रविवार, 11 नवंबर 2007
बुद्ध चित्र
डा. रूपर्ट स्नेल की टिप्पणी
डा. रूपर्ट स्नेल की टिप्पणी हटा ली गई है। वह मेरे लेख पर उनकी निजी प्रतिक्रिया थी जिसे मैंने बिना उनसे पूछे इस चिट्ठे पर डाल दिया था। प्रतिक्रिया इतनी अच्छी थी कि मैं उनकी अनुमति का इंतज़ार न कर सका। उनसे क्षमा के अनुरोध के साथ ही आशा करता हूँ कि सम्यक् भारत को उनकी टिप्पणियाँ मिलती रहेंगी।
राहुल
गुरुवार, 1 नवंबर 2007
विश्व हिन्दी सम्मेलन एक टिप्पणी
राहुल देव
न्यूयार्क के विश्व हिन्दी सम्मेलन पर कई प्रतिक्रियाएं, टिप्पणियां, संस्मरण और रिपोर्ताज छपे हैं। वे कई तो हैं लेकिन काफी नहीं। जिस विशाल स्तर पर, जिन बड़े उद्देश्यों के साथ, जिन विराट सरकारी संसाधनों के बल पर सम्मेलन होता है उनको देखते हुए उसे मिलने वाली कवरेज और उससे पैदा होने वाला विमर्श भी व्यापक होना चाहिए। लेकिन ऐसा पिछले सम्मेलनों के बाद भी नहीं हुआ, इस आठवें के बाद भी नहीं। यह इन सम्मेलनों की एक बडी असफलता भी है और इतर असफलताओं पर टिप्पणी भी।
पहले इसी को ले लें। अखबारों, समाचार चैनलों में कवरेज की अपर्याप्तता का सीधा कारण है भारतीय समाचार जगत ने इस सम्मेलन को गंभीरता से नहीं लिया। जो रिपोर्ताज छपे वे हिंदी अखबारों, पत्रिकाओं में थे। वे भी ज्यादातर उनमें जिनके संपादक या संवाददाता सरकारी खर्च पर न्यूयार्क गए थे। नहीं लगता कि बाकी हिंदी अखबारों ने भी सम्मेलन के समाचार उतनी जगह और महत्व देकर छापे होंगे। मैं नहीं जानता कि दूसरी भाषाओं के अखबारों, पत्रिकाओं ने छापे कि नहीं। संभावना कम ही है। यही हाल अंग्रेजी मीडिया का रहा।
एक स्तर पर तो यह सीधे सीधे आयोजकों की नाकामी है। सम्मेलन के लिए कितनी, कैसे और कैसी समितियां, उप-समितियां बनीं, उनमें क्या हुआ, क्या नहीं, क्यों – इनका सविस्तार वर्णन कई ज्यादा अधिकारी और बड़े लोग कर चुके हैं। यह नाचीज़ भी दो में जगह पा गया था। वेबसाइट उप-समिति में अध्यक्ष के और मीडिया उप-समिति में सदस्य के रूप में। और यकीन मानिए मुझे आज तक नहीं मालूम मेरा चयन किसने और क्यों किया। न ही इस बारे में मेरी किसी से बात हुई।
वेबसाइट उप-समिति के कामकाज की आलोचना अभी तक देखने सुनने में नहीं मिली है तो शायद इसलिए कि उसकी रीढ़ बालेंदु दधीच थे और उन्होने इतनी बढ़िया वेबसाइट बनायी जिसमें कमी निकालना आलोचकों के लिए भी आसान नहीं रहा होगा। शायद इसलिए भी कि ढेर सारे प्रसिद्ध, तथाकथित हिन्दीसेवियों और स्वघोषित हिंदी मठाधीशों की तुलना में पिछले सात-आठ सालों से हिन्दी को सूचना प्रौद्योगिकी में और इस प्रौद्योगिकी को हिन्दी में लाने के लिए बिना किसी सरकारी, गैर-सरकारी संस्था के सहारे अकेले अपनी मेहनत और एकाग्र प्रतिभा के भरोसे बालेन्दु ने जो सचमुच की हिन्दी सेवा की है उतनी कई संस्थाओं ने मिल कर नहीं की। लेकिन वह प्रचार पाने और वाहवाही कमाने की हिन्दीवादी होड़ से दूर रहने वाला एकांत साधक है। इसलिए भी शायद किसी हिन्दी मूर्धन्य को उसकी सम्मेलन में उपस्थिति और वेबसाइट निर्माण की जिम्मेदारी दिए जाने से परेशानी नहीं हुई।
लेकिन बात मीडिया की हो रही थी। उस उप-समिति में साफ और एकाधिक बार यह सुझाव दिया गया कि कम से कम इस बार हिन्दी मीडिया के अलावा दूसरी भाषाओं के मीडिया को भी बुलाना और ले जाना चाहिए। बाकायदा सूची बनाई गई हिन्दीतर भाषाओं के संपादकों की। वे चलते तो न केवल सभी बड़े भाषायी पाठक वर्गों तक सम्मेलन की खबरें पहुँचती बल्कि सम्मेलन में उनका महत्वपूर्ण बौद्धिक योगदान भी होता। आखिर वैश्वीकरण के प्रभावों से अकेली हिन्दी नहीं सारी भाषाएं जूझ रही हैं। सबमें यह विमर्श चल रहा है। उसका लाभ हिन्दी को क्यों नहीं उठाना चाहिए?
