पर होता है। विभिन्न विषयों की बच्चों की समझ का संवेगात्मक विकास अवरुद्ध हो जाता है, समझ कच्ची और सतही रहती है। वे न अपनी परिचित घर की भाषा के रहते हैं न अंग्रेज़ी के। अध्ययनों ने बताया है कि बचपन की यह शैक्षिक-संवेगात्मक कमी सारा जीवन बनी रहती है। बिरले ही छात्र इससे निकल पाते हैं। इसका प्रभाव न केवल उनकी शैक्षिक उपलब्धि और अधिगम पर पड़ता है बल्कि आत्म-छवि, आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास पर भी गहरा पड़ता है।

दिल्ली विवि में शिक्षा की प्रोफेसर अनीता रामपाल कहती हैं कि समस्या माध्यम की नहीं शिक्षण के तरीकों की है। ठीक से पढ़ाया जाए तो अंग्रेज़ी को केवल एक विषय के रूप में पढ़ने वाले बच्चे उसमें दक्षता प्राप्त कर लेते हैं। “हमने दिल्ली में एक अध्ययन मेें पाया कि एक ऐसे विद्यालय में जहाँ भाषाएँ अच्छे तरीके से सिखायी जाती थीं,  पहले पाँच साल हिंदी माध्यम में  पढ़ने वाले बच्चों ने बाद में स्वतंत्र-मौलिक चिंतन और हिंदी तथा अंग्रज़ी दोनों में रचनात्मक लेखन की बेहतर क्षमता दिखाई। 

इस तरह के प्रयोग और अध्ययन पूरे भारत और संसार भर में हुए हैं। तीन दशकों से वैश्विक अध्ययनों और अनुभव के आधार पर यूनेस्को और शिक्षाविद प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा-स्थानीय भाषा की निर्विवाद श्रेष्ठता को प्रमाणित कर रहे हैं, उसे प्रोत्साहित कर रहे हैं। अनुभव और अध्ययन सिर्फ यही नहीं बताते। भारत के हर शिक्षित घर में हर अभिभावक जानता है कि एक बार पराई लेकिन सामाजिक-शैक्षिक-आर्थिक वर्चस्वशाली वाली अंग्रेज़ी में शुरू से पढ़ लेने के बाद, चाहे वह पढ़ाई कितनी ही घटिया हो, कोई बच्चा अपनी भाषा का नहीं रहता। अपनी भाषा और उसके संसार, उसके बरतने वालों से उसका मनोवैज्ञानिक-भावात्मक रिश्ता बहुत गहरे ढंग से बदल जाता है, बिगड़ जाता है। यह अनुभव भी वैश्विक है। सारे पूर्व-उपनिवेश देशों-समाजों में पाया जाता है। 

आधुनिक बड़ी भारतीय भाषाओं पर पिछले लगभग दो हज़ार सालों में तीन तरह के प्रभाव पड़े हैं- संस्कृतीकरण, फिर फ़ारसीकरण और अंत में अंग्रेज़ीकरण। संस्कृत के प्रभाव ने उन्हें समृद्ध किया, दूसरे यानी मुगल प्रभाव ने  पहले “तलवार के जरिए अपनी इस्लामी विजयों और धर्मपरिवर्तन के माध्यम से फारसी-अरबी पद्य और गद्य को फैलाया लेकिन वे यहीं बस गए और घुल-मिल गए। उन्होंने मूल भारतीय भाषाओं के प्रभावित तो किया लेकिन नष्ट नहीं किया, राज्य फारसी-अरबी में किया लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में उन्हें विस्थापित न कर सके। भारतीय पारंपरिक शिक्षा से छेड़छाड़ नहीं की। १००० साल में भारत ने एक विशिष्ट भाषिक सहअस्तित्व को साध लिया। उसकी आधारभूत सांस्कृतिक-सामाजिक निरंतरता बनी रही।

लेकिन हम जानते हैं अंग्रेज़ीकरण की तीसरी प्रक्रिया के तहत अंग्रज़ों ने सोच समझ कर, खूब विमर्श करते हुए २०० से ज्यादा सालों में जैसे गहरे, आधारभूत सामूहिक चेतना के स्तर पर भारतीय मानस और आत्म-बोध को आहत किया है, उसे पराया बनाया है वह भारत के आकार, इतिहास, साभ्यतिक संपदा और उपलब्धियों की ऊँचाई को देखते हुए विश्व इतिहास में अद्वितीय है। अंग्रेज़ी भी पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार और फिर ब्रिटिश राज के सहारे आई थी और दोनों संदर्भों में उसके साथ-साथ ‘अज्ञान, अंधविश्वास और असभ्यता में डूबे भारतीयों को ईसाईयत के प्रकाश, नैतिक-धार्मिक शिक्षा तथा पश्चिमी ज्ञान के सहारे सभ्य बनाने' का मिशन लंबे समय तक चलता रहा। 

हर औपनिवेशिक, साम्राज्यवादी शक्ति ने अपने तरीके से विजित देशों के इतिहास, परंपराओं, समाजों, भाषाओं, व्यवस्थाओं को प्रभावित, विकृत किया है। लेकिन विचित्र बात यह है कि औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के बाद भी बहुत से देश-समाज पुराने शासकों द्वारा थोपे गए व्यवहारों, चिंतन पद्धतियों और व्यवस्थाओं से खुद को पूरी तरह मुक्त नहीं करते, उन्हें ढोते रहते हैं। लंबा औपनिवेशिक अनुभव उनका ऐसा मनोवैज्ञानिक अनुकूलन कर देता है कि वे अपने मूल स्वरूप, चरित्र, आत्मबोध और चिंतन सरणियों पर लौट नहीं पाते, अपना पुनराविष्कार नहीं कर पाते। 

भारत के साथ भाषा, शिक्षा, राज्य व्यवस्थाओं के मामले में यह मनोविज्ञान आज भी पूरी तरह जारी दिखता है। नतीजन, संसार भर के शैक्षिक-भाषिक अनुभव और सर्वानुमति के बावजूद, संविधान के भाषा संबंधी प्रावधानों के बुनियादी अभिप्राय के बावजूद अंग्रेज़ी राष्ट्रीय जीवन के हर अंग पर न केवल हावी बनी हुई है बल्कि उसकी हमारे मानस तथा व्यवस्थाओं पर जकड़ और मज़बूत होती जाती है। 

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का दस्तावेज बताता है कि भारतीय राज्य अब इस खतरे के प्रति जागरूक हुआ है। यह नीति भारत को भारत बनाए रखते हुए विश्व में अग्रणी और समर्थ बनाने, सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में हर स्तर और विषय की उत्कृष्ट शिक्षा को संभव बनाने का लक्ष्य सामने रख कर बनाई गई है। शिक्षा में भाषाओं की केंद्रिकता और हमारी सभी भाषाओं के माध्यम से उच्चतर शिक्षा ग्रहण करने का अवसर हर विद्यार्थी को देने की इच्छा रखती है। 

इस शिक्षा नीति का निरपवाद, संपूर्ण और ईमानदार क्रियान्वयन हुआ तो न केवल भारतीय भाषाओं को हम बचा सकेंगे बल्कि केवल १०% अंग्रेज़ी संपन्न लोगों के लिए ही नहीं भारतीय भाषाएँ बोलने-जीने वाले ९०% भारतीय युवाओं के लिए उन्नति और रोज़गार के द्वार खोल सकेंगे। हर विकसित देश ने अपना सारा विकास अपनी भाषाओं में ही किया है। हम भी कर सकते हैं। यही अंग्रेज़ी-मोह के वाइरस का टीका है। इसे देश ने अपनाया और आगे बढ़ाया तो पूरा इलाज भी हो जाएगा, हम पहले से कहीं अधिक स्वस्थ, शक्तिशाली, आत्मविश्वासपूर्ण और भारतीय होने के सच्चे आत्मबोध के साथ विश्व नागरिक बन सकेंगे। 