पिछले सम्मेलनों के अनुभव के आधार पर मैंने यह भी स्पष्ट चेतावनी दी थी कि यदि हम चाहते हैं कि अमरीकी मीडिया भी इस सम्मेलन को कवर करे तो इसके लिए अलग से और भारी प्रयास करने होंगे। पोर्ट ऑफ स्पेन और लंदन सम्मेलनों का अनुभव यही था कि उन देशों के मुख्य अखबारों, चैनलों ने विश्व की दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा के विश्व सम्मेलन को कोई घास नहीं डाली थी। और इसकी सारी जिम्मेदारी सिर्फ उनकी नहीं थी। उन्हें लाने, बुलाने के प्रयास कभी ठीक से नहीं किए गए।
इस बार सम्मेलन न्यूयार्क में था, संयुक्त राष्ट्र संघ मुख्यालय में उसका उद्घाटन होना था, महासचिव बान की मून उसमें योजनानुसार अचानक शामिल होने वाले थे (विदेश मंत्रालय के अधिकारियों और विदेश राज्य मंत्री द्वारा यही संकेत बार बार दिए गए)। आज तक यही कहा जा रहा है सरकारी, छद्म सरकारी हिंदी सेवियों द्वारा कि यह सब बहुत सोच समझ कर, मेहनत और दूरदृष्टि के साथ इसी लिए किया गया था कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने की पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है। अगर ऐसा था तो हमारे सुजान, सर्वज्ञ विदेश मंत्रालय के अधिकारियों और दूतावास के लोगों को पता होना चाहिए था कि न्यूयार्क अमरीकी मीडिया की राजधानी है और वहाँ के बड़े अखबारों और चैनलों में आना न केवल अमरीका और संयुक्त राष्ट्र बल्कि पूरी दुनिया की सरकारों पर बड़ा असर डालता है। उनमें छपना, कवर किया जाना जितना महत्वपूर्ण है उतना ही कठिन भी, खासतौर पर विकासशील देशों के लोगों और कार्यक्रमों के लिए। इसलिए कुछ ज्यादा ही ठोस कोशिशों की जरूरत थी विश्व हिन्दी सम्मेलन के बारे में छपवाने की।
सुझावों के बावजूद इसके कोई प्रयास हुए इसकी कोई दूर तक खबर नहीं है। जबकि न्यूयार्क में ही साजा (साउथ एशियन जर्नलिस्ट एसोसियेशन) का मुख्यालय है और अमरीकी मीडिया में काम करने वाले दक्षिण एशियाई मूल के लगभग सभी पत्रकार इसके सदस्य हैं। खूब सक्रिय संस्था है। लगभग हर महीने ही किसी न किसी भारतीय मेहमान, लेखक, चिंतक, विषय आदि पर कार्यक्रम करती रहती है। उसके कई सदस्य न्यूयार्क के बड़े अखबारों, चैनलों में अच्छे पदों पर हैं। ठीक से बुलाया जाता तो वे आते। उनमें से शायद ही कोई तीन दिन में एक बार भी दिखा। लेकिन एक तरह से अच्छा ही हुआ। वे आते और सम्मेलन की व्यवस्था और स्तर देखते और रिपोर्ट करते तो भद ही पिटती। इन शहरों में होने वाले अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में जिन्होंने भाग लिया है वे जानते हैं कि वैश्विक स्तर के सम्मेलनों की बौद्धिक-अकादमीय तैयारी कितनी गंभीरता से की जाती है। एक सम्मेलन के खत्म होते ही अगले की तैयारी शुरू हो जाती है और सालों चलती है। खैर, जब देश में ही हिन्दी अखबारों से बाहर छपने-दिखने की जरूरत महसूस नहीं की गई तो अमरीकी मीडिया की चिंता की उम्मीद ही बेमानी है। लेकिन इससे सम्मेलन के सरकारी-अर्धसरकारी आयोजकों की गंभीरता की झलक जरूर मिलती है।
अगर सम्मेलन की विषयवस्तु, उसके कंटेंट याने वहाँ जो हुआ, जो कहा, सुना और पढ़ा गया उसकी बात करें तो उत्तर भारत के किसी भी प्रमुख शहर में होने वाले किसी हिन्दी सम्मेलन से वह ज्यादा अलग या बेहतर नहीं था। हिन्दी के काफी मूर्धन्य वहाँ थे। लेकिन जितने थे उससे ज्यादा नहीं थे। बहुत से बुलाए नहीं गए। कुछ बुलाए गए तो आए नहीं। उनके न आने के कारणों और औचित्य अनौचित्य पर टिप्पणियाँ पहले ही हो चुकी हैं। मैं उसे बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानता। सब सुपात्र सब बार नहीं जा सकते। कोई न कोई छूटता ही है। महत्वपूर्ण है जो वहाँ थे उन्होने क्या किया। उनका जाना सार्थक था कि नहीं।