इसमें भाषाओं की अपनी अपनी राजनीति और राजनीतिक शक्तियों द्वारा उनका संकीर्ण स्वार्थों के लिए इस्तेमाल किए जाने ने उन्हें अपने आप में और सामूहिक रूप से कमज़ोर बनाया है। स्वतंत्रता के बाद ६० के दशक से ही विभिन्न भागों में भाषा संबंधी विवाद-संघर्ष और दंगे होने लगे थे। शुरू में तो भाषा के आधार पर राज्यों के विभाजन और निर्माण ने हालात को शांत किया लेकिन इससे भारत की पारंपरिक बहुभाषिकता तथा विभिन्न भाषाओं के बीच एकता, समन्वय, बंधुता और आदान-प्रदान रुक गया। वे निरंतर एक दूसरे से दूर और प्रतिस्पर्धी होती गईँ। उनमें एक साथ मिल कर अपने साझा संकट को समझने, अंग्रेज़ी की चुनौती की गंभीरता, प्रकृति को समझ कर साथ आने, साझा मोर्चा बनाने का काम नहीं हो सका। 

इस साझा समझ और साझा मोर्चे की ज़रूरत आज पहले की अपेक्षा कई गुना अधिक है। आज यह बिलकुल स्पष्ट है कि अगर सारी भाषाओं ने प्रभाव, वर्चस्व, प्रतिष्ठा, शक्ति और प्रयोग के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों से अपने आप को अंग्रेज़ी के हाथों विस्थापित कर दिए जाने से नहीं रोका तो अगली दो से तीन पीढ़ियों में वे सब की सब हाशिए पर, अप्रासंगिक, महत्वहीन, गरीब और गरीबों की भाषाएं बन कर जिंदा रहने के लिए बाध्य होंगी। 

ऐसे लगातार कमज़ोर होते-होते कब तक ज़िंदा रह पाएँगी? भाषाएँ अशक्त और प्रयोग-प्रतिष्ठा वंचित होंगी तो ५०००-६००० वर्षों से उनमें निहित और प्रवाहित होती आई भारतीय संस्कृति, भारत बोध, भारतीयता कैसे और कितने बचेंगे? 

अपनी स्वतंत्रता के १०० वर्ष मनाता हुआ देश भारत होगा या सिर्फ इंडिया? उसके नागरिक उसकी बहुभाषी सांस्कृतिक विविधता, सुंदरता, समृद्धि के प्रतीक होंगे या मुख्यतः केवल अंग्रेज़ी पढ़ने-लिखने-बोलने-समझने और उसी में सोचने-सपने देखने वाले रूप रंग से भारतीय लेकिन, मैकॉले के प्रसिद्ध शब्दों में, “ रुचियों, विचारों, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज़”?

 

 

राहुल देव

७ अगस्त, २०२१

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

मंगलेश-क्लेश और हिंदी

 

हिंदी पर मंगलेश जी की टिप्पणी के बाद लिखी अधूरी टिप्पणी।


रात देखा कि फेसबुक पर मंगलेश डबराल जी ने अपनी बहु विवादित टिप्पणी के आखरी दो वाक्यों को हटा लिया है। इन्हीं दो वाक्यों से वाम और दक्षिण दोनों पक्षों के लोगों को और उनके मित्रों को भी आपत्ति और तकलीफ हो रही थी। 


 मूल टिप्पणी को प्रकट पढ़कर पहले तो यही लगा था कि स्वभाव से अंतर्मुखी और उदास प्रकृति के मंगलेश जी गहरे निजी अवसाद और वैचारिक नैराश्य के किसी क्षण में यह छोटी सी दर्दीली टिप्पणी लिख गए। उनके जैसे संवेदनशील और विचारवान व्यक्ति के बारे में मेरे लिए यह मानना कठिन था कि उन्होंने होशो हवास में, विचार करके यह बात लिखी है।  मेरी सीमित समझ के अनुसार वह उन व्यक्तियों में नहीं है जो केवल चर्चा में बने रहने के लिए चौंकाने वाली बातें करते-कहते-लिखते हैं।


 लेकिन अब जब उन्होंने अपनी टिप्पणी को तो रहने दिया है लेकिन अंतिम दोनों हिंदी  ग्लानि और हिंदी में जन्मने पर अफसोस वाले वाक्यों को हटा लिया है तो यह अब उतना निपट निजी दर्द से उपजी आह जैसा मासूम मामला नहीं रह जाता। उन्हें अगर दोनों वाक्यों को हटाने की जरूरत महसूस हुई तो यह भी लिखकर स्पष्ट करना चाहिए था कि पहले लिखा तो क्यों और अब हटा रहे हैं तो क्यों। 


उनकी साहित्यिक रचनात्मकता, जीवन्तता पर कोई टिप्पणी नहीं। काफ़ी हो चुकी हैं। ज्यादा महत्वपूर्ण है हिन्दी के बारे में उनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति। इसलिए कि भाषा साहित्य से कहीं ज्यादा बड़ी वस्तु है। इसलिए कि अपूर्वानन्द जी ने मंगलेश जी के दुख, पराएपन की पीड़ा को ठीक ठहराने के साथ साथ हिन्दी को लेकर जो लिखा है वह ज्यादा गंभीर है। 


पहली बड़ी और आधारभूत समस्या दोनों विद्वानों का भाषा को विचार का वाहक न मान कर स्वयं एक आत्म चेतन, विचारवान, सक्रिय कर्ता या अभिकर्ता (एजेन्ट/एजेन्सी) मानना है। क्या भाषा और भाषा बरतने वाले एक ही होते हैं? अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में क्या भाषा खुद कोई ऐसी सजीव, बुद्धियुक्त चीज होती है जो खुद कुछ सोचती है या करती है? या वह केवल अपने प्रयोग करने वालों का वैचारिक वाहन होती है। वाहन की कोई अपनी सोच नहीं होती। 


हिन्दी समाज से दोनों की परेशानी, कुंठा, निराशा समझी जा सकती है। आज के माहौल पर, कुछ लोगों-वर्गों की वैचारिक-भाषिक क्रूरता पर क्षोभ समझा जा सकता है। हालाँकि वहां यह प्रश्न भी उठेगा ही कि क्या सारे हिन्दी समाज और साहित्य में जय श्रीराम, वन्दे मातरम, मुसलमान विरोधी लेखन और नारेबाजी ही की जा रही है? क्या इनका प्रतिपक्ष भी उसी समय उसी हिन्दी में उपस्थित और सक्रिय नहीं है जिस हिन्दी पर ग्लानि हो रही है? अपनी निजी या सामूहिक अप्रासंगिकता का दर्द क्या अपने जीने और रचने की भाषा में जन्मने पर शर्म तक जा सकता है? 


आज हिन्दी समाज का वह वर्ग राजनीतिक शक्ति से संपन्न हो कर अति उग्र, अति मुखर हो रहा है जिसे 'प्रगतिशील', वामपंथी बौद्धिक वर्चस्व ने दशकों तक क्षुद्र, संकीर्ण, दकियानूसी, सांप्रदायिक घोषित करके अप्रासंगिक बना रखा था। यह वैचारिक उग्रता कई बार शाब्दिक क्रूरता, प्रतिहिंसा में प्रकट होती है। यह निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण, चिंताजनक है। 


दृष्टि की इस एकांगिता को सही कैसे ठहराया जाए? 


३० जुलाई, २०१९


बुधवार, 10 मार्च 2021

भारतीय राज्य, धर्म और संविधानः नानी पालकीवाला के बहाने कुछ सवाल

आदरणीय नीलेंद्र जी को इस विषय पर यह गोष्ठी रखने के लिए मैं साधुवाद देता हूँ।  और धन्यवाद देता हूँ कि इस विषय पर प्रस्तावना के लिए उन्होंने मुझे अवसर दिया। श्री मणिशंकर अय्यर, श्री कुमार प्रशांत, डॉक्टर आनंद कुमार का इस संगोष्ठी में स्वागत करता हूँ। 


यहाँ बहुत से अन्य विशिष्ट लोग भी उपस्थित हैं। मैं उनका भी स्वागत करता हूँ।  संख्या भले ही कम हो लेकिन यहाँ बैठे सभी लोगों की गुणवत्ता,  भागीदारी और दृष्टियाँ महत्वपूर्ण और शक्तिशाली हैं। 