सम्मेलन स्थल में प्रवेश से पहले तो हम सब न्यूयार्क में होते थे। उस होने को महसूस करते थे। इस महामहानगर की छवियाँ, ध्वनियाँ, गति, लोग, जगहें, गन्ध, हवा एक अलग और स्पष्ट अनुभव सहज ही बनाते थे। लेकिन एक बार आप अन्दर गए तो न्यूयार्क तिरोहित हो जाता था। आप कहीं भी हो सकते थे – दिल्ली, भोपाल, जयपुर, लखनऊ, इंदौर..... मंच पर वही परिचित चेहरे, भाषा, वही महाविद्यालयी पर्चे, वही सनातन विषय और वही पुरानी, परिचित बातें, भाषण। नयापन था तो सिर्फ दुनिया के दूसरे देशों से आए हिन्दी विद्वानों और हिन्दी अनुरागी बन्धुओं में। उनमें जिज्ञासा थी, उत्साह था, दर्द था। ललक थी जानने की, सुनने की, बाँटने की, कहने और सुने जाने की। उन्हीं को सबसे कम समय मिला। सबसे कम सुना गया। अंत में उन्हें कई सत्रों में यह खुल कर कहना पडा।
लेकिन सबसे बड़ा शून्य मेरी दृष्टि में था एक भी हिन्दीतर भाषाविद, साहित्यकार, विद्वान की अनुपस्थिति। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने की दिशा में बड़े मील के पत्थर के रूप में प्रचारित किए जा रहे इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र से, यूनेस्को से बहुत अच्छे, वरिष्ठ अधिकारियों को बुलाया जाना चाहिए था। उनसे हमें बहुत कुछ सीखने, जानने को मिल सकता था। न्यूयार्क और उसके आसपास इतने प्रसिद्ध, विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय हैं, थिंक टैंक हैं, साहित्यिक, बौद्धिक संस्थाएं हैं, दर्जनों विश्वप्रसिद्ध लेखक, चिंतक, भाषाविद, अकादमियाँ हैं। क्या हिन्दी को अपने विकास, वर्तमान, भविष्य़ आदि के बारे में दुनिया की दूसरी भाषाओं से, अंग्रेजी से किसी विचार-विनिमय, किसी विमर्श, जानकारी और अनुभव के किसी आदान-प्रदान की जरूरत नहीं? एक ऐसे शहर में जिसमें संसार की सभी प्रमुख संस्कृतियों, देशों, भाषाओं, विचारधाराओं, विमर्शों और विषय़ों के बीच लगभग निरंतर संवाद और साहचर्य की प्रक्रिया चलती ही रहती है, उस शहर के उस जबर्दस्त रचनात्मक, बौद्धिक ऊर्जा क्षेत्र के बीचोंबीच रहते हुए हमारी हिन्दी का कुंभ लगा लेकिन डुबकी लगायी सबने एक वैश्विक वैचारिक संगम में नहीं वही दिल्ली या भोपाल की बासी हो चली तलैया में।
किस भारतीय भाषा के इतने सारे रचनाकारों, चिंतकों, अधिकारियों, पत्रकारों, प्रेमियों को अवसर मिलता है दूसरे देश में जाकर इतने बड़े स्तर पर आयोजित सम्मेलन में अपनी ही भाषा पर केंद्रित लेकिन दूसरी भाषाओं के अनुभव से समृद्ध, एक बहुराष्ट्रीय, बहुआयामी उच्चस्तरीय विमर्श में भाग लेने का?
बहुत चर्चा होती है आजकल हिन्दी में हो रही तकनीकी प्रगति की, खासतौर पर आईटी में। इस नाचीज ने सुझाव दिया था कि हम अमरीका के ह्रदय में सम्मेलन कर रहे हैं। हमें भारत में आ चुकी और आने की इच्छा रखने वाली हर बडी आईटी कंपनी को निमंत्रित करना चाहिए सम्मेलन में शामिल होने और हिन्दी के प्रतिनिधि जगत को यह बताने के लिए कि वे हिन्दी, दूसरी भारतीय भाषाओं और संसार की दूसरी भाषाओं में, उनके लिए क्या कर रहे हैं, क्या सोच रहे हैं। हिन्दी को यह जानने की जरूरत है कि जापानी,.रूसी, फ्रेंच, चीनी, कोरियाई, अरबी, स्पैनिश आदि पर वैश्वीकरण का क्या असर पड रहा है। वे अंग्रेजी के बढते प्रभाव और प्रसार को कैसे देखती हैं, किन रणनीतियों को अपना रही हैं? इन भाषाओं में तकनीकी विकास की दशा और दिशा क्या है? उनकी सरकारें उनके लिए क्या कर रही है? गैर-सरकारी स्तर पर क्या हो रहा है? क्या हिन्दी उसके अनुभव से कुछ सीख सकती है? इस कंपनियों की इन प्रक्रियाओं में क्या भूमिका है?