याद नहीं आता कि नीलेंद्र जी को मैं कभी यह बता पाया कि नहीं कि जिन नानी पालकीवाला जी के स्मारक कार्यक्रम में हम उपस्थित हैं उनसे एक बार मिलने का सौभाग्य मुझे मिला था। मैं मुंबई में तब जनसत्ता का संपादक था। नरीमन पाइंट में हमारा कार्यालय एक्सप्रेस टावर्स में था जो  मरीन ड्राइव पर पालकीवाला जी के घर के बहुत पास था। लगभग सामने ही।  मुझे प्रसंग तो याद नहीं आ रहा लेकिन मैं किसी सिलसिले में उनसे मिलने उनके घर गया था और उनके साथ कुछ समय बिताया था। 


वह बातचीत तो अब याद नहीं,  यह लगभग 30 साल पुरानी बात है, लेकिन जो एक स्पष्ट छवि मेरी स्मृति में अंकित है वह  उनकी निजी और उनके घर की सादगी की है।  वह एक बड़ा फ़्लैट था, जैसे फ़्लैट की हम नानी पालकीवाला जैसे विराट, प्रसिद्ध व्यक्तित्व के और इतने बड़े वक़ील के घर से अपेक्षा कर सकते हैं।  लेकिन उसमें इतनी सादगी थी कि एक भी ऐसी चीज़ उनके फ़्लैट में और ख़ुद उनकी अपनी वेशभूषा में,  बातचीत में, भाषा और व्यवहार में नहीं थी जो अनावश्यक हो, प्रभाव उत्पन्न करने के लिए हो। केवल ज़रूरी, सादा, सुरुचिपूर्ण फ़र्नीचर। वैसी ही साज सज्जा जिसमें वैभव और समृद्धि की कोई झलक नहीं थी। वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था जो उनके सार्वजनिक क़द और टाटा संस के निदेशक होने के बारे में,  इतने सफल और बड़े वक़ील होने के बारे में कोई संकेत देता हो। उनके साथ थोड़ा समय बिता कर मन में यह आया कि अगर आज के आधुनिक युग में हमें संविधान,  क़ानून और उच्च प्रबंधन में कोई तपस्वी ढूँढना हो तो नानी पालकीवाला से बेहतर तपस्वी हमें नहीं मिल सकता। 


इसलिए उनकी स्मृति से जुड़े इस कार्यक्रम में शामिल होना मेरे लिए एक विशेष निजी प्रसन्नता का कारण है।  यह अवसर देने के लिए मैं नीलेंद्र जी और समिति के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। 


हमने जब यह विषय सोचा था तब अयोध्या मामले का फ़ैसला आ जाने की कोई आहट नहीं थी।  इतना ही पता था कि वह जल्दी आने वाला है, कभी भी आ सकता है। यह नहीं मालूम था कि जब हम इस विषय पर बात कर रहे होंगे तब फ़ैसला आ चुका होगा। आज लगता है इस दृष्टि से हमारा विषय चयन ठीक ही रहा। 


मैं अभी तक सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले का पूरा अध्ययन नहीं कर पाया हूँ।  हो सकता है आपमें से कुछ लोगों ने किया हो। इससे कोई भी असहमत नहीं होगा कि यह फ़ैसला समकालीन भारत के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक फैसलों में से एक है।  और जिन तीन शब्दों को हमने अपने आज के विषय के रूप में रखा है उन तीनों से यह फ़ैसला गहराई से जुड़ा हुआ है। इस समय शायद यह देश का सबसे बड़ा क़ानूनी, धार्मिक और सामाजिक प्रकरण है। 


भारतीय समाज जैसा है, बहुत लंबे समय से, जैसी उसकी प्रकृति है, जिस पृष्ठभूमि में से, जिन तरीक़ों से, जिन पूर्वप्रतिज्ञाओं, बुनियादी मान्यताओं, सभ्यतामूलक जीवन मूल्यों के आधार पर हमारी स्वतंत्रता का आंदोलन चला,  जिनके आधार पर हमारा संविधान बना और फिर हमारे राज्य का ढांचा बना उस सब में धर्म की एक विशिष्ट भारतीय परिभाषा हर जगह शामिल है। जब से भारत है तब से धर्म है। हालाँकि यह बात केवल भारत के लिए ही नहीं अधिकांश प्राचीन समाजों और सभ्यताओं के लिए कही जा सकती है। विविध सभ्यताओं के विकास के साथ ही साथ धर्म भी विकसित होता आया है। जहाँ जहाँ संगठित मनुष्य समाज है वहाँ धर्म का कोई न कोई एक रूप रहा है। कई बार तो एक से अधिक भी। 


लेकिन आज कई वर्षों से भारत में धर्म कुछ अलग ही ढंग से एक प्रमुख, प्रबल, प्रभावशाली लेकिन विवादित संस्था के रूप में उभरा है। यह विकास कुछ इस तरह से हुआ है जैसा हम अन्य लोकतंत्रों में ठीक इसी रूप में नहीं पाते। एक निजी, सामाजिक अंतरंगता में सजीव रहने वाली उपस्थिति और क्षेत्र की जगह अब वह एक संघर्ष-भूमि, संघर्ष-विषय और समस्या के रूप में हमारे सार्वजनिक-राजनीतिक जीवन में सक्रिय है। 


इसके बावजूद यह मानना चाहिए कि हमारे संविधान निर्माताओं ने, राष्ट्र निर्माण में शामिल प्रमुख लोगों ने, नए भारत के राज्यों के निर्माताओं ने जिस तरह का ढांचा बनाया,  जैसा संविधान अंगीकार किया उसने हमारी सारी सामाजिक-धार्मिक-सांप्रदायिक-वर्गीय-आर्थिक और राजनीतिक जटिलताओं तथा उलझनों के बावजूद दुनिया के दूसरे बहुत से बड़े-बड़े देशों और लोकतंत्रों की तुलना में भारत को एक ठीक-ठाक चलने वाला तथा उत्तरोत्तर आगे बढ़ने वाला प्रजातंत्र बनाया है।  समस्याएं सब जगह होती हैं , यहाँ भी हैं।  पहले भी रही हैं और आगे भी रहेंगी। लेकिन उसके बावजूद कुछ बात है कि हम न सिर्फ़ एक बने हुए हैं बल्कि लगातार धीमी  या तेज गति से बढ़ते रहे हैं। 


राज्य, धर्म और संविधान - तीनों संस्थाओं के बीच में हमारे इतिहास के हर मोड़ पर नई उलझनें,  समस्याएं और नए समीकरण उभरते रहे हैं। राज्य का जो ढांचा और उसका आदर्श व्यवहार जो हमारे प्रशासकों को अखिल भारतीय सेवाओं की लाल बहादुर शास्त्री अकादमी में पढ़ाया जाता है उस से बहुत अलग तरह का व्यावहारिक आचरण हम जीवन में देखते हैं।  जब हम राज्य की बात करें तो उसमें कम से कम मैं राजनीति को शामिल करके बात करता हूँ क्योंकि इन दोनों के बिना हम आधुनिक राज्य की कल्पना नहीं कर सकते। धर्म के बिना हम अपने समाज की कल्पना नहीं कर सकते और राजनीति के बिना हम राज्य की कल्पना नहीं कर सकते, भले ही संविधान में इसका कोई उल्लेख न हो। 


इन दोनों को चलाने वाला,  नियमित और निगमित करने वाला अगर एक ढांचा हमारे पास है तो वह एक जीवंत जीवित दस्तावेज़ के रूप में हमारा संविधान है। धर्म को लेकर भारतीय राज्य के सामने जो कठिन चुनौतियां थी वे स्वाधीनता प्राप्ति के लगभग तुरंत बाद ही सामने आ गई थीं   चाहे सोमनाथ मंदिर का मामला हो या  गोहत्या नियंत्रण का, राज्य के भीतर उच्चतम स्तर पर मतभेदों की उपस्थिति, दो अलग-अलग अलग दृष्टियों का टकराव सामने आया।  राज्य की संस्थाओं में बैठे लोगों,  संवैधानिक और शासकीय पदों पर बैठे लोगों में धर्म की भूमिका को लेकर सार्वजनिक तनाव उभरे। 