माइक्रोसॉफ्ट, आईबीएम, सिस्को, ओरैकल, गूगल, याहू, डेल, एओएल, ऐपल – दुनिया की सबसे बडी ये कंपनियां अमरीकी हैं। ये सब भारतीय बाजार की मलाई खाने के लिए भारत में डेरे जमा चुकी हैं। सब दावा करती हैं कि वे भारतीय भाषाओं में काम करना चाहती हैं। कि भारत उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यह मौका था उन्हें भारत और भारतीय भाषाओं के प्रति अपनी गंभीरता साबित करने का।
भारत से आईटी मंत्रालय के लोग, सरकारी संस्थान सीडैक के लोग और बालेन्दु दधीच – इन सबने मिल कर सम्मेलन में एक प्रदर्शनी लगाई हिन्दी में सॉफ्टवेयर के नए, पुराने प्रयोगों, सुविधाओं आदि के बारे में। प्रदर्शनी अच्छी थी। छोटी थी। भारत में भी उसी आकार की होती है। लेकिन क्या उसमें कुछ विश्वस्तरीय था? क्या अच्छा नहीं होता कि हिन्दी के उस वैश्विक मंच पर आईटी के इन वैश्विक दिग्गजों को बुला कर उनमें और भारतीय विशेषज्ञों के बीच हिन्दी पर केन्द्रित विमर्श, आदान प्रदान होता, साझा शोध की दिशाएं तलाशी जातीं? उनसे हिन्दी और भारतीय भाषाओं के लिए कुछ वायदे करा लिए जाते?
सुझाया था कि हमारे आईटी मंत्री, विदेश मंत्री या विदेश सचिव – ये बिल गेट्स और दूसरी अमरीकी आईटी महाकाय विभूतियों को निजी निमंत्रण दें सम्मेलन में आने का। सोचिए इससे अच्छा क्या अवसर होता इन सबको और उनकी कंपनियों के उच्चतम स्तरों को हिन्दी से परिचित कराने का, उसके विकास से उन्हें जोडने का? ये सब जब भारत आते हैं तो प्रचार के लिए ही सही गलियों, गाँवों और झुग्गी-झोपडियों में एनजीओ-परिक्रमा करते ही करते हैं। क्योंकि कितने भी बडे हों बिल गेट्स, उनकी और इन सभी कंपनियों को भारतीय बाजार की, भारतीय प्रतिभा की और भारत सरकार के सहयोग और बडे ठेकों की जरूरत है। वे आते। या अपने बडे अधिकारियों को भेजते। लाभ हिन्दी को ही होता। ठीक से साधा जाता तो करोडों डालर की कीमत का हो सकता था। उनकी संवेदनाओं, सोच और योजनाओं में हिन्दी को शामिल करा पाते तो संभावित लाभ गणनातीत हो सकता था। शोध, सहयोग और भारतीय भाषाओं में तकनीकी विकास की नई दिशाएं खुल सकती थीं।
ऐसा कुछ नहीं हुआ। क्यों? क्योंकि जो दृश्य-अदृश्य लोग और खेमे सचमुच चीजें तय कर रहे थे, जो हमेशा तय करते हैं, उनमें न तो इस तरह के कामों के लिए जरूरी दृष्टि है, न दिलचस्पी। सुझाव मान भी लिया जाता तो उसे ठीक से अमल में लाना दूभर होता। क्योंकि वैसी मानसिक, व्यवस्थागत और तकनीकी तैयारी नहीं थी।
मूल समस्या दरअसल आयोजकों की प्रकृति, पात्रता, गंभीरता और दृष्टि की ही है। भाषाओं के संरक्षण, संवर्धन, विकास आदि में सरकार की भूमिका रहती तो जरूर है पर सीमाओं के भीतर। यह भी मान लें कि विश्व हिन्दी सम्मेलन की मूल संकल्पना के पीछे ही एक राजनयिक उद्देश्य भी रहा है, और यह भी कि वह अपने आपमें महत्वपूर्ण है, तो भी हिन्दी के विश्व भाषा के रूप में विकास आदि में सरकार की भूमिका कितनी भी महत्वपूर्ण हो सहायक/उत्प्रेरक ही हो सकती है निर्णायक नहीं।
लेकिन सरकारों की आदत के अनुरूप और हिन्दी के दुर्भाग्य से शुरू से ही विश्व हिन्दी सम्मेलन पर सरकारी वर्चस्व की ऐसी छाया पडी कि उससे वह निकल नहीं सका है। उसके विशाल आकार, विदेशों में आयोजन के लिये जरूरी प्रबंधन क्षमता, व्यवस्था और पैसे को देखते हुए सरकार का विकल्प नहीं है। हो सकता है लेकिन फिलहाल अभी नहीं है। किन्तु आरंभिक वर्षों में सरकार के पैसे और सहयोग के साथ वैचारिक और प्रबंधकीय नेतृत्व योग्यता, हिन्दी निष्ठा और दृष्टि से संपन्न लोगों के हाथ में रहा। अनंत गोपाल शेवडे, मधुकर राव चौधरी इस श्रेणी के थे। फिर धीरे धीरे सरकारीकरण पूरा हो गया। साथ में जुड गई हिन्दी की अपनी विशिष्ट राजनीति और खेमेबाजी।
आज हालत यह है कि राजनैतिक खेमेबाजी के चश्मे के अलावा कोई चश्मा नहीं बचा। कांग्रेस-यूपीए सरकार और उसकी पार्टियों के लोगों के हाथों में इस सम्मेलन की कमान होने के बाद भी आरोप लग रहे हैं कि इस पर हिंदुत्ववादी छाए रहे। कम से कम मुझे यह हिंदुत्ववादी छाया सम्मेलन की कार्रवाई पर नहीं दिखायी दी। लोग अगर भारतीय विद्या भवन को भी सांप्रदायिक और हिंदुत्ववादी मानते हैं तब तो फिर जनवादी लेखक संघ को सम्मेलन करवाने का ठेका देना चाहिए। अमरीका में भी एकाध साम्यवादी संस्था स्थानीय आयोजक के रूप में मिल ही जाती उन्हें।
एनडीए शासन के दौरान हुए सुरीनाम सम्मेलन में भी यही हुआ था लेकिन कथित सेकुलरिस्टों के साथ। क्या मुझे इसीलिए नहीं बुलाया गया? लेकिन तब भी हिन्दी की हमारी कई प्रख्यात सेकुलर विभूतियाँ सहर्ष सुरीनाम गई थीं। यह दृष्टि छोडी है, ओछी है। विश्व भाषा को शोभा नहीं देती। क्या हिन्दी पर केवल इस या उस राजनीतिक विचारधारा का कब्जा रहेगा? क्या एक घोर वामपंथी और एक घोर हिंदुत्ववादी एक साथ हिन्दी अनुरागी नहीं हो सकते? क्या वे हिन्दी के लिए एक मेज, एक मंच पर नहीं बैठ सकते? तब तो लोकतंत्र के सबसे बडे मंदिर संसद में भी उन्हें एक साथ बैठने से इंकार कर देना चाहिए। जब वहाँ बडे मुद्दों पर सौहार्द्रपूर्ण सहयोग और समन्वय राजनीतिक संघर्ष के साथ साथ चल सकते हैं तो हिन्दी के मुद्दे पर यह असहिष्णुता क्यों?
सरकारी नियंत्रण और राजनीतिक प्रभाव के बाद विश्व हिन्दी सम्मेलन की तीसरी बडीं दुर्बलता है इस पर साहित्य और साहित्यकारों का एकाधिकार। हिन्दी के भविष्य-निर्माण की सम्यक् दृष्टि तब बनेगी जब इसे साहित्यकारों से अलग किया जा सकेगा। क्षमा चाहता हूँ यह कडवी बात कहने के लिए। लेकिन हिन्दी के भूत, वर्तमान और भविष्य को केवल साहित्य के चश्में से देखने के बहुत गंभीर नुकसान हुए हैं। हिन्दी को साहित्यकारों की कम, अर्थशास्त्रियों की, वैज्ञानिकों की, तकनीकी विद्वानों की, विधि लेखकों की, उन सबकी ज्यादा जरूरत है जो आधुनिक विषयों में मौलिक चिंतन, लेखन और काम कर सकें हिन्दी के माध्यम से। जो अर्थशास्त्र, व्यावसायिक कौशल के नए क्षेत्रों, व्यापार, अभिशासन, विज्ञान, टेक्नालाजी, बाजार, प्रबंधन, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, शहरी विकास, कृषि, सुरक्षा, अंतरराराष्ट्रीय मुद्दों पर, रणनीतिक मुद्दों पर हिन्दी में मौलिक विमर्श को बना सकें, बढा सकें।
जिस समय अंग्रेजी में कमजोर होने के कारण इंजिनियरिंग के छात्र और कुंठित क्रिकेट प्रतिभाएं आत्महत्या कर रही हों; जिस समय पूरे देश में जरा सी भी शहरी हवा खा चुका हर गाँव अपने बच्चों के लिए अंग्रेजी शिक्षा माँग रहा हो; जिस समय अंग्रेजी के अप्रतिहत प्रभाव, दुर्धर्ष आकर्षण और शक्ति विस्तार के सामने हिन्दी सहित सारी भारतीय भाषाएं बौनी होती जा रही हों; जिस समय हिन्दी जैसी भरी पूरी सशक्त भाषा लगातार एक बोली बनायी जा रही हो और हिन्दी जगत इसे हिन्दी का विस्तार मान इतरा रहा हो; जिस समय शहरी बच्चों की एक पूरी पीढी देवनागरी लिपि से अपरिचित बनायी जा रही हो और हिन्दी के मूर्धन्य इसमें हिन्दी का फैलता बाजार देख रहे हों – ऐसे समय में वैश्वीकरण की वैश्विक राजधानी में हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन में इन मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं हुई। बस एक सत्र में वैश्वीकरण और हिन्दी मीडिया पर चर्चा हुई। कहते हैं ठीक ठाक हुई।
इस समय सारे संसार के भाषाविदों में सबसे चर्चित मुद्दा अंग्रेजी का वैश्विक विस्तार और अन्य भाषाओं पर उसका प्रभाव है। पश्चिमी विद्वान ही उसे हत्यारी भाषा, विध्वंसक भाषा, अकेली विश्व भाषा जैसे विशेषण दे रहे हैं। अमीर पश्चिमी देशों में अंग्रेजी के बढते प्रभाव से अपनी भाषाओं को बचाने की रणनीतियों पर गंभीर विमर्श हो रहा है। अगले 200-300 सालों में दुनिया की आधी से ज्यादा भाषाओं की मृत्यु और सारी दुनिया पर अंग्रेजी के एकछत्र राज की भविष्यवाणियाँ की जा चुकी हैं। भारत में उसकी सबसे पहले और सबसे बुरी मार हिन्दी पर पडेगी, पड रही है। इस चुनौती की प्रकृति, उसके विभिन्न आयामों, निपटने की रणनीतियों की जरूरत – इन बातों का स्पर्श भी बहुत कम हुआ सम्मेलन में। अपवाद रहे उपन्यासकार मृदुला गर्ग का भाषण और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानंद मिश्र का वक्तव्य।
मैंने अपने सत्र में एक प्रश्न रखा था सबके सामने। यह कहते हुए कि यहां जितने लोग बैठे हैं हिन्दी के लिए समर्पित, समर्थ, संपन्न् और विशिष्ट हैं। सबके सब हिन्दी के लिए, उसके कारण ही यहां सारी दुनिया से आए हैं। उस हिन्दी का भविष्य यहां बैठे एक एक व्यक्ति के घर में हर रोज लिखा जा रहा है। फिर प्रश्न रखा सबके सामने – यहाँ बैठे सभी हिन्दी प्रेमियों, हिन्दी सेवियों, हिन्दी जीवियों में से जिसके बच्चे या नाती-पोते हिन्दी के पाठक हों कृपया हाथ उठा दें।
एक भी हाथ नहीं उठा। मेरा भी नहीं।
यह विश्व भाषा हिन्दी के विश्व सम्मेलन पर फिलहाल मेरी अंतिम टिप्पणी है।
राहुल देव
1 नवंबर, 2007
मंगलवार, 23 अक्तूबर 2007
Only the Minor Languages Minister?