एक व्यापक रूप में हम यह मान सकते हैं कि हमारे संविधान ने आज तक हमको, हमारे राष्ट्र समाज और लोकतंत्र को एकसूत्रता दी है, आधुनिक लोकतांत्रिक ढंग से जीने, काम करने का तौर तरीका, ढांचा, एकता और निरंतरता प्रदान की है। उसको निरंतर आगे ले जाने वाला एक ऐसा मार्ग बनाया है जो अपनी तमाम अड़चनों,  ऊँच- नीच और इधर उधर निकल जाने वाली पगडंडियों के बावजूद बना हुआ है और यह सिद्ध कर चुका है कि वह हमें आगे ले जाने में समर्थ है। 


लेकिन इतना भर मान लेने से हमारा संतोष नहीं होता क्योंकि हर पीढ़ी के सामने इन तीनों संस्थाओं के बीच लगभग रोज़ ही नए तरह के सवाल, नई चुनौतियां और नए तरह के तनाव आते रहते हैं। आज हम देख रहे हैं कि ऐसे कई तीखे तनाव हमारे अपने समय और समाज में हमारे सामने मौजूद हैं। 


मैं यहाँ एक सूत्रधार और पत्रकार की भूमिका में हूँ इसलिए अपनी निजी राय न रखते हुए आपके सामने आज का परिदृश्य रख रहा हूँ। हमारे साथ तीन बहुत महत्वपूर्ण, विचारवान लोग हैं जो अपनी-अपनी समझ और दृष्टि से इन तीनों पर अपनी बात रखेंगे। 


मैं केवल अपनी एक चिंता यहाँ रखना चाहता हूँ।  यह हमारे अतीत और वर्तमान से जुड़ी तो है लेकिन उन पर टिकी नहीं है।  उसका ज़्यादा वास्ता भविष्य से है। जिस तरह के एक तनावपूर्ण भविष्य में लगभग सारा विश्व और हमारा भारत भी जाता दिख रहा है, जैसी एक ख़ास तरह की धार्मिकता और धार्मिक विमर्शों का उदय हम सब जगह देख रहे हैं, पुराने सामाजिक संतुलनों-समीकरणों, पारंपरिक मूल्यों का क्षरण देख रहे हैं वे भविष्य के प्रति ऐसी आशंकाओं को जन्म दे रहे हैं जो शायद नई तो नहीं है लेकिन नए प्रकार के संकटों की ओर संकेत करती दिखती हैं। 


अल्पसंख्यकवाद बनाम बहुसंख्यकवाद, राष्ट्रवाद बनाम कथित अराष्ट्रवाद,  परंपरा बनाम पंथनिरपेक्षता,  सवर्ण बनाम  दलित जैसे पुराने विमर्श और संघर्ष नए रूपों और तीव्रता के साथ नई खाईयों के रूप में उभर रहे हैं। तीखे हो रहे हैं।  जिस राज्य से हम तटस्थता की उम्मीद रखते हैं उसकी अपनी भूमिका कई बार संदिग्ध दिखती है। 


ऐसा नहीं कि यह केवल हमारे लोकतंत्र में है।  हम कहीं भी देखें इस तरह के तनाव किसी न किसी रूप में सब जगह दिखते हैं।  शायद अपने मूल रूप में यह प्राचीन बनाम आधुनिक के बीच का तनाव है। लेकिन नई तकनीकों, माध्यमों, वैश्विक व्यवस्थाओं ने उसे एक नई, मारक धार दे दी है। 


आज हम जहाँ खड़े हैं उसको देखते हुए अगले पचास या सौ साल बाद के भारत की यदि हम कल्पना करें तो उसमें हमें इन तीनों संस्थाओं की कैसी तस्वीर दिखती है?  मैं चाहूंगा कि हमारे आमंत्रित वक्ता इस पर प्रकाश डालें। 