So the Union Human Resource Development Ministry has decided to launch a programme to salvage the minor languages of India from ‘possible extinction in the not-so-distant future’. This will be done a project christened the ‘Bharat Bhasha Vikas Yojana’. The project will be implemented by the Central Institute of Indian Languages, Mysore (CIIL). The project is for minor languages that are not covered under the Eighth Schedule of the Constitution, primarily those spoken by about 10000 or lesser number of persons. There are nearly 100 such languages. And if you are looking for languages spoken by 10000 or more speakers, the list grows to 450.
One would have felt happy and commended the ministry for such an obviously good endeavour were it not late by over half a century. One would like to know how many minor languages India and the subcontinent have already lost in the last century and under colonial rule. Has the CIIL documented the linguistic extinction that has already taken place? Nevertheless, at least the government has woken up to the need for taking ‘urgent steps to preserve the unique heritage India has in its linguistic diversity.’
The HRD Ministry is asking the Planning Commission to allocate Rs. 50 crore for it in the 11th Five Year Plan. This comes to Rs. 10 crore a year for at least 100 of these languages. The project will involve documentation of these languages, their literatures, oral traditions, historical and sociological research on scripts and orthographic conventions, typographic and design, linguistic and lexicographic research. You can guess how much money will actually get to be effectively spent on each language given the way our great and efficient bureaucracy works.
Apart from these academic reasons the Ministry has also stressed to the Commission the importance of socio-linguistic development of small and marginalized communities in our multi-lingual country. This is some progress. From looking at the issue of minor languages from an academic perspective the government has finally linked it with the social development of the communities speaking them.
I guess we will have to wait for another 50-60 years for someone in the government to see the link between language, society, culture and finally, economy. Actually, the most surprising thing is that while there is so much debate and concern about the cultural impact of globalisation, even the impact on languages has been commented upon in academic circles, there is hardly any public evidence that the Indian intelligentsia has noticed and studied the link between language and economy of a community and the way they interact with each other and other factors.
Allow me a little vanity here and say that I told the Prime Minister about it. The occasion was the infrequent but mandatory meeting of the Kendriya Hindi Samiti, the highest supervisory body for the promotion of ‘rajbhasha’ Hindi. The Prime Minister heads it, the Union Home Minister if its vice chairman. Its members include six chief ministers, six union ministers and Hindi activists, writers, journalists etc. Yours truly is a member too. So, at the last meeting I submitted to the PM that as an economist he should appreciate that besides all the literary-cultural aspects, language is an economic issue. And that it was a great pity and a surprise that no one seemed to make the connection.
Let me explain the point I made. Besides the oft-quoted digital divide, there is also a language divide. It is clear. It is visible. But we don’t seem to see it. There are the English-haves and the English-have-nots. The E-haves find all doors of growth, opportunity, prestige, access to technology, latest knowledge, know-how, upward mobility open to them if they have the talent, the inclination and the drive. The E-have-nots too have these, but to a distressingly smaller extent. They too grow but when not competing with the E-haves. Most see it. When you mention it they agree that the divide exists.
But it is not just a social reality. It is an economic one too. There is an economic cost; immense cost actually, that both the E-have-nots as well as the national economy pay. It is the opportunity cost of missed prosperity, missed entrepreneurship, missed wealth and job creation. Imagine the economic value added if both the E-haves and the E-have-nots were equal partners and collaborators in using their combined potential and talent.
Its not that economists don’t see something so obvious. They call it the Bharat-India divide. The PM himself has repeatedly stressed the consequences of the growing regional and urban-rural divide. Shankar Acharya, among the country’s policy top economists and former Chief Economic Advisor to the Government of India, has published a collection of writings titled ‘Can India grow without Bharat?’
What is this distinction but linguistic? What is this distinction but that India speaks English and Bharat its languages?
The surprise is that such perspicacity stops short of seeing the connection between economic growth and the changing dynamics of language use, language hierarchies and the relative place and power of Indian languages vis-à-vis English. I understand one of the hottest topics among linguists globally is the relentless growth of the dominance of English across countries and societies, and the possible strategies of saving the local languages. The danger before big and hitherto powerful languages like Hindi, Marathi, Malayalam, Tamil etc. is that of increasing marginalization. The smaller, minor languages face extinction, often not only at the hands of English but of dominant local languages.
The adjectives being used in academic linguist circles for English in this context across UK, Thailand, Australia, Europe, China, Pakistan, India, Sri Lanka et al. are self-explanatory – ‘killer language’, ‘destructive language’, ‘linguistic imperialism’, ‘linguicism’. Some academics have described the phenomenon as being a bigger disaster than the extinction of species of animals and plants. Here is a quote ..” Some people say it is implicated in a major human disaster, involving the destruction of linguistic and cultural diversity on a scale far larger than the parallel ecological destruction of biodiversity. English is, according to such views, a language of economic opportunity only for a few: for the rest it creates a new global mechanism for structuring inequality both between 'the west' and 'the rest' and within the populations of nonwestern countries.”
The PM, and other worthies assembled at the Hindi meeting did not respond except that that committee existed only to look at the implementation of the Constitutional mandate of promotion of Hindi as the Union’s official language.
However, do you think there’s something here worthy of the attention of the HRD Ministry and the Central Institute of Indian Languages? Is it only the 100 below-10000-speaker minor languages that need help? Who will save the so called mighty ones like the 20 on the Eighth Schedule from ongoing marginalization and possible extinction a few generations down the line? How?
Isn’t it time all major language groups in India got together and started looking for strategies and means to slow, halt and reverse the phenomenon?
Rahul Dev
October 20 2007
मंगलवार, 16 अक्तूबर 2007
India's language challenge
The issue of language is in much currency of late in India, as indeed it is in many parts of the world which are opening to globalisation. Not just any language, but the language that will take India forward, enable it to face and conquer the world in this great age of global and globalising technologies, markets, corporations, economies, services, knowledge, talent and opportunity. And the great chorus rises up, reverberating throughout the English media and its captive consuming class – it is English.
It is one sure currency the rising, shining India has that will smoothen the way of her onward march to becoming a world power. It is the key to growth, to the realisation of the dreams of the suddenly globally ambitious Indian middle class. Apart from the much feted and now feared Indian brain power, it is the educated Indian’s facility with and easy mastery of English that everyone agrees is the critical important strategic advantage India has over many other developing countries, particularly China.
Therefore, as every parent who can earn or borrow enough scrambles to send her children to an English medium school, as ‘Saint Vivekananda Public School’ and its like sprout faster than paan-shops on crowded roads, dirty lanes and in every mohalla worth its salt throughout the length and breadth of the country, as English-speaking training centres and language institutes and courses and products flood the booming vocational education and career market, increasingly shrill and strong voices ring out – make English India’s national language, promote it with all your might, let every child and her parent have access to English education at the earliest possible age, unleash her talent and thus let us all achieve our individual and national nirvana. Through English.
Anyone who dares do otherwise beware. You will be criticized, hounded, and worst of all, ridiculed. See what happened to the poor Karnataka Education Minister. He took action against some 2000 schools that were using English as the medium of instruction when they had obtained permissions to run them on the promise of having Kannada as the medium. The entire English media went after him as if he had committed treason, questioning his and his government’s wisdom, ridiculing him and all those who would still in this day be stupid enough to promote Indian languages over English, calling them jingoistic, medieval minded morons blind to the benefits of English for a globalising India. They were simply jeopardizing the future of the children of these schools. How could anyone in his senses deny them basic education in English? The pressure and ridicule brought to bear on the Karnataka government was so much that it had to reverse its decision. Why, even the West Bengal government has had to swallow its high cultural affectations and forced to have English as a medium of instruction in basic education instead of Bangla.
Now don’t get me wrong. I am not against teaching English in primary schools. I am not against the language. I am a student of English literature myself and have spent close to a decade as an English journalist. I am fully aware of the benefits of proficiency in English in a country where speaking English well and using all the mannerisms, behaviors, mores, attitudes, knowledge and access that come automatically with it give an instant comparative advantage to any individual and group. I am also aware of the comparative advantage it gives the country as a whole in all walks of life globally.
It makes me proud that some of our companies are teaching English to the Chinese and Indian teachers are teaching English in England as well as the US. The continuing string of global literary successes Indian or Indian-origin writers is a matter of justifiable pride for every Indian. The almost daily headlines of Indian companies listing on the New York Stock Exchange and the NASDAQ, taking over companies almost all over the developed world looking to win global markets and more and more Indians featuring on the lists of the rich and powerful and glamorous, and more and more Indian thinkers, academicians, scientists receiving global recognition and rewards – these are all very heartening developments.