इतिहास को हम अनंत दृष्टियों से देख सकते हैं। उसकी मनचाही समझ बना सकते हैं। और चूँकि हम इतिहास के किसी भी काल, अध्याय और आयाम के बारे में एक राय नहीं बना पा रहे हैं इसलिए इतिहास हमारे लिए महत्वपूर्ण सबकों से भरा होने के बावजूद बहुत उपयोगी नहीं रह गया है। लेकिन यदि हम अतीत से ज़्यादा भविष्य को समझने और उसके हिसाब से वर्तमान की भूमिका तय करने का प्रयास करें तो शायद ज़्यादा स्वस्थ और सकारात्मक विचार कर पाएंगे।  अतीत हमारे लिए आज एक भारी समस्या बना हुआ है।  इसलिए मेरा अनुरोध है कि हम अतीत में ज़्यादा जाने की बजाय अपनी दृष्टि भविष्यमुखी रखें। 


इन तीनों संस्थाओं यानी हमारे प्रातिनिधिक लोकतंत्र और उसे संचालित करने वाली संसद-विधान सभाओं, उन में बनने वाले कानूनों और उनके अधीन चलने वाले राज्य की संस्थाओं के आचरण; संविधान; और समाज तथा धर्म-  इनकी आज की भूमिका को देखते हुए कैसी चुनौतियां हमारे सामने हैं?  क्या हमें इन तीनों में ही परिवर्तनों की ज़रूरत है, पुनर्विचार की ज़रूरत है? क्या हमें कुछ नई तरह की व्यवस्थाओं- प्रणालियों की ज़रूरत है?  इस त्रिमूर्ति की प्रत्येक संस्था की भूमिका कैसी और कहाँ तक होनी चाहिए?  कहाँ नहीं होनी चाहिए?  कहाँ उसको खुला छोड़ दिया जाना चाहिए?  ये प्रश्न हमारे सामने हैं।  


क्या हम आशा कर सकते हैं कि अयोध्या प्रकरण के इस फ़ैसले से कोई स्थायी समाधान निकलेगा?  कम से कम एक विभाजक विवाद का कुछ हद तक स्थायी पटाक्षेप होगा?  


मुझे यह आशा नहीं है कि इस फ़ैसले से बहुत दूरगामी और स्थायी समाधान निकलेंगे। क्योंकि जो बुनियादी परस्पर टकराती दृष्टियाँ है और जो आधारभूत खाइयाँ हैं वे अभी बनी हुई हैं। 


दुर्भाग्य से हमारे लोकतंत्र का इतिहास यह स्पष्ट रूप से बताता है कि खाइयों को बढ़ाने से राजनीति और राजनेताओं को लाभ होता है। 70 साल का अनुभव बताता है कि किसी भी तरह की खाई-दूरी-कटुता या विभाजन, वह चाहे जातियों के बीच हो, वर्गों के बीच हो, धर्मों के बीच हो या प्रदेशों, भाषाओं के बीच, उससे फ़ायदा उठाने की प्रवृत्ति से हम अपने राजनीतिज्ञों और राज्य संस्थाओं से जुड़े लोगों को रोक नहीं सकते। ऐसी क्षमता हमारे भीतर नहीं है। क्या हमारा संविधान इसे रोक सकेगा? रोकने की ज़रूरत तो स्पष्ट है और संविधान ही एक ऐसी आशा और उपकरण हमारे पास है जिसके पास इन समस्याओं के समाधान के लिए हम जा सकते हैं।  क्या हमारे संविधान में वह सब है जो हमें बार-बार उठने वाली ऐसी समस्याओं के समाधान देगा?  या हमें वहाँ भी पुनर्विचार की, नई चीज़ों की ज़रूरत है? 


ये कुछ प्रश्न मैं अपने विद्वान वक्ताओं के सामने रखता हूँ और आशा करता हूँ कि आज कुछ नई रोशनी हमें मिलेगी। 



(१३ नवंबर, २०१९ को 'भारतीय राज्य, धर्म और संविधान' पर दिया गया प्रास्ताविक वक्तव्य। नानी पालकीवाला जन्म शताब्दी समारोह समिति द्वारा इंडियन सोसाइटी फॉर इंटरनेशनल लॉ के सभागार में आयोजित संगोष्ठी)

Rethinking Palkhivala: Centenary Commemorative Volume, edited b Maj. Gen. Nilendra Kumar में प्रकाशित। प्रकाशकः ओकब्रिज, वर्ष २०२१। Publisher - Oakbridge. 2021.