The problem, briefly stated, is this. English is further dividing this country- socially, culturally, educationally, politically and economically. While growing numbers of English-educated young Indians get better access to knowledge, opportunities and skills important for success, it is denying these very things to over 90 % of Indians who know only their own languages. It is not English per se that is doing it. It is its status and social perceptions attached with it that are the problem. It is the exclusive and exclusivist, almost proprietary relationship English has increasingly acquired with power, access, knowledge, skills and social prestige in governance, business, academics and the professions that is the problem.
Talent, of all varieties, is born evenly distributed, knowing no boundaries of region, class, caste, economic status or language. How it blossoms, however, depends on the environment and nurturing and opportunity it receives. While it makes me happy to see English-educated urban children, including my own, marching ahead in all fields with the unbounded confidence that comes when talent and aspirations meet opportunity and enabling environment, it breaks my heart to see the terrible social disadvantage, inferiority complex, plain discrimination and not-so-subtle disdain non-English speakers suffer in their own country. Ask any Bihari student of Delhi University. She/he may be infinitely more, or equally at least, intelligent, hardworking and ambitious but she faces a daily disadvantage if she has had a largely Hindi education. There are no good books on major subjects in ‘national language’ Hindi, classroom lectures and notes are all in English – both making comprehension difficult.
It also gives them a complex. It creates barriers to social mixing, marking out the ‘bhaiyas’ and ‘behenjis’ from the ‘cool’ metro crowd. Some of these students from the great Indian language hinterland do surmount all social, educational and psychological hurdles and succeed through sheer grit and hunger for success. Please do read Shekhar Gupta about his theory and his pride on these HMTs (Hindi Medium Types). Not all, alas, are thus gifted with grit or luck.
Close your eyes, visualise the size and immensity of this country, its land, its people, its languages, its regional cultures. Think of bright, talented children taking birth all over this land, from the remote ramshackle hut to the swank metro heavens. Will all of them get the same nurturing environment, education and opportunity to realise their full potential? No. Those luck enough to receive English education will corner a hugely disproportionate share of the big opportunities. Those growing up and learning through their own languages will have to be content with second and third rate jobs, careers, businesses and opportunities.
The options are only two. One, make English the first medium of education from nursery. Let every Indian, present and future, share the same linguistic prowess and conquer the world. Two, make every child study through her/her own mother tongue or local language upto class ten, with very strong English learning alongside. Then let them choose the language after this level according to their aptitudes, needs, choice and abilities.
These children will have higher comprehension, better grasp of subjects, knowledge closer to their local cultures. They will be more rooted in their socio-cultural milieu, more in touch with their heritage and more self-confident of their Indian identity than the present products of exclusively English medium educational institutions – Indians by birth, western (largely American) by lifestyle, language, aspirations, value systems and dreams.
I recently saw a long letter a friend of my daughter had sent her. It was handwritten and touchingly affectionate. The language was Hindi. The script roman. Just as I was ruminating over the meaning and the implications of it, I chanced upon a very perceptive article by Ajit Balakrishnan, founder and CEO of rediff.com. it shocked the daylights out of me. Trust a tech visionary and an entrepreneur to see the future, at least its trends. Ajit is wondering whether the next decades will see millions of young Indians growing up using the universal English QUERTY type keyboards in computers and mobile phones for all essential written communication writing Hindi, Bangla, Marathi, Tamil etc in the roman script. Will we have poetry, short stories, novels, text books, newspapers, magazines, websites in all Indian languages in the roman script?
Think. Think of the implications for our languages, our sense of being Indians, our cultures, our literatures, our cultural text resources, the scriptures, and above all, our different scripts. Will our languages become ‘bolies’, only to be spoken in social discourse, in entertainment, in songs and Indipop, while English becomes the sole language of knowledge, growth, prosperity, power, prestige, business, science and governance.
I cannot speak for other languages, but about my beloved Hindi I make a prediction. Within the next 25 years it will become the language of the poor, the backward-the drivers, servants, the subziwallas. I hope I am wrong.
Rahul Dev
रविवार, 3 जून 2007
सबसे पहले सम्यक की परिभाषा - सम्यक यानी सत्य, शुद्ध, और सम्पूर्ण। यह परिभाषा हमारे मित्र विशाल दपोलिया ने बताई थी। उन्हें धन्यवाद। शब्दकोश की परिभाषा भी इससे बहुत अलग नहीं है। सिर्फ़ संतुलित, सुसंगत, समुचित आदि शब्द और जोड़ दें तो अर्थ पूर्ण हो जाए।
सम्यक शब्द का सबसे ज्यादा प्रयोग शायद बौद्ध और जैन परंपराओं और शास्त्रों में मिलता है जहाँ जीवन, कर्म, चिन्तन, व्यवहार, वाणी, वस्तु, स्थिति आदि के लिए संभव आदर्श और सर्वोत्तम अवस्था के लिए इसका प्रयोग किया गया है। इसी अर्थ में इसका भरपूर प्रयोग संस्कृत और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में भी होता रहा है। आज भी हो रहा है।
हमने अपनी कंपनी और अपने न्यास (foundation) का नाम भी सम्यक् रखा है। लेकिन बहुत सारे लोग, ऐसे लोग जो हिन्दी ही जानते हैं, पूछते हैं सम्यक् का मतलब क्या है। हर बार एक खरोंच लगती है भीतर। अपने भाषा दुख का एक कारण यह भी है।